समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

हम पितृसत्ता के खिलाफ हैं, पुरुषों के नहीं: कमला भसीन

(‘स्त्री संघर्ष का कोरस’ शृंखला के अंतर्गत रविवार 28 जून को कोरस के फेसबुक पेज से प्रसिद्ध नारीवादी कार्यकर्ता, कवि और समाज विज्ञानी कमला भसीन ने ‘किशोरवय बालिकाओं की मनोवैज्ञानिक और सामाजिक चुनौतियाँ’ विषय पर व्याख्यान दिया। यहाँ प्रस्तुत है उस व्याख्यान का संपादित अंश: सं.)


संविधान जिंदाबाद और समानता जिंदाबाद

कोरस पटना की शुक्रगुजार हूँ, बहुत खुशी है कि कोरस ने मुझे बुलाया क्योंकि पितृसत्ता से लड़ाई के लिए अधिक से अधिक महिलाओं को इसमें शामिल करना है, पर महिला आंदोलन केवल महिलाओं का आंदोलन नहीं है। यह हर उस व्यक्ति का आंदोलन है जो समानता में विश्वास करते हैं।

कोरस ने मुझसे एक सवाल पूछा है कि स्त्रियों के संघर्ष को नारीवाद नाम देना कहाँ तक उचित है?

जैसे दलित आंदोलन में केवल दलित नहीं हैं; बल्कि संविधान और समानता में विश्वास रखने वाले हर तबके के लोग इस आंदोलन में हैं, इसी तरह आजकल अमेरिका में चल रहे ब्लैक लाइव्स मैटर में केवल ब्लैक्स ही नहीं शामिल हैं, बल्कि अमेरिका के संविधान में भरोसा रखने वाले बहुत से व्हाइट्स भी इसमें शामिल हैं जो यह मानते हैं कि रंगभेद नहीं होना चाहिए; इसी तरह महिला आंदोलन में सिर्फ महिलाएँ नहीं हैं बल्कि समानता के सिद्धान्त को मानने वाले पुरुष भी इसमें शामिल हैं।

कुछ लोग यह मानते हैं कि अगर महिला आंदोलन समानता के लिए है तो इसे आप नारीवाद क्यों कहते हैं? किसी भी आंदोलन का नाम उनके नाम से बनता है जो दबे हुए हैं। जब अंग्रेज़ राज के खिलाफ आंदोलन चला तो उसे भारत की आज़ादी का आंदोलन कहा गया, मजदूर आंदोलन को मजदूर आंदोलन कहा गया, दलित आंदोलन नाम इसलिए है कि समस्या दलितों को है। इसी तर्ज़ पर छात्र आन्दोलन छात्रों की समस्याओं को लेकर है।

जिसकी समस्या है उसी के नाम से आंदोलनों का नाम होता है। इसी वजह से हमने इसका नाम रखा नारीवाद, और इसका यह बिल्कुल मतलब नहीं है कि इसमें पुरुष शामिल नहीं हो सकते। हमेशा से महिला आंदोलन में नारीवादी पुरुष रहे हैं। उदाहरण के लिए बाबा साहब अंबेडकर, गौतम बुद्ध, गुरु नानक, प्रोफेट मोहम्मद जैसे लोगों का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने महिलाओं के अधिकारों को स्वर दिया।

नारीवाद एक सफर है, मंजिल नहीं। 3 हजार साल पुरानी पितृसत्ता से लड़ाई लंबी है, मंजिल अभी दूर है, मगर मैं सफर में हूँ; इसी का मतलब है कि मैं नारीवादी हूँ।

कुछ लोग आरोप लगते हैं कि यह नारीवाद पश्चिम की नकल है। तो क्या गौतम बुद्ध, मोहम्म्द साहब और मीरा पश्चिम का साहित्य पढ़कर महिलाओं की लड़ाई लड़ रहे थे। स्त्रियों के अधिकारों की लड़ाई बहुत पुरानी है। जिंदगी को पढ़ना, अपने भीतर समानता की आग जलाए रखना इस लड़ाई का अहम पहलू है।

हम पितृसत्ता के खिलाफ हैं, पुरुषों के खिलाफ नहीं। पितृसत्ता का उलटा मातृसत्ता ठीक उसी तरह नहीं हो सकता जैसे मलेरिया का उलटा निमोनिया नहीं हो सकता, दोनों ही बीमारियाँ हैं। इस तरह पितृसत्ता का उलटा केवल और केवल समानता ही हो सकती है, मतलब पुरुष भी समान और स्त्री भी समान।

