जब शहर के तमाम चौराहों पर लगी बड़ी बड़ी एल सी डी की स्क्रीन पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास का एक प्रोफेसर मिथक को इतिहास बताते थक नहीं रहा था, उसी समय शहर के वास्तविक इतिहास को मिटाने की कोशिश की जा रही थी ।
शेरशाह सूरी की बनाई सड़क सहरह-इ-अजीम , मुगलकाल में बादशाही रोड और आज की तारीख में पुरानी जी टी रोड जिसका पहला लिखित पता या जिक्र मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1324-51) के समय में आता है ।इसी सड़क पर जहाँगीर का लगाया खुसरो बाग है जिसका सदरी दरवाजा इस सड़क पर खुलता है ।सदरी दरवाजे से लगी मोती मस्जिद है और उसके आगे सड़क के दोनों ओर ऊँची मेहराब जिसे फाटक कहा जाता है ।
यह फाटक भी खुसरो बाग का हिस्सा है ।आज भी खुल्दाबाद सब्जी मंडी के पीछे दूर दूर तक बाग की दीवारों के अवशेष देखे जा सकते हैं ।1575में अकबर के बसाए शहर इलाहाबाद का यह ऐतिहासिक खुसरो बाग पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित स्थल है ।जी टी रोड पर बना यह फाटक कभी शहर का मुख्य द्वार हुआ करता था ।
फाटक के अवशेष
1857के स्वधीनता संग्राम का गवाह रहा खुसरो बाग । ग्राम मंहगाँव,तहसील चायल इलाहाबाद (जो अब कौशाम्बी जिले का हिस्सा है) में जन्मे मौलवी लियाकत अली ने यहीं से विद्रोह का संचालन किया और मई के अंतिम सप्ताह व जून के पहले हप्ते तक इलाहाबाद आजाद रहा,जिसके गवर्नर मौलवी लियाकत अली थे ।
विद्रोह असफल होने पर मौलवी लियाकत अली फरार हो गए और 14साल बाद गुजरात से 1871में गिरफ्तार करके रंगून की जेल में भेज दिए गए जहाँ 1892में उनकी मौत हुई ।
मलबा हटाते ए डी ए के बुलडोजर
इस गौरवशाली अतीत और इतिहास को संघ संचालित भाजपा और उसकी सरकारें मिटा डालना चाहती हैं ।अर्ध कुंभ को महा कुंभ,दिव्य कुंभ बताते हुए आस्था के सहज सामान्य मेले को उग्र हिन्दुत्व के राजनैतिक फायदे का मंच बना दिया गया है।इसी परियोजना का हिस्सा था इलाहाबाद जिले का नाम बदलकर प्रयागराज किया जाना ।फिर कुंभ के नाम पर पूरे शहर की जो गंगा जमुनी तहजीब चली आ रही थी उसकी विविधता की हत्या करने की सभी कोशिशें कर डाली गईं ।पूरा शहर भगवा रंग में और दीवारें हिन्दू मिथकों,साधु _संतों की तस्वीरों से लीप दी गईं ।
सड़क चौड़ीकरण के नाम पर तमाम घर तोड़-उजाड़ दिए गए ।पेड़ों से घिरे चौराहे सौंदर्यीकरण के पदाघात से नंगे हो गए । दसियों हजार पेड़ काट डाले गए ।
इन सबसे भी जी नहीं भरा तो अकबर द्वारा बनाए गए किले(जो सेना के अधिकार क्षेत्र में है)में जहाँ लोग पहले भी जाते थे और अक्षय वट, सरस्वती कूप आदि का दर्शन करने, उसमें भी सरस्वती की प्रतिमा लगाकर “पहली बार” वाला प्रचार फिर दोहराया गया ।
और इसी परियोजना के तहत हमारी गौरवशाली विरासत की कथा कहता स्थापत्य का वह जीता जागता फाटक, जिसके अन्दर कुछ लोगों का रोजगार भी चलता था, उसे जमींदोज कर दिया गया । एल सी डी स्क्रीन पर मिथकों को इतिहास बताने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मध्यकालीन इतिहास विभाग के प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी 16वीं शताब्दी में बने इस ऐतिहासिक गेट को विकास के नाम पर तोड़ने की ही वकालत करते नजर आते हैं ( टाइम्स आफ इंडिया, 29 अगस्त, 2018)। पुरातत्व विभाग के इंचार्जअधिकारी अविनाश चंद्र मिश्र कहते हैं कि ” ए डी ए की इन्क्वायरी पर हमने उन्हें दो बातें साफ कर दी ,पहली कि यह एक ऐतिहासिक महत्व का स्थल है और दूसरी कि यह पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित नहीं है (टाइम्स आफ इंडिया ,29 अगस्त,2018)।
दिव्य कुंभ के नाम पर सड़क चौड़ीकरण के लिए किसी ऐतिहासिक विरासत की हत्या का यह कुत्सित कृत्य विकास के नाम पर किया गया ।विकास की यह कैसी विनाशलीला है जो जीवित इतिहास को दफनाने में लगी है और मिथकों, कथाओं को इतिहास बनाने पर तुली है ।
सदरी दरवाजा
एक शहर जहाँ दो रंग की नदियां आकर एक-दूसरे में समा जाती हैं लेकिन अपने-अपने रंग के साथ अविरल बहती हैं,एक शहर जहाँ भाषाएं एक-दूसरे में आवाजाही करती हैं ,एक शहर जो विभिन्न विचारों की टकराहटों के बीच अपना रंग बिखेरता है, एक शहर जिसकी सड़कें गुलमोहर और अमलतास से घिरी सारे रंग जीवन के बतलाती हैं, इसे एक रंगा, नंगा कर देने का राजनैतिक षड्यन्त्र हो रहा है । दिव्य कुंभ के नाम पर हमारे शहर की हत्या की जा रही है, क्या हम कुछ नहीं बोलेंगे ?
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