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वीरेन दा की पत्रकारिता

( 5 अगस्त को हिंदी के फक्कड़ कवि वीरेन डंगवाल का जन्म दिन होता है. अगर वे जीवित होते तो आज 73 वर्ष के होते. उनके कवि व्यक्तित्व के आगे उनका पत्रकार बहुधा छिप जाता है. आज के मशहूर पत्रकार और लोकप्रिय वेब पोर्टल मीडिया विजिल के संस्थापक पंकज श्रीवास्तव को  भी पत्रकारिता की कलम  वीरेन जी ने ही पकड़ायी. वीरेन स्मृति के अवसर पर पढ़ें  पंकज श्रीवास्तव का यह आत्मीय संस्मरण. सं. )


यक़ीन नहीं होता कि वीरेन दा के बिना ज़िंदगी के लगभग पाँच साल ग़ुज़र चुके हैं। हमारे जैसे न जाने कितने लोगों की ज़िंदगी का वे बेहद जीवंत हिस्सा थे, गो कि कई बार सालों मुलाक़ात नहीं होती थी। आमतौर पर उनकी ख़्याति एक अनूठे कवि और ज़िंदादिल इंसान की है, लेकिन उन्होंने पत्रकारिता भी जमकर की और हिंदी के एक महत्वपूर्ण अख़बार अमर उजाला को लंबे समय तक साफ़-सुथरा और जनपक्षधर अख़बार बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

यह बात कुछ कानों सुनी है, और कुछ आँखों देखी।

वीरेन डंगवाल से रिश्ता विश्वविद्यालय के दिनों ही बन गया था। ये बीसवीं सदी के आठवें दशक के उतार के दिन थे। वे रहते बरेली में थे, लेकिन इलाहाबाद में उनकी मौजूदगी हमेशा महसूस की जाती थी। उनकी कविताओं में सिविल लाइन्स से लेकर कंपनी बाग़ तक का ज़िक्र जिस तरह से आता था वह उनके पक्के इलाहाबादी होने का सबूत था। यह दर्जा उन्होंने इलाहाबाद में पढ़ाई के दौरान दोस्तों के साथ की गईं अपनी मटरगश्तियों से हासिल कर लिया था। बीच-बीच में जब वे इलाहाबाद ‘भाग’ आते थे तो शहर की पूरी सांस्कृतिक बिरादरी खिल उठती थी, कंपनी बाग़ के फूलों की तरह। वहाँ रखी बरसों पुरानी तोप भी उस कवि को सलामी देने लगती थी जिसने बार-बार याद दिलाया था कि ‘तोप कितनी भी जबर हो, एक दिन हो ही जाता है उसका मुँह बंद।’

इलाहाबाद ने उनके कवि मन को ही नहीं गढ़ा था, उन्हें पत्रकार भी बनाया था। वे 1980 के आसपास रिसर्च करने के लिए अपने बरेली कालेज से छुट्टी लेकर कुछ सालों के लिए फिर इलाहाबादी हो गये थे। उस समय इलाहाबाद से प्रकाशित ‘अमृत प्रभात’ की बड़ी प्रतिष्ठा थी। वीरेन जी इस अख़बार में ‘सिंदबाद’ नाम से ‘घूमता आईना’ नाम से एक कॉलम लिखते थे जो अपने अलग अंदाज़ की वजह से बेहद चर्चित था। कभी-कभार वे अख़बार के लिए रिपोर्टिंग भी करते थे। इलाहाबाद आने पर उस दौर के तमाम क़िस्से उनकी ज़बानी सुनते थे तब पता नहीं था कि आने वाले दिनों में उनको पत्रकारिता की एक और पारी खेलनी है और उनकी टीम में शामिल लोगों में एक नाम हमारा भी होगा।

