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किसान आन्दोलनः आठ महीने का गतिपथ और उसका भविष्य-छह

जयप्रकाश नारायण 

पंजाब और हरियाणा की किसान एकता

26 और 27 नवम्बर  की  रात को किसान सिंघु, टीकरी  बॉर्डर की सड़कों पर बैठकर व्यतीत किये। नवम्बर में दिल्ली की रात सर्द हो जाती है, जहां खुले आसमान में रात बिताना आसान नहीं होता।

जाड़े की सर्द रातों में किसान खेतों में सिंचाई करने, जंगली जानवरों से फसलों की सुरक्षा करने के लिए खुले आसमान में रहने के अभ्यस्त  रहे हैं।

इस तरह का जीवन जीना किसानों की सामान्य दिनचर्या का हिस्सा है।  27 और 28 की शाम तक किसान लगभग खुले आसमान में ही रहे और जो  कुछ था, उसे खा-पी कर के बिताया।

24 घंटे गुजरते-गुजरते हरियाणा के किसानों ने पंजाब के किसानों के साथ आकर कंधा मिला दिया तो सामाजिक, राजनीतिक समीकरण और संतुलन बदल गये।

हरियाणा के गांव से किसानों का सैलाब दिल्ली की तरफ उमड़ पड़ा। किसान और उनके नौजवान बेटे सब्जी, दूध, फल, राशन लेकर सीमा की तरफ दौड पड़े। अगल-बगल के रहने वाले गांव के किसान और ग्रामीण  छप्पर बनाने, टेंट डालने के सामान सहित आने लगे। किसानों के मोर्चे पर टिके रहने के लिए सारे साधन जुटाये जाने लगे।

किसान और नागरिक समाज 

दिल्ली के नागरिक समाज ने किसानों के साथ अपनी एकजुटता दिखायी और संपूर्ण दिल्ली बॉर्डर की तरफ चल पड़ी। राजधानी का नागरिक समाज ने, जिसने अपनी जिंदगी के अभाव, संकट और सरकार की क्रूरता, संवेदनहीनता और उपेक्षा को भोगा है, किसानों के साथ अपने को जोड़ लिया।

बहुत बड़ी संख्या में लोग दिल्ली के बॉर्डर पर, उनके पास जो कुछ था, उसे लेकर पहुंचने लगे। मैंने कई ऐसे दृश्य देखे हैं, जहां छोटे कारोबारी अपने आसपास के दुकानदारों, छोटे कारोबारियों, जिन्हें हम स्मॉल स्केल इंडस्ट्री कहते हैं, उनके मालिक-कर्मचारी आपसी सहयोग से किसानों के लिए साधन जुटाने में लग गये।

कंबल, चादर, ऊनी कपड़े, स्वेटर, मोजे, दस्ताने, चटाई या त्रिपाल, पानी के कंटेनर, गीजर जो भी ठंड से बचने के साधन हो सकते थे, वह लेकर नागरिक समाज किसानों के सहयोग के लिए पहुंचने लगा।

तीन दिन के अंदर ठंड और भूख से बचने के सारे इंतजाम, सुविधाएं, नागरिक समाज ने इन  किसानों के लिए जुटा दी। समर्थन, सहयोग, सहानुभूति और मानवीयता का इतना शानदार मंजर भारत ने पहली बार देखा ।

साझा दुख-सुख का अहसास, उसको महसूस करने की मानवीय संवेदना की भारतीय समाज के अंदर कितनी गहरी जड़े अंदर तक बसी हुई है । इसकी झलक किसानों के इस मोर्चे पर दिखी।

हर व्यक्ति, हर नागरिक, चाहे वह कारोबारी-व्यापारी हो, या हिंदू-मुसलमान-सिख-इसाई हो या हमारे समाज के विभिन्न तबके हो, जैसे छात्र-नौजवान, महिलाएं, जो जिसके पास था, वह लेकर किसानों के आंदोलन को संभालने, संवारने और बल देने के लिए बॉर्डर पर किसानों के बीच में पहुंचने लगे।

उसे उन्होंने अपना नागरिक और मानवीय कर्तव्य समझ लिया। मैंने एक लड़की को देखा, जो घर से ब्रेड-पकोड़ा बनाकर ले गयी थी। उससे पूछा गया, कि आप इतने बड़े जनसमूह के लिए जो लेकर आयी हैं, इसका क्या मतलब है ।

उसने जो कहा, वह काबिले गौर है और सत्ता सहित समाज को भी उससे सबक लेना चाहिए। उसका जवाब था, कि मैंने सोचा कि मैं क्या कर सकती हूँ । कैसे इस महासंग्राम का एक अदना हिस्सा बन सकती हो। उसने अपने घर में रखे ब्रेड का पकौड़ा बनाने का फैसला लिया और उसे लेकर किसानों को खिलाने जा पहुंची।

उसने कहा, मैं सबको तो नहीं खिला सकती लेकिन कुछ लोगों तक तो पहुंच ही सकती हूँ और उस लड़की ने कई दिनों तक  अपना सहयोग करना जारी रखा।

