समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

खनकने लगी हैं गुल की मोहरें

पीयूष कुमार


फिर से दिन आ गए खिल के खिलखिलाते गुलमोहर के। वसंत की अगवानी में सेमल और पलाश की ललाई कम हो गयी थी शायद तो कुदरत ने इसे भेज दिया है ‘लाली लाली डोलिया में लाली रे दुलहनिया, पिया की पियारी भोली भाली रे दुलहनिया… ‘ की तरह। यह कमबख्त दिखता भी है एकदम मार करने वाला। बिदेशी है न, लुभायेगा ही। हर जगह परदेशी ही तो मोहते आ रहे हैं मन को। जी हां, मेडागास्कर मूल का यह पेड़ भारत मे सिर्फ दो सौ साल पहले ही आया और यहां लोग इस पर मोहा गए। इस भारतीय उपमहाद्वीप में जब कुदरत रंग बदलती है तब यह इसके फूलने से ही इस बात पर मुहर लगती है कि कुदरती नया साल आ चुका है।

इसी गुलमोहर की दूसरी प्रजाति जो पेड़ न होकर झाड़ीनुमा होती है, वह दो प्रकार की होती हैं। जो लाल वाला होता है, वह कृष्णचूड़ा कहलाता है और जो पीला वाला होता है, वह राधाचूड़ा कहलाता है। यह नामकरण बांग्ला और ओड़िया से हुआ है। मजेदार बात यह कि इन दोनों की संकर प्रजाति भी है जो लाल और पीले रंग से मिली जुली की होती है। इसे यूँ भी देखा जा सकता है कि यह मिलाजुला लाल पीला गुलमोहर प्रेम का राधा कृष्ण के रूप में मिलकर अर्धनारीश्वर हो जाना है। गुलमोहर की यही अदा इसे रोमांटिसिज्म का बड़ा प्रतीक बनाती है। अब कोई बेदिल हो तो क्या कीजे पर दिलवालों का तो ऐसा है कि उसे देखकर ही मन खुश खुश होने लगता है वजह हो या न हो। घाम में बगरती इसकी ललाई ऐसी लगती कि यह आशिक के आंगन में खड़ा है जबकि बारिश में भीगता यह यूँ लगता है जैसे किसी ने किसी की मुहब्बत को अभी अभी ही हां कही है। वैसे यह जितनी खुशी प्रेम में पड़ने पर देता है, उतनी की कसक अकेले रह जाने पर भी देता है। मेरी एक कविता ‘प्यार, बारिश और यादें’ के एक दृश्य है –

तुम्हारे शहर से गुजरते

बरसों बाद वहीं रुका था मैं

जहां हम भीगते खड़े थे

माथे झूल आई लट संवारते

मुस्कुराकर देखा था तुमने

और लट में उलझी बूंद

गालों पर ठहर गयी थी

 

अभी देखो न यहाँ

एक गुलमोहर

पलकों पर वह बूंद लिए

इस बारिश में भीग रहा है

इस भारतीय उपमहाद्वीप में चैत से कुदरत नए कपड़े धारण करती है और कुदरती नए साल की शुरुआत हो जाती है। पुष्पन, कुसुमन, पल्लवन और फलन के इस दौर में सारे पेड़ पौधे लहलह और महमह कर उठते हैं। ज्यादातर फूलों की रंगत सफेद और उससे कम सफेद वाली मिलती है यहां तक कि सफेद से कुछ ही दूरी पर पीला भी रहता है। ऐसे में सुर्ख लाल रंग के फूल ज्यादा लुभाते हैं। घाम है, मन तपा हुआ है ऐसे में इस सुर्खरू गुल की मुहरें देखकर लगता है, बदन में दौड़ते लहू का रंग भी इसी का कायल है। आजकल आत्ममुग्धता के स्वर्णकाल में दूसरे पर कायल होना जब कम हो गया है, यह बात बड़ी लगती है। मौसम की बहार पर बात करें तो गर्मियों के इस चौमासे में फूलों की बहार के तीन ‘क’ हैं जो धरती की रौनक हैं। किंशुक (पलाश), कृष्णचूड़ा (गुलमोहर) और कर्णिकार (अमलतास)। मज़े की बात है कि इन तीनों में ही सुगंध नही हैं पर ये ऐसे इठलाये रहते कि गुलाब, जूही, मोगरा जैसों की तो याद ही नहीं आती।

