समकालीन जनमत
कविता

आयुष पाण्डेय की कविताएँ मनुष्यता की बेहद सरल सतह पर जीती हैं

संध्या नवोदिता


ये ताज़गी भरी कविताएँ हैं. प्रेम में गले गले तक डूबी. विछोह में साँस रोकती. हज़ार तरह के सवाल पूछती. दुनिया के बुनियादी सवाल कितने सादे होते हैं, सीधे होते हैं. और हम हैं कि दुनिया भर के टिटिम्मे में उलझे रहते हैं. ये सारे पेंच-ओ-ख़म प्रेम की ना-मौजूदगी के कारण हैं. प्रेमी कोई जिरह नहीं करते. वे कहीं कब्ज़े नहीं करते. वे सल्तनत नहीं हथियाते, वे षडयन्त्र नहीं करते, वे हथियार नहीं इकट्ठे करते, वे युद्ध नहीं करते, वे मनुष्यता की सबसे सरल सतह पर जीते हैं.

कितना आसान है यह. लेकिन सबसे कठिन है. ये कविताएँ ऐसे ही सरल सवाल पूछती हैं – मसलन
दुनिया इतने टूटे दिलों का क्या करती होगी?
माँ के मर जाने के बाद बच्चे
किसकी छाती से चिपक कर सोते होंगे

कैसे हृदयविदारक सवाल हैं, इनका जवाब कहाँ मिलता है! हम ही एक दिन इन सवालों को पूछना बंद कर देते हैं. फिर हमारे सवाल ही कुछ और हो जाते हैं. वे किसी और ही धरातल से आते हैं. संपत्तियों और हानि लाभ की गुणा गणित इतनी बढ़ती है कि हम जल्दी ही इसे रिश्तों में बरतने लगते हैं. बस जिंदगी का खेल ख़त्म हो जाता है, फिर जीवन रस विदा होता है, हम हारे हुए लोग सूखी लड़ाईयाँ लड़ने की महारथ हासिल करते करते गणित में जीत जाते हैं और रेगिस्तान हो चुके अपने दिल को ज्यों त्यों बहलाते हैं. पर वह कहाँ मानता है! उसकी सरसता तो प्रेमी के हाथ में होती है.

इसी प्रेम के गुण ये कविताएँ निर्बाध गाती हैं. वही प्रेम जिसे हमने अब बचपना मान कर ख़ारिज कर दिया है. परिपक्वता का पहला ही लक्षण है कि प्रेम को गुण नहीं चक्कर मान लिए जाए. जिसमें फँसना मूर्खता है.

बहरहाल ये कविताएँ प्रेम के उन्हीं रास्तों का चक्कर लगाती हैं.

हिन्दी में कितना अरसा हुआ ख़ालिस हृदय की प्रेम कविताएँ पढ़े हुए. ये कविताएँ बड़ी सहजता से भीतर उतरती हैं. मार्मिक हैं. इनमें तकलीफ़ है, पीड़ा है, यातना है. पर क्या कर सकते हैं – यही तो जीवन के रंग हैं.

अपने हर भाव को सम्पूर्णता में देखने का अभ्यास करें, उसका घूँट-घूँट जियें, उसके भीतर प्रवाहित हो जायें और फिर आप ऐसे ही होंगे जैसी ये कविताएँ हैं.

इस कवि की यह ख़ास बात है कि इतनी कविताएँ पढ़कर आपका मन कहेगा बस इतनी! और कविताएँ कहाँ हैं!