पत्रकार रवीश कुमार के अनुसार गुरुद्वारे  भारत में लोकतंत्र के स्तंभ हैं। सचमुच दो वर्ष पहले जब हम रामलीला मैदान के दो दिवसीय किसान पंचायत में टेंट के नीचे नवंबर की सर्द रात में रह रहे थे, तो हम लोगों ने पहली बार महसूस किया, कि सेवा करने की लगन, सेवा करने का संतोष और सुख, यही तो मनुष्य के जीवन का परम आनंद है।

दो दिन के उस पूरे कार्यक्रम में हजारों किसानों को गुरुद्वारों ने अपने लंगर से खाने-पीने की सारी सामग्री पहुंचा कर महसूस नहीं होने दिया कि हम किसी महानगरीय जीवन-संस्कृति के मध्य में रह रहे हैं।

जहां, हर वस्तु बिकाऊ  और बाजार के लिए होती है। किसानों के  आंदोलन को गुरुद्वारों, मस्जिदों और नागरिक समाज के द्वारा निःस्वार्थ भाव से संसाधन उपलब्ध न कराये जाते तो शायद किसान आंदोलन आज इस स्थिति में न हो पाता और इस क्रूर, बर्बर सरकार के हमले का प्रतिवाद करते हुए अपना पांव सीमा पर न टिका  पाता।

हम आज यह कह सकते हैं, कि इन नागरिक समाज के सहयोग के बिना किसान आंदोलन मानवता के सर्वोच्च उत्सव में न बदल पाता ।

किसान आंदोलन के गर्भ में मानवता का सबसे बड़ा उत्सव त्योहार शुरू हो चुका है। दिल्ली, जो अपने हृदयहीन व्यवहारों के लिए जानी जाती है, जो खुदगर्ज है और भारत की जनता के खिलाफ षड्यंत्र का केंद्र बन चुकी है,  उस दिल्ली में मनुष्यता का  जनतंत्र न खड़ा होता।

किसने सोचा था, किसान  भारत की संस्कृति-सभ्यता और नागरिक समाज की संवेदना का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र है, जिससे वह अपने को परिभाषित करता है और अपनी पहचान उससे जोड़ता है।

अभी भी भारतीय नागरिक समाज का मध्यवर्गीय तबका लाख कोशिशों के बावजूद कारपोरेट संस्कृत का दास नहीं बन पाया है।

वह अपने गांव से जड़ों सहित उखड़ कर महानगरीय सभ्यता के किसी अंधेरे कोने में विलीन  हो गया है, लेकिन वह अभी अतीत के उस रागात्मक रिश्ते से खुद को मुक्त नहीं कर सका ।

यही वह जगह है, जहां से किसान आंदोलन शक्ति, साधन और नैतिक बल ग्रहण कर रहा है। दूसरा और तीसरा दिन गुजरते गुजरते पूरा हरियाणा अपने भाई पंजाब के किसानों के साथ इस तरह से आकर घुल मिल गया, जैसे जुड़वा भाई होते हैं।

सरकार की कोशिशें थी पंजाब- हरियाणा को अलग रखा जाए। दोनों को मिलने न दिया जाए । लेकिन इस कृषि संकट के दौर ने साझा हित, साझा दर्द सहज रुप से एक साथ  मिलकर एकताबद्ध होने की भौतिक स्थिति को तैयार कर दिया था।

कृषि के कारपोरेट हाथ में कैद हो जाने के उद्देश्य से लाये गये तीन काले कृषि कानून पंजाब-हरियाणा को एक साथ जोड़ने में सेतु का काम किये।

इस आंदोलन ने दिल्ली की तीन सौ किलोमीटर की त्रिज्या में बसे इलाके में सदियों से मौजूद साझी संस्कृति को फिर से जागृत कर दिया। वे एक साझी संस्कृति  के वारिस हैं। उनका एक साझा इतिहास है।

वे एक साझी गुथी हुई आर्थिक-सामाजिक जीवन प्रणाली का अंग है। अभी भी उसके अतीत का साझा इतिहास खत्म नहीं हुआ है।

2013 में  आरएसएस  और उसके विध्वंसक दस्तों ने इसी साझा इतिहास को खत्म करने की कोशिश की थी। साझा संबंधों की बारीक डोर को, जो एक दूसरे से जुड़ी थी, उसे हिंदू-सिख-मुसलमान-ईसाई, जाट, गुर्जर, बाल्मिकी, त्यागी, जाटव में बांटकर तोड़ने की कोशिश की गयी थी।

इनके आपसी रिश्तों और संबंधों को खत्म करने का प्रयास किया गया था। जो, एक हद तक कामयाब भी हुआ था।

इसी  विभाजन और नफरत की राजनीति के बल पर दिल्ली की सत्ता पर आरएसएस-नीति भाजपा का कब्जा भी हुआ था।

(अगली कड़ी में जारी)

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