समकालीन जनमत
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जनमत

बहुमत की सरकार की निरंकुश तानाशाही

ब्राउन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर एवं दक्षिण एशिया समकालीन अध्ययन केंद्र के निदेशक आशुतोष वार्ष्णेय ने दिनांक 29 जुलाई 2019 के इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने लेख में बहुमत के दुरुपयोग और बहुमत की सरकारों के जनविरोधी प्रवृत्तियों पर गहन चिंता जताई है| उनका यह विश्लेषण अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, ब्राजील के राष्ट्रपति बोल्सोनारो और भारत के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के सन्दर्भ में है |

प्रो0 आशुतोष ने अपने लेख में यह बात जोर देकर कही है कि लोकतंत्र सिर्फ चुनाव प्रक्रिया तक सीमित नहीं होना चाहिए बल्कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में जनभागीदारी लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त होनी चाहिए  ताकि सरकारें बहुमत के सहारे जनता के हितों को नजरंदाज न कर सकें और जनता को नुकसान पहुचाने वाले कानून न बना कर उनका दमन न कर सके | जैसे कि हाल में मोदी सरकार ने आर टी आई कानून को कमजोर करके किया या किसी भी व्यक्ति को राज्य सरकारों की अनुमति के बगैर आतंकवादी घोषित कर उसके खिलाफ़ कार्रवाई करने का कानून बना कर किया | इस तरह के कानून का उपयोग सरकार अपने बचाव और विपक्ष को तबाह करने के लिए करेगी और करती रही है | नोटबंदी और राफेल घोटाले से लेकर चुनाव घोटाले में चुनाव आयोग को सरकार ने जिस तरह अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया किसी से छिपा नहीं है | भारतीय संसदीय चुनाव के इतिहास यह घिनौना कृत्य पहली बार हुआ है और सुप्रीम कोर्ट को बार बार हस्तक्षेप करना पड़ा |

भारत में मोदी सरकार,अमेरिका में ट्रंप सरकार और ब्राजील में बोल्सोनारो की सरकारें बहुमत को जनता के हितों के बजाय अपने राजनैतिक हितों और अपने सहयोगी कार्पोरेट हितों के लिए कर रहे हैं इसे उन्होंने अपने लेख में रेखांकित किया है | इस लेख में आशुतोष स्वतंत्रता और जनाधिकारों के चैम्पियन दार्शनिक जे एस मिल के सिध्दांतों और उनके नेक इरादों का हवाला भी देते हैं | उन्होंने अम्बेडकर और नेहरू की उन चिंताओं का स्मरण कराया जिसमें वे कहते हैं कि भारतीय लोकतंत्र समाज के अभिजात वर्ग का सत्ता खेल बन कर न रह जाए इसलिए देश के हर नागरिक का सामाजिक और राजनैतिक मूल्य एक होना चाहिए |

लोकतंत्र को दुनिया भर के देशों ने एक आदर्श राज्य व्यवस्था के रूप में  स्वीकार किया और अपनाया है | पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति इब्राहीम लिंकन ने लोकतंत्र को  जिस तरह परिभाषित किया था “जनता की सरकार,जनता के द्वारा और जनता के लिए”लोकतंत्र के आदर्शों का वह रूप न्यूजीलैंड, स्वीडन, नीदरलैंड, सिंगापुर, जापान, फ़िनलैंड, कनाडा, नार्वे जैसे एक दर्जन से अधिक देशों  फलीभूत हुआ है और उत्तरोत्तर विकास कर रहा है | इन देशों में बेरोजगारी और अपराध लगभग नगण्य है | यूरोप के और भी तमाम देशों में जैसे इंग्लैंड, फ़्रांस,जर्मनी आदि में भी संसदीय लोकतंत्र का चेहरा का भारत की तरह विद्रूप नहीं है | नीदरलैंड जैसे छोटे से देश में जो चारो ओर पानी से घिरा है और समुद्र पाट कर खेती के योग्य जमीन बनाई है, वहां की जेलें खाली हैं जबकि वहां नब्बे फ़ीसदी लोग अधार्मिक यानी नास्तिक हैं |

इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं उत्पादन, निर्यात और जनता के टैक्स पर आधारित हैं न की भारत की तरह विदेशी कर्ज और सेंसेक्स के उतार चढ़ाव पर| भारत पर इस समय 80 लाख करोड़ रूपये से अधिक का कर्ज का बोझ है यानी केंद्र सरकार के लगभग 05 सालों के बजट के बराबर | हमारे केन्द्रीय बजट में लगभग एक तिहाई से अधिक विदेशी–देशी कर्ज शामिल होता है और उसका ब्याज चुकाने का हिस्सा हमारे विकास बजट के लगभग बराबर होता है| हम इस कर्ज से कभी मुक्त होंगे भी या ब्याज ही चुकाते रहेंगे कह पाना मुश्किल है | क्योकि सरकारों के सरोकारों में यह चिंता शामिल ही नहीं  है |

