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कहानी

‘ सहारे का सूर्यास्त ’ : गांव के बदलते यथार्थ की तस्वीर

डॉ विन्ध्येश्वरी उन कहानीकारों की सफ़ में दिखते हैं जो सुदूर गांव में रहकर चिकित्सारत रहते हुए वर्ग-वर्ण विभाजित गांव की कहानियां लिखते हैं। उनकी कथा -दृष्टि में आज का गांव आधुनिक सभ्यता की कोई द्वंद्वहीन ईकाई नहीं है। गांवों में न सिर्फ सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, वैचारिक गहरी खाइयां हैं, बल्कि वर्णवादी -जातिवादी गहरे अंतर्विरोध भी हैं, जिनके बीच सामाजिक शक्ति संतुलन के लिए बहुआयामी संघर्ष चलते रहते हैं, जो सत्ता के गलियारे को चौमुखा हिलाते रहते हैं।

‘ सहारे का सूर्यास्त ‘ डॉ विन्ध्येश्वरी का दूसरा कहानी संग्रह है जिसमें गांव के बहुआयामी यथार्थ पर आधारित उनकी ग्यारह कहानियां संकलित हैं।’ गिन्नी का गांव ‘ संकलन की पहली कहानी है। कथाकार अपने पास-परिवेश पर पैनी संवेदनात्मक दृष्टि रखते हैं और आसपास की गतिशीलता में अपनी कहानी का प्लॉट खोज लेते हैं।

गिन्नी गांव के सामाजिक आर्थिक हाशिए पर पड़े उस मजूर का बेटा है जिसे गांव का जमींदार ज्वाला ठाकुर शराब पिला पिला कर मार डालता है जिससे कि उसकी झोंपड़ी की जमीन कब्जा सके। गिन्नी की मां मर जाती है, बहन भी विषपान कर जान दे देती है। गिन्नी को गांव से भागना पड़ता है। गिन्नी के जीवन की बिडंबना देखिए कि गांव में उसका बाप भू -सामंत के छल का शिकार होता है और शहर में गिन्नी को शराब कारोबारी के घर आश्रय मिलता है। शराब कारोबारी के सभी अमले शराब पीते हैं, लेकिन भयभीत गिन्नी शराब नहीं पीता। कहानी इस बारे में मौन है कि शराब कारोबारी गिन्नी को मेहनताना क्या देता है। कथानक से प्रतिध्वनि निकलती है कि शराब दुकानदार गिन्नी को उचित मेहनताना नहीं देता। गिन्नी गठिया से पीड़ित होकर श्रम करने में असमर्थ हो जाता है। शराब दुकानदार गिन्नी से छुटकारा पाना चाहता है। इसी बीच कोरोना काल आ जाता है। शराब का धंधेबाज मामूली सर्दी से पीड़ित गिन्नी को हॉस्पिटल में क्वारेंनटाइन करा देता है जहां गिन्नी का त्रासद अंत हो जाता है। ज्वाला ठाकुर और शराब दुकानदार दोनो गिन्नी से मुक्त हो जाते हैं।

कहानी यह रेखांकित करती है कि जमींदारी उन्मूलन कानून और भूमि सुधार कानून पास होने के बाद भी ज्वाला ठाकुर जैसे जमींदारों का वर्चस्व गांवों में बना हुआ है और शहरों में शराब कारोबारी इन्हीं ज्वाला ठाकुरों के प्रतिरूप हैं। लेकिन कहानी में शराब कारोबारी अनाम है। वह कथावाचक का मामा है।

‘ सहारे का सूर्यास्त ‘ बेसहारा बुजुर्ग माता-पिता की कारुणिक कहानी है। गांव में शहरीपन घुस रहा है। पहले गांवों में वृद्ध माता-पिता की सेवा पुण्य था। अब गांव का यथार्थ बदला है। रिटायर्ड पोस्टमास्टर कैलाश बाबू पत्नी शंकुतला के साथ गांव में रहते हैं। दोनों बेटे प्रशांत और प्रकाश शहरों में नौकरी करते हैं और सपरिवार वहीं रहते हैं। छठे छमाही पुश्तैनी धन -संपत्ति की खोज खबर लेने गांव आते हैं। प्रकाश तो सात वर्षों में मात्र दो बार आया है। बूढ़ी शंकुतला प्रकाश के बेटे चिंटू में दिन रात लगी रहती हैं। प्रकाश की बहू संवेदनहीन, दायित्वहीन, आत्मकेंद्रित युवा स्त्री की प्रतीक है। वह छत पर चढ़कर पड़ोसी स्त्री से अपना अभ्यांतर खोलती है : लड़का सरकारी नौकरी में था, इसलिए मेरी शादी यहां हुई थी …..मेरी शादी बूढ़ा -बूढ़ी की सेवा करने के लिए नहीं हुई है।’ कैलाश बाबू और शंकुतला जी पुरानी मान्यताओं, परंपराओं, मूल्यों के साथ जीने के आदी हैं। प्रकाश और उसकी बहू परंपरागत मूल्यों की कोई परवाह नहीं करते। प्रकाश की बहू हठात चिंटू के स्वास्थ्य का हवाला देकर गांव से चली जाती है। कहानी नयी पीढ़ी की कृतघ्नता और संवेदनहीनता पर यथोचित चोट करती है।

‘ कालाबाबू का कुआं ‘ कहानी का स्थापत्य निबंधात्मक है। इसका वितान औपन्यासिक है। इसका नायक समय है। इसके कथानक की अवधि वैदिक काल से लेकर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक है। इतनी लंबी अवधि के कथानक को कहानी के शिल्प में बांधना थोड़ा दुष्कर है। लेकिन कथाकार की कथा -दृष्टि के पास एक विशेष कथ्य है जो उसकी रचनात्मकता को बेचैन किये हुए है। इस कहानी के कथा -पात्र अंग्रेज प्रशासक, जमींदार बृजलाल बाबू, कालाबाबू, नागा पहलवान, जगर पांडे, रामायण साव, सेवक साव, गिरिधर साव, रजेसर पांडे हैं। इतने बड़े फलक की कहानी को मात्र साढ़े चौदह पृष्ठों में समेट देने का हुनर और कौशल कथाकार के पास है।

जमींदारी का इतिहास 1793 के सेटलमेंट से शुरू होता है और 1956 ई. के जमींदारी उन्मूलन पर खत्म होता है। कुल 163 वर्षों का इतिहास, और देश हजारों साल पुराना! कहानी में ब्रिटिश काल के जमींदार बृजलाल बाबू और स्वतंत्र भारत के जमींदार कालाबाबू के जुल्मों की स्मृतियां कथा पृष्ठभूमि में बहुत अप्रासंगिक नहीं है। ये नहीं भी होतीं तो कहानी के सेहत पर बहुत प्रभाव नहीं पड़ता। बिहार में जमींदारी उन्मूलन कानून पास होने के बाद दरभंगा महाराज, टेकारी महराज और डुमरांव महाराज के विशाल परिसरों में धूल उड़ती है। यह भी स्मरणीय है कि बिहार जैसे राज्यों में राजनीतिक आर्थिक सत्ता से सवर्ण वर्चस्व साढ़े तीन दशक से समाप्त हो चुका है। निकट भविष्य में उनकी वापसी की संभावना नहीं दिखती। ऐसी ही पृष्ठभूमि में कथा पात्र जगर पांडे कहानी में आता है। वह अपराधी चरित्र का है। उसे उसी की जाति समुदाय के लोग खदेड़कर कालाबाबू के कुआं के पास मार डालते हैं। गांव में सुखी संपन्न साव जाति के लोग हैं। रामायण साव गांव में आर्थिक शक्ति हैं। वे जगर पांडे के हत्यारों को जेल से छुड़ाने में मदद करते हैं। ऐसे में वे भी चपेट में आ जाते हैं और सेवक साव सहित गांव के बगीचे में मारे जाते हैं। यह बात पचासों साल पुरानी हो चुकी है। फिर कथावस्तु जबर्दस्त उछाल मारती है। कहानी आ जाती है इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में। मंदिर -मस्जिद वादी शक्तियां गांव में सक्रिय हो गयी हैं, जहां क्रांतिकारी शक्तियों ने वर्चस्व स्थापित कर लिया है। हिंदुत्ववादियों को एक आइकन चाहिए। वे अपराधी चरित्र के जगर पांडे को क्रांतिकारी, विकासपुरुष एवं गरीबों का सेवक बता रहे हैं। वे गांव के शिवमन्दिर की घेराबंदी चाहते हैं और शिवमन्दिर परिसर में जगर पांडे की प्रतिमा लगाने चाहते हैं। इधर क्रांतिकारी शक्तियों का नेतृत्व मृत सेवक साव का बेटा गिरिधर साव कर रहा है। वह अपने पिता के बारे में नया नैरेटिव गढ़ रहा है कि ‘ इसी कुआं (कालाबाबू का कुआं ) और जमीन पर सार्वजनिक हक दिलाने में रामायण साव और सेवक साव की हत्या हुई थी।’ कहानी में सांप्रदायिक उन्माद के खिलाफ जनता गोलबंद होती हुई दिखती है। यह बदलते गांव की सार्थक तस्वीर है।

‘पाखंड’ कहानी की कथाभूमि गांव नहीं है। इसमें राष्ट्रीय स्तर के एक हिंदी कथाकार महानंदा जी के दोहरे चरित्र का पर्दाफाश है। भाषणों में वे गांवों और किसानों के प्रति संवेदना का बहुत इजहार करते हैं पर मंच से उतरते ही सब भूल जाते हैं। राष्ट्रीय ख्याति के इस लेखक को मोहल्लेवाले भी नहीं जानते हैं।

‘ दूसरा नकाबपोश ‘ एक भ्रष्ट चिकित्साधिकारी के अनैतिक आचरण की कहानी है। डॉ. अंबष्ठ स्वास्थ्य उपकेंद्र में जब जाता है तब गांव के स्वस्थ बच्चों के बीच पुरस्कार में चॉकलेट, दूध के डिब्बे, कपड़े, खिलौने बांटता है। कथावाचक ‘मैं’ को पेटेंट दवा बेचने के लिए लाइसेंस चाहिए। मेडिकल क्लर्क ने कहा है कि डॉ. अंबष्ठ आठ सौ रुपये लेगा। कथावाचक जमाल साहब से पैरवी लगाता है, अपनी गरीबी लाचारी का रोना रोता है। डॉ. अंबष्ठ लाइसेंस नहीं जारी करता है। कथावाचक डॉक्टर का चेहरा बेनकाब देखता है। यह सार्थक कहानी है।

‘ आत्मघात ‘ अवकाश ग्रहण के कगार पर खड़े एक सरकारी सेवक की आत्महत्या की कारुणिक कहानी है। सरकारी सेवक का स्नातक बेटा बेरोजगार रह जाता है। सरकारी सेवा की उम्र सीमा पार करनेवाली है। एक बेटी भी ब्याहनी है। अगर वह सेवा काल में मर जाये तो अनुकंपा के आधार पर उसके बेटे को सरकारी विभाग में नौकरी मिल सकती है। बेचारा सरकारी सेवक विषपान कर आत्मघात कर लेता है। बेरोज़गारी पर यह मार्मिक कहानी है।

‘दंश’ अतिशय धार्मिक, अंधविश्वासी, छुआछूत माननेवाली, घिसे -पिटे विचारों वाली शंकुतला की कहानी है। कहानी में धारदार तंज है। गृहिणी शंकुतला के पति शंभुशरण जी स्कूल के शिक्षक हैं। पत्नी के विपरीत वे धार्मिक पाखंड से अति दूर, छुआछूत नहीं माननेवाले, वैज्ञानिक सोच और व्यवहार के व्यक्ति हैं। शंकुतला पति को समय पर भोजन भी नहीं कराती है। वह गृहिणी धर्म का पालन करने में सर्वथा असमर्थ है। वह विनम्र शंभुशरण जी पर कठोर शब्दों का प्रहार करने से बाज नहीं आती। कहानी में अतिशय धार्मिकता और कर्मकांड पर धारदार व्यंग्य है।

