समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

ध्रुवीकरण और दंगेः स्वस्थ लोकतंत्र के लिये बातचीत एक निर्णायक तत्व

सागरिका घोष

मज़हबी हिंसा की तस्वीरों ने दिल्ली को दहला दिया है। हंगामेदार और ध्रुवीकृत चुनाव अभियानों में शीर्ष नेताओं  के सी0ए0ए0 विरोधी प्रदर्शनों को निशाना बनाने वाले भड़काऊ भाषणों के बमुश्किल एक हफ्ता बीतते-बीतते दिल्ली इस हिंसा की गिरफ्त में आ गयी। जब नेता प्रदर्शनकारियों को ‘देश के गद्दार’ घोषित कर रहे थे तो संदेश एकदम साफ थाः यह बहुत दिन चलनेवाला नहीं है, टकराव तो होगा ही। जब नेता हिंसा का संदेश दे रहे होते हैं तो वे अपने सिपाहियों को छूट दे रहे होते हैं और टकराव होनेवाला ही होता है, यही कुछ हुआ भी है, हिन्दुओं और मुसलमानों को आमने-सामने खड़ा कर दिया गया।

टकराव की यह राजनीति सिर्फ दिल्ली तक ही महदूद नहीं है। बंगलूरु में एक युवक को केवल एक नारा लगाने पर ‘राजद्रोह’ का आरोपी बना दिया गया। ‘क्राइम इन इंडिया’ की एक रिपोर्ट के अनुसार 2016-18 के बीच 156 बार देशद्रोह के आरोप लगाये गये थे जबकि दिसम्बर में सी0ए0ए0 विरोधी प्रदर्शनों के शुरू होने से लेकर अब तक 194 लोगों को राजद्रोह का आरोपी बनाया गया है। जब सरकारें अपने नागरिकों पर बार-बार राजद्रोह के आरोप लगाती हैं तो संदेश बहुत ही घातक होता है।

लोकतंत्र की परिभाषा को लेकर नेता भ्रमित हैं। वे लोकतंत्र और चुनावी बहुमत को एक ही तराजू में तौलते हैं। परन्तु बहुलतावाद ही लोकतंत्र नहीं है, उसका सर्वोच्च अर्थ है संवाद और असहमति के लिये सम्मान। जो दल आज शासन में हैं, कल वे शासित भी हो सकते हैं, इसीलिये राज्य, चौकन्नी संस्थाओं के माध्यम से, छोटे से छोटे अल्पमत की भी रक्षा करता है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। दूसरी ओर बहुलतावाद अपरिहार्य रूप से राज्य के संसाधनों के दुरुपयोग की सम्भावना की ओर ले जाता है क्योंकि बहुलतावादी सरकारें अपने से अलग किसी को बरदाश्त कर ही नहीं सकतीं।

यह सुखद आश्चर्य है कि शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों से मिलने के लिये इंसाफ़ के सबसे ऊँचे मकाम को अपने शान्तिदूतों को भेजना पड़ा। ऐसे संवादियों की भूमिका सरकार पर भारी पड़ेगी क्योंकि माना तो यही जाता है कि कोई हल निकालने की जिम्मेदारी उसी की है। लेकिन मोदी सरकार किसी बातचीत की सम्भावना से इन्कार करते हुये या तो शाहीन बाग की उपेक्षा कर देती है या उसका दानवीकरण कर देती है। सच तो यह है कि मोदी सरकार संसद नाम के संवाद के सबसे बड़े मंच से लगातार बच रही है और इस प्रकार मोटे तौर पर किसी संवाद या बहस की अवहेलना कर रही है।

इस तथ्य से, कि दो महीने से लगातार चल रहे प्रदर्शनों से किसी तरह की बातचीत करने में यह व्यवस्था नाकाम रही है, यह साफ है कि सरकार आमने-सामने वार्ता करने के स्थान पर बलप्रयोग को तरज़ीह दे रही है। यह बहुत ही ख़तरनाक है।

जब सरकारें संवाद से इन्कार कर देती हैं तो नतीजे में हिंसा चुपके से दोनों कतारों में अपनी पैठ बना लेती है। भारतीय राज्य पहले से ही अत्यंत अत्याचारी रहा है, और प्रदर्शनों के खिलाफ़ यदि राजकीय हिंसा का प्रयोग किया जाता है तो उसका न केवल सामान्यीकरण हो जाता है बल्कि धरातल पर अपराध और कानून के बीच की विभाजन-रेखा भी धुँधली हो जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में बीच-बचाव करने वाले लोगों को निकाल बाहर कर दिया जाता है और परिदृश्य में गुंडों को घुसा देने के लिये सारी जगहें खाली कर दी जाती हैं। सत्ताधारी दलों के हिंसक भाषणों की शह पर दिल्ली की गलियों में हथियारबन्द गुंडों की मौजूदगी से ये बातें एकदम साफ हो जाती हैं।
कश्मीर में भी, जहाँ बातचीत होनी चाहिये थी, वहाँ मौत का सन्नाटा है। संदेहास्पद आधारों पर तीन मुख्यमंत्री नज़रबन्द हैं। किसी लोकतंत्र में सबसे लम्बे अर्से की नेटबन्दी के चलते लाखों लोग सेवाओं और सूचनाओं से महरूम हैं। यह सरकार अधिक से अधिक जो कर सकती थी वह यह रहा कि शिकारे की सैर के लिये यूरोपीय संघ के कुछ प्रतिनिधियों को और भाजपा के मंत्रियों के एक समूह को पूरी सावधानी के साथ प्रमाणित किये गये ‘कश्मीरी लोगों’ से मिलने के लिये भेजा जा सका। इसके ठीक उलट (भाजपा के ही) पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेई और गृहमंत्री आडवाणी ने अलगाववादी हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेताआें से भी कई चक्र वार्ता की थी।

