समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

बेसबब हुआ ग़ालिब दुश्मन आसमां अपना

 (मुक्तिबोध पर मेरी किताब ‘स्वदेश की खोज’ पर बौद्धिक चोरी के आरोप पर कुछ बातें )
हम कहाँ के दाना थे, किस हुनर में यक़तां थे
बेसबब हुआ ग़ालिब दुश्मन आसमां अपना
सच कहिए तो मुझे इस निराधार निर्मूल प्रकरण पर कुछ भी कहने का जी नहीं था।
अव्वल तो इस नाते कि जिस किसी की मुक्तिबोध में गहरी रुचि और इस नाते इस प्रकरण को जानने-समझने में दिलचस्पी होगी वह मेरी किताब और शोधार्थी अनूप बाली का शोधपत्र पढ़ कर सही स्थिति समझ लेगा, इसका मुझे पूरा यकीन है।
दूसरे इस नाते कि इन जैसे किसी दृष्टिसंपन्न युवा शोधार्थी के साथ राजनीतिक-वैचारिक संवाद में उतरना जितना प्रिय लगता है, स्तरहीन वैयक्तिक आरोपों को लेकर उलझना उतना ही अप्रिय। यह उलझन न होती और बहस किताब में उठाये गए वैचारिक राजनीतिक प्रश्नों के इर्द-गिर्द चलती, तो किस लेखक को खुशी नहीं होती।
लेकिन देख रहा हूँ कि यह पूरा प्रकरण ‘स्वतंत्र मार्क्सवाद’ के कुछ जाने-माने पुरोधाओं, संपादकों, कवियों और टिप्पण-लेखकों द्वारा कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ राजनीतिक निंदा अभियान में बदल दिया गया है. ख़ासतौर पर भाकपा माले लिबरेशन के खिलाफ़, जिसका मैं एक पूरावक्ती कार्यकर्ता हूँ।  इसलिए अब कुछ कहना लाज़िमी हो जाता है.
……..
अब आइये सीधे शोधार्थी अनूप बाली द्वारा बौद्धिक चोरी के आरोपों पर आते हैं।
वे लिखते हैं-
“बहरहाल, यहाँ हम तीन ऐसे साक्ष्यों को सामने रखेंगे जो समग्र रूप से न केवल यह उजागर करेंगे कि रामजी भाई ने इस शोध-कार्य से प्रत्यक्षत: बहुत कुछ उठाया है बल्कि प्रस्तुत किए जा रहे यह साक्ष्य रामजी राय की जुगाड़-टैक्नोलॉजी को उद्घाटित करते हुए उनके आलेखों के केंद्रीय आर्गयुमेंट के अवधारणात्मक निर्माण में अंतर्निहित राजनीति को उद्घाटित करेंगे।
सबसे पहले, मैं तीन सबसे अधिक स्पष्ट साक्ष्यों को सामने रखूँगा जोकि समग्र रूप से किसी भी तरह की सरल समानांतरता या समकालिकता के तर्क को प्रश्नांकित करते हुए बिना किसी संदेह के इस मामले को साहित्यिक चोरी के स्पष्ट प्रसंग के रूप में स्थापित करते हैं।
थीसिस के चौथे अध्याय में एडोर्नो की नकारात्मक द्वंद्वात्मकता को स्पष्ट करते हुए हमने लिखा है, “…एडोर्नो अपनी पुस्तक नेगेटिव डाइलेक्टिक्स  में अवधारणा में अंतर्निहित गैर-अवधारणा की ओर ध्यान दिलाते हैं। उनके लिए द्वंद्वात्मकता, अनस्मिता का सुसंगत बोध है। उनके लिए अंतर्विरोध, अस्मिता के पक्ष के भीतर अनस्मिता की मौजूदगी है।” (2020, 158) (इटेलिक्स किए गए हिस्से पर विशेष ध्यान दें।) राय के आलेख में कुछ हेरा-फेरी के साथ इटेलिक्स किए गए हिस्से की संपूर्ण पुनरावृत्ति हमें दिखती है, जब वे लिखते हैं कि  “मुक्तिबोध की कविताओं में अस्तित्व और अनस्तित्व शब्द आता है … एडोर्नो इसे ही संभवत: अस्मिता (आइडेंटिटी) और अनस्मिता (नॉन-आइडेंटिटी) कहते हैं – के बीच द्वंद्व मिलता है। उनके लिए अंतर्विरोध दृश्य वा अस्तित्व पक्ष के भीतर अदृश्य वा अनस्तित्व की मौजूदगी है। मुक्तिबोध, विरूद्धों के बीच सामंजस्य को नहीं, उनके बीच के विरोध को उघाड़ते हैं।”( कथा-23 61-62, 2022 113-114) (दोनों उद्धरणों में इटेलिक्स किए गए हिस्से को ध्यान से देखें[16]।) क्या यह मात्र एक संयोग है कि एकदम सटीक पुनरावृत्ति को टालने के लिए राय पहले ही वाक्य में ध्यानपूर्वक या कुशाग्रता से अवधारणात्मक शब्दावली (अस्मिता तथा अनस्मिता) को हटा कर और उसकी जगह पर दूसरे शब्दों को प्रयोग में लाते हुए भी लगभग हमारे ही वाक्य-विन्यास और शैली का प्रयोग कर रहे हैं। क्या यह मात्र और मात्र इत्तिफाक़ है, वह भी इस तथ्य के साथ कि हमारे शोध-निर्देशक ने हमारा अध्याय-4 राय के साथ साझा किया था ?
