समकालीन जनमत
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जाति-मुक्ति का प्रश्न, उसकी राजनीति और पूंजी-लोक (नवीन जोशी के उपन्यास के बहाने कुछ बातें)

(एक दलित नौजवान के अंतर्द्वंद की कथा के भीतर से उत्तराखंडी समाज के भीतर की जातिगत विषमताओं, कारपोरेट की गुलामगीरी और राजनैतिक आंदोलनों के सामाजिक जागरण से विच्छेद का दस्तावेज है नवीन जोशी का उपन्यास टिकटशुदा रुक़्का)

अल्मोड़ा जिले के एक सुदूरवर्ती गांव में, जहां तक आज भी सड़क नहीं पहुंची है, रहना हुआ। एक दिन गांव के दोस्तो ने बताया कि ऊपर के मंदिर में जागर लगनी है।

वहां चलने के प्रस्ताव पर मैंने भी अपनी सहमति दे दी। रात को खाना-वाना खाकर हम पांच-छह जने जंगल के रास्ते ऊपर पहाड़ी पर बने मंदिर पहुंचे।

महिलाओं के भजन चल रहे थे। जागरण की तैयारी के लिए एक बुजुर्ग जगरिया ने आकर पूछा- धोती कौन-कौन पहनेगा। कई  नौजवान, अधेड़ लोगों ने धोती पहनी। मंदिर के भीतर धूनी जली थी, यह गुरु गोरखनाथ की धूनी थी। सब घेरे में बैठे थे। ढोल-ताशा और रणसिंगा बजा।

मंदिर के बाहरी हिस्से में हो रही जागर की दो तस्वीरें. इसमें कथावाचक और वादक शिल्पकार हैं, जिन्हें मुख्य मंदिर में जाने की इजाज़त आज भी नहीं है।

ढोल पर थाप देते मदन मास्टर ने पहाड़ की देवियों, भगवान शिव की स्तुतियों और धरती- आकाश- स्वर्ग बनने और मनुष्य के बनने की कथा सुनाना शुरू किया।

 

मेरे दिमाग में नवीन जोशी के पढ़े उपन्यास टिकटशुदा रुक़्क़ा के नायक दीवान राम का सवाल घूमने लगा, कि ‘जगरिया यह नहीं बताता, कि वह पहला मनुष्य कौन था- बामण था ठाकुर था या शिल्पकार (दलित) था।

जो सवाल कथा का नायक अपनी चेतन अवस्था में कभी किसी से नहीं पूछ सका, यहां तक कि उस सोहन सिंह मास्टर साहब से भी नहीं, जिनकी बदौलत वह स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने तक पहुंच सका था और आज एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी का उच्चाधिकारी था, वह अस्पताल के बेड पर पड़े नीम बेहोशी की हालत में पूछता है, यहीं से उसके भीतर मचे भीषण अंतर्द्वंद्व का पता चलता है। इसके बाद उपन्यास फ्लैशबैक में चलता है। कथा नायक दीवान राम हलवाहे का बेटा है, जिसकी मां सरुली बचपन में ही कोढ़ होने के कारण गाँव के बीठों (सवर्णों) के दबाव में निकाल दी जाती है और अंततः फांसी लगाकर मर जाती है।

उसे पालने वाली बड़ी बहन गोपुली, जिसने उसे बचपन में यह सब बताया था, कुछ वर्षों बाद ही प्रसव के दौरान मर जाती है।

दीवान का बचपन भी वैसे ही बीता है, जैसा ’70 के दशक में एक दलित हलवाहे के बेटे का हो सकता है। सोहन सिंह मास्टर साहब के बदौलत उसका हौसला बना रहता है।

सवर्ण सहपाठियों की मारपीट, प्रताड़ना, अमानवीय व्यवहार, नए आए स्कूल मास्टर की बदसलूकी के बावजूद वह गांव के स्कूल, फिर कांडा के कॉलेज से इंटर तक पढ़ाई करके लखनऊ विश्वविद्यालय में साइंस में दाखिला लेता है।