‘रिश्तों में छिपे हुए ‘ एक नि: संतान स्त्री की मनोवैज्ञानिक कहानी है। कभी -कभी लगता है कि यह स्त्री विरोधी कहानी है। कथानायिका रेशमा की शादी हुए सात वर्ष हो गए हैं। उसे दाम्पत्य का कोई सुख नहीं है। वह जिस्म की तपिश बुझाना चाहती है। वह मातृत्व की भूखी है। वह अपने देवर चंद्रमोहन से प्रणय निवेदन करती है। वह तथाकथित खानदानी इज्जत के मोहपाश में बंधा है। रेशमा अपमानित महसूस करती है और उग्र हो उठती है। वह चंद्रमोहन पर छेड़छाड़ का आरोप लगाकर विचित्र दृश्य क्रिएट करती है। यौन व्यवहारों पर यह नये कथ्य की कहानी है।

‘ कमीना ‘ कहानी कहानीकार की आपबीती है। कथा पात्र रिक्शाचालक मंगल कथावाचक महेश का सहपाठी था। समय की बिडंबना देखिए कि मंगल गरीबी की मार सहते-सहते रिक्शाचालक हो गया और महेश दवा दुकानदार। महेश तीन पेटी दवा खरीदकर अपने गांव सकला बाजार लौट रहा है। उसे करथ वाली बस पकड़ने है। उसने मंगल का रिक्शा भाड़ा पर लिया है। लेकिन पहलेमहेश मंगल को पहचान नहीं पाता। बाद में पहचानता है। बस पकड़ने की आपाधापी में महेश का हैंडबैग रिक्शा में छूट जाता है। उसमें मूल्यवान गहने और नगदी हैं। ईमानदार मंगल हैंडबैग लेकर बस के पास उपस्थित होता है। महेश न रिक्शाभाड़ा देता है न कोई बख्शीश। प्रश्न उठता है कि कौन कमीना है रिक्शाचालक मंगल या दुकानदार महेश ? जाहिर है महेश।

‘ आहुति ‘ वैज्ञानिक चेतना संपन्न सामाजिक ऐक्टिविस्ट मास्टरजी के अचानक निधन की मार्मिक कहानी है। बिहार के गांवों में क्रांतिकारी चेतना से लैस अनेक ऐक्टिविस्ट सक्रिय हैं। ‘आहुती’ कहानी उसी पृष्ठभूमि की कहानी है। इस कहानी में क्रांतिकारी शहीद जगदीश प्रसाद के व्यक्तित्व की झलक मिलती है। कथाकार फ्लैशबैक कौशल का उपयोग करते हुए कथानक मास्टर जी के पारिवारिक जीवन पर प्रकाश डालते हैं। मास्टरजी की सादगी का सटीक चित्रण है। वे एक सामान्य मजूर का जीवन जीते हैं। उनकी चौपाल में शिक्षा, समाज और राजनीति पर खूब बात होती हैं। वे गांवों में रात के अंधेरे में किसानों से मिलने जाते हैं। उनमें राजनीतिक चेतना जगाते हैं। गांवों में वे बहुत लोकप्रिय हैं। प्रतिक्रांतिकारी शक्तियां उनको झूठे मुकदमे में फंसाना चाहती हैं। उनके स्कूल का हेडमास्टर स्कूल में चोरी कराकर पुलिस से उनपर संदेह की बात करता है। मास्टरजी तिवारी को चुनौती देते हैं। वे स्वयं गुस्से का शिकार होकर गिर जाते हैं। उनकी मृत्यु हो जाती है।मास्टरजी के अंतिम दर्शन के लिए गांव जवार की जनता उमड़ पड़ती है। गांव में नयी राजनीतिक चेतना का उदय हो रहा है।

कहानी -संग्रह में कहीं-कहीं प्रूफ की अशुद्धि मिलती है, जिसे अगले संस्करण में सुधारा जा सकता है। कहानियों की भाषा सहज एवं संप्रेषणीय है जो गांव के बदलते यथार्थ की तस्वीर उकेरती है।

 

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