बहरहाल, राय के उपरोक्त वर्णित उद्धरण के रेखांकित किए गए हिस्से में (“मुक्तिबोध, विरूद्धों के बीच सामंजस्य को नहीं, उनके बीच के विरोध को उघाड़ते हैं।”) आचार्य शुक्ल के विरूद्धों का सामंजस्य की अवधारणा पर हमारी स्थापना की संपूर्ण पुनरावृत्ति मिलती है जिसको कि थीसिस के तीसरे अध्याय में विश्लेषित किया गया है. थीसिस में लिखा गया है, “आचार्य शुक्ल का ‘विरूद्धों का सामंजस्य’ मुक्तिबोध के यहाँ विरूद्धों का सतत् असामंजस्य अर्थात नकारात्मक द्वंद्वात्मकता के रूप में विकसित होता है।” (2020, 104) क्या यह हमारे विचार का स्पष्ट प्रतिरूप या रिप्लीकेशन नहीं है ? इस तरह क्या यह अधिग्रहण नहीं है विशेषत: इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि हिंदी की अकादमिक बहसों में आचार्य शुक्ल की इस अवधारणा पर मुक्तिबोधीय परिप्रेक्ष्य से किसी ने भी ऐसा दावा प्रस्तुत नहीं किया है सिवाए सिटी-नोट्स कलेक्टिव के अखबार सहचर में जिसका की स्वयं मैं भी हिस्सा रहा हूँ। (देखें, अखबार के बारे में, 2) ध्यातव्य हो कि यह अखबार भी 2019 में, राय के आलेख से पहले प्रकाशित हुआ है। यह समझना मुश्किल है कि हम किस तरह इन दो सटीक समानताओं को मात्र संयोग के रूप में देखें वह भी तब जबकि हमारा गोपनीय शोध-कार्य राय से साझा किया गया था।
अंतत:, यहाँ मैं तीसरे और सबसे महत्त्वपूर्ण साक्ष्य को रखना चाहता हूँ जो कि स्पष्टत: यह दिखाता है कि राय ने हमारे शोध-कार्य से केवल विचारों का ही अधिग्रहण नहीं किया है बल्कि गलत अनुवाद को भी टेप लिया है। ऐलन बाद्यु (Alain Badiou) की दार्शनिक अवधारणा ‘Event’ के लिए हमने हिंदी शब्द ‘वारदात’ का प्रयोग किया है। यह हिंदी अनुवाद न केवल सटीक अनुवाद नहीं है बल्कि यह अँग्रेजी शब्द के साथ किसी भी तरह से संबंधित नहीं है। हमने इसे आकस्मिकता तथा अप्रत्याशिता को प्रकट करने के विशेष प्रयोजन से प्रयुक्त किया है जोकि बाद्यु की इस अवधारणा में अंतर्निहित है। जमा की गई फ़ाइनल थीसिस में हमने इस गलत अनुवाद के बारे में स्पष्टीकरण भी दिया है [17]। (देखें फुटनॉट संख्या 92, 190)
हिंदी की अकादमिक चर्चाओं में फिलहाल बाद्यु पर कोई विशेष चर्चा नहीं मिलती, अत: इस (गलत) अनुवाद का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। हिंदी में बाद्यु विशेषत: Event की वैचारिकी पर कुछ चर्चा हमें केवल दिशा-संधान नामक राजनीतिक पत्रिका में ही प्राप्त हुई है लेकिन वहाँ भी लेखिका ‘Event’ के अनुवाद के लिए घटना/संयोग शब्द प्रयोग में लाती हैं। (शिवानी, 253) पिछले आलेख में हम देख ही चुके हैं कि एक वल्गर रूपवादी के रूप में राय हमारे द्वारा प्रयुक्त हुए इस गलत अनुवाद पर क्यों अटके हुए हैं। लेकिन मज़े की बात यह है कि इस बार यह गलत अनुवाद हमें यह स्पष्ट साक्ष्य देता है कि रामजी भाई कैसे एक मंझे हुए ‘खिलाड़ी’ की तरह हमारे शोध-कार्य से अधिग्रहण करते हैं लेकिन इस गलत अनुवाद से अपनी जड़ासक्ति के कारण उनके लाभ-लोभ का कीर्ति-व्यवसाय जगजाहिर हो जाता है। (कथा-23 63, 2022, 117)”
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तो उनके इन तीन महत्वपूर्ण साक्ष्यों में पहले साक्ष्य को लेता हूँ।
चूंकि इसमें एडोर्नो की बात है, तो एडोर्नो बड़े चिंतक हैं, लेकिन उन्हें और उनपर औरों को भी पढ़ते हुए उनकी कुछ दिक्क़तें भी मुझे दिखीं। इसका ज़िक्र भी लेख के शुरुआती हिस्से में है-
