समकालीन जनमत
कविता

आदर्श भूषण की कविताएँ युवा पीढ़ी की बेकली की अभिव्‍यक्ति हैं

कुमार मुकुल


लोहा पकड़कर लोहा बनने
और कपास छूकर कपास हो जाने की
अनुवांशिक अक्लमंदी से भरे हाथ
रगड़ खाते हुए भी बचे रहते हैं

आदर्श भूषण की कविताएँ युवा पीढ़ी की बेकली को अभिव्‍यक्‍त करती हैं। धर्म के नाम पर जो राजन‍ीतिक घटाटोप चारों और अंधेरा फैलाया जा रहा है उस अंधकार में फंसा बेरोजगारी का दंश झेलता युवा आखिर क्‍या करे! व्‍यर्थ के इस घटाटोप से अब वह मुक्ति‍ चाहता है और अपने श्रम और कौशल से अपना जीवन जीना चाहता है पर यह घटाटोप उसे रास्‍ता नहीं दे रहा और वह लगातार जूझ रहा इस सब से।

आडम्बरों ने गिरा दिए
घोंसले और
भव्यता को घर का नाम दिया

आदर्श की चिंताओं में हाशिए का समाज इस तरह आता है कि हम उसकी परंपरिक लहजे में उपेक्षा नहीं कर सकते। जीवन की विडंबनाओं और द्वंद्व को जिस तरह आदर्श दर्ज करते हैं कि हमारे समय के लिए उससे कन्‍नी कटाकर निकलना कठिन होगा।

युद्धों की रात कभी पूरी नहीं ठहरी
ऊषा को रक्तपात देखने आना पड़ता है

आदर्श ने जो भाषा अर्जित की है वह ध्‍यान खींचती है। पारंपरिक भाषा के शब्‍दों को नये अर्थ सौंपने की सफल कोशिश आदर्श के यहां दिखती है। आदर्श के आकलन में इतना नवोन्‍मेष है कि उसका मूल्‍यांकन करने के लिए आलोचना को भी नये औजारों की जरूरत पड़ेगी.

 

आदर्श भूषण की कविताएँ

1. किसका गुलाब

जिनका नहीं है गुलाब
जिनकी नहीं है चाँद–रात
जिनके महबूब नहीं हैं
जिनका नबी खो गया है
जिनके हिस्से का प्रेम
नहीं लिखा गया उनके हिस्से

लेकिन जो फिर भी ताकते रहेंगे गुलाब
काटते रहेंगे रात
करते रहेंगे महबूब को याद
ढूँढते रहेंगे खोया हुआ नबी
माँगते रहेंगे अपने हिस्से का प्रेम

जो करते रहेंगे विश्वास इस दुनिया पर
आज के लिए
कल के लिए

जो बीत–बीत जाएंगे
जो लौट–लौट आएंगे

जिनके होने से है
इस गुलाब में रंग और सुगंध

लेकिन जो देख नहीं सकते उनका गुलाब
जो छू नहीं सकते उनका गुलाब
जो ला नहीं सकते उनका गुलाब

एक गुलाब उनके लिए।

 

2. कौन ईश्वर

नहीं है तुम्हारी देह में
यह रुधिर जिसके वर्ण में
अब ढल रही है दिवा
और अँधेरा सालता है

रोज़ थोड़ी मर रही आबादियों में
रोज़ थोड़ी बढ़ रही आबादियों में
कैसे रहे तुम व्याप्त
इतनी भिनभिनाती आत्मश्लाघा की लेते आहूतियाँ
काटती प्रत्यंग और पालती अपनी जिह्वा
कि भूख को भी कोई एक चाहिए निलय
रहने को, सहने को
बोलने को, बाँटने को
दिन सवेरे काटने को

नहीं है प्राण तो फिर
क्यों पुकारें खोजतीं हैं
किस दिशा में और कितनी दूर हो तुम
किस कथा के सार में हो
किस गति में भ्रांत हो कि शांत हो

संबोधनों से पट रही जीवंतता के वक्र पर
और कल्प की जितनी असमांतर रेखाएं हैं
उनके अभीष्टों पर
बैठकर परिहास करते
ओ ईश्वर!
जिस अ-युक्ति से चेतना में आ गए तुम
कहो क्या कोई उपपत्ति है
तुम्हारे होने की सार्थकताओं की?

