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मुक्तिबोध की अख़बारनवीसी

हिन्दी साहित्य में आधुनिक और प्रगतिशील चेतना के साथ सर्जना करने वालों में गजानन माधव मुक्तिबोध का नाम सबसे प्रमुख है। कविता, कहानी, आलोचना तथा अन्य गद्य-विधाओं के लेखन में वे अपनी उसी चेतना को विस्तार देते हैं। इसी क्रम में उनकी अख़बारनवीसी को भी रख कर देखा जा सकता है।

1937 से 1957 ई. तक करीब 57 लेख व टिप्पणियां ‘राजनैतिक तथा अन्य लेखन’ नाम से उनकी रचनावली के छठें खण्ड में संकलित है।

महत्वपूर्ण बात यह, कि इसमें अधिकांश लेखन तत्कालीन राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों और समस्याओं पर केन्द्रित है।

यह 1954 से 1957 ई. तक ‘नया खून’ और ‘सारथी’ में यौगन्धरायण व अवन्तीलाल गुप्त जैसे छद्मनाम व कुछ बिना नाम से छपे हैं।

इसमें मुक्तिबोध बेहद वस्तुनिष्ठ ढंग से द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के बनते-बिगड़ते जमाने को पहचानते हैं। ब्रिटेन, फ्रांस की साम्राज्यवादी दुनिया के भीतर लगी दरार, इसका क्रमशः ढहना और अमेरिकी साम्राज्यवाद के उभार पर मुक्तिबोध ने जो टिप्पणियां की हैं, उन्हें अब पढ़ने पर लगता है कि जैसे कोई भविष्य-वाचन कर रहा हो।इसके साथ ही एंग्लो-फ्रांस के साम्राज्यवादी शासन से मुक्त हुए देशों के निर्माण के अवयवों को भी वे  रेखांकित करते हैं।

इसकी दिशा और इसके संकट दोनों पर उनकी नजर बड़ी साफ है। कोई भ्रम नहीं। आज सत्तर साल बाद इसे कहते हुए तश्वीर और भी स्पष्ट हो चुकी है।

अन्तर्राष्ट्रीय घटनाक्रम के भविष्य में पश्चिम एशिया और उसके तेल-भण्डार की क्या भूमिका होगी, इसे मुक्तिबोध तभी पहचान लेते हैं। यह विभिन्न देशों की राजनीतिक और कूटनीतिक गतिविधियों पर गहरी नजर रखने से ही सम्भव था।
‘नया खून’ में बिना नाम से अंतर्राष्ट्रीय कालम में छपी कमेण्ट्री का शीर्षक है, ‘जेनेवा कान्फ्रेंस के नेपथ्य में मृत्यु-संगीत’। इसकी पहली लाइन है-

फ्रांस में लेनिए सरकार का पतन आगामी तूफानों का सूचक है। आगे वे लिखते हैं-

‘फ्रांस इस समय ‘यूरोप का बीमार’ देश है। उसे गहरा बुखार है। फ्रांस अपने साम्राज्यवाद को ले कर जी नहीं सकता और वह जीते-जी साम्राज्यवाद को छोड़ नहीं सकता। उसके एंग्लो-अमरीकी डाॅक्टर उसे दिलासा देते रहते हैं। लेकिन दिलासे से रोग दूर नहीं होता।’

फिर उनकी टिप्पणी है-

‘बहुत सम्भव है कि कुछ ही दिनों के भीतर लेनिए सरकार के स्थान पर नयी सरकार बने। किन्तु यह नयी सरकार भी तब तक कोई भी समस्या हल नहीं कर सकती जब तक वह कम-से-कम (1)अमरीकी युद्धवादी प्रलोभनों में नहीं फँसती,