“बहरहाल, मुक्तिबोध को पढ़ते हुए हैरानी होती है कि फ्रैंकफर्ट-स्कूल के विचारकों- थियोडोर एडोर्नो, वाल्टर बेंजामिन, होर्खेमेर, बाद में आये हेबरमास आदि के विचारों की झलक ही नहीं उनकी गहरी चिंताएं मुक्तिबोध के यहां अपने तरह से खूब उठाई और विश्लेषित की गई हैं। और कि जगह-जगह उनसे भिन्न मत भी देखने को मिलते हैं- … लेकिन फ्रैंकफर्ट स्कूल के अधिकांश लोग मूलतः चेतना को अपने विचार-विश्लेषण का केंद्र बनाते हैं-जैसा कि अल्फ्रेड सोन-रेथल (Alfred Sohn- Rethel) अपनी किताब A Critique Of Epistemology की भूमिका में कहते हैं- “इस वैचारिक आंदोलन में एक विरोधाभासी स्थिति थी- अधिरचनात्मक प्रश्नों के साथ इसकी लगभग एकतरफा संलिप्तता और भौतिक-आर्थिक आधार की चिंता का अभाव, जिसे इसमें अन्तर्निहित होना चाहिए था।“ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुक्तिबोध यह सब आज़ाद हुए भारत, उसके अंतर्विरोध और तद्जनित जनता की दुरवस्था को उत्पादन की शक्तियों और उत्पादन के बनते नये संबंधों की ठोस ज़मीन पर खड़ा होकर देखते-परखते हैं, जो दोनों मिल कर चेतना के लिये अधिरचना जैसा भौतिक आधार निर्मित करते हैं।“ (मुक्तिबोध : स्वदेश की खोज : पृष्ठ : 109)
क्या यह भी बताने की बात है कि एडोर्नो और मुक्तिबोध के बीच मौजूद किंचित भिन्नता (बलाबल के फ़र्क के स्तर पर ही) को दिखाने के लिए मैंने एडोर्नो के अस्मिता और अनस्मिता शब्द प्रयोग की जगह मुक्तिबोध द्वारा व्यवहार में लाये गए उनके अपने शब्द ‘अस्तित्व’ और ‘अनस्तित्व’, ‘दृश्य’ और ‘अदृश्य’ को सामने रखा?  मेरे शोधार्थी मित्र इसे एडोर्नों की शब्दावली के साथ हेराफेरी करार देते हैं!  लिखते हैं  – “एकदम सटीक पुनरावृत्ति को टालने के लिए राय पहले ही वाक्य में ध्यानपूर्वक या कुशाग्रता से अवधारणात्मक शब्दावली (अस्मिता तथा अनस्मिता) को हटा कर और उसकी जगह पर दूसरे शब्दों को प्रयोग में लाते हुए भी लगभग हमारे ही वाक्य-विन्यास और शैली का प्रयोग कर रहे हैं।“
क्या यह विपरीत प्रमाण को प्रमाण की तरह पेश करना नहीं है? अगर वे यह कह रहे हैं कि बात एक ही है, केवल शब्द बदल दिए गए हैं तो निवेदन है कि मेरे लिए ये दोनों शब्द महज शब्द नहीं हैं।
मुझे इन दो भिन्न शब्द प्रयोग में एक स्तर पर अवधारणात्मक भिन्नता लगती है (बलाबल के फ़र्क के स्तर पर)। मेरे शोधार्थी मित्र ने इस संदर्भ में जो पंक्तियाँ कोट की हैं वे कथा पत्रिका में छपे लेख से हैं, जिसमें मैंने इन शब्दों के बीच मौजूद अवधारणात्मक भिन्नता को स्पष्ट नहीं किया था। बाद को किताब में मैंने अस्मिता-अनस्मिता और अस्तित्व-अनस्तित्व शब्दों के बीच अंतर को किंचित स्पष्ट किया- “मुक्तिबोध की कविताओं में अस्तित्व और अनस्तित्व शब्द आता है- ‘अस्तित्व जनाता/ अनिवार कोई एक’ (“अँधेरे में”), ‘पूर्ण विनाश और अनस्तित्व उनका…’ (चम्बल की घाटी में)- के बीच द्वंद्व मिलता है। एडोर्नो इस अस्तित्व और अनस्तित्व को ही संभवतः अस्मिता (आइडेंटीटी) और अनस्मिता (नॉन-आइडेंटीटी) कहते हैं -जिनके बीच द्वंद्व चलता रहता है। (यहाँ तक कथा पत्रिका में भी है ) लेकिन इन भिन्न शब्दों के प्रयोग में एक स्तर पर अवधारणात्मक भिन्नता है, जिसपर पहले भी कुछ संकेत किये गये हैं। मुक्तिबोध मन की क्रिया का जो स्वतन्त्र गति-पक्ष है उसपर जोर नहीं देते जबकि एडोर्नो में उस पर ही ज्यादा जोर दिखता है। मुक्तिबोध लिखते हैं- “मन की क्रिया का जो गति-पक्ष है वह तो स्वतन्त्र है, किंतु उसके भीतर के जो तत्व हैं, वे वाह्याधारित हैं, वाह्य-निर्मित हैं। मन प्रवाहमान है—मरते दम तक। किंतु वे तत्व जो उसकी क्रिया के ही अंग हैं, जीवन-जगत द्वारा निर्धारित हैं और स्वयं द्वारा संशोधित हैं, किंतु वे स्वयं द्वारा निर्मित नहीं हैं। मन की गति तो केवल उसकी ऊर्जा है. …उस ‘स्वतंत्र क्रिया’ की कल्पना के भीतर…मानसिक तत्व और मानसिक गति इन दोनों का समावेश…निराधार है।