वैसे ही किसी अतर्क और अनिष्कर्ष से
नकारता हूँ सत्ताएँ तुम्हारी
जब तक तुम हो
प्रारब्धवश क्षण-क्षण क्षीण होता जाऊँगा

ओ ईश्वर!
ठग हो या बहेलिये?
स्वयं छल हो या प्रवंचना के श्राप से हो तर
जो भी हो
नहीं चाहता तुमसे उत्तर
जैसे अब तक रहे मौन
तथावत् मौन रहो
‘कौन’ रहो।

 

3. मनुष्यता की होड़

ग्रीष्म से आकुल सबसे ज़्यादा
मनुष्य ही रहा
ताप न झेला गया तो
पहले छाँव तलाशी
फिर पूरे जड़ से ही छाँव उखाड़ ली
विटप मौन में
अपनी हत्या के
मूक साक्षी बने रहे

शीत से व्यग्र सबसे ज़्यादा
मनुष्य ही रहा
ठिठुरन पीड़ापूर्ण लगी तो
पहले आग खोजी
फिर पूरी तत्परता से सब जलाकर ताप गया
जिन पशुओं के आलिंगन में रात बिताई
सुबह उनकी ही ख़ाल उधेड़कर ओढ़ने लगा

चौमास से उद्विग्न सबसे ज़्यादा
मनुष्य ही रहा
जिन वृष्टियों पर नियंत्रण नहीं रहा
उन्हें नकार दिया
बाँध बनाए और धारें मोड़ीं

गड्ढे खोदकर उनमें सीमेंट भरनेवाला भी
मनुष्य ही रहा
और
मनुष्यता के चीथड़े उड़ानेवाला भी
मनुष्य ही

मनुष्य ने मनुष्य बनना ही सीखा
ना कभी पेड़ बन पाया
ना नदी
ना मौसम
ना पशु।

 

4. लाठी भी कोई खाने की चीज़ होती है क्या?

हमारे देश में लाठियाँ कब आयीं
यह उचित प्रश्न नहीं
कहाँ से आयीं
यह भी बेहूदगी भरा सवाल होगा

लाठियाँ कैसे चलीं
कहाँ चलीं
कहाँ से कहाँ तक चलीं
क्या पाया लाठियों ने
किसने चलायीं लाठियाँ
कौन लाठियों के बल चला
ऐसे सवाल पूछे जाएँ तो बात बने

लाला लाठी खाकर शहीद हो गए
लाठी भी कोई खाने की चीज़ होती है क्या?

आज़ादी पाने के दौरान एक दौर ऐसा भी था
जब एक लाठी कलकत्ता से चम्पारण पहुँच गई थी
सत्ता की क्रूर नीतियों के ख़िलाफ़ खड़ा होने
नीलिया किसानों के साथ
वही लाठी उसी बूढ़े धोतीधारी का हाथ पकड़े
उसे साबरमती से दांडी तक पैदल ले गई

उनके परलोक सिधारने के बाद
उनकी लाठी का चलने के लिए उपयोग कम
भाँजने के लिए ज़्यादा होता आया है
कई संस्थाओं में लाठीधारी देशभक्तों के
प्रशिक्षण की व्यवस्था है

लाठियों से न साम्यवाद आने को है
न ही समाजवाद
न ही लाठियाँ घुमाकर राष्ट्रवाद का प्रशस्ति पत्र मिलने को है
लाठियाँ स्वयं साम्य कहाँ ही हैं
एक जैसी क़द काठी की लाठियाँ
सिर्फ़ प्रशासन के पास है
बाक़ी की सारी लाठियाँ जनता के हवाले
जनता से, जनता को, जनता के लिए

ऐसी लाठियों को रखा जाए संग्रहालयों में
जिनका सौभाग्य महामनाओं का टेक रहा
बच्चों की लटकी पतंगें उतारने का जो साधन बनीं
बुढ़ापे का हाथ पकड़कर जो उन्हें नदियों-हाटों तक ले गईं

बाक़ी लाठियों की जला दी जाए होली
जिन पर पीठ की चमड़ी और
फटे हुए सिरों का खून लगा है

या तोड़कर भरी पूस की रात में
अलाव में लगा दी जाएँ
ताकि कोई हलकू वापस घुटनियों में गर्दन चिपका कर
किसी जबरा से ये न पूछे
“क्यों जबरा, जाड़ा लगता है?”