देश में औरत अगर बेआबरू नाशाद है,

दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है।

मैं संविधान की शुक्रगुजार हूँ कि लिखित रूप में इसने कह दिया कि सब जातियाँ, स्त्री-पुरुष सब समान हैं। बावजूद इसके दलितों, अल्पसंख्यकों, बेटियों को हम समानता नहीं देते। मुझे कई बार लगता है कि 1947 में सिर्फ भारत आज़ाद हुआ, भारतीय आज़ाद नहीं हुए। आज भी हर भारतीय को सड़क पर इधर उधर देख कर चलना पड़ता है, अपनी ही सड़क पर बेखौफ न चल सके तो यह कैसी आज़ादी। मैं 74 साल की हो गई और कभी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने टैक्सी ली हो और मेरे मन में खयाल न आया हो कि क्या मैं ठीक ठाक घर पहुँच जाऊँगी! और कितनी खराब बात है कि मेरे दिमाग में यह खयाल आए, कि मैं उस टैक्सी ड्राईवर पर संदेह करूँ। लेकिन रोज रोज आ रही ऐसी भयानक खबरें मन में ऐसी शंका पैदा करती हैं। पितृसत्ता ने मुझे हर मर्द से डरने को मजबूर किया है। दुनिया की आधी जनसंख्या से मुझे पितृसत्ता ने डरा रखा है। मैं नहीं डरना चाहती पुरुषों से, वे मेरे भाई हैं, मेरे दोस्त हैं। मैं उनके साथ जीना चाहती हूँ बराबरी से।

हमारे देश में एक नारा चलता है आजकल-‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’। यह मेरे लिए बेहद शर्मनाक नारा है। किससे बचाना है बेटी को? चीन से? पाकिस्तान से? अपने माँ-बाप से बेटी बचाओ की गुहार करने वाला मुल्क है यह। यह कैसा समाज बनाया है हमने!

पढ़े-लिखे शिक्षित समाज में भ्रूण हत्या अधिक है। सरकारी आंकड़े साफ बताते हैं कि आदिवासी बेटियों को नहीं मारते हैं। उनके लिए बेटी बोझ नहीं है। बोझ किसके लिए है बेटी? संपत्ति वालों के लिए! ये पितृसत्ता का सारा खेल संपत्ति से जुड़ा हुआ है। हमें सिर्फ वो बच्चा चाहिए जिसे हम संपत्ति दे सकें और वह कौन होगा? वह बेटे होंगे।

हम इसलिए बेटी मारते हैं ताकि दहेज न देना पड़े, ताकि वारिस आ सके। ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’ का नारा देने वाले देश में क्या यह हिम्मत नहीं है कि वह दहेज बंद कर दे। बेटे और बेटी में फर्क करने वाली सोच बदल दे। हाँ, मगर 50-55 मिलियन बेटियों को मरने की हिम्मत है हममें। लक्ष्मी माँ, काली माँ,  दुर्गा माँ और सरस्वती माँ की पूजा करने वाले हम बेटियों की हत्या कर देते हैं। मैं दूसरे देशों मे जाती हूँ तो इस बात से बेहद शर्मिंदा होती हूँ।

सरकार बताती है कि भारत के 40% पति अपनी पत्नियों पर हाथ उठाते हैं। एक संस्था है इन्टरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वीमेन। वह बताती है कि यह आंकड़ा 50 से 60 प्रतिशत है। अभी कोविड-19 में यह हिंसा और भी बढ़ गई। संसद में 10 से साढ़े 10 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं नहीं होतीं। महिलाओं के जघन्य बलात्कार हो रहे हैं। हाल बहुत बुरा है लेकिन फिर भी हम औरतों ने हार नहीं मानी है। हम लड़ते रहेंगे, संघर्ष करते रहेंगे। एक अच्छी खबर बताऊँ कि अभी जब बिना सोचे समझे लॉकडाउन लगाया गया, बिना यह सोचे समझे कि मजदूर घर कैसे जाएंगे? उन पर क्या बीतेगी? मैंने 5-6 हफ्ते पहले एक वीडियो देखा कि एक 21 साल की बेटी अपनी बीमार पिता को 900 किलोमीटर साइकिल से लेकर घर आ गयी। अगर देश में एक भी ऐसी बेटी है तो कोई माँ-बाप कैसे बेटी नहीं चाहेंगे!