‘ (रचनावली, खंड-पांच, पृष्ठ-107) एडोर्नो की तरह मुक्तिबोध वाह्य जीवन-जगत से किसी भी स्थिति में सामंजस्य को सिरे से खारिज नहीं करते। वे लिखते हैं- “कला अभ्यंतर के वाह्यीकरण का एक रूप है। हम वाह्य जीवन-जगत के साथ या तो सामंजस्य उत्पन्न करते हैं या उस सामंजस्य के अनुकूल उपस्थित होते हैं। अथवा उसके साथ द्वंद्व में उपस्थित होते हैं। काव्य भी या तो वाह्य जीवन-जगत के सामंजस्य या द्वंद्व अथवा दोनों के मिश्र रूप में उपस्थित होता है। कला इस नियम का अपवाद नहीं है। आज की कविता में उक्त सामंजस्य से अधिक तनाव द्वंद्व ही है।” (वही पृष्ठ-105) मुक्तिबोध के लिए अंतर्विरोध दृश्य के भीतर अदृश्य की मौजूदगी है। अपने समय की स्थितियों में मुक्तिबोध विरुद्धों के बीच सामंजस्य को नहीं, उनके बीच के विरोध को उघाड़ते हैं। वे समन्वय, समझौते, सामंजस्य, संगतिबद्ध बने रहने के कायल नहीं। उनके लिए इस ‘चम्बल की घाटी में’ “सामंजस्य है सूखा शिलीभूत”, “साझे हैं खरनाक”, “समझौते भयानक”, “संगतिबद्ध रहने की ज़िद”, संतुलनात्मक स्थितियां जैसी कि वे हैं छिः हैं, थू: हैं, है:हैं”. ऐसे में जब ‘सबको अपना-अपना घर का घूरा प्रिय है’ तो उन्हें ‘अपना असंग बबूलपन ही प्रिय है’। मुक्तिबोध के लिये द्वंद्वात्मकता अदृश्य पर, अनस्तित्व पर निर्भर है। मुक्तिबोध का कला उद्द्यम अदृश्य/अनस्तित्व का बोध और बोध-प्रक्रिया समेत उसकी यथार्थ अभिव्यक्ति का संघर्ष है।“ ——–(मुक्तिबोध : स्वदेश की खोज : पृष्ठ : 113-114)
अब मेरी यह समझ सही हो या ग़लत यह अलग बात है। लेकिन मेरे शोधार्थी मित्र ने इस ओर नजर नहीं फ़ेरी। वे ‘कथा’ में ही डटे रहे। लेकिन जब बात किताब की हो रही हो, तब किताब की ही अनदेखी कैसे की जा सकती है? एडोर्नो और इसी तरह एक अन्य जगह जॉक लकाँ के बीच ‘इच्छा’ के संबंध में किंचित अंतर दिखाने पर आप सिरे से उखड़ गए लगते हैं। इसी उखड़ेपन में मुझ पर खुद के महिमा मंडन के लिए सामूहिक प्रोजेक्ट का अधिग्रहण करने, मुक्तिबोध का एक नया कैनन बनाने, विजेता मार्क्सवाद का कैनन बनाने, यहाँ वहाँ से कुछ भी उड़ा कर पार्टी-बौद्धिकी संकट को कुछ कम करने, मार्क्सवादी आलोचना के नये मनेजर बनने आदि आदि अल्लम गल्लम आरोपों की बौछार करते हुए मेरी कथित  ‘प्रतिक्रियावादी राजनीति’ के उद्घाटन पर उतर आते हैं।
क्यों भाइयों ! यह आपका अपनी ट्रेजेक्टरी के नक्षत्र मंडलों पर तनिक भी भिन्न बात करने पर सिरे से खफा हो जाना आपके जड़ीभूत व्यामोह या कि अपनी ट्रेजेक्टरी के नक्षत्र मंडलों पर एकाधिकार जमाने, अधिग्रहण कर लेने के प्रवृत्ति की निशानी नहीं है? या नहीं मानी जानी चाहिए? क्या यह समीक्षा के नाम पर तीन खंडों में पसरा आपका झउआ भर पांडित्य प्रदर्शन सब पर अपना रोब ग़ालिब करने या वह खुद बनना चाहने, जो बनने का आरोप आप मुझ पर लगा रहे हैं उसका और उसके पीछे की आपकी प्रतिक्रियावादी राजनीति का प्रतिबिंबन नहीं है?