इस गुल की तासीर इन दिनों अलग ही आती है। कोई कभी भी कहीं भी ‘गुलमोहर’ कह दे तो सुनकर ही बड़ा रोमांटिक फील होता है। गुलज़ार साहब ने यूँ ही नही गाना लिख दिया – “गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता, मौसम ए गुल को हंसाना भी हमारा काम होता ।” गुलमोहर को गर्मियों के अलावा बारिश और जाड़ों के मौसमों में भी देखता हूँ तो एकदम मस्त और हरियर रहता है। इस दिनों शायद मुहब्बत जमा करता रहता है खुद के भीतर ताकि अभी बैसाख की धूप में खुद को झूम के जाहिर कर सके। तभी तो उधर जब जंगल मे पलाश झर जाते हैं तो ये शहरों और कस्बों में इठलाने लगता है। सड़क या कॉलोनी में इसे दूर से देखो तो लगता है, ये अपने में ही मगन है और जब इसके करीब से गुजरो तो लगता है शरारत वाली मुस्कुराहट के साथ पूछ रहा हो, “अकेले किधर चले… वो तुम्हारी गुल कहां है?”  फिर जब पीछे पलट कर देखो तो कमबख्त हंसकर हाथ हिलाता दिखता है।

वैसे गुलमोहर को देखकर रोमांस न जागे और हिरदे में लाल लहू बल न खाए तो बरगद के नीचे धूनी रमाना बेहतर है। कभी मुहब्बत में हो और गुलमोहर को देखकर “गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता…” नही गुनगुनाया तो कुछ किया और जिया ही नहीं जिंदगी को। इस गुलमोहरिये मौसम में फ़िल्म ‘देवता’ के इस गीत को जरूर सुनिएगा। गुलमोहर शब्द का इतना प्रभाव है दिल पर कि सोचा था, अपने घर का नाम रखूंगा ‘गुलमोहर’। पर इसकी नौबत ही न आई। फिर अपना यह शौक अपने मिजाज वाले दर्जन भर मितरों के व्हाट्स एप ग्रुप का नाम ही रख कर पूरा किया। व्हाट्स एप ग्रुप से याद आया, कुछ पुराने दोस्तों को खोजकर एक ग्रुप का नाम इसी तरह रखा था ‘पलाश’। पर वहां सब मुगलकाल को कोर्स से बाहर करने पर खुश होने वाले निकले तो लगा यह ‘पलाश’ ग्रुप व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी न बन जाये सो खुद बाहर होकर उसे बन्द करना पड़ा।

इस बरस भी गुलमोहर खिले खिले हैं, संग संग जंगलों में कुटज और पलाश भी बगरे हैं। वन और उपवन की यह शोभा हरियर जंगलों की वजह से और भी बढ़ गयी है। इसकी वजह यह है कि इस बार मौसम ने भी अपनी चाल बदली है। पूरा चैत और बैसाख निकल गया, बारिश ने आषाढ़ का माहौल बना दिया है। यह पहली बार देखा। शायद जलवायु परिवर्तन हो रहा हो। यह बदलाव कितना सकारात्मक है या नकारात्मक, बाद में ही समझ आएगा पर उम्मीद है कि गुलमोहर तब भी इसी तरह खिलते रहेंगे।

गुलमोहर हो और अदब में इसका दख़ल न हो, यह मुमकिन ही नहीं। इस लाल गुल को साहित्यिकों और शायरों ने हमेशा मुहब्बत से याद किया है। गुलमोहर से अपनी जिंदगी का राब्ता नामी गज़लगो दुष्यंत कुमार ने अपनी मकबूल ग़ज़ल के आखिरी शे’र में यूँ जाहिर किया है –

“जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये”

तो दुष्यंत साहब का ख़याल रखते अपने बगीचे और गैर की गलियों में गुलमोहर की हरीतिमा और ललाई बचाये रखें ताकि सिर्फ एक बार ही मिले इस मानुष जीवन मे जीना – मरना ठीक से हो सके।

(पीयूष कुमार, जन्म – 03 अगस्त 1974,सह सम्पादक – ‘सर्वनाम’ पत्रिका। लेखन – कविता, समीक्षा, सिनेमा, अनुवाद और डायरी आदि विधाओं में लेखन। विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं और ऑनलाइन मंचों, पोर्टल्स आदि पर नियमित प्रकाशन। आकाशवाणी और दूरदर्शन से आलेखों का प्रसारण और वार्ता। ‘चैनल इंडिया’ अखबार रायपुर में छत्तीसगढ़ी गीतों पर ‘पुनर्पाठ’ नाम से साप्ताहिक आलेख।

प्रकाशन – सेमरसोत में सांझ (कविता संग्रह) भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित।

अन्य – लोकसंस्कृति अध्येता, फोटोग्राफी (पुस्तकों और पत्रिकाओं के आवरण पृष्ठ के लिए छायांकन)

संप्रति – सहायक प्राध्यापक (हिंदी), उच्च शिक्षा विभाग, छत्तीसगढ़ शासन।

सम्पर्क : मोबाइल – 8839072306

ईमेल – piyush3874@gmail.कॉम)

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