यहां आकर उसके सामने एक नई दुनिया खुलती है, जिसमें विश्वविद्यालय की पढ़ाई के साथ उसका रूम पार्टनर देवराज उसे स्टडी सर्किल में ले जाता है। जहां साहित्य, संस्कृति, राजनीति पर बातें होती हैं। यहीं उसका एक सहपाठी सुरेश पासी है, जो मैदान में दलितों के जागरण के लिए बनी बामसेफ-डीएस-फोर और फिर बहुजन समाज पार्टी का कार्यकर्ता है।

उसके साथ ही बहस और बातों से दीवान राम के भीतर कई सवाल जो अनसुलझे थे या उन पर कभी सोचा ही नहीं था, उस पर नजर जाने लगती है।

यूं तो उत्तराखंडी समाज में मैदानों की तरह जमीदार या सामंत नहीं थे, लेकिन सामाजिक, मानसिक और आर्थिक शोषण कम न था।

पहले दीवान जिसे नियति मानकर चुप रहता था, अब वे उसके भीतर आक्रोश को जन्म देने लगे थे। लखनऊ से एक साल बाद जब वह गांव लौटता है, तब उसे पिता से धुंए से काले पडे़ कटे फटे टिकट शुदा रुक्कों से पता लगता है कि 1833 में अंग्रेजों द्वारा दास प्रथा की कानूनी मान्यता खत्म होने के बावजूद, उसके पिता गांव के सवर्णों के दास हैं।

हलिया की परंपरा उसी का बदला हुआ रूप है। उसके दादा भी दास ही थे। कुछ सौ रुपयों के चलते वे आज तक सवर्णों के गुलामी कर रहे थे।

उसे सुरेश की बातें सच लगने लगती हैं। सोहन सिंह मास्टर साहब से किया वादा और अपना संकल्प वह दोहराता है कि पढ़ लिख कर वापस आऊंगा और अपने लोगों में जागृति पैदा करुंगा।

इस शोषण के खिलाफ एकजुट करूंगा। लखनऊ लौट कर वह अपनी पढ़ाई पूरी करता है। इसी बीच उसका अपनी क्लासमेट शिवानी से प्रेम होता है, जो शहर के प्रतिष्ठित मैदान के दलित वकील की बेटी है।

वह एक कारपोरेट कंपनी का नौकर हो जाता है। शिवानी से शादी और एक बच्ची का पिता भी। एक तरफ उसका संकल्प दूसरी तरफ कंपनी की नौकरी करता तरक्की के पायदान चढ़ता।

लेकिन उसके भीतर इन सबके बीच भीषण अंतर्द्वंद्व मचा रहता है, जो उसे अपना संकल्प पूरा करने के निर्णायक अंत की तरफ ले जाता है।

उपन्यास के अंत में लेखक ने नायक की डायरी का उपयोग संभवतः इसी अंतर्द्वंद्व को व्यक्त करने के लिए किया है। वरिष्ठ कथाकार शेखर जोशी ने उपन्यास का फ्लैप लिखते हुए इसे ठीक ठीक रेखांकित किया है।

इस मूल कथा को रचते हुए लेखक कथा के समय, घटनाओं और जिन चरित्रों के माध्यम और तत्कालीन सामाजिक-राजनैतिक स्थितियों का वर्णन करता है, वह इस उपन्यास को हमारे समय का एक जरूरी दस्तावेज बना देते हैं।

उपन्यास का पहला चैप्टर ही जैसे किसी सिनेमा के दृश्य की तरह हमारी आंखों के रास्ते दिमाग तक पहुंचता है। दीवान राम अपनी कंपनी का इन्नोवेशन टीम का हेड जिसने पहले भी अपनी कंपनी के बाजार को फैलाने के कई नायाब और सफल नुस्खे दिए हैं। आज एक नया आइडिया देने जा रहा है। कंपनी के सभी आलाकमान मौजूद हैं। वहीं, वह अपने भीतर उठते हाहाकार को व्यक्त करता है। सबको लगता है उस पर हिस्टीरिया का दौरा पड़ा है और उसे अस्पताल पहुंचा दिया जाता है।

