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भारत में नागरिक समाज खतरे में


संविधान द्वारा गारंटीशुदा व्यवस्था के अन्तर्गत परिचालित स्वतंत्र नागरिक स्पेस ही लोकतंत्र का मूलतत्व है। भारत का यह सौभाग्य है कि यहाँ एक असाधारण रूप से विविध एवं जीवन्त नागरिक समाज है। हालांकि खुद संवैधानिक स्वतंत्रता ही कैद में है। संविधान के प्रति निष्ठा का दम भरनेवाली सामाजिक एवं राजनीतिक शक्तियों के लिये यह महत्वपूर्ण होगा कि उनके द्वारा इन स्वतंत्रताओं की पहचान की जाय और उनकी रक्षा की जाय।

साम्प्रदायिकता-विरोधी और प्रगतिशील नागरिक स्पेस इस समय राज्य द्वारा ही किये जानेवाले सबसे गम्भीर हमले की ज़द में है। पर यही समाज का वह हिस्सा भी है जो हिन्दू-राष्ट्र के खि़लाफ़ किसी ऐसी पार्टी के झंडेतले संगठित होगा जो धर्मनिरपेक्षता (जिसे ‘सर्वधर्म समभाव’ के अर्थ में समझा जाता है) और आर्थिक प्रगति के साथ ही जनकल्याण की सम्भावनाओं को भी आकार देगी।

हमले का पैमाना

हमने उन सारी तिकड़मों का पता लगाया जो घरेलू या विदेशी चन्दे पर चलनेवाले 15 छोटे-बड़े संगठनों के नागरिक स्पेस को सीमित करने के लिये राज्य द्वारा अपनायी गयी हैं। इनमें जानी-मानी संस्थायें भी हैं जिनपर हमले हुये हैं, जिनमें एमनेस्टी इंटरनेशनल, द सेन्टर फॉर इक्विटी स्टडीज़, सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस, लॉयर्स कलेक्टिव, सेन्टर फॉर प्रमोशन ऑफ सोशल कन्सर्न्स और एक्ट नॉउ फॉर हारमनी एंड डेमोक्रेसी (अनहद) प्रमुख हैं, और भी बहुत से हैं जिनकी चर्चा ही नहीं होती।

जिन संस्थाओं पर हमने अध्ययन किया है उन्हें या तो निष्पक्ष और नरम माना जाता है, या अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों के अधिकारों, बराबरी और प्रगति के पक्षधर विचारों के लिये जाना जाता है।

हमारे अध्ययन के परिणाम बताते हैं कि जो संगठन साम्प्रदायिकता से जमकर लोहा ले रहे थे, खासतौर पर वही हमले की ज़द में आये। हमने हमले के पैमाने पर अध्ययन करते हुये पाया कि जहाँ सबसे तीखा हमला हुआ है वे संगठन न सिर्फ फंड की कमी का शिकार हुये हैं बल्कि उनके नेताओं को या तो जेल भेज दिया गया है या उनपर ऐसे आरोप मढ़ दिये गये हैं कि उन्हें एक लम्बा अरसा जेलों में ही गुजारना पड़े। इनमें सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस, एमनेस्टी इंडिया, ऑक्सफैम, द सेन्टर फॉर इक्विटी स्टडीज़ और लॉयर्स कलेक्टिव शामिल हैं।

वे संस्थायें जिनकी सक्रियता राज्य द्वारा जारी अनवरत हमलों के चलते गम्भीर रूप से प्रभावित हुयी है, अपेक्षाकृत हलके हमलों की चपेट वाली श्रेणी में आती हैं। ये संस्थायें लगभग निष्क्रिय हो चुकी हैं। इनमें द सेन्टर फॉर पॉलिसी रिसर्च और असांप्रदायिक  स्पेस में अमेरिकी सहयोग से चालित एक गैर-सरकारी संगठन हैं। हलके हमलों की चपेट में आनेवाली संस्थाओं में अनहद जैसी तीक्ष्ण साम्प्रदायिकता विरोधी गैर-सरकारी संस्थान भी है। इस क्षेत्र में कुछ संस्थायें ऐसी भी हैं जो साम्प्रदायिकता-विरोध के मुद्दे पर तटस्थ हैं। हमारे पैमाने के ‘हलके’ संवर्ग के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि नागरिक स्पेस इतना तंग हो गया है कि भारतीय राज्य द सेन्टर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) जैसे असाम्प्रदायिक संगठन को भी अकेला नहीं छोड़ रहा है। वर्तमान में  प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख और प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले नीति आयोग के उपाध्यक्ष दोनों ही सीपीआर से आते हैं। सीपीआर के खिलाफ़ एक आरोप यह भी है कि इसका कुछ सम्बन्ध आदिवासी अधिकार आन्दोलन से है और इसने टाइकून गौतम अडानी के खनन-हितों को प्रभावित भी किया है।

