इलाहाबाद के प्रसिद्ध कवि दिवंगत कैलाश गौतम की कविता ‘ अमवसा क मेला’ की पंक्तियां याद करें- अमवसा नहाए चलल गांव देखा। एहू हाथे झोरा वोहू हाथे झोरा, कान्हीं प बोरी कपारे प बोरा……आजी रंगावत हंई गोड़ देखा, हंसत हउवैं बब्बा तनी जोड़ देखा…
तो बरसों बरस से यह मेला धार्मिक होने के साथ-साथ लोक का उत्सव भी था जहां जाति धर्म सोच कर न कोई नहाने आता था और ना ही इस बाबत उनसे कोई पूछता था। लेकिन पिछले अर्ध कुंभ 2019 से लेकर इस महाकुंभ 2025 तक आते-आते जब इलाहाबाद से प्रयागराज बनाया गया था, पूरा मेला ही लोक उत्सव से बदलकर एक खास धार्मिक राजनीति और एक खास राजनीतिक विचारधारा के वर्चस्व का अखाड़ा बन चुका है। उसके साथ खड़ा है राज्य, कॉरपोरेट, बाजार की ताकत और मीडिया। 14 जनवरी के 1 महीने पहले प्रधानमंत्री का आना, रक्षा मंत्री की अभी 17 तारीख की यात्रा से लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो शायद हर चौथे दिन यहीं रहते हैं। कल 19 तारीख को जब मेले के सेक्टर 19 में आग लगी उस वक्त भी मुख्यमंत्री जी मेले में ही थे। पूरा प्रशासनिक अमला उधर ही लगा हुआ था। खैर किसी जान का नुकसान न होना सुखद संयोग ही है।
आप महाकुंभ की खबरों से गुजरिए तो खबरें क्या हैं- सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम, आतंकी हमले से निपटने के लिए प्रशासन मुस्तैद, इतनी सड़क, इतने घाट, इतने किलोमीटर का एरिया, चमचमाती लाइट। और मेले के समय क्या चैनल क्या डिजिटल मीडिया किसी को आई आई टी बाबा मिल गया तो किसी को विदेशियों का हुजूम, कोई विदेशी स्त्री नागाओं की तरह रेत पर नग्न होकर लौटने लगी तो कोई विवाहित स्त्री के किन्नर अखाड़े में दीक्षित होने से लेकर, शाही टेंट, कॉटेज, पांच सितारा व्यवस्थाओं के बारे में लिख रहा है, दिखा रहा है।
लेकिन महीना भर पहले से मेले में मुसलमानों पर प्रतिबंध लगाने और उन्हीं पुराने झूठे आरोपों के सहारे एक से एक बाबाओं और साध्वियों के बयान आए। एक लोकतांत्रिक देश जहां कानून का राज है, अभी तक संविधान है, उसका शर्मनाक उल्लंघन हो रहा है इस पर कोई बात नहीं कर रहा। जरूर राज्य ने ऐसा कोई प्रतिबंध लागू नहीं किया है लेकिन इस दुष्प्रचार के खिलाफ एक शब्द भी बोलना उसने गवारा नहीं किया। सिर्फ एक दिन एक पत्रकार द्वारा पूछे जाने पर मेला प्रशासन ने कहा कि नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है। ढेरों बाबाओं, साध्वियों के जीभ काट लेने, खाने में थूकने वालों के हाथ काट लेने जैसे बयानों को छोड़ भी दें तो भी हिंदू धर्म के जिम्मेदार और महाकुंभ में प्रमुख प्रतिनिधियों अखाड़ा परिषद और शंकराचार्य के ही बयानों को उठा लें। अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रवींद्र पुरी जी कहते हैं कि ‘उनके’ आने से दिक्कत होगी। हम नहीं चाहते कि मेले में कोई विवाद या अप्रिय