(फ़िराक गोरखपुरी की एक अप्राप्य और गुमनाम किताब)
जिन लोगों ने फ़िराक़ गोरखपुरी की शायरी को आमतौर से और शख्सियत को क़रीब से देखा और समझा है उन्होंने अंदाजा लगाया होगा कि फ़िराक़ साहब जितने बड़े शायर और नस्रनिगार (गद्य लेखक) थे उससे कहीं बड़े मुफक्किर और गुफ़्तगू करने वाल थे. उनके अंदर का फनकार और मुफक्किर दोनों जब अपनी असल कैफ़ियत में आता तो इल्मी और रचनात्मक गुफ़्तगू की ऐसी-ऐसी फुलझड़ियाँ छुटतीं कि सुननेवाला उनकी जगमगाहट और चकाचौंध कर देनेवाली कैफियत में डूबकर रह जाता. उनकी शायरी के विषय सीमित थे लेकिन उनकी गुफ़्तगू के विषय असीमित. जिन खुशनसीब लोगों के हिस्से में उनकी गुफ़्तगू आई है वह स्वीकार करेंगे कि उनकी गुफ़्तगू आमतौर पर शायरी से शुरू होकर कल्चर, तहजीब, सियासत और फलसफे से होती हुई लतीफ़े पर खत्म होती थी.
फ़िराक़ साहब का जितना सरमाया शायरी का है लगभग उतना ही सरमाया नस्र (गद्य) का भी है लेकिन फ़िराक़ साहब ने जिस अद्वितीय और विस्तृत अंदाज़ में अपनी शायरी को पेश किया, नस्र को पेश न कर सके. शायद इसीलिए कि वह अपने आपको बुनियादी तौर पर शायर ही समझते थे और यह हक़ीक़त भी है लेकिन उनका हिस्सए-नस्र भी कम अहमियत का हामिल नहीं.
उनके गद्यात्मक लेख के जो संग्रह मिलते हैं उनकी कद्र वा मंज़िलत से हम अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं. इसके अलावा न जाने और कितने लेख हैं जो विभिन्न विषयों पर यदा-कदा लिखे गये और पत्र-पत्रिकाओं की भीड़ में गुम हो चुके हैं. अगर कोई शोधकर्ता इन्हें तलाश करे तो वह आज खासी कार आमद चीज़ हो सकते हैं क्यूंकि हक़ीक़त यह है कि फ़िराक़ साहब सिर्फ शायर न थे बल्कि दानिश्वर भी थे. उनकी कल्पनाशक्ति में सिर्फ इश्क वा मुहब्बत ही नहीं बल्कि हिन्दुस्तान की देवमालाई, प्राचीन सभ्यता, इस्लामी हुकुमत का मिज़ाज, ज़बान व् तहज़ीब की रंगारंगी, भाषाई समस्याएं, जंगे आज़ादी, देश विभाजन, सांप्रदायिक दंगे, सभी कुछ आ जाते हैं. उनकी फिक्र की उड़ान बेहद बुलंद थी और विषय विभिन्न. अस्ल फ़िराक़ को समझना है तो लेख और लेक्चर्स के उस बिखरे हुए सरमाये(पूँजी) की तलाश की जरूरत है और उसे आज के परिप्रेक्ष्य में व्यवस्थित किये जाने की इससे भी ज्यादा ज़रूरत है.
मेरे इस दावे को समर्थन करेगी फ़िराक़ साहब की छोटी से दुर्लभ और गुमनाम किताब ‘हमारा सबसे बड़ा दुश्मन’ जो लेखक को आगरे के एक व्यक्तिगत पुस्तकालय से प्राप्त हुई और जिसके बारे में मेरी अपनी खोज के ऐतबार से माहिरीने फ़िराक़ और वरसाए फ़िराक़ (फ़िराक़ के वारिस) में से किसी को इल्म नहीं कि फ़िराक़ साहब ने इस नाम और किस्म की भी किताब लिखी है.
अड़तालीस पृष्ठों पर आधारित, अज़ीजी प्रेस आगरा से प्रकाशित यह किताब ‘संगम पब्लिशिंग हाउस’ इलाहाबाद के ज़ेरे एहतेमाम प्रकाशित हुई. ….ज़ाहिर है कि जब यह किताब छपी होगी तो इसकी तादाद भी खासी रही होगी. इधर-उधर बांटी भी गयी होगी. फिर पता नहीं क्यूँ और कैसे शोधकर्ताओं व् आलोचकों के नज़रों से यह किताब ओझल रही.
