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भारतीय फासीवाद, पांच राज्यों का चुनाव और दलित राजनीति की जटिलता

जयप्रकाश नारायण 

पांच राज्यों के चुनाव के मध्य 16  फरवरी को  संत शिरोमणि रैदास  जयंती के दिन  भगवा लपेटे, समाजवादी चेहरा लिए, उदारवादी जनतंत्र के   प्रवक्ता और अवसरवादी तत्वों की भीड़  सीर गोवर्धन मंदिर, वाराणसी की ओर दौड़ी जा रही थी।

कोई खड़ताल बजा रहा था। कोई मत्था टेक रहा था। कोई अरदास करते हुए आशीर्वाद मांग रहा था। सबका लक्ष्य एक है, वह है बहुमूल्य वोट, जिससे जनता की आस्था का दोहन कर  सत्ता का पर्वतारोहण हो सके। दिव्य आत्मज्ञान दृष्टि वाले संत शिरोमणि रैदास इन्हें देखकर निश्चय ही मन ही मन मुस्कुरा रहे होंगे।

इस कवायद का सीधा अर्थ है, कि दलित, दमित समाज की लोकतांत्रिक राजनीति को पृष्ठभूमि में डाल कर समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व की राजनीति को चुनाव के झंडे से बाहर कर दिया जाए। साथ ही आधुनिक लोकतांत्रिक दृष्टिकोण कमजोर करके प्रतीकवादी दिशा में मोड़ दिया जाए।

खैर, जो भी है, आज हम यहां पांच राज्यों में चल रहे चुनाव के संदर्भ में दलित राजनीति के दिशाहीन होने की प्रक्रिया पर ही चर्चा करेंगे।
कुछ प्रारंभिक बातें।
1- चुनाव के समय राजनीतिक विश्लेषक व पार्टियां और प्रचार माध्यम जातियों पर चर्चा शुरू कर देते हैं। चुनाव समाप्त हो जाने के बाद जाति  विचार-विमर्श बंद हो जाता है।
2- चुनाव के समय प्रचार माध्यम या राजनीतिक दल धन व पूंजी की चुनावी भूमिका पर कोई बात नहीं करते।
3- चुनाव के दौरान राज्य और उसकी संस्थाओं के चरित्र पर  चर्चा नहीं होती।
4- चुनाव के समय राजनीतिक व्यक्तियों, नौकरशाहों आदि के जाति उत्पत्ति पर चर्चा तो होती है, लेकिन उद्योगपतियों के जाति धर्म पर कोई बात नहीं होती।
5- सत्ता में हिस्सेदारी की बात तो होती है, लेकिन पूंजी और संपदा में हिस्सेदारी पर चर्चा नहीं होती।

यह पांच बुनियादी सवाल हैं। अगर इन प्रश्नों पर राजनीतिक विचारधाराएं सचेतन दृष्टि और नीति अख्तियार नहीं करती तो निश्चय ही आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता और उसके मालिक राजनीतिक धाराओं और संगठनों को पचा कर अपना सहयोगी बना लेंगे और अंततोगत्वा उसे ऐतिहासिक रूप से अप्रासंगिक कर देंगे।

बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के बाद लोकतांत्रिक भारत के विकास की एक अवस्था में बहुजन दलित राजनीति के सबसे बड़े आर्किटेक्ट और नेता माननीय कांशीराम जी रहे हैं।

अमेरिका के ब्लैक पैंथर और 1967 के नक्सलबाड़ी विद्रोह से प्रेरणा लेकर ’70 के दशक में दलित पैंथर की रेडिकल राजनीतिक धारा अस्तित्व में आयी और दलित नौजवानों, भूमिहीन किसानों का एक अच्छा खासा हिस्सा रेडिकल राजनीति की तरफ आकर्षित हुआ था। इसके बिखरने के बाद उत्तर भारत में दलित मध्यवर्ग (जो आरक्षण के द्वारा सरकारी नौकरी-पेशा या पूंजीवादी विकास के क्रम में  दलित समाज से विखंडित होकर मध्यवर्ग बने थे) को संगठित कर कांशीराम जी ने दलित राजनीति की वैचारिकी तैयार की।

जिसे बाद में बहुजन समाज की राजनीति और सत्ता में हिस्सेदारी के स्तर पर उन्नत किया गया। जिसका नारा था, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ इस तरह राजनीतिक सूत्र गढ़ कर लोकप्रिय राजनीति  का दलित और बहुजन माॅडल खड़ा करने में माननीय काशीराम जी का बड़ा योगदान है।