कविता बुनियादी तौर पर भीतर की यात्रा है. यह प्रकट भी ऐसे ही होती है जैसे आप बस ख़ुद से बात कर रहे हों. यह ख़ुद से बात करना कब ब्रह्माण्ड से बात करना बन जाता है, कहाँ पता चलता है.
कब चाय का एक कुल्हड़ आपकी अवस्था बन जाती है, किसी की ख़ुशबू गुड़हल हो जाती है और आप कुल जमा वही बन जाते हैं जिससे आप प्रेम कर रहे होते हैं. ऐसा होता है और ये पल जादू होते हैं –

इल्म नहीं तुमको यह मोहब्बत क्या करती है लोगों का
नींद नहीं अब आती हमको केवल सपने आते हैं

मेरे बिना भी नक्श तुम्हारा मेरी ग़ज़ल में दीखेगा
ग़ज़लें सब जिंदा रहती हैं शायर सब मर जाते हैं

****
यह सांसे तेरी घर के गुड़हल जैसी है
क्या फूल नोच कर पेड़ों से खा जाती है

यह कविताएँ बहुत ही कम उम्र के कवि आयुष पांडे लिख रहे हैं. उन्होंने अभी बस ग्रेजुएशन ही पूरा किया है. उनकी कविता यात्रा ऐसे ही सुंदर तरीके से चले और उसमें सहजता बरकरार रहे।

आयुष पाण्डेय की कविताएँ

1.
दुनिया इतने टूटे दिलो का क्या करती होगी?
जो वादे पूरे नहीं किये जा सके
उनका पाप किसके माथे जाता होगा?
माँ के मर जाने के बाद बच्चे
किसकी छाती से चिपक के सोते होंगे?
जिस कवि का दिल
उसके सबसे करीबी ने तोड़ा होगा
वो अपनी आखिरी कविता सुनाने के लिए किसका दरवाज़ा खटखटाता होगा?
वो प्यारे लोग जो नफरत की आग मे
कुढ़ रहे होंगे
उनका बदला कब पूरा होता होगा?
और वो सातवीं क्लास का लड़का
क्या अब भी अपनी उस इकलौती दोस्त से
यही पूछता होगा?
क्या तुम कभी मुझसे दूर नहीं जाओगी?

2.

प्रेम क्यों अपनी पराकष्ठा पर जाके
एक तारे की तरह टूट जाना चाहता है हमेशा
क्यों करना चाहता है किसी से बिछड़ कर धरती की परिक्रमा
क्यों लांघना चाहता है दर्द की सीमा को और जलना चाहता है तेज़ आग में
प्रेम स्वयं के प्रति क्यों इतना कठोर है ?
मैंने जब जब प्रेम से इन प्रश्नों के जवाब पूछे हैं
वो लेट गया है मेरी गोदी में
और बिना कुछ कहे मुझसे
सो गया है उस बच्चे की तरह
जो पिता की मार खाने के बाद
सिसक सिसक के सो जाता है
तकिये को गिला छोड़कर
आँसुओं को बहता छोड़कर
अगले दिन सुबह उठने के लिए

3.

अक्सर मैं वाक्यों को तोड़ देता हूँ
जैसे अगर तुम मुझसे कोई वाक्य कहोगी
तो मैं उस एक वाक्य में एक शब्द चुन लूंगा
और तुम्हे याद करते हुए एक लंबे सफर में
उस एक शब्द को दोहराऊंगा
और दोहराते दोहराते वो एक शब्द
एक कविता में बदल जायेगा
और फिर जब उस लंबे सफर के बाद
मैं वो कविता तुम्हे सौप दूंगा
तुम फिर से एक वाक्य कहोगी
मगर इस बार वो पूरा वाक्य
मेरे अंदर कुछ तोड़ देगा
और अब मैं उस पूरे वाक्य को दोहराऊंगा
लेकिन इस तरह
जैसे किसी एक शब्द को दोहरा रहा हूँ
दोहराते दोहराते एक और लंबा सफर खत्म होगा
और अब मैं कविता नही लिखूंगा
सिर्फ एक शब्द लिखूंगा
वो शब्द तुम्हारा नाम होगा
और तुम मेरी कविता होगी