  नरेंद्र मोदी 2019 के चुनाव में 303 सीटों का बहुमत लेकर फिर सत्तासीन हुए | उसमें,पुलवामा, सैन्य राष्ट्रवाद, धार्मिक उन्माद,इ वी एम,चुनाव आयोग और धनबल की क्या भूमिका है वह एक अलग बहस का मुद्दा है और वे बहसें संसद से लेकर न्यायालयों और सड़क तक चल भी रही है | चुनाव के दौरान भी पूरे देश के किसानों का दिल्ली मार्च,रिटायर्ड फौजियों का प्रतिरोध,बेरोजगारों,शिक्षामित्रों,आंगनबाड़ी कर्मियों,रेलकर्मियो,आशा बहुओं और इसके अलावा भी बीएसएनएल  कर्मियों जैसे तमाम लोग सड़कों पर थे फिर भी मोदी जी 2014 से अधिक सीटें लेकर सत्ता में आये यह उनकी लोकप्रियता पर मोहर तो है ही पर नान परफोर्मिंग सरकार पर सवालिया निशान भी | कोई विद्यार्थी इम्तहान में सिर्फ दो सवाल करके आये और अंकतालिका में 90 फ़ीसदी नम्बर दर्ज हों तो सवाल तो उठेंगे |

देश के 2019 के संसदीय चुनाव में न तो 2014 के चुनाव जैसी मोदी लहर थी और न ही पर्सेप्सन उनके पक्ष में  दीखता था | गाँव के किसान आवारा पशुओं खास कर गायों और बैलों द्वरा खड़ी फसलों को चौपट करने से गुस्से में थे जो सरकार की गाय बैल बचाने की सिरफिरी नीति के कारण था | भोंपू मीडिया भी पर्सेप्सन भांप कर पैंतरे बदलने लगा था |  चुनाव में बीजेपी ने कालाधन,नोटबंदी और जीएसटी जैसी मोनुमेन्टल उपलब्धियों पर वोट नहीं माँगा | वोट का चालू सिक्का था सैन्य राष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद | घोर आपत्ति के बावजूद बीजेपी भारतीय सेना को मोदी के पर्याय की तरह पेश कर उसे भुना रही थी |

 आज का जलता सवाल है कि क्या मोदी सरकार को जनता ने इसलिए चुना था वह सूचना के अधिकार को दन्तबिहीन कर इतना कमजोर कर दे कि वह निष्प्रभावी हो जाय | सरकार जब पाकसाफ है तो आर टी आई से डर किस बात का ? क्या इन्हें इसलिए चुना था कि सरकार ऐसा निरंकुश कानून बनाएगी जिसके जरिये किसी को भी आतंकी घोषित कर उसके खिलाफ़ कार्रवाई कर सके | लगभग 80-90 रिटायर्ड आई ए एस ,आई पी एस और फ़ौज के अधिकारीयों ने सामूहिक हस्ताक्षर से आज की निरंकुश और भ्रष्ट व्यवस्था खास कर चुनाव प्रक्रिया पर चिंता व्यक्त करते हुए राष्ट्रपति को पत्र लिखा पर कोई जबाब नहीं | अभी हाल में ही देश के 49 लेखकों –फिल्मकारों ने भीड़ की हिंसा के खिलाफ़  जिसके शिकार देश का मुस्लिम तबका और दलित वर्ग है पर चिंता जताते हुए प्रधानमन्त्री को पत्र लिखा तो जबाब मिलना तो दूर उसे सरकार के खिलाफ़ बदनाम करने वाला नरेटिव फ़ैलाने का आरोप लगाया और उसका काउंटर सरकार के वफादार दलाल लेखक वर्ग ने किया | सरकार के लोग और उनके वफ़ादार कहते हैं कि आप क्या करेंगे वे चुन कर आये हैं और बहुमत में हैं तो उन्हें यह सब करने का अधिकार है इसलिए कर रहे हैं और करेंगे |

क्या बीजेपी के मैनिफेस्टो में आर टी आई कानून की ऐसी तैसी करने और किसी को भी बिना राज्य सरकार की अनुमति के आतंकी घोषित करने का कानून बनाने के मुद्दे शामिल थे ? यदि नहीं तो जनता कैसे जाने कि बीजेपी के मन में क्या है और क्या था ? हकीकत यह है कि मोदी सरकार जनता और उसके हितों जैसे बेरोजगारी,मंहगाई,भ्रष्टाचार.भीड़तन्त्र के हमले आदि तमाम ज्वलंत समस्याओं की फ़िक्र इसलिए नहीं है क्योंकि उसे जनता के वोट से अधिक अपने छलबल और धनबल पर भरोसा है | जो बोले गा उसे या तो भगवा भीड़ निपटा देगी या फिर इडी,इनकम टैक्स और सीबीआई के छापों से निपटा दिया जाएगा और नहीं तो अर्बन नक्सल घोषित कर नये निरंकुश कानून के चपेट में तो लेखक से लेकर सोसल एक्टविस्ट,बुध्दजीवी कोई बचेगा ही नहीं |