इस मॉडल ने उत्तर प्रदेश में दलितों, पिछड़ों के आर्थिक रूप से थोड़ा उन्नत समूहों में राजनीतिक  आकांक्षा, आवेग और गति को जन्म दिया।

जमींदारी उन्मूलन से जो थोड़ा बहुत  भूमि सुधार हुआ था, उसने इच्छाधीन पट्टेदारों (जो मूलतः पिछड़ी जातियों से आते थे ) को ग्रामीण क्षेत्र में आर्थिक और बाद में राजनीतिक शक्ति में बदल दिया था। समाज में पिछड़ी जातियों का संख्या बल उल्लेखनीय है, जिससे बहुमतवादी लोकतंत्र में उनकी मांग और भूमिका बढ़ गयी।

बहुजन समाज पार्टी बनते ही उत्तर भारत में दलित और पिछड़ा समाज  के अंदर आर्थिक रूप से सशक्त हुए  मध्यवर्गीय तत्वों को संगठन और राजनीतिक दिशा मिल गयी। कांशीराम जी द्वारा दिये गये कई राजनीतिक नारे और सूत्र बहुत लोकप्रिय हुए। जिन्होंने उत्तर भारत सहित शेष भारत में भी अपना  वैचारिक प्रभाव डाला।

चूंकि काशीराम जी ने सत्ता को उस चाबी के रूप में पेश किया जिससे मनुष्य के जीवन के समृद्धि के सभी दरवाजे खुल जायेंगे। इसलिए आगे चलकर बहुजन समाज पार्टी वर्तमान सत्ता  राजनीति की खिलाड़ी बनकर उभरी।

इस खेल में अवसरवाद बसपा की राजनीति का  बेहतरीन कार्यनीतिक अस्त्र बन गया। काशीराम जी ने लोकतांत्रिक नैतिकता को फालतू आवरण  मानते हुए कहा, कि सत्ता की चाबी चाहे जैसे हो, हाथ में आनी चाहिए।

अब यही वह बिन्दु है, जहां  कांशीराम मॉडल के बहुजनवादी राजनीति की  संभावनाएं और उसका संकट छिपा हुआ है। इस प्रकार की कार्यनीति में विचारधारा या राजनीतिक नैतिकता का कोई मतलब नहीं होता। पूंजीवादी समाज के प्रति कोई स्वस्थ नजरिया नहीं होता। इसलिए पूंजी की सत्ता इसी तरह के अवसरवादी राजनीति को प्रमोट करती है। जिसमें  जोड़-तोड़ द्वारा सत्ता हासिल करने के खेल को प्रधान अस्त्र और लक्ष्य बना दिया गया।

इसलिए कांशीराम जी ने किसी भी राजनीतिक विचारधारा, यहां तक कि हिंदुत्व की राजनीति के साथ भी  गठबंधन, मोर्चा बनाने में कोई परहेज नहीं किया।

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने हिंदुत्ववादी विचारधारा  को भारतीय लोकतंत्र और समाज के लिए सबसे खतरनाक विचारधारा घोषित किया था और वर्ण व्यवस्था, जाति के समूल नाश की परिकल्पना की थी।

उनका मानना था, कि सामंती भूमि संबंधों को खत्म किए बिना भारत में जाति व्यवस्था को भी खत्म नहीं किया जा सकता।

इसलिए संविधान को राष्ट्र के नाम संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, कि आज से हम अंतर्विरोधी दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं। एक तरफ राजनीतिक समानता और दूसरी तरफ सामाजिक गैर बराबरी।

संभवतः कांशीराम जी ने डॉ आंबेडकर की चेतावनी को नजरअंदाज करते हुए डाॅ. अंबेडकर के ठीक विपरीत का रास्ता चुनना व्यवहारिक समझा। इससे पैदा हुए संकट पर हम आगे चर्चा करेंगे।

अपनी समस्त कमजोरियों के बावजूद भारत में वामपंथी ताकतें मुख्य रूप से मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा वाले संगठन सामाजिक विकास के प्रत्येक मंजिल में सामाजिक, आर्थिक गैर बराबरी के खिलाफ लड़ने वाली सबसे विश्वसनीय राजनीतिक ताकत रही है।इसलिए भारतीय सत्ताधारी वर्गों ने इनके प्रति हर समय शत्रुतापूर्ण रुख अख्तियार किया।

यही बात काशीराम जी के चिंतन में भी समाहित है। चूंकि क्रांतिकारी वाम धारा के  कैडर गरीबों, आदिवासियों, दलितों, भूमिहीनों, मजदूरों के बीच में काम करते हुए इन्हें संगठित करते रहे हैं। इसलिए उनको कांशीराम उन्हें अपना प्रतिद्वंदी मानते रहे।