4.
कभी कभी अकेले बैठ के चाय पीनी चाहिए
मैंने अक्सर चखा है तो मालूम हुआ है
की किसी को याद करते हुए
चाय पीने से
चाय ज्यादा मीठी लगती है
जैसे चाय बनाने वाली दीदी ने
उसमे शक्कर नही शहद मिला दिया हो
लेकिन शहद से होठ चिपकने लगते है
और फिर आप खुद से शब्दों में नही
प्रतीकों में बात करना शूरु कर देते है
कभी कभी जब मैं ये बातें उसे बताता हूँ
जिससे अकेले होके और जिसे याद करते हुए
मैं चाय पीता आया हूँ
वो कहती है चाय पीना भी एक प्रतीक है
लेकिन उसे मालूम नही है
कि अकेले होके चाय पीना एक अवस्था है
चाय के कुल्हड़ में चाय खत्म होते होते
वो अवस्था बूढ़ी होती चली जाती है
और चाय के खत्म होते ही
होठ पर लगे शहद पर
मक्खियाँ भिनभन्नाने लगती है
प्रतीकों से मोह भंग होने लगता है
मैं खाली कुल्लड़ ना जाने किसके लिए
वही छोड़ देता हूँ
और उससे मिलने को निकल जाता हूँ
जिससे अकेला होके
मैंने एक कुल्लड़ भर चाय पी डाली
ये सोच के की कल फिर उससे अकेला होकर
दो कुल्लड़ चाय पिऊंगा
जिसमें एक उसके हिस्से जाएगी और एक मेरे
लेकिन वो कहती है कि ये भी प्रतीक है
अब उसे कौन बताए
कि ये प्रतीक नहीं अवस्था है ।

5.

कहीं दूर तक ध्यान से देखो
आँखें भर आती है
फिर मैं रोने का अभिनय करता हूँ
दूर तक ध्यान से देखते देखते
किसी दूर जा चुके
शख्स की याद भी आती है शायद
मैं रोने का अभिनय करता हूँ
अभिनय कर रहा हूँ ये जानते हुए भी
अभिनय को रोक नही पाता
उसी तरह जैसे याद को रोक नहीं पाया

6.

एक दिन ऐसा प्यार करेगा तुमसे कोई

जैसा तुमसे कभी किसी ने किया नहीं है
जैसा तुमको कभी किसी से हुआ नहीं है

उसकी एक छुअन भर से तुम मर जाओगे
और तुम्हारे मरने पर वो हँसा करेगा
दिल ही दिल मे इश्क़ करेगा पागल बनके
पूछ जो लो कि इश्क़ है क्या तो मना करेगा

आँखों के आँसू पर वो पलके रख देगा
और तुम्हारी पलकों पर वो खड़ा रहेगा
पलकें जो अपनी झुका कर झेप लीं तुमने
पलकों के पीछे से तुमपे हँसा करेगा

इतना आँसू-आँसू में घुल जाएगा वो
जितना तुम्हारी आँखों मे भी घुला नहीं है

एक दिन ऐसा प्यार करेगा तुमसे कोई
जितना तुमसे कभी किसी ने किया नहीं है
जितना तुमको कभी किसी से हुआ नहीं है

इतना प्रेम जो मन भर में ठहर ना पाए
आँखों को जो बिना बताए छलक के आये
बातें क्या कहनी थी जिसको याद ना आये
आँखें देखे और होठों को चूमता जाए

ऐसे लिपटेगा की फिर वो अलग ना होगा
कहाँ खत्म तुम कहा शुरू वो समझ ना आये
तुमसे कहेगा हम तुम कितनी बार मिले हैं
इश्क़ है लाफ़नी यही अक्सर दोहराए

ऐसी ऐसी तुमसे कहानी कहा करेगा
जो ग़ालिब की ग़ज़लों में भी लिखा नहीं है

एक दिन ऐसा प्यार करेगा तुमसे कोई
जैसा तुमसे कभी किसी ने किया नहीं है
जैसा तुमको कभी किसी से हुआ नहीं है

7.
सारे मिसरे तितली बनकर उसकी जानिब जाते हैं
कुए जाँ से आते हैं जब उसकी ख़ुशबू लाते हैं

लफ्ज़ नहीं हैं मिसरे मेरे तस्वीरो में कैद हूँ मैं
रंग छलकते है आँखों से कागज़ में घुल जाते हैं