फ़िराक़ साहब ने अपने होश की ज़िन्दगी की शुरुआत शायरी और सियासत दोनों से किया. बीसवीं सदी की तीसरी, चौथी और पांचवीं दहाई में हिन्दुस्तान सियासी और समाजी एतबार से किस तरह हिचकोले खा रहा था और किस अंदाज़ से आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था, इसका अंदाज़ खूब-खूब लगाया जा चुका है. इस लड़ाई में हर तरह के लोग थे. शायर, अदीब, मुफ़क्किर, दानिश्वर सभी शामिल थे. फ़िराक़ साहब का जोशीला जेहन कैसे खामोश रह सकता था. वह भी न सिर्फ शामिल हुए बल्कि पूरी तहरीक में गले तक उतर गये. जेल भी गये, दूसरी मुसीबतें भी बर्दाश्त कीं. गरज यह कि आज़ादी हासिल करने में अपनी योग्यता के अनुसार कलम और ज़ेहन का खूब योगदान दिया.
आज़ादी से पहले आमतौर पर और आज़ादी के बाद खासतौर पर जिस किस्म के सांप्रदायिक दंगे हुए उसने पूरे मुल्क और दानिश्वर तबके को बेहद प्रभावित किया. फ़िराक़ साहब की शख्सियत एक दानिश्वर और फ़नकार की मिली-जुली शख्सियत थी. वह हिन्दू धर्म व् सभ्यता पर गहरी नज़र रखते थे लेकिन वह परम्परागत और कट्टर हिन्दू न थे. इसी तरह उर्दू का अच्छा और बड़ा शायर होने और उर्दू तहजीब का मोही होने की वजह से उनको मुस्लिमपरस्त और उर्दू दोस्त या हिन्दू विरोधी नहीं कहा जा सकता. वह एक फ़नकार की हैसियत से इन्सान को सिर्फ़ और हिन्दुस्तान को एक प्रगतिशील आज़ाद हिन्दुस्तान की शक्ल में देखना चाहते थे. मुद्दतों और मुश्किलों के बाद आज़ादी मिली थी इसलिए इसको वह किसी तरह बरबाद और ख़राब हाल नहीं देख सकते थे. लेकिन अफ़सोस कि आज़ादी और कयामें पाकिस्तान के बाद जिस तरह हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगे सर उठाने लगे उससे मुल्क को, सभ्यता को नुक्सान पहुँचने लगा.
इसका अंदाजा फ़िराक़ साहब को खूब-खूब था. वह हिन्दुओं से कहना चाहते थे कि अस्ल दुश्मन मुसलमान नहीं हैं, इसी तरह मुसलामानों के बीच से हिन्दुओं के ख़िलाफ़ ज़हर कम करना चाहते थे. वह कहना चाहते थे कि मजहबी तंगनज़री और जूनून ही हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है. यह किताब दो हिस्सों पर आधारित है. पहले हिस्से में फ़िराक़ साहब ने पूरी हिम्मत और निडरता के साथ हिन्दुओं और मुसलामानों को समझाने की कोशिश की है और जगह-जगह इनको मज़हब, उनकी तहजीब की अस्ल आत्मा दिखाने की कोशिश की है. साथ ही उन्होंने हिन्दुस्तान के सांस्कृतिक और आर्थिक इतिहास में इस्लाम और मुसलामानों का रोल दिखाकर हिन्दुओं को यह बताना चाहा है कि किस तरह उन्होंने मुल्क की आज़ादी में अपना खून दिया है. इसे आज़ाद कराने में कैसी-कैसी कुर्बानियां दी हैं. अब आज अगर पाकिस्तान बन गया तो इसका यह मतलब नहीं कि हिन्दुस्तान में जो मुसलमान बच गये हैं वह हिन्दुस्तानी वफ़ादार नहीं रह गये हैं. हिन्दू अगर उनके साथ ज्यादती करते हैं तो इससे मुल्क को, हिन्दू मज़हब को कोई फायदा नहीं पहुंचेगा बल्कि उलटा नुक़सान होगा. एक जगह वह लिखते हैं…..
