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कोरोना से युद्ध में इस्लामोफोबिया ने भारत के वार को भोथरा बना दिया है

( मशहूर पत्रकार राणा अयूब का यह लेख वाशिंगटन पोस्ट में 7 अप्रैल को प्रकाशित हुआ है. समकालीन जनमत के पाठकों के लिए इसका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है. अनुवाद दिनेश अस्थाना का है)

कोरोनावाइरस के खिलाफ़ युद्ध में भारत के वार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रवादी शासन के लक्षण- भेदभाव और इस्लामोफाबिया- की भेंट चढ़ते देर नहीं लगी। ट्विटर पर कोरोनाजिहाद और बायोजिहाद की बाढ़ आ गयी है। मुसलमानों के एक समारोह में कोविद-19 के मामलों से इसकी शुरुआत हुयी है।

रविवार को भारत सरकार ने एक हजार से अधिक मामले एक मुस्लिम मिशनरी समूह तबलीगी जमात से जोड़ दिये। भारत सरकार द्वारा स्वास्थ्य आपातकाल और उसके बाद राष्ट्रव्यापी लाॅक डाउन घोषित किये जाने के कई दिन पहले, 8 से 10 मार्च तक इस समूह ने निजामुद्दीन के एक सामुदायिक भवन में अपना वार्षिक सम्मेलन किया था। हाँलाकि मुसलमानों समेत अधिकतर लोग इस बात से सहमत हैं कि वार्षिक सम्मेलन आयोजित करना गैर-जिम्मेदाराना और अनेकों के जीवन को खतरे में डालना था, पर इसकी आलोचना में इतना ज़हर उँडेला गया कि उस सम्मेलन के प्रति ज्यादती हो गयी। सच पूछें तो मुसलमान रातोंरात भारत में कोरोनावइरस फैलाने के गुनाहगार बन गये।

इस बात पर कोई तवज्जुह नहीं दिया जा रहा है कि इसी दौरान कई ज़िन्दगियों को ज़ोखिम में डालते हुये पूरे भारत में विभिन्न धार्मिक समूहों ने मन्दिरों में भी भीड़ इकट्ठा की थी। मध्यप्रदेश में दुबई से आये हुये एक युवक ने 20 मार्च को 1200 लोगों के साथ हिन्दू कर्मकांड किये थे जिसके चलते 25,000 लोगों को क्वारैंटाइन करना पड़ा। टाइम पत्रिका के अनुसार कोरोनाजिहाद का हैशटैग लगभग 3,00,000 बार देखा गया और इसे 16.5 करोड़ लोगों ने देखा। इसके अलावा रबायो जिहाद जैसे हैशटैग भी चले हैं।
इसके बाद जब मोदी-मंत्रिमंडल के केन्द्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने तबलीगी जमात को ‘‘तालीबानी अपराध’’ घोषित कर दिया तो इस नफ़रत को आधिकारिक समर्थन मिल गया।

अनेकों समाचार चैनलों के लिये हमले वाली खबर के रूप में पर्याप्त मसाला मिल गया। फ़र्ज़ी कहानियां चलने लगीं कि वाइरस को फैलाने के लिये मुसलमान, लोगों के ऊपर थूक रहे हैं। बताया गया कि अस्पतालों में महिला कर्मचारियों के सामने मुसलमान अपना नंगा बदन दिखा रहे हैं। जबतक इन कहानियों का पर्दाफ़ाश किया जाता, उससे पहले ही ये लाखों लोगों में फैल गयीं।

मेरी अपनी बिल्डिंग में ही एक पड़ोसी ने एक सामुदायिक व्हाट्सऐप समूह में लिख दिया कि पूरे दिन के कर्फ्यू  के बाद अपनी बालकनी में थालियां बजाने के मोदी के आह्वान का मतलब है कि हिन्दू मस्जिदों के अजान के शोर को अब और अधिक बर्दाश्त नहीं किया जायेगा।

भारत के एक बड़े समाचार चैनल, इंडिया टुडे ने एक ग्राफिक चलाया जिसमें एक गोल टोपी और मास्क पर लाल रंग में बड़ा सा वाइरस बना था और दावा किया गया था कि भारत में कोरोनावाइरस मुसलमानों के द्वारा ही फैलाया गया है। न्यूज़लाॅन्ड्री वेबसाइट के मालिक मशहूर सम्पादक मधु त्रेहन ने भी फ़र्ज़ी दावा किया है कि देश के 60 प्रतिशत कोरोनावाइरस के मामलों के लिये मुसलमानों की जमात ही जिम्मेदार है और मुसलमानों का यह कहते हुये मजाक उड़ाया है कि ‘‘आप तो मस्त रहिये।’’ (यू कैन हैव योर वर्जिन्स)।

इस्लामोफोबिया के ज़हरीले प्रदर्शन को शीघ्र ही न्यायालयों के आदेशों में भी जगह मिल गयी। गुजरात उच्च न्यायालय के 3 अप्रैल के आदेश में कहा गया कि इस महामारी को देश में फैलाने के लिये मुसलमानों की जमात ही जिम्मेदार है।