(2)हिन्दचीन से अपने शिकंजे उठा लेती है,

(3)आर्थिक दृष्टि से स्वयंपूर्ण और स्वावलम्बी फ्रांस का विकास नहीं करती।…उग्र दक्षिणपन्थी नयी सरकार यह कहां तक करेगी, यह अनिश्चित है।…यह दक्षिणपन्थी सरकार अपने प्रतिक्रियावादी, साम्राज्यवादी हितों को ध्यान में रखते हुए फिर एंग्लो-अमरीकी रास्ते पर चलेगी, ठोकर खायेगी और मरेगी।असलियत में फ्रांस देश को सन्निपात के झटके आ रहे हैं। ये झटके बढ़ते-बढ़ते साम्राज्यवादी फ्रांस की मृत्यु के कारण होंगे, यह निर्विवाद है।’
ध्यान देने की बात है, कि एक तरफ वे फ्रांसीसी साम्राज्यवाद के अवसान के लक्षण पहचानते हैं, तो दूसरी तरफ नये सामराजी उभरते देश अमरीका को ‘युद्धवादी’ विशेषण देते हैं। आज यह बात भी सिद्ध ही हो चुकी है कि अमरीका के हथियार उद्योग से जुड़े  पूंजीपतियों की वहां की राजनीति में निर्णायक भूमिका होती है।

अरब देशों से लेकर पश्चिमी एशिया में जिस तरह से आज अमरीका युद्धों को जन्म दे रहा है, थोप रहा है उसे देख कर मुक्तिबोध का दिया विशेषण मौजूं है।
आज अमरीका हथियारों के व्यापार में पूर्ण अधिकार चाहता है और इसमें वह रूस, चीन और फ्रांस की प्रतिस्पर्धा को तमाम कूटनीतिक चालों, कुचक्रों और षड्यन्त्रों से खत्म करने में लगा हुआ है। अमरीका की इस प्रवृत्ति को मुक्तिबोध चिन्हित करते हैं।

1955 में इजिप्ट द्वारा चेकोस्लोवाकिया से शस्त्र खरीदने पर लंदन के टाइम्स ने लिखा कि इसका नतीजा इजिप्ट के लिए बुरा होगा। इस एंग्लो-अमरीकी रोष पर टिप्पणी करते हुए मुक्तिबोध 9 अक्टूबर को सारथी में ‘मिस्र के विरुद्ध इतना रोष क्यों’, शीर्षक में लिखते हैं-

‘सारांश यह कि प्रगति-विरोधी तत्वों की सहायता से, साम्राज्यवादी राष्ट्र उन देशों में, जहां उनके हित खतरे में पड़ जाते हैं, राजनैतिक षड्यन्त्र रच कर हस्तक्षेप करते हैं। उनकी सहायता और प्रोत्साहन द्वारा राजनैतिक नेताओं का कत्ल किया जाता है और सरकारें पलट दी जाती हैं। इजिप्ट में इस तरह के षड्यंत्र नहीं होंगे, इसकी क्या गैरण्टी है?’

मुक्तिबोध ब्रिटिश और फ्रांसीसी साम्राज्यवाद को जहां अन्तप्राय बताते हैं वही उभरते अमरीकी साम्राज्यवाद को लम्बे समय तक दुनियां के यथार्थ का हिस्सा बने रहना भी बताते हैं।

नेहरू-नासिर-टीटो की अगुवाई में तटस्थ देश अमरीकी राजनीति को फीका तो कर देते हैं, इस तथ्य को स्वीकारते हुए मुक्तिबोध 8 जुलाई 1956 के सारथी में लिखते हैं-

‘लेकिन फिलहाल अमरीका के पैर नहीं उखड़ेंगे।’

फिर 16 दिसम्बर 1956 को सारथी में ही लिखते हैं-

‘किन्तु अमरीका, कम्युनिस्ट देश, तटस्थ देश इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं कि चीन, भारत, अमरीका, रूस आदि देश बिना किसी मौलिक परिवर्तन के एक अरसे तक इस भू-भाग पर रहने वाले हैं। ब्रिटेन, फ्रांस तथा पुर्तगाल-जैसे देश अगले पचास वर्षों में क्षीण हो कर अपनी देशी सीमा के भीतर सिकुड़ जाएंगे। और उन्हें इस प्रक्रिया की सारी पीड़ाओं से गुजरना पड़ेगा।भयानक उथल-पुथल का दौर उन्हें समाप्त तो करेगा ही, साथ ही दुनिया का एक नक्शा बनाने तक वे दूसरों को तकलीफें देने का बहुत बड़ा कारण बनेंगे।’