“ हिन्दुस्तान की कई हज़ार पुरानी सक़ाफ़त (संस्कृति) जिस पर हम नाज़ करते हैं दुनिया की नज़र में कितनी गिरी हुई और दाग़दार समझी जाय अगर हमने मुसलामानों को यहाँ बसने और फलने-फूलने न दिया और हमारे मुकाबले में चीन और रूस ने ऐसा करके दिखाया तो हिन्दू सक़ाफ़त आईने में अपना भयानक रूप देखकर शर्मिन्दा होगी और फख्र से अपना सर उंचा न कर सकेगी.” (पृष्ठ 89)
वह कारोबार, तेजारत, रहन सहन, रफ़्तार गरज कि हर तरीके से मेल-जोल की बातें बताते हैं, और मुहब्बत व् भाईचारा की फ़ज़ा पैदा करके नादानों को बार-बार समझाते हैं…
“ हिन्दू और सिख मुसलामानों को अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझने के बदले फ़िरक़ावारियत से बचकर उस नए हिन्दुस्तान को बनाएं, जहाँ हिन्दू, मुसलमान, सिख, इसाई पारसी सभी इज्ज़त के साथ ज़िन्दगी बिता सकें और सबके लिए तरक्की करने के मवाक़े (अवसर) हों ” (पृष्ठ 13, 14)
वह फ़िरक़ावारियत को जिन शब्दों में याद करते हैं उसे भी देखते चलिए…..
“ फ़िरक़ापरस्ती का जज्बा और ख़यालात देखने में बहुत ख़ूबसूरत मालूम होते हैं मगर वह हमारे सबसे बड़े दुश्मन हैं. फ़िरक़ावारियत हमें डस लेगी. हम हिल के पानी भी न मांग सकेंगे. इस सांप का सूंघा हुआ लहर नहीं लेता है.” ( पृष्ठ 21)
इन वाक्यों में फ़िराक़ साहब का दर्द कर्ब साफ़ झलका पड़ता है. किताब के दूसरे हिस्से में वह इसी अंदाज़ से मुसलामानों को समझाते हैं लेकिन समझाते हुए वह अपने-आपको मुसलामानों से अलग नहीं समझते. इसकी शुरुआत वह इन वाक्यों से करते हैं….
“ हम मुसलामानों को इस देश में आये हुए और बसे हुए एक हजार बरस का युग ख़त्म हो गया. जब तक इस देश में हमारे अच्छे दिन थे हम मुसलमान यहाँ दूसरे धरमवालों के साथ ऐसा घुल-मिल गये थे जैसे सगे-सम्बन्धी मिल-जुलकर रहते हैं. दुनिया की तारीख़ में कई धरम माननेवालों के संगम की बहुत कम मिसालें मिलती हैं. मुसलामानों ने हिन्दू समाज और हिन्दुस्तान पर इतना अच्छा असर डाला कि मुसलामानों को हिन्दुओं के लिए वरदान मांगना पड़ा. लड़ाइयाँ भी होती रहीं लेकिन हर टकराव के बाद हिन्दुओं और मुसलामानों की जीवनधाराएँ और अच्छी तरह मिल जाया करती थीं. इस तरह एक मिली-जुली तहज़ीब इस देश में बनती रही और क़ौमियत का नया एहसास मुसलामानों के दिलों में पलता रहा, ज़बान अदब, फुनूने लतीफ़ा, रीति-रिवाज़, जज़्बात और हर बात में हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे पर इतना असर डाल चुके हैं, एक दूसरे से इतना पा चुके हैं कि इस मेल-जोल को तोड़ा नहीं जा सकता (पृष्ठ 26, 27)
मुसलामानों को समझाते हुए उन्होंने जिस तरह इस्लाम की तस्वीर पेश की है उससे उनकी इस्लाम से मुहब्बत का अंदाजा लगाया जा सकता है. एक जगह वह लिखते हैं…
“ इस्लाम हिन्दू धरम या ईसाइयत या मज़ाहिरपरस्ती के ख़िलाफ़ जेहाद नहीं था बल्कि गैर मोहज्ज़ब (असभ्य) जिन्दगी की मुख़ालिफ़त(विरोध) था. इस्लाम ने यह कभी नहीं कहा था कि कलमा पढनेवाले मुसलामानों के अलावा दुनिया की दूसरी सब कौमें ख़राब या गैर मोहज्ज़ब हैं और वह इस्लाम को समझने से क़ासिर (असमर्थ) हैं. यही बात मुसलामानों में वह लोग नहीं समझते जिनकी निगाह तंग है. उन्हें तो इस बात की पड़ी है कि दुनिया की ढाई अरब आबादी चाहे जैसा जीवन बिताये लेकिन कहे अपने-आपको मुसलमान, इस्लाम संसार में इसलिए हरगिज़ नहीं आया था कि संसार के सौ फ़ीसद इंसानों या दुनिया के ज़्यादातर इंसानों से यह कहलाये कि हम कलमा पढ़नेवाले मुसलमान हैं. इस्लाम आया था इसलिए कि दुनिया के सौ फ़ीसद इंसान यह कहें कि हम भले और नेक हैं और हमें जात, धरम और देश का फर्क सोचे बगैर इंसान से प्रेम है.