हलकू अभी ज़िन्दा है
लाठियाँ भी ज़िन्दा हैं
लाठी भी कोई खाने की चीज़ होती है क्या?

 

5. कास का अवसंत

कास के फूलों-से उग आए थे दुःख
वनैले और झांखड़
पर थल के मुरझाए हुए आस्य की गोलाई को
पछुआ बयारों की सिहरन से भरते हुए

अगहनी धूप को पता था
उसकी ओर पीठ करके छिपाया जा सकता है
ठंडा पड़ता हृदय

जाते हुए शरद को सांध्यगीतों से कहा था विदा
जब वह असंदिष्ट दबे पैरों से निकल गया किसी ठौर
कौड़े जलते रहे
धुकता रहा ढूह समेटा हुआ मौसम-मौसम

सांको पर से गुजरती थी आहटें
पूरे छंद में
पूरी लय में
जीवन का पूरा संगीत बाँधे
जैसे कविता गुजरती हो

उन आहटों में कभी कोई नदी बहती थी
कभी कोई चीख उठती थी अधजगी रात की पौनाई पर
कभी बस बिलखन लगातार कई-कई पहर

दुःख झर गए
जैसे कास के फूल
लेकिन वे फिर आएंगे
ऋतुएँ जानती हैं
कास का यह अवसंत फिर आएगा

उसके बाद पीठों पर लदेगी धूप
हृदय के जमने को बचेगा अगहन-पूस
माघ तक पिघलने की आशा तलाशेगी अलाव
यह शीत भोगने को

आत्मा कठुआएगी
देह को टोह रहेगी देह की
ईहाएँ भोगेंगी अकाल अ-दिन
एक अंतिम आह को सिकुड़ेंगी नसें
मृत्यु नहीं आएगी
(मृत्यु अपने भोग का सुख किसी को नहीं देती
मुक्ति द्वार के उस पार अंधा उजाला है
जिस अंधेरे में तुम मृत्यु को तलाशते हो
वह तुम्हारा जीवन है)

सब लहकेगा क्षण-क्षण
स्मृति की कपाटों पर लपटें उग आएँगी
इस दृश्य का सूरज डूबेगा
उस दृश्य में उगता हुआ
आग ही आग
शीत ही शीत।

 

6.वे बैठे हैं

वे बैठे हैं
पलथी टिकाए
आँख गड़ाए

अपनी रोटी बाँधकर ले आए हैं
रखते हैं तुम्हारे सामने
अपने घरों के चूल्हे
आश्वासन नहीं माँगते तुमसे
माँगते हैं रोटी के बदले रोटी

अपने खेत खोदकर ले आए हैं
रखते हैं तुम्हारे सामने
अपने खेतों की मिट्टी
जिरह नहीं माँगते तुमसे
माँगते हैं मिट्टी के बदले मिट्टी

वे बैठे हैं कि
खड़ा नहीं हुआ जाता
झुकी रीढ़ लिए

नहीं लाए हल कुदाल फावड़े
चप्पलें तक नहीं लाए
दूर से आवाज़ नहीं आती थी तुम्हें
सो चले आए हैं
ख़ाली हाथ ख़ाली पैर

मुट्ठियाँ लाएँ हैं लेकिन
बुलन्द मुट्ठियाँ
अपनी छतों से देखना
आसमान की ओर लहराती मुट्ठियों को
जिनमें सदियाँ साल महीने बँधे हुए हैं

वे लड़ नहीं रहे
यह कोई युद्ध नहीं है

रोटी माँगना युद्ध नहीं होता
यदि होता है तो
इससे शर्मनाक स्थिति क्या हो सकती है कि
किसान हमारी रोटियों के लिए लड़ रहे हैं और
हम अपनी रोटियाँ तोड़ रहे हैं

क्यों?
भूख बर्दाश्त नहीं होती?
भूख बर्दाश्त करने लायक़ चीज़ है क्या!