घटना हो जाए। दूसरी तरफ बद्रीनाथ धाम के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद, जिन्हें अभी हाल में ही जोशीमठ आपदा पर सरकार विरोधी बयानों के कारण इन्हीं राजनीतिक हिंदुत्ववादियों की तीखी आलोचना झेलनी पड़ी थी और उनकी जाति तक को लेकर सवाल उठे, वह कहते हैं कि मुसलमान मानें कि गंगा में स्नान से सारे पाप धुल जाते हैं तो उनके आने को लेकर विचार किया जा सकता है। क्या नदियां जिनके किनारे सभ्यताएं बसीं, जिन्होंने बिना धर्म जाति पूछे जीवन दिया उसका यदि कोई सम्मान करता है तो उसे यह प्रमाण देना होगा कि नहीं साहब हम आपके धर्म में आस्था भी रखते हैं, इसलिए हम आना चाहते हैं।क्या सम्मान का कोई अर्थ नहीं होता। मतलब साफ है शंकराचार्य जी का कि केवल सम्मान नहीं बल्कि धर्मांतरण ना भी कहें तो कम से कम आप हमारे धर्म की श्रेष्ठता को स्वीकार करें।
इस घृणा प्रचार का शहर पर असर यह पड़ा कि शहर के मुसलमान नागरिक मेले में जाने को लेकर भयाक्रांत हैं। एक दो खबरें भी आईं कि नाम बदलकर फलां बाबा के कैंप में मुस्लिम युवक पकड़ा गया। उससे पूछताछ थाने में की जा रही है लेकिन उसके बाद क्या हुआ, उसकी खबर गायब है। यह मेला शहर के सभी धर्म के लोगों के लिए उत्सव की तरह पहले आता था। लेकिन 2019 से इसने जो नया अवतार लिया है उसने लोगों में एक भय भी पैदा कर दिया है और यह सिर्फ मुसलमानों व अन्य अल्पसंख्यक समुदायों में ही नहीं बल्कि शहर का अमन चैन बना रहे, इसकी चिंता करने वाले सभी शहरवासियों में है। जनमत पोर्टल और समकालीन जनमत के पन्नों पर मैंने पिछले अर्ध कुंभ की रिपोर्टिंग करते हुए शहर के मुसलमान नागरिकों द्वारा मेले में आने वाले श्रद्धालुओं के लिए लगाए गए खाने- पीने, स्वास्थ्य शिविर से लेकर संगम के पास दारागंज मोहल्ले के मदरसे तक में रुकने के इंतजामत को दर्ज किया था। (उस वक्त की मेरी सारी रिपोर्ट और कुछ अन्य साथी पत्रकारों की भी नवारूण प्रकाशन से छपकर आई किताब दिव्य कुंभ 2019 में तस्वीरों सहित उपलब्ध हैं। ) लेकिन इस बार डर के कारण उन तमाम व्यापारियों-संस्थाओं जैसे मदरसा अरबिया कंजुल उलूम, शिया- सुन्नी इत्तेहाद कमिटी, आशिकाने हिंद सोसायटी जैसी तमाम तंजीमें हैं, खुल्दाबाद, खुसरोबाग स्टेशन से नखास कोना जाने वाली रोड, करेली, दारागंज नागवासुकी मंदिर घाट के पास की मस्जिद तक जो कैंप हर मुख्य स्नान के दिन, एक दिन पहले से एक दिन बाद तक लगते थे, वह इस बार नहीं लगे। हां, अब खुलेआम बड़े कॉर्पोरेट अडानी तक के बैनर कुंभ के मेले में टंगे हुए हैं। जरूर मुसलमान भाइयों ने सिख समुदाय और और हिंदू समुदाय के अपने जानने वालों को शिविर लगाने के लिए मदद पहुंचाई है। जबकि करोड़ों के बजट के बावजूद सामान्य लोग नदी किनारे बिछे पुवाल पर रात काटते हैं। एक सामान्य चांदनी तक उनके सर के ऊपर नहीं है।