’80 के दशक में देश में टीवी, कंप्यूटर आ चुका है। तमाम मल्टीनेशनल भारत के बाजार में पांव जमाने और गला-काट प्रतिस्पर्धा में लिप्त हैं। चमकीले विज्ञापनों से आकर्षित करने और उपभोक्ता तैयार करने के लिए भारत के बाजार पर कब्जा जमा कर मुनाफा कमाने की होड़ लगी है।

हर प्रोडक्ट के विज्ञापन के लिए फिल्मी सितारों, मॉडलों, अखबारों में लेख लिखवाने, क्रीम से गोरा होने से लेकर रेशम से लहर थे बाल, और दांतो को भीतर तक साफ करे वाले ढेरों ढेर विज्ञापनों की चमकीली बाढ़ आई हुई है।

जैसे इसके पहले पूरे देश का शरीर गंदगी से ही लिथड़ा हुआ था। दीवान राम को नया आइडिया अपनी जमीन और अपने जुड़े अनुभवों से ही आते हैं, ये अलग बात है कि वह एमबीए भी है और मेधावी भी। लेकिन उसकी सारी मेधा कंपनी को मुनाफा कैसे हो, इसके लिए ही इस्तेमाल हो रही है। बदले में पैसा है, गाड़ी है, सारी सुख सुविधा है लेकिन दीवान के भीतर बैठा संकल्प उसे रह-रहकर कचोटता रहता है।

उसके द्वंद्व के साथ-साथ लेखक कॉरपोरेट जगत का रेशा-रेशा उघाड़ता चलता है। कंपनी को मुनाफा हो रहा है, लेकिन जितना चाहिए उतना नहीं, इसलिए लोगों की छंटनी करो।

दीवान राम को बेहतर से बेहतर डॉक्टर को दिखाओ इसलिए नहीं कि वह ठीक हो जाए बल्कि इंडिया डायरेक्टर की चिंता यह है, कि कहीं उनका एडल्ट डायपर का प्रोजेक्ट पिछड़ ना जाये, जिस पर सबका प्रमोशन और वेतन भत्ते में वृद्धि निर्भर करती है। इस बहुत महीन शोषणकारी मुनाफे की मशीन जहां कोई भी बस उसका पुर्जा है, जरा भी कमजोर पड़ा तो बदल दो। मुनाफे की मशीन की गति कम नहीं होनी चाहिए।

इस पूंजी की मशीन के अमानवीय चेहरे की शिनाख्त लेखक करता है। पांच दिन बाद दीवान राम ठीक होकर अस्पताल से घर आता है।

कंपनी का प्रेसिडेंट वाइस प्रेसिडेंट से उससे जाकर मिलने और विश्वास में लेकर दीवान से आइडिया जान लेने को कहता है और उसके बाद उसे किसी गैर महत्वपूर्ण जगह पर तैनात करने का आदेश देता है।

कारपोरेट की दुनिया में रहते हुए दीवान राम इन सबसे बेहतर तरीके से परिचित हो चुका था। उसे पता था कंपनी क्या करेगी? उसके दादा और पिता जिन परिस्थितियों में उन टिकटशुदा रुक्कों के कारण भू-दास बनकर रह गए थे, वह इन स्थितियों से निकल सकता है।

जिन रुक्कों पर उसने अपनी मर्जी से सोच समझकर हस्ताक्षर किए थे, उसे वह फाड़ सकता है। घर, परिवार, शिवानी की चिंता उसे जरूर हो रही थी लेकिन सोहन सिंह मास्टर साहब का कथन, कि ‘पढ़-लिखकर अपने समाज के लिए कुछ सोचेगा या तू भी पहाड़ के और नौजवानों की तरह बाहर जाकर नौकरी वाला हो जाएगा’ यह कहते हुए उनके दुख से भरी आंखें उसे याद आती हैं, इजा की दीवानी.. ओ मेरा दीवान…वह दिमाग तक आती पुकार उसकी धरती की पुकार में बदल जाती है।