दूसरे आरोप में उनका वहम अब अहम का रूप लेने लगता है। लिखते हैं- “उपरोक्त वर्णित उद्धरण के रेखांकित किए गए हिस्से में (“मुक्तिबोध, विरूद्धों के बीच सामंजस्य को नहीं, उनके बीच के विरोध को उघाड़ते हैं।”) आचार्य शुक्ल के विरूद्धों का सामंजस्य की अवधारणा पर हमारी स्थापना की संपूर्ण पुनरावृत्ति मिलती है जिसको कि थीसिस के तीसरे अध्याय में विश्लेषित किया गया है। थीसिस में लिखा गया है, “आचार्य शुक्ल का ‘विरूद्धों का सामंजस्य’ मुक्तिबोध के यहाँ विरूद्धों का सतत् असामंजस्य अर्थात नकारात्मक द्वंद्वात्मकता के रूप में विकसित होता है।” (2020, 104) क्या यह हमारे विचार का स्पष्ट प्रतिरूप या रेप्लिकेशन  नहीं है? “
हिंदी साहित्य में तनिक भी गंभीर रुचि रखने वाला अध्येता रामचन्द्र शुक्ल के ‘विरूद्धों का सामंजस्य’ से अपरिचित होगा यह आश्चर्य जैसी बात है। और मुक्तिबोध का तनिक भी गंभीर अध्येता जानता है कि मुक्तिबोध अपने समय के जीवन-जगत के साथ द्वन्द्व रूप में ही उपस्थित होते हैं। इसे जानने के लिए किसी शोध की जरूरत नहीं पड़ती। आपके पहले आरोप के संदर्भ में मैंने अपनी किताब का जो अंश प्रस्तुत किया है उसे ही देख लीजिए। और सच पूछिए तो इसे लिखते वक्त मुझे आचार्य शुक्ल की याद भी नहीं आई। अब आपका यह कहना कि “हिंदी की अकादमिक बहसों में आचार्य शुक्ल की इस अवधारणा पर मुक्तिबोधीय परिप्रेक्ष्य से किसी ने भी ऐसा दावा प्रस्तुत नहीं किया—-” तो इसके लिए आपको बधाई! मैं आपके इस दावे को सहर्ष स्वीकार कर लेता हूँ। इस विषय में मौलिकता का मेरा कोई दावा ही नहीं है।
लेकिन फिर यह कहते हुए कि यह दावा आया था “5सिटी-नोट्स कलेक्टिव  के अखबार सहचर  में जिसका कि स्वयं मैं भी हिस्सा रहा हूँ। (देखें, अखबार के बारे में, 2) ध्यातव्य हो कि यह अखबार भी 2019 में, राय के आलेख से पहले प्रकाशित हुआ है”, इसे भी आपने अपने साक्ष्य के बतौर प्रस्तुत किया है। तो मैं आपको बता दूँ कि आपके अपने गाइड द्वारा मुझे नेकनियती में भेजे गए एक चैप्टर, जिसे भी मैंने सरसरी निगाह से ही पढ़ा और उनसे कहा था कि अच्छा काम कर रहा है आपका शोध छात्र, उसके अलावा आपका कहीं और कुछ भी लिखा मैंने देखा तक नहीं है।
और अब आपके शब्दों में “तीसरे और सबसे महत्त्वपूर्ण साक्ष्य” को देखा जाए- “राय ने हमारे शोध-कार्य से केवल विचारों का ही अधिग्रहण नहीं किया है बल्कि गलत अनुवाद को भी टेप लिया है। ऐलन बाद्यु की दार्शनिक अवधारणा ‘Event’ के लिए हमने हिंदी शब्द ‘वारदात’ का प्रयोग किया है। यह हिंदी अनुवाद न केवल सटीक अनुवाद नहीं है बल्कि यह अँग्रेजी शब्द के साथ किसी भी तरह से संबंधित नहीं है। हमने इसे आकस्मिकता तथा अप्रत्याशिता को प्रकट करने के विशेष प्रयोजन से प्रयुक्त किया है जो कि बाद्यु की इस अवधारणा में अंतर्निहित है। जमा की गई फ़ाइनल थीसिस में हमने इस गलत अनुवाद के बारे में स्पष्टीकरण भी दिया है[17]। (देखें फुटनॉट संख्या 92, 190)
हिंदी की अकादमिक चर्चाओं में फिलहाल बाद्यु पर कोई विशेष चर्चा नहीं मिलती, अत: इस (गलत) अनुवाद का तो कोई सवाल ही नहीं उठता—।“ आदि इत्यादि। और प्रश्न करते हैं कि “राय हमारे द्वारा प्रयुक्त हुए इस गलत अनुवाद पर क्यों अटके हुए हैं। …….. यह गलत अनुवाद हमें यह स्पष्ट साक्ष्य देता है कि रामजी भाई कैसे एक मंझे हुए ‘खिलाड़ी’ की तरह हमारे शोध-कार्य से अधिग्रहण करते हैं—“
तो ‘Event’ के हिंदी अनुवाद के लिए ‘वारदात’ शब्द मैंने मुक्तिबोध की कविता ‘चम्बल की घाटी में’ से लिया है। आपने कहाँ से लिया है, मुझे नहीं पता। इवेंट का अनुवाद करने के लिए आपको ‘वारदात’ ही क्यों सूझा, भले ही वह आपको अब ग़लत लग रहा हो। मैं केवल अनुमान लगा सकता हूँ कि हो सकता है, मुक्तिबोध को पढ़ते हुए ही यह अनुवाद आपके भी मन में कौंधा हो।
