समकालीन जनमत
कमला भसीन
स्मृति

‘ कमला अब तारों के साथ नाच रही होंगी और उन्हीं की झंकार से नए गीत बना रही होंगी ’

कमला अब तारों के साथ नाच रही होंगी और उन्हीं की झंकार से नए गीत बना रही होंगी। मुझे आज भी याद है जब मैं कमला से पहली बार मिली तो मैं आइसा में थी। नाच-गाने में मेरा कोई खास आत्मविश्वास नहीं था और कमला ऐसी थीं कि वे किसी आंदोलन में, नाचने-गाने में कोई खास फर्क नहीं करती थीं तो मेरा भी हाथ पकड़कर जबरन नाचने के लिए मजबूर करना यह उनकी आदत थी।

कमला को याद करते हुए सबसे पहली चीज जो याद आती है वो है उनकी जिंदादिली। जिंदादिल होना बहुत आसान तो नहीं होता होगा क्योंकि जीवन में कष्ट की कोई कमी नहीं है। कमला के अपने निजी जीवन में भी कष्टों की कोई कमी नहीं थी। अपनी बेटी को खोना, उनके लिए एक बहुत भारी दुख से होकर गुजरने जैसा था। दु:खों के साथ जीना, उन्हें गले लगाना और उन्हें अपने शरीर पर किसी भारी चीज की भांति न ढोना, सुख-दु:ख को साथी बनाकर चलना ये एक सबसे बड़ी चीज है जो हम कमला से सीख सकते हैं।

हर मौसम के लिए, हर मिजाज के लिए उनके पास नए-नए गीत मौजूद थे और उनको देखकर मुझे श्रीलता की याद आती है। श्रीलता और कमला दोनों बहुत अच्छी दोस्त थीं। श्रीलता के गुजरने पर मुझे याद है कि कमला ने फोन कर सभी नारीवादी साथियों को बुलाया था, खोए हुए सभी नारीवादी साथियों को याद करने के लिए। श्रीलता को याद करते हुए कमला ने कहा था कि वो एकदम पागल थी। बड़े घर की होने के बाद भी वे राजस्थान के एक आदिवासी गाँव में बस गई थी और वहाँ पर काम करती थीं। श्रीलता के बारे में उन्होंने बताया कि जब वो शुरू-शुरू  में गाँव पहुंची तो लोग उनके पास तरह-तरह की दवा मांगने आ जाते थे। ऐसे में श्रीलता उनकी मदद कर देतीं। वो तो बाद में पता चला कि वे उनसे पता करने आते थे कि उनके पास कोई नामर्दी वाली दवा है क्या। गाँव वालों के पास हर मर्ज की बेहतरीन दवा थी, लेकिन श्रीलता बताती हैं कि इस बीमारी के लिए नई-नई दवा की तलाश में हर समाज रहता है और उस समय उन गाँव वालों को लगा कि श्रीलता के पास वो दवा है।

उन्होंने यह भी बताया कि जब श्रीलता गाँव से वापिस दिल्ली लौटीं तो वे सुबह-सुबह आकर कमला का दरवाजा खटखटाकर एकदम तूफान की तरह घुसतीं और खाने की सभी स्वादिष्ट चीजें निकालने को कहतीं। कमला उन्हें कहती थी कि वे इतनी बड़ी proletariat हैं और वहाँ गाँव में रुकी हैं तो यहाँ आकर ये सब क्यों मांगती हैं। तो श्रीलता ऐसे में कहती थीं कि इसीलिए मांगती हैं कि क्योंकि वे सब कमला के पास है। बिल्कुल ऐसे ही हक से वे मांगती थीं। एक बार जब श्रीलता दिल्ली आईं तो उनके पैर में भयानक घाव था। घाव इसलिए क्योंकि उनको किडनी का एक रोग हो गया था और ऐसे में एम्स के डॉक्टर्स ने भी इलाज के लिए हाथ खड़े कर दिए थे। कमला बताती हैं कि तब श्रीलता ने ये इलाज अपने हाथ में ले लिया। डॉक्टर्स उन्हें बता चुके थे कि वे ज्यादा दिन तक बच नहीं पाएंगी। लेकिन श्रीलता ने उस समय मोरारजी देसाई द्वारा सुझाई गई यूरिन थेरपी को अपनाया और वो बिल्कुल ठीक हो गई। इससे ठीक होने के बाद उन्होंने इस थेरपी के बारे में सबको बताया।

कमला अपने बारे में भी मज़ाक करने से नही चूकती थीं। कमला बताती हैं कि साउथ एशिया की नारीवादी मीटिंग में इकबाल बानो ने ‘हम देखेंगे’ गाया और उसके बाद वहाँ किसी ने फिर कमला को गाने के लिए कहा। कमला को लगा कि इकबाल बानो के गाने के बाद अब वे क्या गाएंगी कि ‘तोड़-तोड़ बंधनों को देखो बहना आती है’! ये कैसा लगेगा! उनको लगा कि गाना तो नहीं पर कोई चुटकुला सुनाया जाए। वह अस्सी का दशक था। चुटकुले के नाम पर उन्होंने कोई सरदार जी वाला चुटकुला सुना दिया। उस पर तुरंत ही भारत के बाहर के लोग खासकर पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका के सब लोग सब नाराज हो गए और उठकर चले गए और बोले कि ये बहुत ही गलत चीज है, कहा गया कि वे सिक्ख समुदाय का मज़ाक उड़ा रही हैं, वैसे ही पूरा देश उनका उत्पीड़न कर रहा है और यहाँ उनपर चुटकुला सुनाया जा रहा है। कमला ऐसे में सोच में पड़ गईं, उन्होंने सोचा कि ये क्या हो गया। उन्होंने तो शादी भी सिक्ख से ही की है और वे तो कड़ा भी पहनती हैं पर यहाँ इस तरह का चुटकुला कमला के मुताबिक शायद सही नहीं था। तो कमला अपनी बेवकूफियां औरों को बताने में कभी चूकती नहीं थीं। वे खुलेआम बताती थीं।