सहपाठी सुरेश के तंज कैसे ‘पीड़ित अभिजात’ जो अपने समुदाय से कटकर शोषकों के ही पुर्जे बन जाते हैं याद आते हैं। इस सारी जद्दोजहद में कथा नायक दीवान स्वेच्छा से अपने दास बन जाने के रुक्कों को फाड़ देता है और अगले ही दिन दफ्तर जाकर अपना इस्तीफा दे आता है।

इस पूरी कथा को लिखते हुए लेखक की नजर उस समय के सामाजिक-राजनीतिक वातावरण का वर्णन करते हुए उसके कारणों की भी गहरी पड़ताल करती है और कथा में आते पात्र उन अंतर्विरोधों को मूर्त करते चलते हैं।

एक तरफ पहाड़ से आया नायक है, जहां शिल्पकारों के अतीत के कुछ आंदोलन हैं, जैसे जयदेव भारती का 1924 में डोला-पालकी आंदोलन, जिस पर हमले हुए या आर्य समाज और मिशनरी जो कुछ धार्मिक सुधार तक सीमित रहे, लेकिन वर्तमान में कोई आंदोलन नहीं है।

लेखक इसकी पड़ताल करते हुए आजादी के आंदोलनों के अंतर्विरोधों की तरफ भी पाठक का ध्यान दिला देता है।

आंबेडकर के कारण कांग्रेस के भीतर बढ़ते दबाव और गांधीजी के हरिजन उद्धार कार्यक्रम के कारण यहां के नेताओं ने भी उस दबाव को महसूस किया। पंडित हरगोविंद पंत ने खेत में हल चलाया तो उस समय के बड़े कांग्रेसी नेता गोविंद बल्लभ पंत ने टमटाओं (एक शिल्पकार जाति जो तांबे के बर्तन का काम करती है) के नीचे (जल स्त्रोत) से पानी पिया लेकिन इस बात का उत्तर नहीं मिलता कि शिल्पकारों को कहीं सवर्णों के नौले से पानी भरने की इजाजत मिली हो।

कुल मिलाकर यह नाटक ही साबित हुआ। जबकि अल्मोड़ा से हरी टम्टा जी 1934 से ही ‘समता’ नामक अखबार निकाल रहे थे, जो शिल्पकारों के मुद्दों पर ही केंद्रित था।

कुमाऊं शिल्पकार सभा भी बन चुकी थी। लेकिन आमतौर पर यह सभी नीचे तक सामाजिक जागरण के बजाय सत्ता में हिस्सेदारी के सवाल तक ही सीमित रहे। दूसरी तरफ प्रमुख अखबार ‘शक्ति’, ‘गढ़वाली’ आदि ने कांग्रेस की इस पहल कदमी की आलोचना ही की।

उपन्यास में शिल्पकारों को लेकर सबसे उदात्त सवर्ण चरित्रों में चाहे वह नायक को पढ़ाने वाले सोहन सिंह मास्टर साहब हों, जिन्हें चाहने के बावजूद कभी भी दीवान राम यह हिम्मत कर सका, कि उनके पांव छू सके या फिर कोढ़ से ग्रसित जंगल में निर्वासित दीवान की मां से शिशु दीवान को अपनी गोद में लेकर मिलाने उसे ले जाने वाली धरणीधर जी की पत्नी।

उनमें भी अंतर्विरोध कहीं ज्यादा गहरा दिखता है। दीवान राम ग्रेजुएशन में दाखिले के बाद उनसे मिलने जाता है, तो उसे यह लगता है के उनके भीतर वह पुराना प्यार और करुणा का स्पर्श नजर नहीं आ रहा।