वैसे यह बहु व्यवहृत शब्द है। ‘Event’ का अनुवाद अगर घटना भी किया जाए तो गलत नहीं होगा क्योंकि ‘घटना’ शब्द भी असामान्य और महत्वपूर्ण का बोध करा सकता है जब वह घटना किसी विशेष स्थिति में हो रही है। विशेष स्थिति में घटित ऐसी ही घटनाएं बाद्यु के यहाँ ‘Event’ हैं, सामान्य या सब तरह के Event नहीं। बाद्यु ने सत्य की जिन चार प्रक्रियाओं का जिक्र किया है (राजनीति, विज्ञान, कला और प्रेम) ‘वह हमेशा एक नवीनता होती है, घटना (‘Event’) की तरह।‘ अर्थात Badiou के यहाँ ‘सत्य उस ‘ईवेंट’ (घटना/वारदात) का सत्य है जो दुनिया को जानने और समझने के बुनियादी पैमानों को बदल देता है।‘
(वैसे एक शब्द के एक के अलावा भी और अर्थ हो सकते हैं, होते हैं और सामान्य के साथ विशेष अर्थ भी।
मैंने ‘वारदात’ का अर्थ समझने के लिए मद्दाह की देवनागरी के उर्दू-हिंदी शब्दकोश को देखा। वहाँ ‘वारदात’ अरबी भाषा ‘वारिद’ से विकसित शब्द है। शब्दकोश में ‘वारिद’ का अर्थ है- आनेवाला, आगामी, आया हुआ, आगत, दूत, क़ासिद। ‘वारिद’ का अरबी में बहुवचन है ‘वारिदात’। जिसका अर्थ दिया हुआ है- आनेवाला अर्थात घटित होनेवाला, घटना, वाकिया। अरबी में बहुवचन यह ‘वारिदात’ उर्दू में एकवचन के लिए व्यवहृत है और आम बोलचाल में ‘वारिदात’ की जगह ‘वारदात’ के रूप में चलन में है। इस ‘वारिदात’ शब्द का एक इजाफ़े –‘वारीदाते क़ल्ब’- के साथ शब्दकोश में यह अर्थ दिया गया है- हृदय में आनेवाली विचारधाराएं, महात्माओं के हृदय पर पड़नेवाले द्रव्य-प्रकाश। खैर!)
‘एक सत्य हर जगह और हमेशा प्रश्नरूप में होता है, इस पर तबतक किसी का ध्यान नहीं जाता है जबतक कि अस्ति और उपस्थिति, होने और दिखने के नियमों में कोई संबंध-विच्छेद न हो, जिसके दौरान प्रश्न सत्य रूप बन जाता है, लेकिन केवल एक क्षण के लिए समझ में आता है। बाद्यु इस तरह के संबंध-विच्छेद को इवेंट कहते हैं। जिस व्यक्ति को ऐसी इवेंट (घटना/वारदात) देखने का मौका मिलता है, अगर वह जो झलक देखता है उसके प्रति वफ़ादार है, तो वह सांसारिक परिस्थितियों में इसे नाम देकर सत्य का परिचय दे सकता है।‘ और यह चट मंगनी पट व्याह की तरह नहीं हो जाता, एक प्रक्रिया के तहत होता है। मुक्तिबोध की कविता ‘चम्बल की घाटी में’ ‘वारदात’ शब्द इसी रूप में व्यवहृत है।
मुक्तिबोध की रचनाओं में इस ‘संबंध-विच्छेद’ को मैंने बारहा महसूस किया और जब 2002 में मैंने मुक्तिबोध पर अपना पहला लेख लिखा तो उसमें मैंने इसको रेखांकित भी किया- “अपनी प्राचीन गौरवशाली सभ्यता और संस्कृति की बेहद सटीक व्याख्या और उसके प्रति बेहद ताकतवर और धारदार नजरिया और कितना रोमांचित और सजग करनेवाला->>>कोई हमदर्दी नहीं, पुराने के साथ पूरी तरह एक रैडिकल रॅप्चर, क्रांतिकारी संबंध विच्छेद के बिना नए भारत का स्वप्न नहीं देखा जा सकता। उसकी खोज और स्थापना नहीं की जा सकती। यह हमारे नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन के मनीषियों-चिंतकों, नेताओं और रवीन्द्रनाथ, जयशंकर प्रसाद आदि जैसे कवि विभूतियों की आलोचना भी है।“ (मुक्तिबोध : स्वदेश की खोज : पृष्ठ 188 और 190) तब तक मैंने बाद्यु को नहीं पढ़ा था। और जब पढ़ा तो इस एक बात ने मुझे आकर्षित किया। और अपनी किताब में सत्य के उद्घाटित होने की प्रक्रियाओं के एक प्रसंग में मुक्तिबोध, जॉक लकां, एडार्नो और ऐलन बाद्यु को भी संदर्भित किया, जिसे ये लोग भद्दे रूपवाद का ऐतिहासिक उदाहरण बताते हैं। इसके साथ शोधार्थी अनूप बाली का दावा है कि सबसे पहले वही ऐलन बाद्यु को हिंदी में ले आये। इसके लिए आपको  मुबारकबाद!, लेकिन बाद्यु को पहले पहल इंटरनेट में आप तो नहीं ही लाये होंगे पक्का। खैर!