चूंकि अवसरवादी राजनीति के समक्ष  विचारधारात्मक प्रतिबद्धता बड़ी चुनौती होती है। इसलिए वाम राजनीति को कांशीराम जी ने  ‘हरी घास के हरे सांप’ के रूप में चिन्हित किया था और इन्हें रास्ते से हटा देने का आवाहन किया। ठीक यही नजरिया भारतीय शासक वर्ग यानी पूंजीपति, नौकरशाह, जमींदार गठजोड़ का पहले से ही रहा है।

बसपा राजनीति में वाम जनवादी ताकतें शत्रु के रूप में चिन्हित की जाती रही हैं। वामपंथियों को दलितों का शत्रु माना जाता रहा। बसपा के इसी चिंतन प्रक्रिया के चलते कांशीराम जी और बसपा को नारंगी के पेड़ पर चढ़ने में कोई दिक्कत नहीं हुई।

बाद में तो वे  विचित्र फिसलन भरी यात्रा पर ही चल पड़े। मसलन, ‘जाति तोड़ों’ की जगह ‘जाति जोड़ों’ के राजनीति की  क्रोनोलॉजी विकसित करने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई।

पूंजीवादी समाज को ध्वस्त कर जनता की जनतांत्रिक सत्ता के लिए संघर्ष करने वाले वाम  क्रांतिकारियों के प्रति उनकी घृणा ने ही उन्हें हिंदुत्व राजनीति से गठबंधन  तक की यात्रा पूरी करने और भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने में मदद पहुंचायी।

बसपा ने अपना यह कदम बाबरी मस्जिद विध्वंस के इतिहास के  काले अध्याय के ठीक बाद उठाया था। जिसका  खामियाजा आज हमारे लोकतंत्र को भुगतना पड़ रहा है।

अवसरवादी और सत्ता की राजनीति के खेल में बसपा इतिहास के हर जटिल मोड़ पर हिंदुत्व के रक्षक के रूप में ही खड़ी रही।   गांधी जी के प्रति बसपा की राजनीतिक घृणा सर्वविदित है।

बाबरी मस्जिद के विध्वंस और गुजरात नरसंहार के बाद बसपा का भाजपा और मोदी के पक्ष में खड़ा होना वस्तुतः लोकतंत्र, बंधुत्व, समानता, आजादी की लोकतांत्रिक राजनीति से पल्ला खींच लेना है।

एक विमर्श में मैं देख रहा था, कि लाल सलाम से अंबेडकर से होते हुए बुद्ध तक की यात्रा की चर्चा करते हुए एक बहुजन बौद्धिक ने वाम राजनीति में नये रियलाइजेशन को स्वीकार किया।

उनके अनुसार कम्युनिस्टों द्वारा बहुत देर में  भूल सुधार किया गया। यानी, तथाकथित अंबेडकरवादियों और दलित राजनीति को किसी तरह के आत्मनिरीक्षण की जरूरत नहीं है।

जो राजनीतिक विचारधारा समाज परिवर्तन के लिए  प्रतिबद्ध होती है,  वह अपने नीतियों, कार्यक्रमों का पुनर्मूल्यांकन करती है।  समय के साथ कुछ नये सवालों को जोड़ती है और किसी खास परिस्थिति में अपने मुद्दों और लक्ष्यों को परिवर्तित भी करती है। एक खास मंजिल में कोई लक्ष्य प्रधान हो जाता है और किसी दूसरी परिस्थिति में वह गौण  हो जा सकता है। लेकिन  लुटेरे राज्य के ध्वंस की मूल दिशा अपरिवर्तित रहती है।

लेकिन दलित चिंतकों की और बहुजन राजनीति की दिशा कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के इस दौर में भी वही पुरानी लकीर पीटने पर टिकी हुई है। वह अतीतोन्मुख  विचारों पर ही खड़े हैं। इस कारण  आरएसएस और पहचान की राजनीति के सभी विचारकों की एक मंजिल पर एकता सुनिश्चित हो जाती है।

पूंजी के विकास के  कारपोरेट मंजिल के दौर में पूंजीवादी समाज अपनी लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता से पीछे हट चुका है। वह पूर्णतः विश्व को गुलाम बनाने और प्राकृतिक साधनों सहित मनुष्य के श्रम और जीवन पर नियंत्रण करने के लिए तकनीकी विकास का प्रयोग करने में जुटा है।