यह महादेश पूरे भारत में बाहुबल का प्रयोग कर रहा है। कर्नाटक के बीदर में अधिकारियों ने एक जूनियर स्कूल में एक नाटक करने के विवाद के निपटारे के लिये स्कूल के अधिकारियों से बात करने के बजाय इस जुर्म में बच्चों के माँ-बाप और शिक्षकों पर राजद्रोह के मुकदमे कायम कर दिये। जब पुलिस की गाड़ी में इतिहासकार रामचन्द्र गुहा को जबरदस्ती उठा लिया गया तो यह साफ हो गया कि राज्य की उग्रशक्ति जाने-माने बुद्धिजीवियों को भी नहीं बख़्शती।

लखनऊ के घंटाघर में, जहाँ शाहीन बाग की तर्ज़ पर ही प्रदर्शन चल रहा है, हथियारबन्द पुलिस ने अचानक हमला बोल कर 100 से अधिक महिलाओं को बन्दी बना लिया। चेन्नई के वाशरमैनपेट मुहल्ले में सी0ए0ए0 विरोधी एक अन्य प्रदर्शन पर पुलिस ने लाठीचार्ज करके उसे रोक दिया। दिल्ली के चुनाव अभियानों के दौरान सत्तारूढ़ भाजपा ने अपने विरोधियों को पाकिस्तान की भाषा बोलने वाले गद्दार घोषित करते हुये उन्हें कानून विरोधी बता कर उनका मुँह बन्द करने की कोशिश की। उन्होंने राज्य की प्रबल शक्तियों का प्रयोग, अपने राजनीतिक विरोधियों को देश का दुश्मन और गद्दार बताकर पूरे समाज में उनकी आवाज दबाने में किया और हिंसा को भी कानून-सम्मत बना दिया।

गाँधी ने एक फैलते हुये राज्य की लगातार बढ़ती हिंसा से हमें सावधान किया था। जब कोई सरकार अपनी पुलिसिया ताकतों का इस्तेमाल नागरिकों को प्रताडि़त करने में लगाने लगती है, तो हम एक पुलिसिया राज्य बनाने में लगे होते हैं। उस समय पुलिस एक कट्टर राजनीतिक खिलाड़ी बन जाती है और वह नागरिकों के विरुद्ध शासक राजनेताआें के पक्ष में खड़ी दिखायी देती है।

एक स्वस्थ लोकतंत्र में संवाद निर्णायक क्यों होता है? क्योंकि विचारों और उत्पादों का शान्त और स्वैच्छिक विनिमय सिर्फ एक सफल ही नहीं बल्कि विकासशील समाज के भी दिल में बसता है। जो नागरिक अपनी स्वतंत्रता और सुविधा की रक्षा करना चाहते हैं उनके लिये हिंसा के प्रति सिरे से असहिष्णु होना जरूरी है, वह चाहे राज्य की हिंसा हो या दूसरे किसी व्यक्ति की। विरोधियों से शान्तिपूर्ण वार्तालाप से इन्कार करके सरकार स्वयं हिंसा की संस्कृति को प्रोत्साहित कर रही है।

यह सवाल किया जा सकता है कि क्या पूर्व की सम्प्रग सरकार ने कभी भी अपनी कार्यकारी शक्तियों का त्याग करते हुये विरोधियों के साथ संवाद करने की दिशा में बहुत आगे जाने का प्रयास किया। क्या सम्प्रग ने निर्णय करने का दायित्व गैर-सरकारी संगठनों और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों पर डालते हुये कभी खुद को संघातिक रूप से कमजोर बनाया? अन्ना हजारे आन्दोलन जब अपने चरम पर था उस समय बड़े-बड़े मंत्रियों को बाबा रामदेव की अगवानी के लिये हवाई अड्डे जाने के दृश्य पर कहा गया कि एक कमजोर सरकार चुनौतियों के सामने भरभरा कर गिर पड़ी।

फिर भी हम धीरे-धीरे पर अनवरत रूप से एक कमजोर सम्प्रग से एक दूसरी अति की ओर बढ़ रहे हैंः एक दबंग सरकार की ओर जो असहमति का अपराधीकरण करती है और संवाद को बलप्रयोग से विस्थापित करती है। याद रहे, भारतीय पुलिस आज भी 19वीं सदी के उसी सड़े-गले कानून से संचालित होती है जिसके द्वारा उसे औपनिवेशिक राज की ‘स्थायी सेना’ बना दिया गया था। क्या एक आधुनिक गणतंत्र में हम उनसे ऐसी ही कार्यप्रणाली की अपेक्षा करते हैं?
( सागरिका घोष के ब्लॉग ‘ब्लडी मैरी’ से साभार । ये लेखिका के अपने विचार हैं। अनुवादः दिनेश अस्थाना. फीचर्ड इमेज: उदय देब.)

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