सिर्फ यही नहीं हुआ, खुसरोबाग का जो गेट पुराने शहर की तरफ खुलता है, उससे लगी मस्जिद के गेट पर बांस बल्ली से बैरिकेडिंग कर दी गई जाली लगा दी गई और यह मस्जिद मेला क्षेत्र से कम से कम 10 किलोमीटर दूर है लेकिन श्रद्धालु खुसरो बाग में भी रुकते हैं इसलिए ऐसा करना पड़ा। क्या पता इस घृणा प्रचार के कारण उन्माद में डूबा कोई सिरफिरा क्या कर बैठे और शहर का अमन चैन भंग करने का आरोप भी मुसलमानों के मत्थे ही मढ़ दिया जाए। हालत यह है कि नदी के आसपास के मोहल्ले में जहां मिश्रित आबादी रहती है वहां मुस्लिम भाई लोग अपने हिंदू पड़ोसियों को घर के कुछ कमरे दे दे रहे हैं ताकि वे उनमें श्रद्धालुओं को गंगा- यमुना के पास ठहरा सकें। क्योंकि बाकी जगहें इतनी महंगी हैं कि सामान्य मध्यमवर्ग भी उसका किराया नहीं दे सकता। पहले भी लोग ऐसे घरों में रहते रहे हैं लेकिन मुस्लिम भाई सीधे ही लोगों को ठहरा लेते थे, लेकिन अब स्थिति यही है। पड़ोसियों ने उनके घरों में तुलसी का पौधा भी गमले में लगा दिया है और दिया बाती भी करते हैं। लोग ठहर भी रहे हैं (ऐसे घरों की तस्वीर सायास नहीं दे रहा ताकि उन्हें चिन्हित करके कोई अप्रिय घटना न घटा दी जाए)।
महीनों से चल चल रहे इस घृणा प्रचार के कारण राज्य के खर्चे पर आयोजित मेले में इसी देश का, इसी शहर का मुसलमान नागरिक नहीं जा सकता लेकिन दुनिया के बड़े धनकुबेर एप्पल के पूर्व सीईओ स्टीव जॉब्स की पत्नी लॉरेन की तस्वीर महाकुंभ में वायरल हो रही है। क्या हमारे आदरणीय शंकराचार्य और तमाम धर्माचार्य, महामंडलेश्वर उनसे यह कहने की हिमाकत कर सकते हैं कि तुम पहले यह मानो कि गंगा में स्नान करने से सारे पाप धुल जाते हैं। यानि नहाने से पहले हमारे धर्म को मानो। क्या वह अपने धर्म को छोड़कर यहां आई थीं, नहीं!
यह शहर है जहां संविधान के रक्षक के रूप में इलाहाबाद हाईकोर्ट है। माफी के साथ क्या उससे यह सवाल नहीं बनता कि यह मेला किसी के व्यक्तिगत पैसे और संसाधन पर नहीं बल्कि राज्य के खर्च और संसाधन के दम पर आयोजित हो रहा है, तो किसी भी नागरिक को डरा धमका कर रोकने के लिए ऐसा दुष्प्रचार करना कि जिससे वह एक सार्वजनिक जगह पर न जा सके, क्या यह किसी नागरिक के मौलिक अधिकार का हनन नहीं है। क्यों नहीं उच्च न्यायालय को या उच्चतम न्यायालय को इस बात का स्वत: संज्ञान लेकर जो उसका अधिकार भी है और कर्तव्य भी कि नागरिकों के मौलिक अधिकार सुरक्षित रहें इसलिए संविधान का पालन सुनिश्चित करना चाहिए। गणतंत्र के 75 वें साल में नागरिकों को अनागरिक बना देने की यह परिघटना भी महाकुंभ 2025 के साथ धब्बे की तरह इतिहास में दर्ज हो रही है लेकिन यह कोई खबर नहीं है।
नोट- लेखक की अर्धकुम्भ 2019 पर आधारित रपटों पर सम्पादित किताब, ‘दिव्य कुम्भ 2019’, नवारुण प्रकाशन, जनसत्ता अपार्टमेंट, गाजियाबाद से प्रकाशित है।
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