अत्यंत हलके हमलों से प्रभावित होनेवाली संस्थायें आमतौर पर साम्प्रदायिकता विरोधी क्षेत्र में सक्रिय नहीं होती, यद्यपि वे उल्लेखनीय मानवाधिकार-उद्देश्यों के लिये कार्य कर रही होती हैं। ये वे संस्थायें हैं जिनपर केवल एक हथियार से वार किया जाता है। दलित अधिकारों का नेतृत्व करने वाली संस्था ‘नवसर्जन’ और बाल-अधिकारों पर काम करने वाली ‘सेव द चिल्ड्रेन’ की पीड़ा अपेक्षाकृत हलके या सबसे तीखे हमलों के शिकार संस्थाओं की पीड़ा की तुलना में बहुत कम है।

हमने यह भी पाया कि इन संस्थाओं को अनुशासित करने के लिये प्रयुक्त उपकरण भी उन्हें प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिये, ग्रीनपीस जैसी संस्था हमारी परिभाषा के अनुसार ‘तीखे हमलों’ वाली श्रेणी से हटकर ‘हलके हमलों’ वाली श्रेणी में आ गयी है।

इस प्रक्रिया में ग्रीनपीस को अपनी अधिकार-आधारित आन्दोलनकारी संस्था की छवि को क्रमशः पर्यावरण और आदिवासी अधिकारों की हिमायती होने की छवि में बदलना पड़ा है जो उतनी गर्म नहीं वरन गुनगुनी है।

कैसे कैसे हथियार

अब हम मुड़ते हैं उन हथियारों की ओर जिनका प्रयोग इन कार्यों के लिये किया जाता है। ये हमले ऐसे हैं जिनमें जेल जाने की सम्भावना होती है, वे हैं धन-शोधन और उसकी जाँचें। हमने अपने विश्लेषण में यूएपीए को शामिल नहीं किया है और स्वयं को उन कार्यवाहियों तक सीमित रखा है जो अधिकतर गैर-सरकारी संगठनों को ही प्रभावित करती हैं। फाइनेंस एक्ट के माध्यम से प्रिवेन्शन ऑफ मनी लॉन्डरिंग एक्ट 2002 को 2019 में जिस प्रकार संशोधित किया गया उसने राजस्व विभाग को अपराध की छानबीन करने की और विस्तृत परिभाषा दे दी। इसके परिणाम अब दिखायी दे रहे हैं कि कैसे गैर-सरकारी संगठनों और विपक्षी नेताओं पर प्रवर्तन निदेशालय (ई0डी0) के हमले हो रहे हैं।

1976 से लागू आपातकाल के कानून ‘द फॉरेन कन्ट्रीब्यूशन (रेगुलेशन) एक्ट (एफ0सी0आर0ए0) को 2010 में यू0पी0ए0 सरकार द्वारा कठोर बना दिया गया था और भाजपा सरकार द्वारा 2020 में इसे और कठोर बना दिया गया। भाजपा सरकार ने 2010 और 2020 दोनों के प्राविधानों का इस्तेमाल करते हुये 2015 से 2020 के बीच लगभग 18000 गैर-सरकारी संगठनों से विदेशी सहायता प्राप्त करने का उनका अधिकार छीन लिया। दिलचस्प यह है कि समय बीतने के साथ ही एफ0सी0आर0ए0 का असर ऐसा हुआ कि राजनीतिक दलों का विदेशी चन्दा भी अत्यंत सीमित हो गया। यही हथियार अब गैर-सरकारी संगठनों पर भी क़हर बरपा रहा है। एफ0सी0आर0ए0 के प्राविधानों के अलावा विदेशी दानदाताओं को लगभग 80 अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त दानदाताओं की प्रॉयर रिफरेन्स कैटेगरी की सूची के माध्यम से भी धमकाया जा रहा है, इनपर किसी मानवाधिकार मुद्दों को प्रोत्साहित करने को लेकर निगरानी रखी जा रही है और इन्हें प्रताड़ित भी किया जा रहा है।