लड़कियां जीवन जगत के हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं। मैं आपको बेटियों पर अपनी एक कविता सुनाती हूँ-

हवाओं सी बन रही हैं लड़कियाँ

उन्हें ऊंची उड़ाने भरने में मजा आता है

उन्हें मंजूर नहीं उनके परों का काटा जाना।

फूलों सी बन रही हैं लड़कियाँ

उन्हें महकने में मजा आता है

उन्हें मंजूर नहीं पैरों तले कुचला जाना।

समंदर सी बन रही हैं लड़कियाँ

उन्हें फैलकर जीने में मजा आता है

उन्हें मंजूर नहीं सिमटा हुआ पानी होना।  

पहाड़ों सी बन रही हैं लड़कियाँ

उन्हें सर उठा जीने में मजा आता है  

उन्हें मंजूर नहीं सर को झुकाकर जीना।

सूरज सी बन रही हैं लड़कियाँ

उन्हें चमकने में मजा आता है

उन्हें मंजूर नहीं हरदम बादलों से ढंका होना।  

ऐसी होनहार बेटियाँ पूरी दुनिया में हैं और हिंदुस्तान में हैं। हमें सिर्फ अपने आपको अंदर से बदलना है।

जीवन संघर्ष: औरत होने के नाते जीवन में आए संघर्ष और नारीवाद तक का सफर

मैं पंजाबी माँ बाप की बेटी हूँ। पिता डॉक्टर थे, माँ अनपढ़ थीं। बेटों को हम डॉक्टर बना रहे हैं, बेटियाँ अनपढ़ हैं। पिता जी कोई 1940 के आस पास राजस्थान में नौकरी करने लगे। हम 6 भाई बहन पैदा हुए। मेरी पैदाइश के समय मेरी माँ अपनी ससुराल पंजाब में थीं। इस तरह मैं पंजाब की पैदाइश हूँ, जबकि मेरे बाकी भाई बहन राजस्थान के। विभाजन ने नक्शे पर लकीरें खींच दीं। मेरा गाँव पाकिस्तान में चला गया, मैं हिंदुस्तान में रह गई, यानी फायदा यह हुआ कि मेरे दो देश हो गए। राजस्थान के गांवों में और कस्बे में सरकारी स्कूल में मेरी पढ़ाई हुई। किताबों से ज्यादा नहीं सीखा मैंने मगर ज़िंदगी से खूब सीखा। खेलों और पहनावे में मैं अपनी मर्जी चलाती थी। मुझे लड़कों के कपड़े पहनने ज्यादा पसंद थे क्योंकि लड़के के हर कपड़े में जेब होती थी और जेब का महत्व आप समझ लो, अगर जेब नहीं है तो आपके हाथ हमेशा बंधे रहते हैं। औरत का हाथ कभी खाली नहीं होता, लड़कों का हाथ हमेशा खाली होता है।

मैंने राजस्थान से अपनी उच्च शिक्षा पूरी की। मुझे खेलने का बहुत शौक था। इसी बीच मुझे जर्मनी जाने का मौका मिला। वहाँ पढ़ाई और नौकरी भी की। वापस हिंदुस्तान आकार सेवा मंदिर नाम की एक संस्था में 1972 से उदयपुर में काम करने लगी। मार्क्स, जाति और पितृसत्ता सब मुझे गाँव में काम करते हुए ही समझ में आए। वहाँ मैंने समझा कि गरीबों में औरत ज्यादा गरीब है, दलितों में औरत ज्यादा दलित है, ब्लैक्स में औरत ज्यादा ब्लैक है, आदिवासियों में औरत ज्यादा आदिवासी है। हम औरतों को जेलों में डाला गया, हमारी जिंदगी पर कितनी ही पाबंदी लगाई गईं। लड़कियों को लिए घर जेल जैसा था जिससे उन्हें स्कूल जाने के लिए ही बेल मिलती थी। मायके रूपी जेल से ससुराल रूपी बड़ी जेल में उन्हें भेज दिया जाता था। 24 घंटे पर्दे में उन्हें रहना पड़ता है।

4 से 8 साल की उम्र के बीच 13 मर्दों ने मेरा शोषण किया। सब जान पहचान के थे, रिश्तेदार थे, टीचर थे। 44-45 साल की उम्र में पहली बार दिल्ली की एक नारीवादी मीटिंग में मैं इस पर बात कर पाई। महिला आंदोलन न होता तो आज भी हम इस पर बात न कर पाते। मैंने ‘काश मुझे किसी ने बताया होता’ नाम से एक किताब लिखी जिसमें मैंने इन सब बातों का जिक्र किया है।

मुझे खुशी इस बात की है कि मेरे अंदर किसी बात की कटुता नहीं आई। और मेरा सेंस ऑफ ह्यूमर भी मुझे बचाए रखता है। इसीलिए मैंने एक किताब लिखी ‘हँसना तो संघर्षों में भी जरूरी है’। मैं इस नारीवादी आंदोलन की एक सैनिक हूँ, और यह संघर्ष लंबा है तो हमें अपने जीवन में हंसी, नृत्य, गीत सब बचाकर रखना होगा।