आजादी के आंदोलन के दौर में आर्य समाज और इसाई मिशनरियों के प्रभाव के कारण सवर्ण समाज की जो चिंता दिखती है, उसे तत्कालीन समाचार पत्र ‘गढ़वाली’ के संपादकीय को लेखक ने नोट किया है, ‘यदि ऐसा ही रहा तो अंत्यज समाज हिंदू धर्म के बाहर हो जाएगा। हम बिना हाथ और पांव के हो जाएंगे’।

इस चिंता से आप समझ सकते हैं कि उत्तराखंड का (बीठ) सवर्ण समाज शिल्पकारों को लेकर किस मानसिकता को व्यक्त कर रहा था।

उपन्यास में ही नायक के पिता दौलतराम की मृत्यु का प्रसंग आता है, जिसे नायक अपनी डायरी में दर्ज करता है- “जब हम डोली में बाबू की लाश लेकर अस्पताल के रास्ते से वापस घर लौटे तो ‘शिब शिब, करने मालिक लोग भी आए। आंगन में खड़े होकर कहते रहे-‘बड़ा भला हलिया था दौलत. …. बराबर से खेत जोतता था… कभी ऊंची आवाज में नहीं बोला… कभी बैलों को संघी नहीं मारी… हरकते बैल के हाथ नहीं पड़ता तो अभी कई साल हमारे खेत बोता… “

उन्होंने एक बार नहीं कहा, कि दौलत बड़ा भला आदमी था। जबकि गाँव के ही भवानीदत्त जी के बैल के सींग से चोट लगने के कारण उसके पिता की मौत होती है लेकिन नायक के गाँव पहुंचने के पहले वे लोग उसे पास के अस्पताल तक भिजवाने की व्यवस्था तक नहीं करते।

समानता की कोई भी चाहत शिल्पकार समाज के भीतर उठे तो शांत और सौहार्दपूर्ण रिश्ते में उपेक्षा और नृशंसता आते देर नहीं लगती। इसका एक चरम उदाहरण रानीखेत से आगे सल्ट के इलाके में कफल्टा नामक जगह पर दलितों की बारात डोली में ले जाने पर हुआ 1980 का जनसंहार है। जिसमें 14 दलितों की और एक सवर्ण की हत्या हुई थी।

इस मामले में हाईकोर्ट से दो, जिन्हें सिर्फ पांच साल की सजा होती है, को छोड़ सभी अपराधी रिहा हो जाते हैं।  यहां भी कथाकार की नजर उस दौर में निकलने वाले अखबारों की सवर्ण मानसिकता को दस्तावेजी रूप में दर्ज करती चलती है।

इस दौर के प्रमुख अखबार अफवाहों के साथ-साथ एक सवर्ण की हत्या को प्रमुखता से छाप रहे थे जबकि 14 दलितों की हत्या उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।

इसके बाद भी पहाड़ी समाज में शिल्पकारों का कोई बड़ा जमीनी आंदोलन देखने को नहीं मिलता। कुछ लोगों ने खेत न जोतने का आह्वान जरूर किया, जिसकी सूचना उपन्यास देता है, लेकिन लंबे समय से ब्राह्मणवादी ढांचे की जकड़ में पड़े शिल्पकार समाज को जगाने की कोई जमीनी कोशिश नजर नहीं आती।

इस जकड़न का एक उदाहरण खुद नायक अपने भाई का अपनी डायरी में 5 मार्च 1987 को दर्ज करता है। वह अपने बड़े भाई से कहता है कि वह पैसे भेजेगा। मालिक लोगों का ब्याज सहित सब कर्जा चुकाकर सिर्फ अपना काम करो और मुक्त हो जाओ इन रुक्कों से। जवाब में भाई कहता है, ‘ बाबू कहते थे, एक धरम इस देह का है, एक धरम इस मिट्टी का है।जब तक जान है यह धरम निभाने हैं हमने।’ नायक चकित है इस दर्शन पर।

किसान का तो मिट्टी से लगाव समझ में आता है। क्या गुलामों का भी मालिक की मिट्टी से कोई मोह होता है? आखिर यह दर्शन उनकी सोच का हिस्सा कैसे बन गया।

आज के संदर्भ में यदि इस सवाल को सामने रखकर सोचें तो पहले से कहीं ज्यादा यह प्रासंगिक हो उठा है। खुद उत्तराखण्ड में लगातार जमीनें फसलें न बोई जाने के कारण बंजर होती गई हैं। जैव विविधता से भरा उत्तराखण्ड अपनी संपदा खोता जा रहा है। पहाड़ से पलायन इस कदर दिखाई देता है कि गाँव के गाँव आबादी विहीन या सिर्फ बुजुर्गों से भरे दिखाई देते हैं।

उपन्यास में व्यक्त सोहन मास्टर साहब की चिंता एक विकराल रूप में सामने है। पहाड़, मैदान के धनिकों, नवधनाढ्यों और अब कारपोरेट के लिए,निश्चित ही जिसके पीछे सत्ताधारी पार्टियों का खुला वरदहस्त है, लगभग प्रतिरोधहीन चारागाह हैं। वर्तमान किसान आंदोलन के लिए इस दर्शन को जो सर के बल खड़ा है उसे उसके पांव के बल पर खडा़ करना होगा। जिसका मतलब होगा बहुसंख्यक ग्रामीण दलित आबादी को जमीन पर और समाजिक जीवन में सचमुच का समानता का अधिकार। उपन्यास के इन संकेतों को भी पढ़ा जाना चाहिए।

वहीं मैदानी इलाकों में काफी उथल-पुथल है। काशीराम जी पार्टी बनाने की ओर बढ़ रहे हैं और दलितों को एक पार्टी के बैनर तले संगठित करते हुए राजनीतिक सत्ता हासिल करने के प्रयास में लगे हैं। उसी इलाके से आए नायक के ससुर एडवोकेट कालीचरण हैं जिनका मानना है कि पैसा और प्रतिष्ठा है तो सब कुछ है। वह अपना अतीत याद तो करते हैं, जो कथा के नायक दीवान राम जैसा ही है, लेकिन सिर्फ यह बताने के लिए कि वह क्या थे और आज क्या हैं। बसपा ने दलित जातियों में सत्ता हासिल करने की इच्छा तो जागृत की जिससे कुछ सामाजिक जागृति भी आई लेकिन जमीन पर उनकी पहलकदमी खोलने वाला और सामाजिक स्तर पर भी ब्राहम्णवाद के समानांतर जीवन प्रणाली के संकेत नहीं मिलते । हां कुछ दलित प्रतीक जरूर सामने आते हैं।

उपन्यास में जब ’80 के दशक के अंतिम वर्षों की राजनीति पर लखनऊ में कॉफी हाउस एक बहस का दृश्य आता है तो उस बहस में एक आवाज आती है कि यह जो रामशिला अयोध्या पहुंच रही है और राजीव गांधी ने जो ताला खुलवा कर भाजपा को दो से पचासी तक पहुंचा दिया है तो क्या आप समझते हैं कि दलितों और पिछड़ों का खून नहीं खौलेगा…

बाद में इसकी परिणति कहां तक गई यह बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन यहां यह जरूर नोट किया जाना चाहिए कि उपन्यास का नायक दीवान राम इस बहस में कहीं भी आलोचनात्मक रूप से शामिल  होता नहीं दिखाई देता है।

उपन्यास इस बात की सूचना तो देता है, कि काशीराम जी अपनी पार्टी की शुरुआत बामसेफ से शुरू करते हैं, जो आरक्षण का अधिकार मिलने के बाद दलितों के भीतर से उभरता हुआ मध्य वर्ग ही है।

इसी मूल आधार को लेकर और उससे प्राप्त संसाधन के बल पर वह बसपा का निर्माण करते हैं लेकिन इस वर्ग का जो चरित्र वह उसे जमीनी संघर्ष में कहाँ तक टिकाए रख सकता है इसको लेकर उपन्यास में कोई विमर्श नहीं दिखता। जबकि ‘समता’ अखबार के दफ्तर से लेकर विश्वविद्यालय की स्टडी सर्किल तक कई ऐसे स्पेस उपन्यास में हैं। यहाँ तक कि नायक दीवान की अपने ससुर से की गई बहसों में भी इसकी गुंजाइश हो सकती थी।