अमरीका के वर्चस्व को उस समय कम्युनिस्ट सोवियत संघ से चुनौती जरूर मिल रही थी और इसमें सोवियत संघ तटस्थ राष्ट्रों की प्रगतिशील राष्ट्रवादी महत्वाकांक्षाओं के साथ खड़े हो कर बढ़त पर था लेकिन उसके सामने जो वैचारिक संकट था उससे उसे पार पाना था।जिसे ले कर मुक्तिबोध लिखते हैं-

‘एक बार अन्तर्राष्ट्रीय मोर्चों पर रूसी नीति अत्यन्त दृढ़ हो जाने के बाद , रूस को अपने घर के भीतर भी झांकना है।…आज उसे सिद्धान्त से अधिक व्यावहारिक लक्ष्यों की पूर्ति करना जरूरी है। इसलिए, वह वैचारिक क्षेत्र में पैदा हुई हलचलों से काफी लापरवाह हो कर काम कर रहा है। लेकिन वह अधिक दिनों तक ऐसा नहीं कर सकता। एक बार उसे वैचारिक युद्ध में कूदना ही पड़ेगा।…जो जनतांत्रिक प्रक्रिया उन्होंने अपने देश और अन्य युरोपीय कम्युनिस्ट देशों में शुरू कर दी है, वह बीच में ही नहीं रोकी जा सकती।’

जाहिर है 1990 के सोवियत विघटन ने यह दिखाया कि रूस इस वैचारिक संकट को हल करने की दिशा में नहीं बढ़ा।

इसके बाद अमरीकी साम्राज्यवाद को जहां से चुनौती मिलनी थी, वह थी तटस्थ देशों की स्थिति। मुक्तिबोध बार-बार जिन बातों को दुहराते हैं, वे हैं कि तटस्थ देशों का अपने पैर पर खड़े होना। इसके लिए जरूरी तत्वों की ओर वे इशारा करते हैं। 3 अक्टूबर 1954, सारथी में लिखते हैं-

‘आज विदेशी पूंजी के आमन्त्रण को राष्ट्रीय आवश्यकता बतलाया जाता है। यह सहज ही भुला दिया जाता है कि पिछड़े हुए मध्य-पूर्वी राष्ट्रों में स्वदेश में लगी हुई विदेशी पूंजी के राष्ट्रीयकरण का सुविस्तृत आन्दोलन चला हुआ है—वह सम्पूर्ण सफल हुआ है या असफल, यह अलग बात है। वह आन्दोलन केवल इसलिए है कि राष्ट्र आर्थिक दृष्टि से सार्वभौम प्रभुत्वसम्पन्न हो, कि स्वदेशी जनता का शोषण विदेशी पूंजी न कर पाये, स्वदेश का पैसा विदेश न पहुंचे।’

इतना ही नहीं मुक्तिबोध तटस्थ देशों के राष्ट्रनिर्माण में जमीनों के राष्ट्रीयकरण को भी आवश्यक बताते हैं।ऐसा कर के ही तटस्थ देश अपना स्वतंत्र विकास व निर्माण कर सकते हैं। इसी से नये शक्ति-सन्तुलन की स्थापना हो सकती है तथा साम्राज्यवादी मंसूबे विफल हो सकते हैं। वे 8 जुलाई की अपनी टिप्पणी में लिखते हैं-

‘तटस्थ देश यह खूब पहचानते हैं कि उनके विकास की प्रक्रिया साम्राज्यवाद के अस्त की प्रक्रिया है। उनकी शक्ति, सम्पदा और श्री की वृद्धि से ही अन्य गुलाम, आधे-गुलाम या भाड़े के टट्टू देशों की जनता सच्ची राजनैतिक और आर्थिक आज़ादी प्राप्त कर सकेगी।’