यह न कौतुक है न आश्चर्य
जिन्हें बैठाकर उनके पाँव धोने चाहिए थे
उनपर पानी की तोपें लगा दी गईं

जिन्हें सबसे आराम से सोना चाहिए था
वे अपनी नींदें छोड़कर लाठियाँ खा रहे हैं

जिन्हें सबसे पहले सुना जाना चाहिए था
उन्हें सबसे आख़िरी क़तार में खड़ा किया गया है

वे बैठे हैं
हारे नहीं हैं

जिन्हें बाढ़ों ने नहीं हराया
सुखाड़ों ने नहीं हराया
सरकारें उन्हें हराने के भ्रम में ना रहें
उन्हें डराने के भ्रम में ना रहें

वे बैठे रहेंगे
अपनी ज़मीनें सीने से लगाकर
तुम्हें कुर्सियाँ छोड़नी होंगी
कुर्सी सीने से लगाने की चीज़ नहीं होती।

 

7. वही बचेगा

बचेगा वही
जो रचेगा
ईश्वर की तरह नहीं
मनुष्य की तरह
पत्थर बींधते
चाक घुमाते
कलम चलाते
उगाते धान
पालते हुए गर्भ में
एक नया प्राण

बचेगा —
कल्पनाओं में नहीं
स्मृतियों में
किंवदंतियों में नहीं
मानव-गान में

बचेगा लेकिन
बचता-बचाता हुआ
रोटी कमाता हुआ
ताँगे दौड़ाता हुआ
पहिया घुमाता हुआ

विधाता की तरह
दीर्घकाय भवनों के ख़ाली कमरों में
या शिलाओं की निष्प्राण भीड़ में नहीं

आदमियों के बीच
आदमियों के साथ
आदमियों की-सी ऊँचाई पर
रचता रहेगा
बचता रहेगा।

 

8. लोहा और कपास

आँतों को पता है
अपने भूखे छोड़े जाने की समय सीमा
उसके बाद वे निचुड़ती
पेट कोंच-कोंचकर ख़ुद को चबाने लगतीं हैं

आँखों को पता है
कितनी दुनिया देखने लायक़ है
उसके बाद बुढ़ापे का मोतियाबिंद चढ़ाकर
झूलती लटकती रहती हैं
उजाड़ों के धुँधलके पर गड़ी हुईं

नाकों को पता है
कटने झुकने ऊँचाई बनाए रखने की
अवसरवादिता और
अच्छा बुरा सब सूँघ जाने की
लज्जाहीन परिभाषा
उसके बाद घास और माछ के बीच
किसी महकते तोरण पर अपना घ्राण खर्चतीं हैं

चमड़ी को पता है
नीचे गुज़रती नसों की आवारा दौड़
ऊपर चढ़ाती यौवन की अनिवार्यता
उसके बाद ले पटकती हैं
लटके हुए बुढ़ापे के गलन पर

हाथों को पता है
लोहे और कपास के बीच का फ़र्क़
लोहा पकड़कर लोहा बनने
और कपास छूकर कपास हो जाने की
अनुवांशिक अक्लमंदी से भरे हाथ
रगड़ खाते हुए भी बचे रहते हैं
दुनिया बदलने की तोता चश्मी में
उसके बाद अपना बदन मलते हुए भी काँपते हैं
उम्र का लोहा कपास होते जाने पर

सारे अंगों को पता हैं
उनके निर्वाण की जगहें और वजहें
इन्हें नहीं जाना पड़ता
किसी अधजगी रात में एक दूसरे से दूर

एक लम्बी लेकिन बहुत धीमी
क्षीण होते चले जाने की प्रक्रिया
जिसमें शरीर के
ये सारे हिस्से अपनी-अपनी
आत्महत्या की कोशिशों में लगे हुए हैं

ऐसे में यह कहना भी उचित नहीं कि
बेज़रूरत के मौसमी मोह में
अपनी इस ग़रीब देह को
थाती मान लिया जाए
जब यह स्वयं एक अंतर्युद्ध में मग्न है।

 

9. ग़ायब लोग

हम अक्षर थे
मिटा दिए गए
क्योंकि लोकतांत्रिक दस्तावेज़
विकास की ओर बढ़ने के लिए
हमारा बोझ नहीं सह सकते थे

हम तब लिखे गए
जब जन गण मन लिखा जा रहा था
भाग्य विधाता दुर्भाग्यवश हमें भूल गया

हम संख्याएँ थे
जिन्हें तब गिना गया
जब कुछ लोग कम पड़ रहे थे
एक तानाशाह को
कुर्सी पर बिठाने को
बसों में भरे गए
रैलियों में ठेले गए