आप चोरी के ‘महत्वपूर्ण’ इन तीन आरोपों के अलावा एक चौथा आरोप भी लगाते पाए जाते हैं, जो मेरे खयाल से इन सबसे महत्वपूर्ण है। वह यह कि उस चैप्टर के जिसे आपके गाइड ने मुझे नेकनीयत से भेजा था, उसमें से आपकी बिब्लियोग्राफी देख कर आपकी थीसिस की पूरी ट्रेजेक्टरी- Theodore Adorno, Alain Badiou, Jacques Lacan and   Samo Tomšič.- को ही मैंने उड़ा लिया, जो आपके अनुसार आपकी थीसिस का बैकबोन, फ्रेमवर्क और आपके पिछले छह सालों के मेहनत की कमाई है।
आप इस बात से तो इनकार नहीं करेंगे कि हम दोनों जिस वैचारिक-सांस्कृतिक देशकाल के सहभागी हैं, उनमें इन सभी विचारकों की सतत उपस्थिति बनी हुई है? अगर इसे कोई बहुत बड़ा संयोग माना जाए तो यही है कि हम एक ही देशकाल में एक ही विषय पर एक साथ काम करते पाए गए हैं। हमारा विचारधारात्मक पर्यावरण ही नहीं, हमारी  मित्र मंडली भी मिलती जुलती है। ऐसे में अगर मेरे और आपके काम में एक जैसे चिंतकों का उल्लेख हो गया तो क्या यह इतना आश्चर्यजनक है? देखना यह चाहिए कि मुक्तिबोध के सन्दर्भ में इन चिंतकों को संदर्भित करने की हमारी पद्धति, हमारा विश्लेषण और हमारे निष्कर्ष भी क्या एक जैसे हैं?  लेकिन आप तो हमारी पद्धति, विश्लेषण और निष्कर्षों से असहमत हैं। अपने तीन लेखों में अपने ढंग से आप इनकी धज्जियां उड़ाते हैं। फिर भी बौद्धिक और अवधारणात्मक चोरी का आरोप लगाते नहीं हिचकते। क्या आपको इस बात में कोई असंगति नहीं दिखाई देती?
हुआ यह कि 2002 में मुक्तिबोध पर अपना पहला लेख ‘मुक्तिबोध : नक्सलबाड़ी का अवांगार्द कवि’ लिखने के बाद 2007-8 में मैं दिल्ली में दीपू राय नाम के एक लड़के के यहाँ गया था। संयोग देखिए कि उसने मुझे जीजेक की एक किताब ‘द सब्लाइम ऑबजेक्ट ऑफ आइडियोलॉजी’ दी। वह किताब मुझे बड़ी दिलचस्प लगी। उसके जरिये जीजेक के साथ-साथ मेरी दिलचस्पी जॉक लकाँ में जगी और मैं इंटरनेट के सहारे जिजेक पर लकाँ के लिखे के अलावा स्वयं लकाँ के लिखे या उनपर औरों द्वारा लिखे को खोज कर पढ़ने लगा। उसी दौरान पार्टी के एक वरिष्ठ कामरेड गणेशन ने एलियनेशन और मार्क्स पर एक महत्वपूर्ण किताब दी। इस प्रक्रिया में मुझे इंटरनेट पर ही ‘कैपिटलिस्ट अनकान्सस’ नाम की एक पुस्तक की समीक्षा दिखी। कैपिटलिस्ट अनकान्सस नाम ने मुझे आकर्षित किया और उस किताब को इंटरनेट पर खोजने की कोशिश की। मिली तो लेकिन मैं उसे डाउनलोड नहीं कर पा रहा था। पार्टी के ही एक वरिष्ठ साथी बीबी पांडे और मित्र अवधेश त्रिपाठी से मैंने अपनी दिक्कत बताई। उन दोनों लोगों ने उसे डाउनलोड कर के मुझे भेज दिया।  इस तरह Samo Tomšič से मुलाकात हुई। (कामरेड बीबी पांडे और कामरेड गणेशन अब इस दुनिया में नहीं हैं।) इसी प्रक्रिया में ऐलन बाद्यु से भी मिलना हुआ। इसके अलावा मित्र विष्णु प्रभाकर ने विजय कुमार की ‘अंधेरे समय में विचार’ से लेकर टेरी इगलटन की ‘थियरी ऑफ आइडियोलॉजी’ से लेकर फूको, अलथ्यूसर आदि की कई किताबें दीं। विजय कुमार और टेरी इगलटन के सहारे Theodore Adorno तक पहुँच बनी। फिर इंटरनेट से भी कुछ मिला। मित्र प्रगल्भ मार्तंड, रणेन्द्र आदि से भी मैंने जरूरत की किताबें मांगी और उन लोगों ने भेजीं भी। इन सब में से कुछ का उपयोग भी मैंने किया। अपनी किताब में इन सब साथियों को आभार भी नहीं जता पाया। और इस तरह मेरे मन में मुक्तिबोध को इस ढंग से देखने की ललक पैदा हुई। और मैंने इन लोगों के काम के (मेरे खयाल से) जरूरी पहलुओं-सूत्रों को जरूरी विषय, स्थान और संदर्भ में उपयोग किया। आप मेरी किताब की समीक्षा के नाम पर जो पड़ताल करने निकले हैं उसमें आप लोग हर हमेशा मेरी मंशा, नीयत की पड़ताल करते और उस पर गलत सलत सैद्धांतिक-राजनीतिक रंग या मुलम्मा चढ़ाने में ही उलझे दिखाई पड़ते हैं।