यहाँ पर इब्राहीम लिंकन की लोकतंत्र की परिभाषा पूरी तरह उलट जाती है | भारतीय सन्दर्भ में जनता द्वरा चुनी हुई सरकार जनता के हितों के लिए नही है | यह सरकार कार्पोरेट पूंजीवाद और सांप्रदायिक फासीवाद के गठजोड़ के हितों और लाभों के संरक्षण के हित में है भले ही जनता ने चुना है | क्या इस दौर की कल्पना कभी संविधान निर्माताओं की थी ? डा0 आम्बेडकर ने बहुमत की तानाशाही की सम्भावना की ओर इशारा किया था और गंभीर चिन्ता जतायी थी | क्योकि संविधान सभा के चुनाव में चुनावी छल बल की बानगी वे देख चुके थे जिसके तहत वे कोलकता से चुनाव हारे थे | बाद में मुम्बई से उन्हें जिता कर संविधान सभा में लाया गया क्योंकि संविधान निर्माण उन्हें असाधारण भूमिका अदा जो करनी थी | बाबा साहब ने बहुमत की तानाशाही और व्यतिपूजा को लोकतंत्र के लिए बड़े ख़तरे के तौर पर देखा था  और उनसे सावधान रहने के लिए आगाह भी किया था |

आज भारतीय प्रतिनिधित्व संसदीय लोकतंत्र सवालों के घेरे में हैं | मोदी सरकार ने अपने विगत कार्यकाल में देश की संवैधानिक संस्थाओं जैसे योजना आयोग,सीबीआई,चुनाव आयोग और न्यायपालिका को पंगु और कमजोर करने की कोशिश की है जो आरटीआइ को कमजोर करने तक और भी साफ़ हो जाता है जो सरकार के अलोकतांत्रिक आचरण और सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने वालों को निर्ममता से कुचलने का द्योतक है | चौकाने वाली बात यह है की मौजूदा सरकार ये हरकतें जिस बेशर्मी से कर रही है वह और भी खतरनाक है | दमन और अन्याय के इस दौर में हमें लोकतंत्र में बहुमत और बहुमत की सरकार पर फिर से सोचना होगा और विकल्प भी तलाशने होंगे | हम सभी दलों की मिली जुली नेशनल गवर्नमेंट पर भी सोच सकते हैं जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर आधारित हो आदि | बहुमत की सरकारों की संवैधानिक जबाबदेही और राजनीति में आये अनैतिक,अपराधी बाहुबली,धनबली नेताओं के खिलाफ़ सख्त सजाएँ निर्धारित हों संवैधानिक नैतिकता का यही तकाजा है | अधिकांश राजनेताओं के पास राजनीति के आड़ में  भ्रष्ट तरीकों से कमाया अकूत धन है सब आय से अधिक सम्पत्ति के घेरे में हैं पर शिकंजा विपक्ष पर ही कसा जाता है जबकि बीजेपी में धनपशुओं की भीड़ है |

 ब्राउन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर आसुतोष वार्ष्णेय ने दिनांक 30 जुलाई 2019 के अपने लेख में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और भारत के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के राजनैतिक आचरण के दोहरेपन के हवाले से लिखते हैं कि मोदी जी चुनावी जीत अपनी जगह है पर उनकी सरकार द्वारा नागरिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले और धार्मिक उन्माद के प्रोत्साहन कैसे जायज ठहराया जा सकता है | यह तो खुल्लम खुल्ला लोतान्त्रिक मूल्यों के खात्म करने का राजनैतिक अपराध है | चुनाव में बढ़ता धनबल और देश की स्वायत्त संस्थाओं खोखला कर कमजोर करना,चुनाव आयोग और न्यायपालिका को कमजोर करके लोकतंत्र की जड़ो को काटना है | उन्होंने मोदी सरकार द्वरा हाल ही सुचना के अधिकार को कमजोर करने और किसी को भी आतंकवादी घोषित करने वाले कानून को भी लोकतंत्र पर हमला करार देते हुए चुनावी लोकतंत्र के जरिये बनने वाली बहुमत की सरकारों को देश और जनता के लिए खतरनाक बताया | वे सवाल खड़ा करते हैं कि देश की जनता ने उन्हें बहुमत अपना गला काटने के लिए दिया है | सरकार द्वरा बहुमत की ताकत का नाजायज इस्तेमाल कर नागरिक स्वतंत्रताओं को नेस्तनाबूत किया जाना लोकतंत्र पर खुल्लमखुल्ला हमला है |

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