हम मोअह्हिद हैं हमारा केश है तर्के रसूम
मिल्लतें जब मिट गयीं अज्ज़ाए ईमां हो गयीं (ग़ालिब )
औए इन क़ौमियतों के मिटने पर यह हरगिज़ जरुरी नहीं कि जो एक इंसानी समाज संसार में बन जाय वह इस्लामी ही कहलाये या हिन्दुस्तानी कहलाये. ग़ालिब के शेर में ईमान का जो लफ्ज़ आया है उसका मतलब यह उसका मतलब यह नहीं है कि ईमान वही चीज है जिसे मुसलमान समझते हैं जिसे गैर मुस्लिम समझ नहीं सकते.” (पृष्ठ 39, 40)
आखिर में वह पते की बात कहते हैं….
“फिरकापरस्ती हिन्दू, हिन्दू क़ौम के लिए ख़तरनाक है. मुसलमान के लिए इतना ख़रतनाक नहीं है. फ़िरक़ापरस्त मुसलमान फिरके के लिए ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला है, हिन्दू के लिए इतना नहीं. और यही हाल फ़िरक़ापरस्त सिख, फ़िरक़ापरस्त पारसी, फ़िरक़ापरस्त एंग्लो इंडियन, फ़िरक़ापरस्त ईसाई का है. ये सब अपनी जान के दुश्मन हैं.” (पृष्ठ 46, 47)
और आखीर में फ़िराक़ साहब अपने विशेष अंदाज़ में किताब खत्म करते हैं…..
“दुनिया इतनी बड़ी है कि एक धरम के संभाले नहीं संभल सकती. अगर हम यह बात मान लें कि हिन्दू सक़ाफ़त (संस्कृति) मुस्लिम सक़ाफ़त, बौद्ध सक़ाफ़त, बड़ी-बड़ी सक़ाफ़तें होते हुए भी एक दूसरे से कुछ अलग हैं तो भी संसार को उस लगाव की जरूरत है जो इस्लामी सफ़ाक़ातों से मुतास्सिर नहीं हुआ वह इस्लाम से कम मालामाल रहेगा जो गैर इस्लामी सफाकतों से मुतास्सिर हुआ है.” (पृष्ठ 47)
इन खयालातों से कोई विरोध तो कर सकता है लेकिन फ़िराक़ की नीयत पर शक हरगिज नहीं कर सकता. आज़ादी से लेकर इस वक्त तक दंगों के विरोध में और राष्ट्रिय एकता के समर्थन में इतना कुछ लिखा जा चुका है कि अब यह सब पुराना, जंग आलूदा और पिटा-पिटाया सा लगता है लेकिन गौर कीजिये कि 1950 ई. के इर्द-गिर्द फ़िराक़ जैसे ग़ज़ल के शायर की कलम से इस तरह की निडर बातें निकलना कोई मामूली बात न थी.
