आलोक कुमार मिश्रा
कवि मिथिलेश कुमार राय अपने पहले काव्य संग्रह- ‘ओस पसीना बारिश फूल’ से ही समकालीन कविता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान बना चुके हैं। इस संग्रह के लिए उन्हें ‘लोकोदय नवलेखन पुरस्कार’ भी मिल चुका है। समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में भी उनकी कविताएँ लगातार आती रहती हैं और प्रशंसा प्राप्त करती हैं। इसीलिए वह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं।
हाल ही में अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित उनका दूसरा काव्य संग्रह ‘धूप के लिए शुक्रिया का गीत तथा अन्य कविताएँ’ उनकी काव्य यात्रा का अगला पड़ाव है। लोक जीवन के विविध रंगों, श्रम के सौन्दर्य, जीवन के वितान पर फैले अनंत दुखों के बीच आम व्यक्तियों की जीवंत जिजीविषा के आख्यानों, स्त्री जीवन के विविध परतों का खूबसूरत, गूढ़ और मार्मिक वर्णन सब कुछ मिथिलेश राय की कविताओं की थाती है। इस संग्रह से गुजरना ग्रामीण भारत की आत्मा को पढ़ना है, स्त्री मन के तहों को भेदना है, एक साधारण आदमी के इच्छाओं की असाधारण अभिव्यक्ति से रूबरू होना है, काव्य की अथाह क्षमता से परिचित होना है।
हिंदी कविता में गाँव या तो बहुत रूमानी तरीके से आते हैं जिस पर कवियों का एक समूह ‘अहा! ग्राम्य जीवन’ कह न्योछावर होता है या फिर इस तरीके से कि इसे जातिवादी- पितृसत्तावादी, अंधविश्वास के गढ़ के रूप में देखते हुए कवियों के वर्ग द्वारा बड़े समूहों की शोषण स्थली के रूप में धिक्कारा जाता है। पर मिथिलेश कुमार राय इन अतियों के बीच गंवई यथार्थ के उन तंतुओं को उधेड़ते और बुनते हैं जो श्रम के सौन्दर्य और सहज-सरल जीवन दृष्टियों से परिपूरित है, गरीबी-मजबूरी की अथाह पीड़ा और उसमें खड़े रहने, बने रहने, जिंदा रहने के जीवनयुद्ध की व्यथा से सना है। यह दूसरे या तीसरे की नजर से नहीं अपनी नजर से अपनी अभिव्यक्ति का दस्तावेज है। संग्रह पर टिप्पणी लिखते हुए वरिष्ठ कवि मदन कश्यप ने सही ही कहा है कि ‘ग्रामीण जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए अब तक जो फ्रेम हिंदी कविता में बने या बनाए गये, ये कविताएँ उन ढांचों या चौखटों से बाहर की कविताएँ हैं।’
संग्रह की बहुत सी कविताएँ ग्रामीण महिलाओं के श्रम, उनके सुख-दुख, रिश्तों-नातों से गुथी उनकी सूक्ष्म जीवन दृष्टि आदि पर केन्द्रित है। महिला सशक्तिकरण के युग में ये वही महिलाएं हैं जो विमर्श की दुनिया में अभी भी परिधि पर हैं। उपले पाथती, गाय-गोरू का सानी-पानी करती, चूल्हे पर अदहन चढ़ा दूसरे कामों को इधर-उधर दौड़ती औरत भला कहाँ भद्र विमर्शों के स्वच्छ चौखटे के अंदर आ सकती हैं। पर ये औरतें अपनी पूरी गरिमा और अनोखे सौंदर्य के साथ मिथिलेश की कविताओं की धुरी हैं। इन्हें पढ़ते हुए कोई भी अभिभूत हो सकता है, विस्मय से भर सकता है कि अब तक क्यों और कैसे जीवन की यह अमूल्य परिभाषा उसकी नजरों से ओझल रही?