लेकिन मुक्तिबोध नवमुक्त तटस्थ देशों की उन्नति को तभी साकार होता हुआ मानते हैं, जब विश्व शान्ति हो।और ‘विश्व शान्ति अमरीका पर बहुत कुछ निर्भर करती है।’
अमरीकी साम्राज्यवाद की तटस्थ देशों, अरब राष्ट्रवाद तथा पश्चिम एशिया के उभरते प्रगतिशील राष्ट्रवाद के प्रति जो छल-कपट भरा रवैया आज है, मुक्तिबोध उसे भी पहचानते हैं। वे 17 जून 1956, सारथी में लिखते हैं-

‘अमरीका दूसरे देशों के वास्तविक राष्ट्रीय औद्यौगीकरण को अपने लिए लाभप्रद और उचित नहीं समझता।’
तटस्थ राष्ट्र, अरब और पश्चिम एशियाई देशों में अमरीका उन्हीं देशों के साथ खड़ा हुआ जिसमें उसकी कठपुतली सरकारें बनीं। अन्यथा युगोस्लाविया, इराक का हश्र सामने है। नव अरब क्रान्ति तथा मिश्र और सीरिया के नये प्रगतिवादी आकांक्षाओं के उभरते ही अमरीका षड्यन्त्रों की नयी बिसात के साथ पुनः सक्रिय है। इन देशों में अमरीका की नज़र तेल पर है।

9 अक्टूबर 1955 सारथी, में मुक्तिबोध लिखते हैं-

‘जब तक एंग्लो-अमरीकी साम्राज्यवाद का बस चलेगा, वे भूमध्य सागर के किसी भी राष्ट्र को बलवान नहीं ही होने देंगे।…वे कभी यह न चाहेंगे कि उनके औद्योगिक मुनाफ़े के प्रमुख साधन तेल का अधिकार उनके हाथों से छूट कर अरब राष्ट्रों के पास पहुंच जाए। इसलिए वे अरब राष्ट्रों में ऐसी सरकार बनाए रखना चाहते हैं, जो उनके तेल की सुरक्षा करें और बढ़ते हुए अरब राष्ट्रवाद के हमलों से उसे बचाये रखें।…उनकी नीति यह रही है कि वे उन देशों में अपनी विशाल फ़ौजी छावनियां बनाये रखें।’

अब तो भारत ने भी उन्हें फ़ौजी छावनी बनाने की इज़ाजत दे दी। जबकि मुक्तिबोध ब्रिटेन, जापान, जर्मनी तथा अन्य देशों में मदद के नाम पर स्थापित अमरीकी फ़ौजी छावनियों के दुष्परिणाम गिनाते हैं कि वे देश आज तक आन्तरिक और विदेश नीति को स्वतंत्र व आत्मनिर्भर नहीं रख पाये।

29 जुलाई 1956 सारथी में मुक्तिबोध लिखते हैं-‘आज यह हालत हो गयी है कि पश्चिम जर्मन क्षेत्र में जो अमरीकी फ़ौजें तैनात हैं, उनके खिलाफ भावनाएं भड़क रही हैं। इन फ़ौजों पर जर्मन स्त्रियों के प्रति अनैतिक व्यवहार, गुण्डेशाही और अत्याचार के आरोप लगाए गये हैं।…पूर्वी एशिया में नयी-नयी घटनाएं सामने आ रही हैं। उनमें से एक है फिलिपाइन्स में और जापान में अमरीकी अड्डों के प्रति विक्षोभ।’

अब अगर आज के विश्व-जगत पर नजर डालें तो मुक्तिबोध के तमाम निष्कर्ष, आशंकाएं जो
अन्तर्राष्ट्रीय घटनाक्रम तथा समस्याओं पर कमेण्ट्री में उभरती है, साक्षात दिखने लगी है।