सुरेश पासी जो बसपा का कार्यकर्ता है, उससे भी नायक यह कभी नहीं पूछ पाता कि बसपा जो जगजीवन राम से लेकर रामविलास पासवान तक को कांग्रेस या शासक दलों एजेंट मानती है तो आजादी के बाद उभरे दलितों के छोटे से मध्य वर्ग को संगठन का बुनियादी आधार बनाकर कैसे सत्ता पर निर्णायक अधिकार हासिल करेगी। और कुछ समय के लिए कर भी ले तो क्या वह जमीनी स्तर पर किसी सामाजिक राजनीतिक जागरण की वाहक बनेगी? जबकि नायक दीवान राम आधुनिकतम पूंजीवाद के अमानवीय उत्पीड़न से भी परिचित है और इतिहास में हुए शिल्पकारों के आंदोलनों की परिणति से भी जो अंततः सत्ता में हिस्सेदारी की राजनीति करते हुए उसी में समाहित हो गए। इस पर उसके भीतर कोई प्रश्न नहीं उठता, बल्कि इसके उलट नायक दीवान सुरेश पासी से ही ज्यादा प्रभावित दिखाई पड़ता है। यदि कहीं से भी लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के दलित परिवार से आए एडवोकेट कालीचरण जो अब उच्च मध्यवर्गीय जीवन और समझ पर खड़े हैं उन्हें एक प्रतिनिधि के रूप में चित्रित कर रहा है तो उपन्यास में वो एक गैरराजनीतिक चरित्र के रूप में ही सामने आते हैं जिनकी किसी भी राजनैतिक दल से संबंधित कोई पंक्ति नहीं मिलती।

उपन्यास में उनके घर में शराब पार्टी में एक जगह ऐसा एक प्रसंग छिड़ता दिखता भी है तो राजनीति समाज का नुकसान ही करेगी और जातीय झगड़े बढ़ाएगी जैसे सरलीकृत बातचीत में ही समाप्त हो जाता है।

जाति का दंश भी उन्हें सिर्फ इतना ही परेशान करता है कि बेटी के लिए कोई योग्य सवर्ण तैयार नहीं होगा।

ठीक इसी समय बिहार में बहुसंख्यक दलितों के ऐसे ही भयानक उत्पीड़न और जनसंहारों के खिलाफ नई कम्युनिस्ट ताकतों के नेतृत्व में जमीनी स्तर पर प्रतिवाद खड़े हो रहे थे और वे आंदोलन की ताकत के बल पर एक नई सामाजिक राजनीतिक संरचना के निर्माण में लगे हुए थे।

पेशे से सजग समर्थ पत्रकार, लेखक के जेहन में यह सब नहीं होगा, ऐसा मानने का कोई कारण नज़र नहीं आता। और उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाकों में काशीराम दलितों के भीतर उभरे मध्यवर्ग के आधार को लेकर राजनीतिक सत्ता में ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी’ के नारे के आधार पर अपना प्रयोग कर रहे थे।

कथाकार की सफलता इस बात में है, कि वह कालीचरण जो बसपा की राजनीति के उभार के इलाके से आते हैं और दूसरी तरफ कथा नायक दीवान राम जिसके यहां शिल्पकारों की न कोई प्रमुख पार्टी है न आंदोलन दोनों का वर्गांतरण होता है और बिना ऐसी शब्दावली का उपयोग किए लेखक घटनाओं के भीतर से उस पूरी प्रक्रिया को दिखाने में सफल होता है।