संग्रह की पहली ही कविता ‘लक्ष्मी देवी उपले बढ़िया थोपती हैं’ पढ़ते हुए जाने क्यों मैं इसे जोर-जोर से पढ़ने लगता हूँ। ‘लछमी देवी के त्याग और समर्पण के बारे में भी दो शब्द बोला जाना चाहिए/ उसका भी शाॅल ओढ़ाकर/ और तालियाँ बजाकर उत्साहवर्धन किया जाना चाहिए/ वह कम तेल और चुटकी भर मसाले में/ तरकारी बेहद स्वादिष्ट बनाती है’। मेरी पत्नी और माँ अपना काम रोककर उसे सुनने लगती हैं। वर्षों से यहाँ शहर में रहते हुए भी उन्हें लग रहा है कि कोई उनकी प्रशंसा का पत्र पढ़ रहा है। वे दुबारा पढ़ने को कहती हैं। कविता खत्म होते-होते वे चुप्पी की गिरफ्त में आ जाती हैं फिर कवि के बारे में पूछताछ करती हैं। पत्नी कहती है कि ‘कभी इनसे बात कराइए। आप भी कविताएँ लिखते हो न! इनसे सीखिए।’ आगे वे दोनों और कविताएँ सुनती हैं। मैं आह्लादित हो सुनाता जाता हूँ। तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली मेरी बेटी जो शायद कुछ समझ नहीं पा रही होगी वह किताब हाथ में लेकर खुद एक कविता पढ़ने लगती है जिसे इतना डूबकर पढ़ते देख मैं रिकाॅर्ड करने लगता हूँ। इन सबके बीच सोचता हूँ कि एक कवि कहाँ तक पहुँच सकता है, वह कितने गहरे उतर सकता है, शायद वह भी नहीं जानता होगा। पर कोई उसे पढ़ते-सुनते हुए यूँ खुद से जोड़ सके इससे बढ़कर कवि को चाहिए भी क्या?
यह उपले थोपती लछमी देवी अपने अलग-अलग नाम रूप के साथ पूरी ग्रामीण जिंदगी का हिस्सा ही नहीं आधार भी है और उसी रूप में संग्रह में बार-बार आती रहती है। कविता ‘नींद बछिया के रंभाने से खुलती है’ में सितमिया देवी श्रम का अनूठा सौंदर्य लेकर हाजिर होती है। वह रोज नहाती नहीं, न ही नियम से पूजा पाठ करती है पर ‘वो जगती हैं/ और धरती पर पैर रखकर / हवा पर सवार हो जाती है।’ उसकी ‘नींद बछिया के रंभाने से खुलती है’।कामों में लीन-तल्लीन सितमिया देवी की जिंदगी हमारे समस्त खुशहाली के नींव का वह पत्थर है जिसे कोई नहीं सराहता। पर कवि उसे न केवल देखता और महसूस करता है बल्कि अपने काव्य कर्म की नायिका बनाकर सम्मानित भी करता है।
संग्रह में स्त्रियों की उपस्थिति सिर्फ़ कुछ नामरूपों में नहीं है बल्कि उनको लेकर एक सामान्य और गहरी अनुभूति बहुत भी सी कविताओं में महसूस की जा सकती है। इनमें उनकी घर-परिवार और समाज में घुले-मिले अस्तित्व को ही नहीं बल्कि एक विशिष्टता के साथ शामिल रहने स्थिति को भी रेखांकित किया गया है। कविता ‘स्त्रियाँ घर को भरा रखती हैं’ में जहाँ कर्मलीन स्त्रियों के होने से घर के जीवंत बने रहने की बात आती है वहीं अगली ही कविता ‘होना’ में सबकुछ पूर्ववत होते हुए भी स्त्री की अनुपस्थिति में खाली- खाली सा लगने का आभास उभर कर आता है। मिथिलेश हमारे समाज में पुरुषों के पक्ष में झुके लाभ की स्थिति को रूठने जैसी सहज मानवीय क्रिया में भी भांप लेते हैं और कविता ‘रूठना’ में यह बताते हैं कि जब वह (पुरुष) एक बार रूठे थे तब रोजमर्रा के जरूरी काम भी नहीं कर रहे थे, बच्चों से ठीक से पेश नहीं आ रहे थे और ऊबकर सो गये थे। लेकिन जब पत्नी (स्त्री) रूठी तब वह मौन होकर रसोई के कामों में लगी रही, बच्चे का ध्यान रखती रही और बिना खाए ही सो गई। स्त्री की घर-परिवार में इतनी जरूरी अवस्थिति में जब वह बीमार होती है तो घर की वस्तुएं, बरामदा, पालतू जानवर सब उदासीन और गुमसुम हो जाते हैं। ‘स्त्री जब भी कभी बीमार पड़ती है/ तब पालतू कुत्ता कम भौंकता है/ और बिल्ली चहलकदमी करना बंद कर देती है/ तब बैठक हंसी-ठट्ठा स्थगित कर देती है/ और गाछ पर बैठी चिड़िया/ गीत गाना भूल जाती है।’ (पृ 31)
अपनी व्यस्तता में भी दूसरों के सुख-दुःख से जुड़ी इन स्त्रियों की कोई भी गतिविधि कवि की नजर से ओझल नहीं है। ‘चावल लेने पड़ोसी के घर दौड़ती स्त्रियाँ’ कविता में मिथिलेश कुमार राय कहते हैं कि ‘अदहन चढ़ाकर/ चावल लेने पड़ोस के घर दौड़तीं स्त्रियाँ/ दरअसल उधार के लिए नहीं दौड़तीं/ न ही कर्ज के लिए दौड़ती हैं/ वे स्त्रियाँ चावल नमक चीनी या तेल के बहाने/ एक से दूसरे दूसरे से तीसरे/ चौथे पाँचवे छठे/ और अंततः घर से घर को पिरोने वाले धागे पर/ नेह चढ़ाने दौड़ती हैं।’ ये कितनी उदात्त स्थिति है जो जीवन की इन साधारण परिस्थितियों में पसरी हुई है। ये स्त्रियाँ विवाह के बाद भी अपने मायके लौटकर कितनी शिद्द्त से अपनी जड़ों को महसूस करती हैं इसे ‘नइहर लौटी बेटियाँ’ कविता में महसूस किया जा सकता है। वे नइहर की नदी, तालाब, कुएँ, वृक्षों तक से अपनी नेह के डोर को बांधते चलती हैं। कवि ‘झगड़ती हुई स्त्रियों’ के चेहरे टर आए हाव-भावों, उसकी आँखों, आवाज और प्रतिक्रियाओं में भी एक खास तरह सौन्दर्य की अनुभूति करता है। साथ ही ‘गाली सुन रही स्त्रियों के स्मरण’ में वह इस तरह संवेदनशील हो जाता है कि उनके मनोभावों को स्वयं महसूस करने लगता है। और भी बहुत सी कविताओं में स्त्री जीवन के विविध आयामों को मिथिलेश कुमार राय भेदते हैं।
लेकिन संग्रह की कविताएँ सिर्फ स्त्री मन और जीवन की थाह ही नहीं लेतीं। ग्रामीण जनता की गरीबी, खेती-बाड़ी की गतिविधियों और मजबूरी में मजदूरी और पलायन की परिस्थितियों और इनमें गुंथे जीवन राग को भी कवि ने बखूबी बयान किया है। और यह बयान कोई सहानुभूति वश प्रकट किया गया बयान नहीं बल्कि स्वानुभूति और भोगे हुए के बयान की तरह कविताओं में उतरता है। इन सबमें प्रकृति के साथ किसानों, ग्रामीणों और गरीब जन के स्वभाविक लगाव को भी कवि उकेरता है। ‘आप कभी मिलते हैं तो मौसम की बात नहीं करते हैं’ कविता में वह इस लगाव को यूँ व्यक्त करते हैं कि यदि कोई उनसे मिलता है तो मौसम, आकाश, फूल, पेड़ की बात न करके कोई और बातें क्यों करता है? वह इस पर परेशान होते हैं। वे पूछते हैं कि ‘आपने खेतों की तरफ देखा/ लेकिन आपने यह सवाल नहीं पूछा/ कि अब तक गेहूँ ने झाड़ क्यों नहीं बाँधी।’ संग्रह की शीर्षक कविता ‘धूप के लिए शुक्रिया का गीत’ भी प्रकृति के प्रति कृतज्ञता की ही कविता है जिसमें धूप जैसी नैसर्गिक उपस्थिति को भी वह उसके तमाम अनुदानों के लिए सराहते हैं। कम पढ़े-लिखे ग्रामीणों की दिनचर्या में समाहित सरलता को कविता ‘अनपढ़ लोग रुककर वृक्षों को गौर से देखने लगते हैं’ में बहुत गहनता से महसूस किया जा सकता है। हर व्यवहार में अपने दुखों से उबर आने की अपनी ही खास क्षमताओं को ग्रामीण लोग कैसे प्रकट करते हैं उसकी बानगी इन पंक्तियों में देखिए- ‘अनपढ़ लोग जब भी कभी झूठ बोलते हैं/ तब वे अलग से इस तरह का कोई प्रयास नहीं करते/ जिससे कि सच छिप जाए/ वे जब झूठ बोल रहे होते हैं/ अपनी आँखों में सच को उभरा हुआ रखते हैं/ अनपढ़ लोग रुककर वृक्षों को गौर से देखते हैं/ और यह तुरंत पकड़ लेते हैं/ कि पत्ते इतने पीले क्यों पड़ते जा रहे हैं/ वे पशुओं की बां को ध्यान से सुनते हैं/ और उठकर तुरंत खड़े हो जाते हैं।’ इन्हीं अभावों में रहते हुए उनकी जीवंतता का एक आभास कविता ‘उच्चारण’ में मिलता है जिसमें ये लोग पटना, भागलपुर आदि शहरों के बजाय कलकत्ता, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा यहाँ तक कि नेपाल को भी अपनेपन से उच्चारित करते हैं क्योंकि रोजी-रोटी का रिश्ता इन जगहों से जुड़ा है। कविता के ये पंक्तियाँ दिल को गहरे तक छूती हैं कि ‘त्योहार के दिनों में/ हम इन स्थानों का उच्चारण/ अधिक से अधिक बार करते हैं/ तब हमें ऐसा लगता है कि/ वहाँ से हमारे घर की खुशियाँ चल पड़ी होंगी/ और अभी कहीं बीच रास्ते में होंगी।’ सब जानते हैं कि ये रास्ता कई बार खत्म ही नहीं होता। कविता ‘ओवरटाइम’ में यह मेहनतकश तबका आराम या इतवार के दिन से भी खौफ खाते हुए उस फैक्ट्री में काम की चाह दिखाता है जहाँ ओवरटाइम काम करने का अवसर हो, जिससे कुछ अतिरिक्त कमा कर जरूरतें पूरी की जा सकें। ‘ओवरटाइम नहीं लगने का मतलब/कई बार पेट में मरोड़ उठना होता है।’ इन पंक्तियों को हमारे समाज का एक तबका शायद समझ भी नहीं सकता। ये तबका इन्हीं परिस्थितियों के वशीभूत हो कर्ज के जाल में फंसकर कराहता भी है। संग्रह की अंतिम कविता ‘कर्ज सोचने के क्रम में’ कवि अपने पूर्वजों को याद करते हुए दरअसल कर्ज की विभीषिका को याद करता है। इन पंक्तियों में शामिल मार्मिकता किसे न भेद दे- ‘सबसे पहले हमारे पूर्वज/ गहना गिरवी रखते होंगे/ जमीन गिरवी रखते होंगे/ और फसल के बाद लौटा देने का भरोसा देते होंगे/ लेकिन फसल धोखा दे देती होगी/ तब महाजन जमीन पर कब्जा कर लेते होंगे/ फिर ब्याज साधने में हमारे पूर्वजों की मेहनत काम आती होगी।’ इसीलिए कवि कृतज्ञता से भरकर कहता है कि वह ईश्वर को भूल इन्हीं मेहनतकश लोगों को धन्यवाद देने लगता है क्योंकि ईश्वर को धन्यवाद कहने से पहले उसे धान रोपता किसान, आपदा में प्राण रक्षा करता जवान दिखने लगता है। फिर जीवन की इन दुश्वारियों और संघर्षों में जूझते लोग अपना रास्ता खुद बनाते हैं। इसका श्रेय ईश्वर को देकर कवि इन लोगों को कमतर साबित नहीं करना चाहता। इन पंक्तियों में तो वह अपनी खीझ भी उतारता है कि ‘पता नहीं मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ/ कि ईश्वर को धन्यवाद नहीं देकर/ एक तरह से मैं उन्हीं की प्रतिष्ठा बचाने में लगा रहता हूँ/ जैसे कि अगर मैं उस बच्ची के बच जाने पर/ ईश्वर को धन्यवाद कहूँ/ तो उन सिसकती लड़कियों के लिए/ गाली किसको दूं’ (कविता- ईश्वर मुझे क्षमा करें, पृ 100)।
मिथिलेश कुमार राय की कविताओं में रिश्ते-नातों की मीठी तासीर भी समाई हुई है। पत्नी-माँ-बहन-मित्र-संतान सभी जीवन के अभिन्न अंग के रूप में यहाँ आते हैं जो खुद से अलग नहीं दिखते। पिता को तो मिथिलेश अपनी कविताओं इतने विविध रूपों में याद करते हैं कि कविता की नई भाषा ही दिखने लगती है। ‘पिता तुम ऐसे मत खांसो’ में एक बेटा पिता की खाँसी से डरकर यह सोचने लगता है कि पिता के होने भर से वह कितना सुरक्षित और संपन्न है। कवि कहता है कि- ‘पिता तुम्हारी यह लाठी/ मुझे लगता है कि मेरी सुरक्षा में तैनात एक तोप है/ तुम्हें कभी बैठा देखूं तो यह घर/ अभेद्य दीवार सा घिरा लगता है।’ पिता के प्रति ऐसे बिंब ऐसी भाषा हिंदी कविता में दुर्लभ हैं। बेटियों के घर गये पिता से फोन पर बातें करते हुए कवि उनके हृदय की संवेदना को ‘पिता से बातें’ (पृ 178) कविता में महसूस करता है जिसमें वह घर के फसलों-पौधों की जानकारी लेते-लेते पोते का हाल-चाल लेते हैं। ‘पिता मौसम के बारे में सोचते थे’ और कविता ‘जब पिता नहीं रहेंगे’ में कवि पिता के न रह जाने की कल्पना मात्र से सोच में पड़ जाता है और अपनी अवस्थिति व अक्षमताओं को याद करता है।
पिता ही नहीं अन्य रिश्तों के साथ भी इन कविताओं में वही संवेदना शामिल है। ‘बहनें परियां होती हैं’ कविता में कवि यह महसूस करता है कि कैसे बहनें उसके जीवन में खुशियों का सबब थीं। वह सोचता है कि ‘क्या बहनें परियां होती हैं/ जब मैं दुख में फंसता वे कोई जादू करतीं/ फिर उनकी खिलखिलाहट से/ मेरी खिलखिलाहट खुल जाती।’ (पृ 167)। कविता ‘बच्चा चिड़िया होता है’ में कवि अपनी पत्नी और बच्चे के आपसी रिश्ते के दरम्यान चिड़िया की उपस्थिति को महसूस करते हुए प्रकृति और ममत्व के एकाकार को महसूस करता है।