आजादी के हीरक जयंती के ऐतिहासिक  विकास के मंजिल पर भारत कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के चंगुल में फंस चुका है। लोकतांत्रिक संस्थाएं अपना मूल्य खोती जा रही हैं। संविधान को लगभग निष्प्रभावी कर दिया गया है।

ऐसे दौर में दलित राजनीति को  आक्रामक एजेंडे के साथ लोकतंत्र, संविधान बचाने के लिए आगे आना चाहिए। लेकिन वह हार्स ट्रेडिंग मनी और मूंछ की प्रतीकात्मकता से मुक्त नहीं हो पा रहा है। इसीलिए जब  किसानों से लेकर छात्र-नौजवान, बुद्धिजीवी, प्रगतिशील ताकतें तथा महिलाएं, दलित, अल्पसंख्यक व  कमजोर वर्ग कारपोरेट हिंदू फासीवाद के हमले से लोकतंत्र और संविधान बचाने के लिए युद्धरत हैं, तब दलित और पहचानवादी राजनीतिक ताकतों के लिए कोई काम बचा ही नहीं है।

दलित बुद्धिजीवी और संगठन किसी सुरक्षित खोह में बैठे हुए  अतीत का  विलाप कर रहे हैं या प्रगतिशील लोकतांत्रिक शक्तियों को कोसने, उनके ऊपर तोहमत मढ़ने और अपनी निष्क्रियता को वैचारिक रूप से गौरवान्वित करने में लगे हैं ।

आज भी वे सिर्फ मनुवाद और ब्राह्मणवादी समाज की बुराइयों को आगे करके आधुनिक पूंजीवादी लोकतंत्र के संकट का समाधान ढूंढना चाहते हैं । जो, संभव ही नहीं है।

यह सच है, कि ब्राह्मणवादी, जातिवादी सामाजिक ढांचे को ध्वस्त किए बिना भारत में लोकतंत्र और बराबरी का समाज नहीं बनाया जा सकता। खुद कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ धर्म और जाति को सामाजिक और वर्गीय एकता तोड़ने के हथियार के रूप में सिर्फ इस्तेमाल करता है।

कारपोरेट जगत में धर्म, जाति नाम की कोई श्रेणी नहीं है। वहां सभी पूंजी की सभ्यता के मालिक हैं। जहां जाति और धर्म का विभाजन नहीं चलता। इसे सामाजिक पायदान के सबसे निचले हिस्सों में ही आज संचालित किया जा रहा है।

अब ब्राह्मणवाद  राजनीतिक जातिवाद, धर्मवाद के रूप में ही जीवित रह गया है। जो सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के लिए लोकतंत्र विरोधी तत्वों के हाथ का एक हथियार है। जिसे कारपोरेट पूंजी के स्वार्थ की रक्षा में प्रयोग किया जा रहा है।

कारपोरेट घराने वास्तविक जिंदगी में पिछड़े सामाजिक विभाजनों से  मुक्त हो चुके हैं और भारत को  लोकतांत्रिक तानाशाही के रास्ते पर ले जाने के लिए लगातार जाति और धर्म का विमर्श चला रहे हैं। हिंदुत्व और पहचानवादी दोनों संगठन  अपने सांगठनिक और वास्तविक जिंदगी में लोकतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं का सम्मान नहीं करते।

इसलिए आज हर सचेत व्यक्ति के लिए जो लोकतंत्र का शासन और नागरिक समाज के अंदर बराबरी और समानता के लिए संघर्षरत है, उसे एकताबद्ध होकर  कारपोरेट हिंदुत्व फासिज्म के खिलाफ लड़ना चाहिए। लेकिन दलित और पहचानवादी राजनीति की पांच राज्यों के चुनाव से लेकर सड़कों के संघर्ष से दूरी और निष्क्रियता के कारण को उसकी चिंतन प्रक्रिया में ही तलाशना चाहिए।

जितना जल्दी ही वह अपने वैचारिक आधारों से मुक्त होकर आधुनिक लोकतांत्रिक विचारों  और राजनीति की दिशा को स्वीकार कर ले तो शायद उनकी कुछ भूमिका और विस्तारित हो सकती है, नहीं तो, हमारे लोकतंत्र के भविष्य को निर्धारित करने वाले पांच राज्यों के चुनाव में सौदेबाजी  के अलावा उनके पास कोई कार्यभार  नहीं रह जायेगा।

कारपोरेट हिंदुत्व फासीवाद के उभार के इस दौर में बहुजन वैचारिकी की जिस दलित राजनीतिक धारा को  कांशीराम ने तैयार किया था, अब वह इतिहास के विकास के इस सोपान पर अप्रसांगिक होने के लिए अभिशप्त है!

(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष हैं)

फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार

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