समकालीन जनमत
कविता

‘ गोरख की यादें, उनकी रचनाएँ हम सबको जीने की वजह देती हैं ’

जलेश्वर उपाध्याय

कविता और प्रेम दो ऐसी चीजें हैं जहाँ मनुष्य होने का मुझे बोध होता है। प्रेम मुझे समाज से मिलता है और मैं समाज को कविता देता हूं। कविता लिखना कोई बड़ा काम नहीं मगर बटन लगाना भी बड़ा काम नहीं है उसके बिना पेंट कमीज बेकार होते हैं.
– 06.03.1976
ये लाइन जनकवि गोरख पांडेय की डायरी में है। अगर उनके व्यक्तित्व को समझना है तो इसको पूरी संवेदनशीलता के साथ देखना पड़ेगा। “लोहे की दिल्ली” की तरह नहीं जो फूलों से भी कटता जाता है। गोरख के साथ बिताये पलों को याद करना किसी यातना से गुजरने से कम नहीं है। उनका लाड़ दुलार गुस्सा उनकी बेपरवाह हंसी सब एकबारगी किसी रील की तरह गुजरते हैं। फिर उनके न होने का एहसास पहाड़ सा भारी लगता है।
सत्तर के दशक में जब मैं बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पढ़ने आया तो बड़े भाई महेश्वर के अलावा जो बुजुर्ग दोस्त अभिभावक मिले वे थे गोरख पांडेय। मेरे लिए बाबा शुक्र है कि इस संबोधन को उन्होंने तहे दिल से स्वीकार किया।
बाबा गोरख तब बिड़ला हॉस्टल के कमरा नम्बर 294 में रहते थे. बाद में इसी कमरे में मेरा निवास भी रहा। गोरख, महेश्वर, प्रधान जी, बलिराज पांडेय सब आस पास रहा करते थे। पूरे दिन साहित्य के अलावा देश दुनिया के हालात पर गंभीर बहस होती। अपनी वैचारिक समझ के लिए मैं आज भी इस गुरुकुल का आभारी हूँ। रोजाना शाम को लंका, अस्सी जाना होता और रास्ते भर निर्मित होता सड़क साहित्य (बाबा के शब्दों में)। एक दशक में जाने कितनी रचनाएँ इन सडकों पर बिखर गयीं। गोरख पांडेय की बनाई एक कविता की दो लाइन यूँ थी
कर्ज की खाते थे रोटी दाल खाते थे उधार
इस तरह हम मुल्क-ए-हिंदुस्तान होकर रह गए
बहरहाल, गोरख जी के साथ कई भावुक क्षण भी गुजरे। इनपर अब चर्चा करना कत्तई बेमानी है। खासकर उनके संबंधों को लेकर दिल्ली के जिन महान कथाकार ने उनको आधार बनाकर जो अनर्गल कथा रची थी वह उनकी मौत का एक कारण बनी। दरअसल निजी जिंदगी में गोरख एक खुली किताब की तरह हैं। कुछ भी देखा- छुपा नहीं। बस देखने की नजर होनी चाहिए। बदकिस्मती से दिल्ली में ऐसी नज़रों की भारी किल्लत है।
गोरख की डायरी पढ़िए वह कुछ भी छिपाते नहीं। यहाँ तक की अपनी बीमारी और कमजोरी की भी पहचान करते हैं। लड़ने का जज्बा भी दीखता है। सिर्फ बाह्य कारकों का समर्थन न मिलना उनको तोड़ता गया, लगतार। तमाम उतार चढ़ाव के बावजूद बनारस ने गोरख जी को वैचारिक ऊर्जा दी। उनकी ज्यादातर कविताएं यहीं लिखी गयीं और यहीं पर जनकवि के तौर पर उभरे। मुझे तो उन्होंने कलम चलाना तक सिखाया। अमूमन मैं किसी भी बात पर अपनी टिप्पणी ठोक देता था तब बाबा ने सलाह दी कि जो बोलते हो उसे लिख डालो यहीं से लिखने की शुरुआत हुई।
कितनी बातें हैं कि सबका जिक्र यहाँ संभव नहीं है। आरएस मिश्र की शादी में मैं और गोरख जी गये। रास्ते में पैसे खत्म, कमीज की सारी बटन गायब और इसी हालत में रामजी भाई की शादी में शरीक भी हुए। फिर दोस्तों के बीच सारी दिक्कतें खत्म हो गयीं। यह थी उनकी तासीर।  उनका साथ बड़ी मुसीबतों को भी चुटकियों में गायब कर देता था। जिन हालात में उन्हें बनारस छोड़ना पड़ा वह एक दुखद प्रसंग है। हालांकि इसका उनके रचनाकर्म से कोई संबंध नहीं है। दिल्ली में रहकर उन्होंने अपनी थीसिस पूरी की। कविता संग्रह छापा, भोजपुरी गीत रचे जो आज भी बिहार के गाँव देहात में गाये जाते हैं।
यह सच है कि गोरख पांडेय बड़े बेवक्त चले गए। आज मुल्क जिस बदहाली के दौर से गुजर रहा है उनका होना जनता और जनसंघर्षों के लिए मायने रखता। 11 अप्रैल 1976 को लिखी उनकी पंक्तियां क्या आज मौजूं नहीं लगतीं -” सामाजिक चेतना सामाजिक संघर्षों में से उपजती हैं। व्यक्तिगत समस्याओं से घिरे रहने पर सामाजिक चेतना या सामाजिक महत्व की कोई चीज उत्पादित करना मुमकिन नहीं।
व्यक्तिगत समस्याएं जहाँ तक सामाजिक हैं, सामाजिक समस्याओं के साथ ही हल हो सकती हैं। अतः व्यक्तिगत रूप से उन्हें हल करने के भ्रम का पर्दाफाँस किया जाना चाहिए ताकि व्यक्ति अपनी भूमिका स्पष्ट रूप से समझ सके और समाज का निर्णायक अंग बन सके।”
इमरजेंसी के दौर में उन्होंने लिखा था –
“जंगल-व्यवस्था के भीतर
आदमी की तरह बोलने
चलने और हाथ उठाने पर
पाबंदी लगा दी गयी है
अब आगे से रेंगकर चलना होगा
लूट की जुबान
शहद घोलकर बोलनी होगी
इजाजत है तो सिर्फ यह कि
हाथों से अपने साथियों का
गला घोंट दो”
अगर सिर्फ तारीख बदल दें तो यह आज के हालात की जीती जागती तस्वीर है। गोरख जी की यादें, उनकी रचनाएँ आज भी हम सबको जीने की वजह देती हैं। इस बात के लिए प्रेरित करती हैं “इस दुनिया को जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए।” पीढ़ियों के लिए भी उनका यह संदेश हमेशा कायम रहेगा।

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