मेरे लिए कमला से सबसे बड़ी चीज सीखने वाली ये थी कि नारीवादी और प्रगतिशील आंदोलनों को कैसे इतने सहज शब्दों में कहें, अभिव्यक्त करें ताकि छोटा-सा बच्चा भी बड़ी आसानी से समझ जाए। इसके लिए वे नए-नए तरीके, नए-नए रास्ते हमेशा खोजती रहती थीं। जेन्डर के बारे में उनकी समझदारी हमेशा बदलती रही। मैं ऐसे साथियों को जानती हूँ कि वे जब छोटे लड़के हुआ करते थे तो उन्होंने जब कमला की लिखी किताबें पढ़ीं तो उनको एक तरफ असहजता भी महसूस होती थी और दूसरी तरफ उनमें एक कोतूहल भी भर जाता था, वे नई-नई चीजें जान पाते थे। उनमें से एक, कॉमरेड ओम ने कमला को याद करते हुए लिखा कि कमला जैसे लोगों की जरूरत है जो हमेशा लड़कों को असहज बनाती रहेंगी, पुरुष सत्ता को असहज बनाती रहेंगी। कमला उन लोगों में से थीं जो लिख कर पूछती थीं कि लड़का कैसा, लड़की कैसी। यदि कोई सोचता कि लड़की के लंबे बाल और लड़कों के छोटे बाल तो वे दिखातीं कि लड़कियों के छोटे बाल हो सकते हैं, वो पैंट पहन सकती हैं पेड़ पर चढ़ सकती हैं इत्यादि। इस तरह लिंग भेद को चुनौती देने का काम कमला बहुत पहले से कर रही थीं।

कमला खुद कहती थी कि लिंग को लेकर आई समझदारी किसी चरम को प्राप्त की गई समझदारी नहीं है। कल ही मैंने देखा कि एक LGBTQ समुदाय की एक साथी ने कमला को याद करते हुए लिखा कि उनका नारीवाद चरम समझदारी को पहुँच चुका है, ऐसा नहीं था। वो एक बुनियाद है जिसपर चढ़ कर हम में से बहुत से लोग अपनी समझदारी को नया बना सकते हैं और उस नई समझदारी से कमला को सीखने को भी बहुत कुछ मिलता। अपनी गलतियों से हर बार कुछ बेहतर बनकर निकलना, यही तो कमला थीं।

कमला अब हमारे बीच नहीं रहेंगी, हम लोग जब चाहे उनसे राय-मशविरा नहीं कर पाएंगे, बातचीत नहीं कर पाएंगे यह सोचना अपने आप में पीड़ा दायक है। मुझे याद है कुछ वर्षों पहले 8 मार्च के दिन हम लोग मंडी हाउस में जुटे थे, वहाँ कुछ लड़कियां कमला को सुन रही थीं, कमला ने मेरा हाथ पकड़ा और मेरे बारे में इतनी गर्मजोशी से परिचय दिया कि मैं खुद ही शर्मा गई लेकिन बहुत अच्छा भी लगा क्योंकि कमला कभी भी वरिष्ठ-कनिष्ठ का भेद नहीं देखती थीं। बहनापा का एक बेहतरीन उदाहरण कमला है। मेरी नई किताब जो 2020 में निकली, उसको पढ़ना, उसके बारे में फ़ेसबुक पर उसके बारे में बताना, लोगों को उसे पढ़ने के लिए कहना ये सब कमला में मुझे बहुत अच्छा लगता है। पिछले साल कोविड के चलते कमला से रूबरू न हो पाना ये अपने आप में दु:खद है। और अब वो हमारे बीच में नहीं हैं ये सोचना भी कष्टदायी है। लेकिन इसके बावजूद भी कमला के बारे में हम ये नहीं कह सकते कि कमला अब नहीं रहीं। कमला के शब्द, उनकी गर्मजोशी, उनके गीत, उनके वे नारे जो वो दुनिया भर से ले आती थीं जैसे वो नारा जो उन्होंने पाकिस्तान से लाकर भारत के महिला आंदोलन को भेंट किया ‘महिलाएं मांगे आजादी’ जो 2012-13 वाले आंदोलन में भी गूँजा, ये सब हमारे साथ हमेशा एक साथी के रूप में चलेंगे। कमला के खोने का दुख और उनके होने का सुख ये दोनों ही हमारे साथ रहेगा।

(मूल लेख ऑडियो रूप में था जिसका लिप्यान्तरण अर्पिता राठौर ने किया है। अर्पिता कविताएँ लिखती हैं, कार्टूनिस्ट हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में एम ए की छात्रा हैं।)

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