इस किताब का एक बेहद अहम पहलू इसकी ज़बान है जिसे खालिस हिन्दुस्तानी कहा जा सकता है. जिसमें उर्दू के साथ-साथ बोलचाल के अनगिनत हिंदी शब्द शऊरी तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं जो फ़िराक़ साहब की हिंदीदानी का सबूत तो पेश करते ही हैं साथ ही विषय से अनुकूलता भी पैदा करते हैं. इस किस्म की जबान मेरी जानकारी के अनुसार शायद कम या नहीं के बराबर इस्तेमाल की गयी है. फ़िराक़ साहब के बारे में कम-से-कम हिन्दीवालों के जेहन में यह ख्याल आम रहता है कि वह जितने उर्दू के समर्थक थे उससे ज्यादा हिंदी के विरोधी थे. जबकि यह बात पूरे तौर पर सच नहीं है. उन्होंने बार-बार अपने लेक्चरों में यह बात कही है कि वह हिंदी के विरोधी हरगिज़ नहीं हैं बल्कि वह संस्कृतनिष्ठ और बोझिल हिंदी के ख़िलाफ़ हैं.
फ़िराक़ साहब उन ख़ुशनसीब या बदनसीब लोगों में थे जिन्हें उर्दू का एक अच्छा और बड़ा शायर स्वीकार किया गया लेकिन साथ ही उन्हें अक्सर व बेशतर हिन्दू शायर समझा जाता रहा. नियाज़ फतेहपुरी ने अपने लेख के शीर्षक के ज़रिये कुछ ऐसे ही रुझान को परवान चढ़ाया. कुछ लोगों में वह हमेशा शक की निगाह से देखे गये. यह खयाल हमेशा आम रहा कि अगर वह हिन्दू न होते तो वह इतने बड़े शायर न थे कि उनकी प्रशंसा की जाती और उन्हें यह स्थान दिया जाता. दूसरी तरफ कट्टर हिन्दुओ के लिए यह बात अफ़सोसनाक रही है कि उनकी अपनी क़ौम का आदमी न सिर्फ़ यह कि उर्दू ज़बान में शायरी कर रहा है बल्कि अक्सर वा बेशतर हिंदी ज़बान के ही नहीं बल्कि हिन्दू सभ्यता के खिलाफ भी ज़हर उगलता रहता है.
फ़िराक़ साहब की शख्सियत से सम्बंधित उनके ये विरोधी पहलू उनकी ज़िन्दगी में भी विवादित रहे और आज भी हैं लेकिन यह गहरी नज़रों से उनकी शख्सियत का जायज़ा लिया जाय तो सच बात यह नज़र आएगी कि फ़िराक़ साहब हिन्दुस्तानी ज़बान की जिस मिली-जुली तहजीब के रसिया और अलमबरदार थे खुद उनकी जात उसका एक जीता जागता नमूना थी. उनकी शख्सियत में भाषायी एकता, भावनात्मक एकता, और गंगा-जमुनी तहजीब जिस कदर रच-बस गयी उसकी मिसाल कम ही देखने को मिलती है. जिस साम्प्रदायिकता के खिलाफ वह जिन्दगी भर लड़ते रहे, नफरत करते रहे, उसके खिलाफ खुद उनकी शख्सियत एक यादगार मिसाल थी लेकिन अफ़सोस कि फ़िराक़ साहब की शख्सियत के इस पहलू को उनकी कुछ लापरवाहियों के आगे पनपने का मौक़ा नहीं मिला और हिन्दुस्तान के तंगनज़र और पक्षपाती माहौल में उनकी मुफक्किराना कलंदराना शख्सियत को आज तक ठीक से नहीं समझा जा सका. वह हमेशा इस शेर के प्रमाण रहे…..
ज़ाहिदे तंग नज़र ने मुझे काफ़िर जाना
और काफ़िर ये समझता है मुसलमां हूँ मैं
आज के सुलगते हुए माहौल में कि जहाँ फ़िरक़ावारियत एक बार फिर अपने बाल व् पर खोल चुकी है और लोगों के दिमाग और दिल में घर कर चुकी है और जहाँ दानिश्वर तबका अपना इल्मी और इंसानी फ़र्ज भूलकर अपनी इज्ज़त व आबरू बचाने की ख़ातिर तक़रीबन गोशानशीन हो चुका है. फ़िराक़ जैसे दानिश्वर की ऐसी तहरीरों को नए अंदाज़ से पाठक और आलोचक के सामने लाने की जरुरत है.
(शायर-दानिशवर फ़िराक़ गोरखपुरी : अली अहमद फ़ातमी, के एक अध्याय का किंचित संक्षेप)