वह पारी तमाम संयोगों से बनी थी।

मुरारी लाल माहेश्वरी और डोरीलाल अग्रवाल ने मिलकर आज़ादी के तुरंत बाद 1948 में  आगरा से ‘अमर उजाला’ की शुरुआत की थी।  स्वतंत्रता आंदोलन के आदर्शों के असर में मूल्यपरकर पत्रकारिता इस अख़बार की पहचान बनी और धीरे-धीरे इसे क़ामयाबी मिलती गयी। साठ के दशक में इसका बरेली संस्करण भी शुरू हो गया और बड़ा मक़बूल हुआ। बरेली संस्करण की ज़िम्मेदारी मूल रूप से माहेश्वरी परिवार के पास थी और मुरारीलाल माहेश्वरी के बड़े बेटे अतुल की वजह से वीरेन जी का रिश्ता इस अख़बार से बना।

आज के प्रख्यात आलोचक मैनेजर पांडेय के दिल्ली चले जाने से बरेली कॉलेज के हिंदी विभाग में एक पद रिक्त हुआ था। इसी पद पर 1971 में वीरेन डंगवाल की नियुक्ति हुई थी। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करके निकले ही थे। यहीं एक छात्र के रूप में अतुल माहेश्वरी से उनकी मुलाकात हुई। अतुल माहेश्वरी को वीरेन जी के रूप में एक अनोखा गुरु मिला जो दरअसल दोस्त भी था और धीरे-धीरे अतुल माहेश्वरी ने उन्हें अमर उजाला से जोड़ लिया। अमर उजाला, अपने प्रतिद्वंद्वी अख़बार दैनिक जागरण की तुलना में लंबे समय तक सजग, सुरुचिपूर्ण ढंग से न्याय के पक्ष में झंडा बुलंद करता रहा तो इसमें वीरेन जी का बड़ा रोल था। वे शुरुआत में सिर्फ़ अख़बार का रविवासरीय पेज देखते थे, लेकिन धीरे-धीरे पूरे अख़बार में ही उनकी छाप दिखने लगी। लोगों की नज़र में वे मालिक के गुरु थे, लेकिन वीरेन जी मालिकों को न सेटने की अपनी अदा से ही पहचाने जाते थे। अतुल माहेश्वरी उनके फ़कीराना अंदाज़ के मुरीद थे और उनका काफी सम्मान करते थे। बहरहाल, वीरेन जी, अख़बार से औपचारिक रूप से नहीं जुड़े थे। वे बरेली कॉलेज में शिक्षक थे और अख़बार उनके लिए जनहस्तक्षेप का एक मंच था।

पर आगे चलकर उन्हें जुड़ाव की एक औपचारिकता से गुज़रना पड़ा। अमर उजाला का कानपुर संस्करण स्थापना के कई साल बाद भी उठ नहीं पा रहा था। आखिरकार अतुल माहेश्वरी ने वीरेन जी को मना लिया कि वे इस अख़बार के स्थानीय संपादक होकर कानपुर रहें। वीरेन जी बुज़ुर्ग माँ-पिता और बाकी परिवार को छोड़कर कानपुर नहीं आना चाहते थे लेकिन अतुल जी ने गुरु जी को मना ही लिया। ये 1997 की गर्मियों की बात है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हमारा शोधकार्य अंतिम चरण में था। यूजीसी की फेलोशिप ख़त्म हो रही थी। आगे क्या करना है इसका अंदाज़ नहीं था। छात्र-युवा राजनीति में सक्रियता के दौरान करियर के बारे मे सोचने का कभी वक़्त ही नहीं मिला था।  यूजीसी की फेलोशिप “थियेटर” में मिली थी और एम.ए. पीएच.डी की डिग्री इतिहास में। ‘न इधर के न उधर के’ वाला हाल था। ऐसे में वीरेन जी ने कानपुर बुला लिया अमर उजाला में बतौर ट्रेनी। वेतन सिर्फ 2000 रुपये महीने। हमने जिरह की कि साढ़े तीन हज़ार तो मुझे फ़ेलोशिप मिलती है और आप दो हज़ार दिला रहे हैं ( मन में यह भी था कि वे मुझे सीधे उपसंपादक या संवाददाता बनाने का अधिकार रखते हैं, तो बनाते क्यों नहीं !)।

उन्होंने प्यार से डपटते हुए मुझे ‘चूतिया’होने की याद दिलाई और अख़बार में झोंक दिया। आमतौर पर गाली समझा जाने वाला यह शब्द वीरेन दा की ज़बान से आशीर्वाद की तरह महसूस होता था। और यह आशीर्वाद वह लगातार बाँटते रहते थे।

वाक़ई हमें  अख़बार के बारे में कुछ पता भी नहीं था। छात्रनेता बतौर अख़बारों में विज्ञप्तियाँ देने ज़रूर जाता था लेकिन यह तंत्र कैसे चलता था, कुछ पता नहीं था। वीरेन जी ने पहले डेस्क पर और फिर रिपोर्टिंग में डालकर ख़ूब रगड़ा। अख़बार भी चमकने लगा। एक जुनून जैसा था। वीरेन जी की लगाई हेडिंग से अख़बार सबसे अलग चमकता था। धीरे-धीरे अख़बार रफ़्तार पकड़ने लगा। न सिर्फ़ साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का बल्कि जनसमस्याओं और जनांदोलनों के लिए भी इस अख़बार में भरपूर जगह थी। एक समतावादी, न्यायपूर्ण विचार का पक्ष पूरे अख़बार में झलकता था। उन दिनों भगत सिंह के निकट सहयोगी रहे क्रांतिकारी शिव वर्मा जीवित थे। वीरेन जी ने उनसे कॉलम लिखवाना शुरू कराया। इसके अलावा वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराज किशोर समेत कानपुर में मौजूद तमाम दूसरे साहित्यकारों के लिए भी अमर उजाला अपना अख़बार ही था। कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी, जेएनयू से निकलकर कानपुर के वीएसएसडी कालेज में कुछ दिन पहले ही नियुक्त हुए थे।  अमर उजाला उनका दूसरा ठिकाना जैसा था। वीरेन जी के चुंबकीय आकर्षण में पूरा शहर ही जैसे बंध गया था।

(साल 1998 में फ़ोटो पत्रकार प्रभात सिंह की फ़ोटो प्रदर्शनी के उद्घाटन के अवसर पर . खाली कुर्सी के बगल की कुर्सी पर वीरेन डंगवाल , सभा को संबोधित करते हुए पंकज श्रीवास्तव . फ़ोटो  : अमर उजाला  )

लेकिन असल मसला तो पत्रकारिता का था। वे पत्रकारिता में घुसे दल्लों को दूर से पहचान लेते थे और उनकी सही पहचान सार्वजिनक रूप से उजागर कर दिया करते थे। उनके साथ काम करने वाले पत्रकारों की टीम में एक नए किस्म का उत्साह जगा था। पत्रकारिता तब पूरी तरह मिशन ही थी हालाँकि उदारीकरण की शुरुआत हुए छह बरस बीत चुके थे और प्रोफ़ेशनल होने की हूक संस्थान के भीतर भी उठने लगी थी। लेकिन ज़मीन से जुड़े रहना और दूसरों को भी जोड़ना वीरेन जी की फ़ितरत थी। कई बार हम लोग वीरेन दा के नेतृत्व में सुबह चार बजे कानपुर के घंटाघर पहुँच जाते थे। ऊंची आवाज़ में सुर्खियाँ बाँचते और हाँका लगाकर अख़बार बेचते थे। संपादक का यह अंदाज़ पूरे शहर में चर्चा का विषय था।

आजकल संपादक नाम की संस्था की कोई वक़त नहीं है। या कहें कि संपादकगण ख़ुद अपनी मौत का उत्सव मनाते घूमते हैं, लेकिन वीरेन जी के साथ काम करने वाले जानते हैं कि संपादक होने का मतलब क्या था। एक बार एक ऐंठू मैनेजर, न्यूज़रूम में काम कर रहे संवाददाताओं को हड़काने के अंदाज़ में कुछ सीख देने की कोशिश कर रहा था तभी वीरेन दा वहाँ पहुँच गये। उन्होंने उस मैनेजर को डपटकर न्यूज़रूम से भगा दिया। साथ में चेताया भी कि कभी न्यूज़रूम में घुसने की हिमाक़त न करे। आज इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती। संपादक या तो मैनेजर बन गये हैं या फिर मैनेजरों के पैरों में पड़े हैं। मालिकों के उस मुँहलगे मैनेजर को भी कुछ भ्रम था, लेकिन भरे न्यूज़रूम में वीरेन जी ने संपादक होने का मतलब उसे ठीक से समझा दिया।

( अमर उजाला के बरेली दफ़्तर में वीरेन जी , फ़ोटो  : रोहित उमराव  )

यह वीरेन दा ही  थे कि जो अमर उजाला उनके पहुंचने से पहले छह-सात हज़ार कॉपी बिकता था, वह दो साल बाद जब वीरेन दा जा रहे थे तो एक लाख कॉपी दैनिक प्रसार का आँकड़ा छू रहा था। इसमें अख़बार की कीमत कम करने की व्यावसायिक रणनीति के साथ वीरेन जी की संपादकीय दृष्टि का भी कम योगदान नहीं था।

वीरेन जी, बरेली लौटने पर फिर अमर उजाला से जुड़ गये। अतुल जी और उनके छोटे भाई राजुल माहेश्वरी वीरेन जी को अभिभावक की तरह देखते थे। लेकिन ज़माना तेज़ी से बदल रहा था। डोरीलाल और मुरारीलाल द्वारा स्थापित अख़बार कारपोरेट होने को अकुला रहा था। बीजेपी ने राजनीतिक रूप से अग्रगामी गति पकड़ ली थी। अमर उजाला में कई ऐसे संपादक नियुक्त हो चुके थे जो नये ज़माने की रफ़्तार और उसके टोटकों के साथ दैनिक जागरण छाप क़ामयाबी के लिए बेक़रार थे। वीरेन जी अनौपचारिक रिश्ता रखने के बावजूद मालिक के गुरु के रूप में स्थापित थे, लिहाज़ा ऐसों की आँख में खटकते थे। उन्होंने हेडलाइन वग़ैरह में खेल करने के साथ-साथ सांप्रदायिक उन्मादियों को तरजीह देना शुरू किया। ऐसी ही एक घटना के बाद वीरेन जी ने अख़बार से अपना रिश्ता तोड़ लिया। अतुल माहेश्वरी की तमाम सदिच्छाओं के बावजूद, वे अख़बार से फिर नहीं जुड़े। यह 2009 के चुनाव के पहले का मामला था जब वरुण गाँधी लोकसभा सीट जीतने के लिए हाथ काटने वाला बयान जारी कर रहे थे।

( 2011 में अमर उजाला के बरेली संस्करण  की  वर्षगांठ  का  जलसा . बायें से  दायें   प्रभात सिंह , वीरेन  डंगवाल और राजुल माहेश्वरी,    फ़ोटो : भानु  भारद्वाज   )

2011 की शुरुआत में अतुल माहेश्वरी का एक संक्षिप्त बीमारी के बाद निधन हो गया। 2014 में नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गये। पत्रकारिता का जनाज़ा निकलने लगा। इस नये भारत में वीरेन जी का भी दिल कैसे लगता!

(रायबरेली, उत्तर प्रदेश में जन्मे  पंकज श्रीवास्तव की सांस्कृतिक – राजनीतिक दीक्षा इलाहाबाद के प्रगतिशील छात्र संगठन (अब आइसा ) के साथ नाटक करते गीत गाते हुए पूरी हुई.  सक्रिय  छात्र  राजनीति और साथ -साथ थियेटर में पी एच डी करने के बाद पंकज ने अमर उजाला से पत्रकारिता शुरूआत  की . फिर स्टार न्यूज़ और आई बी एन 7 के  साथ टी वी पत्रकारिता की लम्बी पारी . जनवरी 2015 में आई बी एन 7 से बर्ख़ास्त किये जाने के बाद 2016 से मीडिया विजिल की स्थापना के साथ स्वतंत्र पत्रकारिता की जमीन पुख्ता करने में कृत संकल्प  हैं . इसके अलावा  वे स्वराज  चैनल  के सलाहकार संपादक  के रूप में  न्यूज़  चैनलों  की दुनिया  में पिछले साल  वापिसी  भी कर चुके  हैं .)

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