समाचार चैनलों और सोशल मीडिया में चल रहे नफ़रतों के दौर के वास्तविक परिणाम भी रहे। बताया जाता है कि एक नवजात की मृत्यु एम्बुलेंस में ही इसलिये हो गयी कि उसके परिवार के मुसलमान होने के कारण अस्पताल ने उसे भर्ती करने से मना कर दिया था। उसके पति इरफान खान ने अखबार को बताया कि ‘‘मेरी गर्भवती पत्नी पूरे दिन से थी। उसे सीकरी से जिला मुख्यालय के जनाना अस्पताल के लिये रिफर कर दिया गया था, लेकिन यहाँ डाॅक्टरों ने कहा कि हम लोग मुसलमान हैं इसलिये हमें जयपुर जाना होगा।’’

3 अप्रैल को एक मुसलमान ने इसलिये आत्महत्या कर ली क्योंकि उसके गाँव के लोगों ने उसका यह कहते हुये सामाजिक बहिष्कार कर दिया था कि उसके सम्पर्क दिल्ली में मुस्लिम जमात के उन सदस्यों के साथ थे जिनको बाद में टेस्ट में पाॅजिटिव पाया गया था।

सच तो यह है कि इस्लामोफोबिया कोई नयी चीज नहीं है। अभी फरवरी में ही नयी दिल्ली में मुस्लिम विरोधी दंगे भड़क उठे थे जिसमें 50से अधिक लोगों की मृत्यु हो गयी थी। जिस समय हमारा पड़ोसी चीन इस महामारी से दो-दो हाथ कर रहा था, उस समय भारत मोदी की सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्यों के नफ़रती भाषणों की आग में जलता हुआ अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियों में था। एक भी अपराधी पकड़ा नहीं गया। लेकिन मुस्लिम जमात के सदस्यों पर क्रूर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून थोप देने में भारतीय पुलिस को केवल एक दिन लगा।

15 मार्च को मैंने ट्विटर पर लिखा थाः ‘‘नैतिक रूप से भ्रष्ट देश में वाइरस के लिये किसी को मार डालने लायक बचा ही क्या है।’’ मैं सत्तारूढ़ पार्टी के उन सदस्यों द्वारा फैलायी गयी नफ़रत पर अपनी हताशा और अवसाद का इज़हार कर रही थी जिन्होंने सारे गुनाह माफ की व्यापक अवधारणा के साथ दिल्ली में दंगे भड़काये थे। मेरी इस नाराजगी का फौरी असर यह हुआ कि एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के साथ न्याय का गर्भपात हो गया। मेरी नाराजगी का निशाना वे लोग थे जो सत्ता में थे, जिनकी जनता में कोई आवाज़ थी लेकिन इस नाइन्साफी के सामने उन्होंने खामोशी ओढ़ ली। दिल्ली दंगों को मुस्लिम विरोधी नरसंहार कहे जाने पर सभी मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ गये थे, चाहे वे उदारवादी हों या दक्षिणपंथी। एक टेलीविज़न एंकर ने मेरे ऊपर तंज किया किः ‘‘एक बार तो मुसलमान की तरह नहीं, भारतीय की तरह व्यवहार करो।’’

मेरा डर सभी नागरिकों के प्रति है, लेकिन मुझे पता है कि बहुत से लोग मेरे बारे में और मेरे समुदाय के बारे में ऐसा नहीं सोचते।

पिछले 10 दिनों में मैंने भारत की झुग्गी बस्तियों से समाचार दिये हैं जहाँ सोशल डिस्टेंसिंग एक विशेषाधिकार है, यह बहुत सारे लोेगों की क्षमता से बाहर है। इस महामारी के दौर में भुखमरी, यंत्रणा, गरीबों के खिलाफ संरचनात्मक भेदभाव ही समसामयिक मुद्दे हैं। भारत और पूरी दुनिया इसी के बारे में सुनना चाहती है और इसी पर काम करना चाहती है।

लेकिन इस समय, जबकि लाॅकडाउन के लगभग दो हफ्ते हो चुके हैं, आस्था, वर्ग, लिंग से परे हर भारतीय का जीवन खतरे में है, तो मुझे मजबूरन पूर्वाग्रह और बहुसंख्यकवाद पर, जिसपर मैं इस स्तम्भ में लगातार लिखती आ रही हूँ, एकबार फिर लिखना है। यह दुर्भाग्य ही है कि इस वैश्विक संकट के दौरान, जब हमें नफरतों को ताक पर रख देना चाहिये, मेरा देश और उसके नेता मुझे मजबूर कर रहे हैं कि एक बार फिर पूर्वाग्रह पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करूँ और नैतिकता के एक तीव्र और बेचैनी भरे संकट का पर्दाफ़ाश करूँ।

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