अमरीकी सामराज की काली करतूतों, युद्धवादी मंसूबों तथा लोभ-लालच की वीभत्स-वीप्सक प्रवृत्ति ने पूरी दुनिया को संकट में डाल दिया है।

इसे चुनौती देने के लिए जिन तटस्थ देशों में उम्मीद देखी थी उसका अगुआ भारत आज अमरीका की गोद में बैठने को ललक उठा है। ऐसा नहीं कि भारत के यथार्थ में मौजूद तत्कालीन प्रवृत्ति पर उनकी दृष्टि नहीं गयी। बल्कि वह खूब गयी है।

एक टिप्पणी का शीर्षक ही है-‘समाजवादी समाज या अमरीकी-ब्रिटिश पूंजी की बाढ़’, इसमें वे लिखते हैं-

‘गरीब वर्गों और अमीर वर्गों के बीच की खाईं अब पहले से ज्यादा बढ़ गयी है। यहां तक कि मध्य वर्ग और निम्न-मध्य वर्ग के बीच भेद की दीवार और न फाँदे जा सकने वाली खाईं पड़ी हुई है, जो बढ़ती जा रही है।’

इसी में वे आगे लिखते हैं-

ये मध्य वर्ग, वस्तुतः धनी वर्ग हैं, जिन्हें खुद के और अपने बाल-बच्चों के निर्वाह, शिक्षा आदि की कोई चिन्ता नहीं है। उनके बच्चे बड़े-बड़े अधिकारी, बड़े-बड़े विशेषज्ञ, बड़े-बड़े वैज्ञानिक, बड़े-बड़े अर्थशास्त्री, बड़े-बड़े राजदूत, बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ बनने के लिए ही पैदा हुए हैं। राजसत्ता चलाने वाला वस्तुतः यह वर्ग होता है।…बहुमत से पार्लामेण्ट में चुन कर चाहे जो आये, राजसत्ता के संचालन और आर्थिक सन्तुलन का कार्य इसी उच्च-मध्य वर्ग को करना पड़ता है।’

अन्त में वे लिखते हैं-

‘समाजवादी ढंग की समाज-रचना करने का तरीका यह नहीं है कि भारत में अमरीकी पूंजी को पच्चीस वर्ष की गैरण्टी दी जाये…इससे एक बात तो सिद्ध होती ही है। वह यह कि आगामी पच्चीस-तीस वर्षों तक के लिए समाजवादी ढंग टाल दिया गया है।'(नया खून, 1955)
एक अन्य शीर्षक, ‘अंग्रेज गये, परन्तु इतनी अंग्रेजी पूंजी क्यों’, में लिखते हैं-

‘आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि पण्डित नेहरू की पंचवर्षीय योजना में भी प्रति वर्ष 100 करोड़ रूपयों की विदेशी पूँजी निमन्त्रित की गयी है।पंचवर्षीय योजना के नाम पर औद्योगिक क्षेत्र में भारतीय पूंजीपति, विदेशी पूंजीपतियों(अंग्रेजों और अमरीकियों) से साँठ-गाँठ किये हुए हैं।’

यह सत्य आज और पुख्ता हो गया है। आज भारत सरकार अमरीका के सामने पूरी तरह समर्पण करती जा रही है। मुक्तिबोध की ही कविता ‘जमाने का चेहरा’ से पंक्ति ले कर कहें, तो दिल्ली ‘वाशिंगटन व लंदन का उपनगर’ बनने पर तुली है।

कुल मिला कर मुक्तिबोध की अखबारनवीसी उसी विश्वदृष्टि का विस्तार है, जिसमें उनका काव्य आकार लेता है। मुक्तिबोध जैसा  आत्मचेतस-विश्वचेतस कवि भारतीय यथार्थ को नये विकसित होते विश्व यथार्थ के सन्दर्भ में ही देख सकता था, उससे काट कर नहीं।  

(समकालीन जनमत प्रिंट से साभार)

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