एफ0सी0आर0ए0 के अन्तर्गत केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सी0बी0आई0) को भी किसी गैर-सरकारी संगठन एवं उसके पदाधिकारियों की जाँच का अधिकार दिया गया है और उसके गम्भीर परिणाम भी होते हैं। उदाहरण के लिये सी0बी0आई0 ने एमनेस्टी इंडिया और उसके सर्वेसर्वा आकार पटेल के खिलाफ़ पूरक आरोप-पत्र दाखिल किया है। इस प्रकार की कार्यवाहियों के दण्डात्मक परिणाम हो सकते हैं। और तो और, इसकी उलझी हुयी प्रक्रिया अपने आप में सज़ा है।

असाम्प्रदायिक एवं साम्प्रदायिकता-विरोधी गैर-सरकारी संगठन भी हमले की ज़द में हैं। आयकर अधिनियम के अनुच्छेद 12 ए0 एवं 80 जी0 के अन्तर्गत गैर-सरकारी संगठन एवं दानदाता दोनों को छूट दिये जाने का प्रावधान है। 2020 के संशोधन के माध्यम से अब अनुच्छेद 12 ए0 एवं 80 जी0 के प्रमाणपत्रों का हर पाँचवें साल नवीकरण कराना और दानदाता की निजी जानकारियाँ और पैन कार्ड के नम्बर वित्त मंत्रालय को उपलब्ध कराया जाना अनिवार्य कर दिया गया है। इन प्रावधानों से राज्य को उन भारतीय दानदाताओं को प्रताड़ित करने की सुविधा मिल जाती है जो साम्प्रदायिकता एवं क्रोनी पूँजीवाद से लड़ना चाहते हैं।

जब राज्य के पास गैर-सरकारी संगठनों को दण्डित करने का कोई बहाना नहीं रह जाता तो वह आयकर-सर्वेक्षण का प्रयोग उस हथियार की तरह करती है जो ऐसे आँकड़े इकट्ठा करता है जिसके सहारे उसे और भी परेशान किया जा सके और चाहे सी0बी0आई0 द्वारा चाहे आयकर विभाग द्वारा उसपर और मुकदमे लादे जा सकें।

तो विपक्ष क्या करे

भारत में लोकतंत्र की आशा की आखीरी किरण यदि कहीं दिखायी देती है तो वह है नागरिक स्पेस। यह भयानक ख़तरे में है। 2023 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के नेता (वर्तमान में मुख्यमंत्री) सिद्धारामैया (कर्नाटक) और ए0 रेवन्त रेड्डी (तेलंगाना) दोनों ने जनकल्याण के वादे के साथ साफतौर पर धर्मनिरपेक्षता का दामन थामा था, जिससे भाजपा के विरुद्ध साम्प्रदायिकता-विरोधी नागरिक स्पेस का दोहन सम्भव हो सका। ‘इंडिया’ के लिये यह बहुत ही महत्वपूर्ण होगा कि वह क्षेत्रीय दलों में से नेताओं को चुने। चाहे वह ‘‘एड्डेलु कर्नाटक’’ (जागो कर्नाटक) रहा हो और चाहे इसी तर्ज पर तेलंगाना के आन्दोलन, दोनों में एक बात सामान्य थी, इन दोनों राज्यों में धर्मनिरपेक्ष एवं प्रगतिशील सामाजिक और राजनीतिक ताकतेें एकसाथ आ गयी थीं। विपक्षी ‘इंडिया’ ब्लॉक के लिये न केवल एक पार्टी के रूप में लड़ना जरूरी है, वरन लोकतंत्र को अक्षुण्ण रखने के लिये साम्प्रदायिकता-विरोधी एवं प्रगतिशील नागरिक स्पेस का दोहन भी जरूरी होगा।

(राहुल मुखर्जी हाइडिलबर्ग विश्वविद्यालय, जर्मनी के साउथ एशिया इंस्टीट्यूट में मॉडर्न पॉलिटिक्स विभाग के अध्यक्ष और प्रोफेसर हैं। आदित्य श्रीवास्तव भी उसी इंस्टीट्यूट में जर्मन चान्सलर फेलो हैं।)

‘द हिन्दू’ दिनांक 5 जनवरी 2024 से साभार                    अनुवादः दिनेश अस्थाना

तस्वीर गूगल से साभार

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