जोड़ा गया जब
सरकारी बाबू डकार रहे थे
घटाया गया जब
देश में निर्माण कार्य ज़ोरों पर था

हम जहाँ खड़े दिखे
अदना सा मुँह लिए
जिन पर मानो एक साइन बोर्ड लगा हो
“कार्य प्रगति पर है;
असुविधा के लिए खेद है”

हम खरपतवार थे
पूँजीवादी खलिहानों में
यूँ ही उग आए थे
हमारे लिए कीटनाशक बनाए गए
पचहत्तर योजनाएँ छिड़क छिड़क कर मारा गया

हम फटे हुए नोट थे
चिपरे सिक्के थे
चले तो चले
वरना मंदिरों, मस्जिदों के
बाहर की दीवारों पर चमकते रहे
कटोरियों में खनकते रहे

हम थे कि नहीं थे
यह भी कहना मुश्किल है
हम परायी जगहें छोड़कर
अपनी जगहों के लिए निकले थे
पहले पौ फटी
फिर पैर फटे
फिर आँत फटी
और आख़िर में
ज़मीन फटी

हम आगे बढ़ाए गए
पिछड़े लोग थे
मसानों में ज़िन्दा थे
काग़ज़ों पर ग़ायब।

 

10. गिर्दाब

जिन बच्चों ने युद्ध देखे
उन्होंने या तो बन्दूकों, युद्धपोतों,
मारक विमानों में रंग भरा
या फिर ख़ाली कर दिया उन्हें रंगों से

जिन्होंने देखी भूख
उन्होंने रोटी को काला किया
और रात को उजला

जिन्होंने देखा टूटा घर
उन्होंने बनायी ईंटें
गली मोहल्लों की दीवारों पर

जो बच्चे वंचित रहे
पारिवारिक सुख से
दुनिया लावारिस कहती रही जिन्हें
उन्होंने या तो उकेरी ममता
या देते रहे जवाबी गालियाँ

जिन्होंने जलते मकान देखे
उन्होंने पानी बनाया
जिन्होंने डूबते मकान देखे
उन्होंने नाव बनायी

जिन्होंने देखी ढलती छाँव
उन्होंने बनाए पेड़
जिन्होंने देखे सूखते गाँव
उन्होंने बनाए खेत

शैशव का कोई अपना रंग नहीं है
वह या तो सादे पन्ने को
अपनी असमर्थता से भर देता है
या फिर सम्भावना से।

 

11. आदमी का गाँव

हर आदमी के अंदर एक गाँव होता है
जो शहर नहीं होना चाहता
बाहर का भागता हुआ शहर
अंदर के गाँव को बेढंगी से छूता रहता है
जैसे उसने कभी गाँव देखा ही नहीं

शहर हो चुका आदमी
गाँव को कभी भूलता नहीं है
बस किसीसे कह नहीं पाता कि
उसका गाँव बहुत दूर होता चला गया है उससे
उसकी साँसों पर अब गाँव की धूल नहीं
शहरी कारख़ानों का धुआँ ससरता है
उसके कानों में अब मवेशियों के गले की घंटियाँ नहीं
तिगड़म भरी गाड़ियों की आवारा चिल्ल-पौं रेंगती है

हर आदमी जिसका गाँव शहर हो चुका है
उसका गाँव बौना होता चला जाएगा
अपने बाटों को मिटाते हुए
अहातों में किवाड़ें लगाते हुए
चौक पर पहरेदार बिठाते हुए

शहर को चिढ़ लगी रहती है कि
गाँव रुका हुआ है
वह बार-बार जाकर उसको टोकता है
खँगालता है खोदता है
उसके रूके हुए पर अफ़सोस प्रकट करता है
अपना बुशर्ट झाड़ता है
आँखों पर एक काला पर्दा चढ़ाता है
और दुरदुराते हुए निकल जाता है

हर आदमी जो गाँव लिए शहर होने चला आया है
वह नहीं जानता
शहरी तौर तरीक़ों की ऊटपटाँग भाषा
और आवाज़ों की उलझनें कि
यहाँ कम बोलना होता है
कम खाना होता है
कम ओढ़ना होता है
कम सोना होता है

धीरे बोलनी होती है अपनी गँवई बोली
धीरे धीरे खिसकानी होती है थाली
धीरे फटकनी होती है चादर
धीरे से माँगनी होती है नींद

ज़्यादा करनी होती है चापलूसी
ज़्यादा देना होता है धक्का भीड़ को
ज़्यादा बरतनी होती है औपचारिकता
ज़्यादा बघारनी होती है शेखी
ज़्यादा बजाने होते हैं गाल
ज़्यादा ख़र्च करनी होती है जीविका

हर आदमी जिसका गाँव किराए पर
बिताता है जीवन शहर में
एक सपना किस्तों में देखता है कि
किस्तें बरामद कर ढूँढ लेगा
गाँव तक जानेवाली सड़क

हर आदमी के अंदर का गाँव
लौटना चाहता है जहाँ से वह आया था
या उसे आना पड़ा था
आदमी भले लौटे न लौटे
गाँव लौटना चाहता है
शहर को वैसा ही छोड़कर
जो वह होना नहीं चाहता।

 

12. इसी भाषा का अन्तिम

तुमसे जिस भाषा में प्रेम किया
वह भाषा सीखनी नहीं पड़ी थी मुझे
इसी के गर्भ से जन्म लिया था
तौर-तरीक़े, जी-हुज़ूरी, कानाफूसी और काम-धँधा भी इसी भाषा ने सिखाया
इसी भाषा के पैठ से तर था जीवन का व्याकरण

लेकिन नहीं जानता था कि
इसी भाषा में बिछड़ने की भी क्रियाएँ थीं
तड़प के भी शब्द थे
फिर भी इसी भाषा ने सहूलियत दी
रहने दिया मुझे दुःख की ओर — समझने के लिए दुःख का अनुतान
और समय रहते खींच लिया बने रहने के संघर्ष में

दूसरी भाषाओं को देखता हूँ तो
सोच में पड़ जाता हूँ कि
उनमें कैसे कर पाउँगा अपने जीवन का अनुवाद —
एक भाषा में बने रहने का संघर्ष ही इतना बड़ा है कि
दूसरी भाषा को सीखने का समय ही नहीं मिल पाता

अन्ततः इसी भाषा के आघात से कोई क्रिया चुनूँगा और
चल पड़ूँगा देहलोक की भौतिकता से बाहर
फिर भी जाने की भाषा वही रहेगी
कोई तो शब्द होगा इसी भाषा का — अन्तिम की तरह दिखता हुआ

 

13. पितृ-स्मृति

तुम आओगे —
मैं जानता हूँ
या तो प्रश्नवाचक चिन्हों से पहले
या फिर विस्मयादिबोधक चिन्हों के पार

सकल रूप धर न भी आओ
सरसराती हुई हवा या खड़कते पत्तों की-सी दबी आवाज़ में
दूर आकाश में देर रात उड़ते किसी वायुयान के गुज़रने की आहट में
भात के फदकने के रव में
या जब-जब कोई पुराना स्कूटर
गर्र-गर्र करता हुआ निकलेगा पास से
तुम आओगे थोड़ा-थोड़ा इन सब में

तुम्हारे ना होने के सारे प्रतिमान भंग कर दिए हैं मैंने
तुम आओगे तो जान पाओगे
अनुपस्थितियाँ सबसे ज़्यादा चीखती हैं आसपास
दूरियों के भूगोल में तुम तक पहुँचने का रास्ता जीवन भर ढूँढना है मुझे

कोई पथ मिले ना मिले
दुनिया का तिलिस्म भले घिरता जाए
वयस की नाट्यशाला में
प्रतीक्षा का मोतियाबिंद छीन ले दृष्टि मेरी

तुम आओगे —
मैं जानता हूँ
पिता?
आह! पिता

14. खोह

तुम थी इस तरह जैसे
हवा रहती है आसपास
यक़ीन नहीं करना पड़ता कि
है या नहीं
न होने पर फेंफड़ों का बजने लगता है अलार्म
नसें चिल्लाने लगतीं हैं
ख़ून को होने लगती है कमी ऑक्सीजन की
मेरी आत्मा को ढोने वाली इस कौतुक भरी
बैलगाड़ी के बैल सींग मारने लगते हैं
अपने ही गाड़ीवान को