ऐसा नहीं है कि कवि ने महज अपने आसपास की हकीकत का मार्मिक काव्य रूपांतरण ही किया है। वह इन परिस्थितियों और उसमें पैदा हुई समझ के निर्माण के पीछे की हकीकत भी समझता है। वह उनकी भी खबर लेता है। कविता ‘राजा का कहना किसी जादू की तरह घटता है’ एक ऐसी ही कविता है जिसमें वह यह समझता है कि कैसे राजा की संकल्पना हमारी अवचेतन में जमा दी जाती है। ‘ईश्वर मुझे क्षमा करे’ ऐसी ही एक कविता है जो अंततः ईश्वरीय संकल्पना पर भी सवाल उठा जाती है। कविता ‘विज्ञापन’ में कवि सत्ता को छद्म मुद्दों के प्रचार प्रसार से चेताते हुए जनहित के मुद्दे पर विज्ञापन लगवाने की सलाह देता है। कविता ‘वह मंत्र’ में कवि भूख की पीड़ा से व्यथित हो कहता है कि ‘मैं चाहता हूँ कि एक मंत्र रचा जाए/ या नहीं तो कोई ऐसी मुद्रा ही/ जिससे कि सब स्वतंत्रत हो।’ ‘रोग से मरे बच्चे का पाप सबको लगे’ कविता में वह सबको रुला देते हैं और कई घटनाओं की याद करा जाते हैं।
हालांकि संग्रह की कविताएँ पढ़ते हुए यह महसूस हो सकता है कि कवि तमाम संवेदनशीलता के साथ जीवन स्थितियों की मार्मिक अभिव्यक्ति के बीच किसी बदलाव का विकल्प नहीं देता। कविताएँ निष्ठुर और अमानवीय राजनीतिक तंत्र को छेड़े बिना लगभग छोड़ते हुए निकल जाती हैं । कविता ‘बहू क्या जानती है’ , ‘चौका’, ‘पक्की सड़क शहर की ओर मुड़ जाती है’ आदि कविताएँ अपनी तमाम मार्मिकताओं के साथ परिस्थितियों की स्वीकार करती हुई दिखती हैं। हालाँकि कविता और कवि का यह अपना दायरा है। संग्रह में और भी बहुत से रंग बिखरे हुए हैं जिनसे गुजर कर ही उनका आनंद लिया जा सकता ह।
यह संग्रह अपनी साफ-सुथरी छाप-छपाई, कलेवर और शुद्धता से भी प्रभावित करती है। मैं इसके लिए कवि और प्रकाशक दोनों को बधाई देता हूँ और सभी काव्य प्रेमियों को इसे पढ़ने की अनुशंसा करता हूँ। कवि मिथिलेश कुमार राय के लिए शुभकामनाएं। वे इसी तरह रचनारत रहते हुए हिंदी काव्य को समृद्ध करते रहें।
कविता संग्रह- धूप के लिए शुक्रिया का गीत तथा अन्य कविताएँ
कवि- मिथिलेश कुमार राय
प्रकाशक- अंतिका प्रकाशन प्रा. लि.
प्रकाशन वर्ष- 2020
मूल्य- 475.00 रूपए (सजिल्द)
(युवा प्रेरणा पुरस्कार से सम्मानित कवि मिथिलेश कुमार राय, जन्मः 24 अक्तूबर 1982 को बिहार के लालपुर गाँव (जिला सुपौर) में, शिक्षाः हिन्दी साहित्य में स्नातक। प्रमुख पत्रिकाओं में कविताएँ और आलेख प्रकाशित, इंडियन पोस्ट ग्रेजुएट नामक वृत्त चित्र का निर्माण। संप्रतिः पत्रकारिता। आलोक कुमार मिश्रा दिल्ली में पढ़ाते हैं, बोधि प्रकाशन से कविता संग्रह ‘मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा’ प्रकाशित। तीन पुस्तकें अलग-अलग विधाओं में प्रकाशनाधीन।)