उपन्यास एक आधुनिक चेतना से लैस दलित नौजवान के घनीभूत अंतर्द्वंद्व का दस्तावेज तो है ही,  जिसे समझने के लिए लेखक अंत के हिस्से में शिल्प के रूप में उसकी डायरी का सृजनात्मक प्रयोग करता है। साथ ही, उत्तराखंडी समाज में अब तक व्याप्त इस विडंबना को विश्वसनीय तरीके से सामने रखता है।

उपन्यास में पात्रों के माध्यम से उठी बहसें आज जितनी भयानक और प्रासंगिक होती गई हैं, उसे आप कारपोरेट के तंत्र और हिंदुत्व के राजनीति के सर्वग्रासी रूप में देख सकते हैं।

उपन्यास के अंतिम पैराग्राफ में लेखक सायास उत्तराखंड राज्य की मांग के आंदोलन को सामने लाता है और इस प्रश्न को पाठकों के लिए खुला छोड़ देता है कि नायक की दिशा क्या होगी? उत्तराखंडी अस्मिता के आंदोलन के भीतर क्या शिल्पकार समाज के सवाल भी शामिल होंगे?

अस्मिताओं का आंदोलन क्या समाज के बुनियादी ढांचे में कोई आमूलचूल परिवर्तन करने में सफल होगा?

दुर्भाग्य से नवीन जी के उपन्यास में उठे सवाल आज भी अनुत्तरित ही हैं, जिसे मैं यहां रहते हुए आज भी देख पाता हूं।

गांव के मंदिर में जाकर गाने वाले ढोल रणसिंग बजाने वाले से बामणों पर देवता तो आते हैं, लेकिन जिनके गीत-संगीत से आते हैं उन्हें मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं है। आज का सच भी यही है, उपन्यास का नायक बेहोशी में बुदबुदाता है…

बुड़ – बुड़म… बुड़- बुड़ुम
कि भगिबाना, फिर इस धरती पर राख से मानुष रचा
बड़े करामात वाला मानुष…
इस उपन्यास को नवीन जी ने उत्तराखण्ड के जिस योद्धा कवि संस्कृतिकर्मी गिर्दा की स्मृति को समर्पित किया है उनकी पंक्तियों में जैसे पारंपरिक गीत आधुनिक मनुष्य के भीतर छिपी संभावना में नया विस्तार पाते हैं वैसे ही यह उपन्यास भी एक दलित युवक के अंतर्द्वंद की कथा के भीतर से मनुष्य द्रोही कारपोरेट और शासक वर्ग की राजनीति जो आज हिंदुत्ववादी मुहावरे में प्रकट हो रही है, के विभिन्न आयामों को उद्घाटित करता हुआ प्रतिवाद रचता है।

साथ ही, उपन्यास इस बात को शिद्दत के साथ महसूस कराता है, कि सामाजिक और राजनीतिक दोनों आंदोलनों के बीच एक गहरा रिश्ता हुए बगैर बदलाव की कोई लड़ाई असफल ही साबित होगी।

राख की बात क्या
राख की करामात क्या

कि राख का मनुष्य

खाक का भी है
और लाख का भी !
सोता है तो गनेलों की तरह
और जागता है तो
ब्रहमाण्ड हिला देता है!

अंत में नवारुण प्रकाशन को इसे हम सबके लिए उपलब्ध कराने के लिए बधाई तो बनती ही है और पुस्तक पहली नजर में ही आपको उसे छूने की इच्छा जगा दे इसके लिए उसके आवरण की जो परिकल्पना रामबाबू जी ने की है, उनकी जितनी भी तारीफ की जाए कम ही होगी।
नोट: गनेला एक जीव जो निष्क्रिय सा अपनी खोल में पड़ा रहता है।

टिकटशुदा रुक्का (उपन्यास)

लेखक: नवीन जोशी 

प्रकाशक: नवारुण, वसुंधरा, गाज़ियाबाद 

मूल्य: रू 300

(समकालीन जनमत के संपादक, संस्कृतिकर्मी और पत्रकार के के पाण्डेय जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं । इनकी एक किताब ‘दिव्य कुम्भ 2019 नवारुण से प्रकाशित हुई है ।)

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