मसलन आप अपनी समीक्षा में किसी जगह लिखते हैं -“? <<<<< पहले यह देखा जाये कि वे (रामजी राय) मनोविश्लेषण की पद्धति में कब से दिलचस्पी लेते दिखाई देते हैं। कथा के पिछले तीन-चार अंकों को पलटने पर पता चलता है कि राय इस दृष्टि से मुक्तिबोध को पहले देख नहीं रहे थे,>>>>”। तो क्या इसका अर्थ यह है कि मैं इन लोगों को पढ़ता भी नहीं रहा था? और कि  आप के नक्षत्र मण्डल की ट्रेजेक्टरी को चुरा लेने के बाद ही उधर मुड़ा? आशय तो यही लगता है, लेकिन ऐसा नहीं है। जैसा ऊपर मैंने कहा है कि इन सैद्धांतिकों-दार्शनिकों को मैं 2007-08 से पढ़ता-गुनता समझने की कोशिश करता रहा हूँ। किसी को ज्यादा किसी को कम, किसी-किसी को बिल्कुल ही कम। लेकिन उनका उपयोग जहां, जिस विषय में और जितना करने लायक लगा, वहीं और उतना ही किया।
प्रसंगवश, आप ने कहीं यह भी  लिखा है कि ‘इन सैद्धांतिकों-दार्शनिकों को मैंने उपकरण की तरह प्रयोग किया है।’ तो आप लोगों की यह बात सही है। मैंने सही में मुक्तिबोध को समझने में उनको एक उपादान की तरह, एक टूल की तरह ही लिया है। जिसके नाते उसे आप लोग मेरी ‘जुगाड़ तकनालॉजी’ कह कर उपहास करते, खिल्ली उड़ाते हैं। लेकिन मैं इसी आधार पर पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि आपके सैद्धांतिकों-दार्शनिकों की ट्रेजेक्टरी के नामों के बीच संयोगवश मेरे साथ समानता से आपकी छह वर्षों की मेहनत बेकार नहीं हो सकती। क्योंकि मैंने उनके मतों का उपादान या टूल्स की तरह उपयोग किया है, उनके साथ खुद को इंगेज नहीं किया है, मुझे ऐसा करने की जरूरत नहीं थी। लेकिन आपने उनके साथ बड़े पैमाने पर खुद को इंगेज किया होगा और उसके आधार पर अपना एक फ्रेम बनाया होगा। सो वह एक बिल्कुल नये काम की तरह सामने आएगा। हम सचमुच बड़ी उम्मीद के साथ उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
हां, मुझे आपलोगों की समीक्षा से कुछ लाभ भी हुआ है। बौद्धिक चोरी को मेरी आदत के प्रमाण स्वरूप वकीलों के कठदलील की तरह मेरी विकिपीडिया से ली गई एकाध सामग्री को स्रोत सहित विदिन कोट न देने की मेरी एडिटिंग की भूल को भी चोरी के साक्ष्य के रूप में दिया है। खैर भूल तो भूल। इसी तरह एकाध कोट में प्रूफ की गलती की भी शिनाख्त और उसके आधार पर मेरी बेवजह मज्जमत की है। खैर ग़लती तो ग़लती। इसके लिए आप लोगों का शुक्रिया!
प्रसंगवश एक बात और। शोधार्थी मित्र यहीं नहीं रुकते। आप यह भी कहते पाए जाते हैं कि ‘आश्चर्यजनक रूप से मुक्तिबोध की मेरे द्वारा उद्धृत दो कविताएँ रामजी राय भी उद्धृत करते हैं और यही नहीं, रामजी राय द्वारा की गई कविताओं की व्याख्या भी मेरे (शोधार्थी अनूप बाली) द्वारा की गई व्याख्या से बिल्कुल मिलती है। आपका यह अब हद से भी आगे बेहद तक जाना देख मैं तो बिल्कुल ही चौंक गया। और मेरे मन में यह आशंका हुई कि कहीं यह पहले से ही की गई कोई पेशबंदी तो नहीं है! लेकिन मैंने इस खयाल को मन में बसने नहीं दिया, बाहर ही धकेलता रहा।
यह आशंका इसलिए भी पैदा हुई कि मैंने अपनी किताब के एक लेख को छोड़ (जिसे मैंने किताब छपने में हो रही देरी के बीच लिखा) सारे लेख हम दोनों के साझा मित्र मार्तंड को भेज दिया था, यह कहते हुए कि ‘इसे ठीक से देख लीजिएगा। जो इसमें कमी-बेसी हो उसे बेझिझक और बेमुरौवत बताइएगा, उसे ठीक कर लेने का वक़्त अभी है। कुछ दिन बाद मैंने उनसे इस बाबत पूछा तो उन्होंने ये जवाब दिया- ‘अब आपने तो लिख डाला है, अगर इसे मिल कर सामूहिक प्रयास के तहत लिखे होते तो लेकिन अब आपने तो पूरा लिख डाला है, तो अब किताब आने पर ही बात होगी।’ तब इसका मतलब मुझे नहीं समझ आया था। तो यह किस्सा वाकई 2020-2023 के बीच तक फैला हुआ और पेचोखम भरा तवील किस्सा है।
“ जैसा हूँ वैसा क्यों हूँ समझा सकता था मैं
तुमने पूछा तो होता बतला सकता था मैं ”
अभी बस इतना ही।

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