बेटियों के साथ जो हो रहा है उससे बचने के लिए पितृसत्ता को खत्म करना है। यह पितृसत्ता एक सामाजिक व्यवस्था है। इस व्यवस्था में पुरुष को उत्तम माना जाता है। संसाधन, निर्णय लेने की शक्ति और विचारधारा पर अधिकार- ये तीन चीजें हैं जिसमें पुरुष अधिक शक्तिशाली हैं। कानून, धर्म, सब पुरुष तय करते हैं। पितृसत्ता के दो हिस्से हैं- एक ढांचा जो दिखाई देता है; दूसरा यह एक विचारधारा है जो दिखाई नहीं देती है। विचार दिखाई नहीं देते लेकिन हमारे चारों तरफ मौजूद हैं। यह विचारधारा पितृसत्ता में औरतों को हमेशा दोयम दर्जे का स्थान देती है।

पितृसत्ता केवल पुरुष नहीं मानते, औरतें भी पितृसत्तात्मक हो सकती हैं। इसीलिए सास बहू का झगड़ा है, यह दो औरतों का झगड़ा नहीं है, यह पावर का झगड़ा है।

पितृसत्ता बिना हिंसा के चल ही नहीं सकती। पितृसत्ता है तो औरतों पर हिंसा होगी ही। बिना हिंसा के अन्यायपूर्ण व्यवस्था चल ही नहीं सकती, औरतों के बलात्कार, दलितों पर हिंसा, अल्पसंख्यकों पर हिंसा इसी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए की जाती है।

जेंडर समाज द्वारा दी गई परिभाषा है। कुदरत ने मुझे मादा बनाया लेकिन यह दुपट्टा मुझे पितृसत्ता ने पहनाया। लड़के और लड़कियों को समाज अलग अलग तरह से संस्कारित करता है। जेंडर हमारा सोशलाइजेशन करता है। जेंडर एक नाटक है जो हमसे करवाया जाता है। जेंडर एक पावर का खेल है, इसके माध्यम से समाज पुरुषों को सत्ता देता है और महिलाओं से पावर ले लेता है।

मैंने 20 साल पहले एक किताब लिखी है ‘मर्द मर्दानगी और मर्दवाद’। यह पितृसत्ता मर्दों को पैसा, प्यार, इज्जत, संपत्ति, दासी देती है। पैदा होते ही पितृसत्ता बेटों पर हावी हो जाती है, उसे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अवसर नहीं मिलता है। उसकी इंसानियत खत्म कर दी जाती है। जितनी स्टीरियोटाइपिंग औरतों की होती है उतनी ही मर्दों की भी होती है। कोई भी पुरुष बलात्कारी पैदा नहीं होता उसे बनाया जाता है, वह पैदाइशी अमानवीय नहीं है बल्कि उसे अमानवीय बनाया जाता है।

समय आ गया है कि औरत मर्द मिलकर पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई लड़ें।

क्या कानून से हम लोगों को बदल सकते हैं?

कानून बहुत जरूरी है, इसमें कोई शक नहीं है। हम खुशकिस्मत हैं कि हमारा संविधान हमें बराबरी का हक देता है। हमें महिला आंदोलनों से अनेक कानून हासिल हुए हैं। हमारा हर कानून हमारे संघर्षों से हासिल हुआ है। लेकिन कानून कब आता है हमारी ज़िंदगी में? जब जुर्म हो जाता है मुझे जुर्म होने का इंतज़ार नहीं करना है। कानून का इस्तेमाल करने वाली पुलिस, न्यायाधीश, राजनेता अगर पितृसत्तात्मक हैं तो हम कानून का क्या करेंगे। तो मेरा मानना है कि बदलाव हमारे अंदर से होना चाहिए। नारीवाद का सबसे अहम नारा है कि ‘पर्सनल इस पॉलिटिकल’। संविधान के मूल्यों को दिलों में बैठाना है। उसे जिंदगी में लाएँ। शिक्षा जरूरी है लड़कियों-लड़कों के लिए। शिक्षा ऐसी हो जो जिंदगी बदलने में सहायक हो। अपने घर के भीतर छिपी पितृसत्ता की तलाश कर उससे लड़ाई लड़नी होगी। पर्व त्योहार भी पितृसत्तात्मक है तो उसे भी समानता पर आधारित होना चाहिए।

‘बेटी दिल में, बेटी विल में, अर्थात बेटी को संपत्ति में भी बराबर की हिस्सेदारी मिले। मनुस्मृति को भूलकर अपने संविधान को मानिए।

प्रस्तुति: डॉ. रुचि दीक्षित

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion