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सामाजिक न्याय दिवस पर अन्याय कथा

पीयूष कुमार


2007 में 20 फरवरी को UN द्वारा ‘विश्व सामाजिक न्याय दिवस’ घोषित किया गया था। हर किसी व्यक्ति को, बिना किसी भेदभाव के समान रूप से, न्याय मिल सके, यह इसका उद्देश्य है। आज 2022 में इस वर्ष की थीम है, ‘औपचारिक रोजगार के जरिए सामाजिक न्याय हासिल करना’। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया के 2 अरब लोग यानि 60 प्रतिशत नौकरीशुदा आबादी अपना जीविकोपार्जन अनौपचारिक या असंगठित रूप से करते हैं। कोविड 19 ने इस अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम कर रहे कर्मचारियों और कामगारों की स्थिति पर विशेष रूप से ध्यान दिलाया है।

भारत को ही देखें तो असंगठित कामगारों की संख्या बहुत ज्यादा है। जहां जैसा काम मिला, लोग कर रहे। शिक्षा या कौशल के मुताबिक काम का न मिलना, उचित वेतन न मिलना, काम का अस्थायित्व, जातीय व धार्मिक आधार पर घरेलू कार्यों में प्राथमिकताएं या चयन करना आदि बहुस्तरीय समस्याओं से यहां की बड़ी आबादी लगातार जूझ रही है। उसपर आर्थिक नीतियां कुछ ऐसी हैं कि आठ साल पहले गरीबों की संख्या जहां कम होती नजर आ रही थी, वापस गर्त में जा रही है। सरकारी भर्तियों में लेट लतीफी और अव्यवस्था, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का निजीकरण, भयंकर बेरोजगारी और उससे उपजे अवसाद से आज देश के 65 करोड़ युवा (18 से 35 वर्ष) गुजर रहे हैं। यह किस दिशा में जायेगा, यह कल्पना ही भयावह है। पर समस्या कुछ और भी है। राजनीति जो यह सब तय करती है, उसके प्रति उदासीनता और अमूर्त भावात्मक मुद्दों के प्रति तीव्र लगाव के कारण बेरोजगारी और तमाम बातें खराबतर होती जा रही हैं। लोकतंत्र में सत्ता के निर्णयों के प्रति समाज की ऐसी उदासीनता भारत जैसे जाति व्यवस्था वाले देश मे सामाजिक अन्याय को मजबूत ही करती है।

न्याय दिवस की जरूरत क्यों पड़ी, यह समझना मुश्किल नहीं है। लिंग, जाति, धर्म, नस्ल, विचारधारा और आर्थिक मुद्दों पर भेदभाव से सारा विश्व कहीं न कहीं प्रभावित है। जहां यह कम है, वह समाज या देश वास्तव में विकसित है। इधर हम खुद को देखें तो बहुत अफ़सोस होता है कि नैतिकता की बड़ी बातों के बावजूद हम बहुत ज्यादा अनैतिक हैं। तथ्यों के लिए राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़े देख सकते हैं, जो इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। यह तो हुई रिकॉर्डेड सामाजिक अन्याय की संख्या पर जो रिकॉर्डेड नहीं है, वह भी कम नहीं है। इसके अलावा मन और वचन में हम देखें तो हर दूसरा व्यक्ति किसी न किसी स्तर पर सामाजिक अन्याय को बढ़ाने वाली सोच रखता है और उसे क्रियान्वयन करने का प्रयास भी करता है।
दुनिया में स्त्री प्रताड़ना और यौन अपराध सबसे ज्यादा भारत मे होते हैं। जातीय प्रताड़ना का तो कहना ही क्या। दलित और आदिवासी विचारधीन कैदियों से जेलें भरी पड़ी हैं, वे कब निकल पाएंगे, कोई नहीं जानता। यह भी गौर करनेवाली बात है कि प्रताड़ना का रूप अत्यंत पीड़ादायी है। भारत मे यह प्रताड़ना अपमानजनक भाव से की जाती है, ऐसी कि देह ही नहीं, आत्मा को भी जो कुचल दे। ऐसी प्रताड़नाएं जो यहां लिखी भी नहीं जा सकतीं और सभ्य व्यक्ति सोच भी नहीं सकता। एक विशेष बात यह है कि बहुत सी प्रताड़नाएं या सामाजिक अन्याय रूढ़ियों, प्रथाओं की आड़ में जायज ठहराई जाती हैं। इससे मानवाधिकार हनन को सामाजिक स्वीकृति की ओर ले जाने का प्रयास किया जाता है और लोग प्रत्यक्षतः नहीं तो मानसिक तौर पर समर्थन करते दिख जाते हैं।
यह विचित्र है कि हम विज्ञान के माध्यम से जीवन को अधिक समझते जा रहे हैं, दुनिया मे लोकतांत्रिक प्रणालियां सक्षम हुई हैं और मनुष्य के महत्व को धर्मग्रंथों से लेकर संविधानों तक में प्रमुखता दी गयी है, पर जमीनी सच्चाई बेहद खराब है। यहां शिक्षित होने से भी मतलब नहीं है। सोशल मीडिया में ही नकारात्मक पक्षधरता के लोग लिखकर गालियां देते दिख जाते हैं। क्यों यहां की तहजीब लोगों को मनुष्य नही बना पाई, यह चिंतनीय है। जरा सी बात पर घृणा का भाव जाहिर हो ही जाता है लोगों में। यह घृणा मेंटल कंडीशनिंग से आती है जिसे समझना कठिन नहीं है। नव राजनीतिक कट्टरवाद की अफीम ने लोगों की सोच को कुंद कर दिया है। हम देख पाते हैं कि इस राजनीतिक कट्टरता के कारण लोग आपस मे बंट गए हैं, आमने सामने हो गए हैं। एक विवेकशील समाज का यह जबरदस्त विखंडन है।
महिलाओं की स्थिति, आर्थिक असमानता की बढ़ती खाई, सामाजिक रूप से कमजोर लोगों के खिलाफ अत्याचार, संसाधनों का अतिशय दोहन, आर्थिक भ्रष्टाचार, धार्मिक- जातीय विद्वेष और मानवाधिकारों के हनन संबंधी आंकड़े भयावह हैं। ऐसे में सामाजिक न्याय एक अपरिहार्य आवश्यकता है।

ऐसा नहीं है कि व्यवस्थाएं इस हेतु सक्रिय नही हैं किन्तु क्रियान्वयन तो मनुष्य ही करते हैं। और जब तक मनुष्य स्वयं तटस्थ, मानवीय और सलेक्टिव संवेदना से परे नहीं होगा, सामाजिक न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकेगी।
अपमान, संत्रास और शारीरिक कष्ट का भाव एक ही रहता है पर इसे भी लैंगिक, जातीय ढंग से महसूस किया जाता है। हम तो पीड़ाओं को नही पहचान पा रहे तो इससे उबरेंगे कैसे? दुनिया के सारे दुःख साझे ही हैं। सबके खिलाफ सबको आना ही होगा अपने अपने स्तर पर। इसलिए पहले हम अपने आसपास, घर और समाज मे तमाम भेदभावों को परे रखकर अपने मानवीय होने को विकसित करें तो दीवारों पर लिखी बातों को सार्थक कर पाएंगे।

 

[पीयूष कुमार: सह सम्पादक – ‘सर्वनाम’ पत्रिका, लेखन – कविता, समीक्षा, सिनेमा, अनुवाद और डायरी आदि विधाओं में लेखन। विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं और ऑनलाइन मंचों, पोर्टल्स आदि पर प्रकाशन। आकाशवाणी और दूरदर्शन से आलेखों का प्रसारण और वार्ता। प्रकाशन : सेमरसोत में साँझ (कविता संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित), अन्य – लोकसंस्कृति अध्येता, फोटोग्राफी (पुस्तकों और पत्रिकाओं के आवरण पृष्ठ के लिए छायांकन). संप्रति – उच्च शिक्षा विभाग, छत्तीसगढ़ शासन में सहायक प्राध्यापक (हिंदी)]

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