उसके किस्से कहते लम्हा हमको अपना होश नहीं
कैसे कोई डूब ना जाये कितनी गहरी आंखे हैं

इल्म नही तुमको ये मोहब्बत क्या करती है लोगों का
नींद नहीं अब आती हमको केवल सपने आते हैं

ग़ज़लें ख़ुद को याद दिलाए रखने का एक ज़रिया है
जब वो मिलेगा हमको उससे कहनी क्या क्या बातें हैं

मेरे बिना भी नक्श तुम्हारा मेरी ग़ज़ल में दीखेगा
ग़ज़ले सब ज़िंदा रहती है शायर सब मर जाते हैं

8.

एक आधा शेर ज़बानी है पर पूरा मिसरा याद नहीं
कोई दर्द पुराना था इसमें पर दर्द का किस्सा याद नही
एक घर था जिस घर के आगे एक गुड़हल का पेड़ भी था
एक शख्श था फूल चुराता उस शख्श का चेहरा याद नही
एक रस्ता था जिस रस्ते से एक जोड़ा रोज़ गुज़रता था
उस रस्ते पर दो मोड़ भी थे , आगे का रस्ता याद नहीं
गालियाँ थीं कई और यार था एक और आवारा सी शामें थीं
तफ़रीह पे रोज़ निकलता था वो शहर वो कस्बा याद नहीं
हम कई महीने रोये थे एक दोस्त का धोखा ऐसा था
उसने ऐसा क्या बोला था क्यों था वो सदमा याद नहीं
एक बुढ़िया जिसने हमको छाती से लगा के पाला था
हम उससे लड़ते रहते थे हम क्यों थे गुस्सा याद नही
एक शख्श था जो दिल की धड़कन की ताल पे नगमें गाता था
फिर बीच जवानी में आकर वो शख्श क्यों बदला याद नही
एक बच्चा था जिसने बक्से में अपने पंख छुपाये थे
फिर रख कर एक दिन भूल गया अब यार वो बक्सा याद नहीं

9.

बैठे बैठे याद किसी की आती है
कौन है जिससे माँ की खुशबू आती है
मैं बंद करे देता हूँ सारे दरवाज़े
तू और किसी दरवाज़े से आ जाती है
तेरे रंगों से सिर्फ नहीं मैं शर्माता
मेरे कमरे की तितली तक शर्माती है
मेरे कंधो पर पौधे उगने लगते है
तू साथ ये अपने कैसे मौसम लाती है
ये साँसे तेरी घर के गुडहल जैसी हैं
क्या फूल नोच कर पेड़ों से खा जाती है
मुझको मुझसे ही बाहर जाना पड़ता है
ये इतने अंदर तक तू क्यों आ जाती है
हर बार ही क्यों दो लोग मोहब्बत करते हैं
हर बार ही दुनिया बीच में क्यों आ जाती है
ये तेरा हिज़्र आँखों में पनपी काई है
अब आँखों के तालाब से बदबू आती है

 

 

कवि आयुष पाण्डेय की कलम नई है । ये उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले का रहने वाले हैं । अपनी बारहवीं की पढ़ाई बनारस डी एल डब्लू केंद्रीय विद्यालय से पूरी की है और दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज से हिंदी में स्नातक किया है । अभी वर्तमान में दिल्ली में “कलमवाले” ग्रुप के बैनर तले युवा कवियों के लिए काव्य गोष्ठियों का आयोजन कराते हैं।

संपर्क: 7379666500

 

 

टिप्पणीकार संध्या नवोदिता । जन्मः 12 सितम्बर 1976, बरेली (उ.प्र.)
शिक्षाः रूहेलखंड विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर, एल-एल.बी.
सृजनः सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित, पत्रकारिता में रूचि, राजनीतिक विषयों पर लेखन।
सम्पर्कः 25, यमुना विहार, द्रोपदी घाट, इलाहाबाद -211014
संप्रतिः रक्षा मंत्रालय कार्यालय (इलाहाबाद) में सेवारत। 

ई-मेलः navodiita@gmail.com

 

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