तुम थी इस तरह जैसे
मौसम होता है हर एक महीने के साथ
अपना रंग और दरीचा साथ लेकर आया हुआ
बुलाना नहीं पड़ता उसे
हर बीतते
कम होते हुए मौसम के बाद
थोड़ा-थोड़ा पहले ही आकर बैठा होता है
ताकि ज़्यादा राह न तकनी पड़े
उसे पता है
गर्मी में सूखे हुए को चाहिए
बारिश की एक ताज़ा झकोर
ठण्ड में ठिठुरते हुए को देखने हैं अभी
हरे पत्ते शीशम पर फिर से आए हुए

तुम थी इस तरह जैसे
मरीज़ के पास होती है दवा
उसके डॉक्टर से थोड़ी ज़्यादा
जैसे आँखों के पास होता है पानी
नदियों से थोड़ा ज़्यादा
जैसे चूल्हे के पास होती है आग
चिमनियों से थोड़ी ज़्यादा

तुम थी जैसे घासों के पास
इकट्ठी होती रहती है ओस
जैसे चकोर के पास
इकट्ठा होता रहता है चाँद
जैसे मधुमक्खियों के छत्तों के पास
इकट्ठा होता रहता है शहद

मेरा यह मान पाना ही सबसे दूभर है कि
सब कुछ चला गया है
एक ढहे हुए भीटे की ग़ायब हो चुकी मिट्टी की तरह
जो चाहिए होता है
एक जीवन को जीवन कहने के लिए

मैं यहाँ बहुत पहले ही आ गया था
जिस समय में तुम मुझे देख पा रही हो
सुन पा रही हो
मेरे होने का अन्दाज़ा लगा पा रही हो
यह मेरा समय नहीं है
मैं अपने बिछड़े हुए समय को ढूँढता
यहाँ चला आया हूँ बस
भौतिकताओं में उलझा हुआ एक शरीर पाकर
मैं बस छटपटा रहा हूँ
तुम्हारे जैसा ही एक हुलिया ओढ़े

तुम्हें आना होगा
इस बिगड़ी हुई घड़ी की सुइयों को ठीक करते हुए
वापस लौटी हुई हवा की तरह
लौटे हुए मौसम की तरह
काम करती हुई दवा की तरह
नमी की तरह
ओस की तरह
चाँदनी की तरह

मेरा शरीर
एक कवि की आत्मा का उजड़ा हुआ बसेरा है
जिसको पूरी प्रकृति चाहिए
अपनी कविता पूरी करने के लिए।

 

15. पेट और दिमाग़

एक नयी सुबह
जिसकी ओट में
एक पुरानी शाम का सूरज ढल गया है
थकी हुई लौट रही है

नयेपन में क्लांति का बिम्ब
आह! यह कैसा अन्याय

युद्धों की रात कभी पूरी नहीं ठहरी
ऊषा को रक्तपात देखने आना पड़ता है

जो दूर क्षितिज पर रक्तवर्णी व्योम
विजय के जयघोष में डूबा है
उसपर पुता ख़ून मेरे पूर्वजों का है
जिसे लेकर वह शाम किनारे चल देता है
धो नहीं पाता सदियों के निशान
वैसे ही लौटता है
सूखे शोणित व्यंजकों से भरा
छिले घुटने लिए

त्यक्त को कैसा न्याय
चाहे वह भोजन हो या शरीर

समय कफ़न बेचनेवाला प्रेत है
जिसकी दुकान में कोई घड़ी नहीं

अभाव के दुर्दिनों में
भूख और मौत कभी भी आ जाते हैं और
कभी-कभी तो साथ भी
युद्ध हमेशा हथियारों से लड़ा जाए
ऐसा सोचना एक तरह का वैचारिक संकुचन है

इस पृथ्वी पर सबसे ज़्यादा युद्ध
पेट और दिमाग़ के बीच हुए हैं।

 

(कवि आदर्श भूषण जन्म: 25 फरवरी 1996, डुमरा, जिला- सीतामढ़ी, बिहार
शिक्षा : गणित शिक्षा से स्नातकोत्तर, विज्ञान निष्णात (मास्टर्स इन साइंस), 2019 में, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
आदर्श हिन्दी के उभरते हुए कवि हैं । कथेतर गद्य लेखन में भी सक्रिय हैं । साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित.
ईमेल: adarsh.bhushan1411@gmail.com

टिप्पणीकार कुमार मुकुल जाने माने कवि और स्वतंत्र पत्रकार हैं सम्पर्क: kumarmukul07@gmail.com)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion