समकालीन जनमत
शख्सियत

कविता की मुक्ति और मुक्ति की कविताः गोरख पाण्डेय का काव्य

(सन् 2005 में ‘ समय का पहिया ‘ शीर्षक से प्रकाशित गोरख पाण्डेय की चुनिंदा कविताओं के संकलन की भूमिका के रूप में लिखे इस लेख को यहाँ गोरख स्मृति दिवस के अवसर पर पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है – समकालीन जनमत)

 

“आएंगे, अच्‍छे दिन आएंगे / गर्दिश के दिन ये कट जाएंगे। सूरज झोपड़ियों में चमकेगा/ बच्‍चे सब दूध में नहाएंगे। सपनों की सतरंगी डोरी पर / मुक्ति के फरहरे लहरायेंगे।”

यह ‘आशा का गीत’ गोरख के किसी संग्रह में नहीं मिलता। कैसेट में उनकी धूप जैसी पियराई आवाज में इसको सुनते हुए दुःख और उम्मीद के आरोह-अवरोह में यह गीत किसी ऐसे गरीब गांव में बजता हुआ लगता है, जहां ताजा जनसंहार हुआ है लेकिन जहां फिर भी क्रांतिकारी कार्यकर्ता लोगों को ढाढस बंधा रहे हैं, उनके फटे हुए कलेजों को सी रहे हैं। इस उम्मीद को जिला रहे हैं कि लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई।

गोरख की इस कविता का एक टुकड़ा मानो उछलकर हाल ही में प्रकाशित वीरेन डंगवाल के संग्रह ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ में जा बैठा, ‘आएंगे, उजले दिन जरूर आएंगे’। सन् 2001 में प्रकाशित ‘नया अनहद’ में ‘जाग मछन्दर’ शीर्षक से ‘साथी गोरख पाण्डे की स्मृति में’ लिखी कविता में कवि दिनेश कुमार शुक्ल ने उस संवेदना का एक चित्र खींचा है-

‘सो रहा संसार, पूंजी का विकट भ्रमजाल
किन्तु फिर भी सर्जना के
एक छोटे से नगर में
जागता है एक नुक्कड़ चिकटती चिंगारियां उठता धुंआ है
सुलगता है एक लक्कड़
तिलमिलाते आज भी कुछ लोग
सुनकर देखकर अन्याय और लड़ने के लिए
अब भी बनाते मन, मछंदर।’

गोरख की कविता नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह की कोख से जन्मी थी। वसंत का वह वज्रनाद किसी तात्कालिक कारण से नहीं पैदा हुआ था, बल्कि गोरख के ही शब्दों में-
‘हजार साल पुराना है उनका गुस्सा
हजार साल पुरानी है उनकी नफरत’’ (तुम्हें ड़र है, 1975)

अकारण नहीं कि नक्सलबाड़ी आंदोलन के इसी ताप को अरुंधती रॉय ने अपने उपन्यास ‘द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ में मिलते जुलते शब्दों में व्यक्त किया है- On their shoulders they carried a keg of ancient anger, lit with a recent fuse.

गोरख ने जिन दिनों लिखना शुरू किया वह नक्सलबाड़ी के किसान विद्रोह से प्रेरित राजनीति पर अमानुषिक दमन का दौर था। श्वेत आतंक के पक्ष में राज्य की समूची दमनकारी ताकत क्रांतिकारियों पर टूट पड़ी थी। लगता था, कुछ भी नहीं बचेगा।

हजारों किसान, सैकड़ों नौजवान, और नक्सलबाड़ी के अधिकांश नेतृत्वकारी साथी ‘मुक्त होगी प्रिय मातृभूमि’ का सपना लिए अद्भुत वीरता से लड़ते हुए शहीद हो चुके थे। शहीदों का अविराम शोकगीत गोरख की कविता की अन्तर्वर्ती धार है, उनकी रचना की आधारभूत करुणा और अदम्य शौर्य।

यह वही दौर है जब धक्का खाये आंदोलन को संभालते हुए 80 का दशक आते न आते क्रांतिकारी ताकतें क्रांति के पुनर्निर्माण के लिए संघर्ष आरै आत्मसंघर्ष में जुट गई थीं। इसीलिए गोरख की कविता में क्रांति का महज़ आवेग अथवा रोमानी भावोच्‍छवास नहीं बल्कि उसका अन्तः-बाह्य संघर्ष और परिपक्व राजनीतिक चेतना मिलती है।

बदली हुई परिस्थिति में नक्सलबाड़ी के अनुभवों से निकली एक चिंता यह भी थी कि जमीनी संघर्षों से उठकर राजनीति की मुख्यधारा में हस्तक्षेप कैसे किया जाए।

गोरख की कविता साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में इस चिंता का वहन करती है। एक ओर भोजपुरी की लोकलय में धरती के दुःख और धरती-पुत्रों के शौर्य को वे एकदम आधुनिक और वैज्ञानिक भौतिकवादी चेतना के साथ पिरो रहे थे, वहीं दूसरी ओर ग़ज़लों और नज़्मों के साथ छोटे कस्बों और शहरों में रहने वाले विराट निम्न-मध्यमवर्गीय जनसमूह को क्रांति के पक्ष में संबोधित करने की उनकी तैयारी स्पष्ट दिखती है।

मुक्तिबोध ने हिंदी कविता को जहां छोड़ा था, उस सिरे को फिर से पकड़कर काम शुरू करने की, अर्थात् साहित्य की मुख्यधारा में क्रांति के एजेंडे को पुनर्स्थापित करने की कोशिश गोरख ने शुरू की। इसमें उन्हें ढेरों साथी-संगाती मिले। पहले की पीढ़ी के सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मिले। ‘जन संस्कृति मंच’ की रूपरेखा तैयार हुई।

गोरख की कविता का घनिष्ट संबंध सन् 1972 से 1979 के बीच भोजपुर और पटना में विकसित जुझारू किसान संघर्षों से है। यहां के धधकते खेत-खलिहानों की दास्तान को कॉ0 विनोद मिश्र ने इन शब्दों में व्यक्त किया है – ‘‘देश में चारों ओर खेतों और खलिहानों में, झोपड़ियों और गलियों में, यातनागृहों और जेल की कालकोठरियों में बहा हुआ हमारे महान शहीदों का सारा कीमती खून मानो आकाश की ऊंचाई तक उठ गया औैर भोजपुर के आसमान पर लाल उजास की तरह छा गया। और जैसा कि बाद के वर्षों ने साबित किया कि यह उजास किसी धूमकेतु की नहीं बल्कि तारे की रोशनी थी, उस लाल तारे की जिसकी चमक स्थाई थी।’’

वास्तव में गोरख की कविता, 80 के दशक में भोजपुर व पटना से निकलकर मध्य बिहार के रोहतास, गया, जहानाबाद, औरंगाबाद, और नालंदा में भभक कर फैलते किसान आंदोलन के समानांतर विकसित होती दिखाई देती है।
यह तेलंगाना और नक्सलबाड़ी से भिन्न परिस्थिति थी।

धक्का संभालकर नक्सलबाड़ी आंदोलन नए सिरे से एक बिल्कुल नए ही परिवेश में अपनी ही राख से उठ खड़ा हुआ। क्रांतिकारी संघर्षों से आंदोलित हिंदी क्षेत्र का भोजपुरी समाज गोरख की कविता में अपनी समूची जीवंतता के साथ स्पंदित है।

गोरख की कविताएं संघर्षों के मार्मिक चित्र मात्र नहीं खींचतीं बल्कि वर्गसंघर्ष की जटिलताओं को हल करने, किसान आंदोलन को सर्वहारा चेतना से संपन्न करने, जन-कार्यवाहियों की सुसंगत मार्क्सवादी व्याख्या प्रस्ततु करने, भारतीय समाज की सत्तासंरचना को समझाने, क्रांतिकारी संघर्ष के अनुभवों को तर्कसंगत ज्ञान में बदलने तथा जनता को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में शिक्षित-प्रशिक्षित करने के काम में लगी दिखाई देती हैं।

गोरख के लिए लोककथाएं, किस्से, मुहावरे और मिथक न तो अलंकरण हैं और न ही दृष्टांत बल्कि वे सामंती समाज के लोकमन की संरचनाएं हैं। वे इन संरचनाओं के भीतर से लोकमन के द्वंद्वमय गतिविज्ञान को उघाड़ देते हैं।

उनकी भाषा सामंतों और ग्रामीण गरीबों, दोनों ही वर्गों की आंतरिकता को जानती है, जनाती है। वह कभी मिथक को तोड़कर उसके सारभूत यथार्थ को प्रकट कर देती है और कभी यथार्थ को ही मिथक में बदल देती है।

आमतौर पर प्रचलित सामंती मिथकों की यथार्थ विडंबना को वे उजागर कर देते हैं जबकि सर्वहारा अनुभव को नए मिथकों में बदल देते हैं। सामंती दबदबे के इलाकों में उन दिनों गरीब दलित स्त्रियों को भूमिपति अक्सर अपनी हवस का शिकार बना लेते थे। अरहर के खेत इन जघन्यताओं के लिए कुख्यात थे। गोरख इस अनुभव को बड़ी सहजता से मिथक में बदल देते हैं –
‘अब्बों गांव-गांव रहे जमींदार सजनी जैसे रहरी में रहेला हुंड़ार सजनी।’

इसी तरह सामंती मिथकों की रूपगत तान को बनाए रखते हुए भी वे उसके क्रूर यथार्थ की अन्तर्वस्तु को अद्भुत तीक्ष्णता से स्पष्ट कर देते हैं-
‘एक दिन राजा मरलें आसमान में ऊड़त मैना
बान्हि के घरे ले अइलें मैना ना।
एकरे पिछले जनम के करम
कइलीं हम शिकार के धरम
राजा कहैं कुंवर से अब तू लेके खेलऽ मैना
देखऽ केतना सुंदर मैना ना।’

गोरख की भाषा उन लोगों के सामाजिक विकास के स्तर से प्रस्थान करती है जिनके वे कवि हैं इसीलिए सामंतवाद की बेड़ियों को तोड़ते और झकझोरते हुए विकसित होती हुई उनकी चेतना के अन्तरतम को उनकी भाषा इतनी सहजता से अभिव्यक्त करती है।

गोरख की कविता उन लोगों की इतनी अपनी है कि उसे गाते हुए संग्रामी किसान- मजदूर यह भूल से जाते हैं कि वह किसी दूसरे व्यक्ति की लिखी हुई कविता है। अनेक क्षेत्रें में आंदोलन के संचारतंत्र से पहुंचे ये गीत अपने रचयिता के नाम के बगैर पहुंचे।

वे उन इलाकों में ऐसे लोकगीतों की तरह हैं जिन्हें मानो किसी व्यक्ति विशेश ने न लिखा हो। गोरख के काव्य में जातिगत व लैंगिक शोषण सर्वहारा दृष्टिबिन्दु से उद्घाटित होता है। इसी कारण इस शोषण की भीषणता देश-काल-इतिहास और समाज की समग्र संरचना के भीतर से उभरती है।

गोरख की कविता में औरतें और दलित-बहुजन इस चेतना के साथ क्रियाशील दिखते हैं कि बिना पूरे समाज को मुक्त किए उनकी मुक्ति संभव नहीं। इसीलिए न तो वे सहानुभूति के पात्र हैं न अतिरिं जत भावुक प्यार के।

गोरख की कविता में औपनिवेशिक व सामंती जकड़बंदी में घिरी संघर्षरत औरतों के ढेरों अक़्स स्त्री-मुक्ति और समग्र मानव मुक्ति के अविभाज्य संबंध को प्रकट करते हैं। ‘बुआ के लिए’, ‘आंखें देखकर’, ‘मैना’, ‘भूखी चिड़िया की कहानी’, ‘कैथरकला की औरतें’, ‘बंद खिड़कियों से टकराकर’ आदि कविताओं में सर्वहारा ही नहीं बल्कि अनेक वर्गों की संघर्षरत महिलाएं दीखती हैं लेकिन गोरख की महिलादृष्टि में भी आम सहानुभूति की जगह वर्ग-सचेतन दृष्टि ही प्रधान है।

‘बुआ के लिए’ गहरी निश्छल ममता के बावजूद ‘कैथरकला की आरै तें’ ही उनकी काव्य संवेदना की अगुवाई करती हैं।
‘ खैर, यह जो अभी-अभी
कैथरकला में छोटा सा महाभारत
लड़ा गया और जिसमें
गरीब मर्दों के साथ कंधे से कंधा
मिलाकर
लड़ी थीं कैथरकला की औरतें
इसे याद रखें
वे जो इतिहास को बदलना चाहते हैं
और वे भी
जो इसे पीछे मोड़ना चाहते हैं।’

दरअसल यह कैथरकला की औरतों से पाई गई दृष्टि ही है जो बुआ के प्रति असीम लगाव और कृतज्ञता के बावजूद उस अंतर्विरोध से आंखें नहीं चुराती जिसे बुआ की चेतना में सामंतवाद ने पैदा किया है-
‘लेकिन बुआ
तुम अब भी छुआछूत क्यों मानती हो?
पिता के सामंती अभिमान के हमलों से कवच की तरह
हमारी हिफाज़त करने के बावजूद
रामधनी चमार को नीच क्यों समझती हो
जो जिंदगी भर हमारे घर हल चलाता रहा
हमेशा गरीब रहा
और पिता का जुल्म सहता रहा? क्यों?
आखिर क्यों सबकी बराबरी में तुम्हें यकीन नहीं होता?
बोलो
चुप मत रहो बुआ।’

निराला ने ‘तोड़ती पत्थर’ में भारतीय स्त्री की सनातन सी दीखती उस ऐतिहासिक भंगिमा का क्लासिक चित्र खींचा है जहां तकलीफ और शोषण की अकथ कहानी एक ‘दृष्टि’ में साकार हो गई है-
‘देख कर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं’

आगे चलकर गोरख महाकवि की इसी संवेदना को लगभग वैसे ही समर्थ क्लासिकीय बिंब में विस्तार देते हैं। यहां भी आंखें हैं जिनमें तकलीफ का समंदर है लेकिन साथ ही साथ दुनिया को जल्दी से जल्दी बदल देने की जरूरत भी-
‘ये आंखें हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुंदर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए।’

जहां निराला की कविता में मजदूर स्त्री कवि को देखती हैं वहीं गोरख के यहां कवि उन आंखों में झांकता है। दोनों ही जगह आंखों का मौन संभाषण है, लेकिन बात फिर भी आगे बढ़ गई है। आंखों में तकलीफ के उमड़ते हुए समंदर को देखना और दुनिया को बदल देने की छटपटाहट का एहसास काल के एक ही क्षण में घटित होते हैं, पूर्वापर क्रम में नहीं। दोनों दरअसल एक ही एहसास हैं। यहां संवेदना, विचार और कर्म में सहज अभेद है जैसा कि मार्क्स ने कहा था- ‘‘दार्शनिकों ने अब तक दुनिया की व्याख्या की है, जरूरत हालांकि यह है कि उसे (दुनिया को) बदल दिया जाए।’’

गोरख के काव्य-संसार में स्त्रियां आमतौर पर सर्वाधिक शोषित किन्तु सर्वाधिक मानवीय तबके के रूप में दिखती हैं। गोरख की कविता में स्त्री जीवन एक ऐसा रूपक है जिसमें शोषण की हद और इंसानियत की जिद एकाग्र है। इसीलिए जब स्त्रियों की यह आधी दुनिया गिरती है तो पूरी मनुष्‍यता गिरती है-
‘दीवारों से टकराकर गिरती है वह
गिरती है आधी दुनिया सारी मनुष्‍यता गिरती है
हम जो जिंदा है
हम सब अपराधी हैं
हम दंडित हैं।’

जीवन में जो कुछ भी सहृदय, सुंदर और कोमल किन्तु अभिशप्त है वह उनकी कविता में अनायास ही स्त्रीलिंग बन जाता है। ‘भूखी चिड़िया’, ‘मैना’ आदि पक्षी इसी अभिशप्त कोमल मानवीयता के प्रतीक हैं।

पितृसत्ता और सामंतवाद की दानवी छाया प्रेम, सौन्दर्य और स्वाधीनता का पीछा हर कहीं करती है, सपनों तक में। गोरख की कविता में इसीलिए ‘अभिशप्त प्यार’ एक केन्द्रीय मोटिपफ़ है जो कतई महज़ वैयक्तिक नहीं।

गोरख की कविता इस बात की गवाह है कि ‘समकालिक’ कैसे ‘कालजयी’ बनता है। 1984 के नवम्बर में इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के निर्देशन में हजारों निरपराध सिक्खों का कत्ल किया गया।

इस हत्याकांड के विरुद्ध चीख की तरह ‘खूनी पंजा’ शीर्षक कविता गोरख की कलम से निकली। हाल के गुजरात नरसंहार के बाद एक पत्रिका ने अपने मुखपृष्ठ पर जब इसे उद्धृत किया तो महसूस हुआ मानो गुजरात का जनसंहार ही इस कविता में साकार हो उठा हो –
‘पेट्रोल छिड़कता जिस्मों पर
हर जिस्म से लपटें उठवाता
हर ओर मचाता कत्लेआम
आंसू और खून में लहराता
पगड़ी उतारता हम सब की
बूढ़ों का सहारा छिनवाता
सिन्दूर पोंछता बहुओं का
बच्‍चों के खिलौने लुटवाता
बोलो, यह पंजा किसका है?
यह खूनी पंजा किसका है?…
यह पंजा नादिरशाह का है
यह पंजा हर हिटलर का है
ये जो शहर पे आग सा बरपा है
यह पंजा हर जालिम का है
ऐ लोगों! इसे तोड़ो, वरना
हर जिस्म के टुकड़े कर देगा
हर दिल के टुकड़े कर देगा
यह मुल्क के टुकड़े कर देगा।’

अकारण नहीं कि गुजरात जनसंहार के बाद लिखी गई अनेक मार्मिक कविताओं के बरअक़्स उस त्रासदी की सबसे प्रामाणिक सत-चित-वेदना को व्यक्त करने वाली कविता उस पत्रिका के संपादक को लगभग 18 वर्ष पहले लिखी गोरख की यह कविता ही लगी। इसका कारण शायद यह है कि गोरख के कवि की आंख किसी घटना या दुर्घटना को देश-काल-परिस्थिति में ही नहीं बल्कि इतिहास और विचारधारा की गतिमयता में देखने की अभ्यस्त थी।

यही वह दृष्टि है जो भाव और बोध, संवेदना और विचार, अर्थवत्ता और प्रासंगिकता, समसामयिकता और कालजयीपन की द्वन्द्वमय एकता को वस्तु और रूप दोनों ही धरातलों पर उपलब्ध करती है। उनकी कविता की सरलता और उनका सीधापन कठिन, कठोर और जटिल रास्तों से होकर आता है।

गोरख का क्रांतिकारी कविकर्म मुक्तिबोध की ही तरह इस तथ्य से लगातार उलझता है कि अभिव्यक्ति मध्यमवर्ग के पास है जबकि गहन गंभीर अनुभव गरीब और उत्पीड़ित वर्गों के पास हैं। मुक्तिबोध की काव्ययात्रा के आरंभ में ही उनके सामने यह समस्या खड़ी है- ‘मै उनका ही होता जिनसे रूप भाव पाए हैं।’

मुक्तिबोध के भीषण आत्मसंघर्ष ने इस समस्या को हल करने की दिशा में एक मंजिल पार कर ली थी। उन्होंने गोरख जैसों के लिए जमीन साफ की थी। मुक्तिबोध की सीख थी कि क्रांति को कविता के एजेंडे पर सबसे ऊपर रखकर चलने वाले रचनाकार के लिए इस अंतर्विरोध को हल करना सबसे जरूरी है।

गोरख इसे लेखकों के विचारधारात्मक रूपान्तरण की समस्या मानते हैं। चूंकि भारत में बौद्धिकों का व्यापक हिस्सा मध्यवर्ग से आता है, इसीलिए मध्यवर्गीय बौद्धिक तबके के दोहरेपन पर तीखे व्यंग्य करने वाली उनकी कविताएं इसी समस्या को संबोधित करती हैं। ‘गलतियों का कोरस’, ‘समझदारों का गीत’, ‘फूल खिल आए हैं’, ‘बात बने’, ‘कला कला के लिए’, ‘चिठ्ठी’ ऐसी ही कविताएं हैं।

मुक्तिबोध ने हिंदी कविता को इस हद तक क्रांति का सहयात्री बना दिया था कि कविता को उस रास्ते आगे बढ़ाने का काम बहुत लंबी सांस और बड़े जिगर की मांग करता था। हिंदी कविता इस उत्सर्गमय रास्ते से बड़ी तेजी से पीछे हटी है, लेकिन गोरख और उनके हमसफर इस कठिन चुनौती को स्वीकार करके चले।

मुक्तिबोध के बाद साहित्य के क्षेत्र में शास्त्रीयता, आधुनिकतावाद तथा चरम निषेधवादी अराजकता ने जोर मारा। इन सभी प्रवृत्तियों की मुख़ालफत करते हुए मुक्तिबोध की विरासत को अपने तमाम नए-पुराने रचनाकार सहयोगियों के साथ गोरख ने इस तरह पुनर्जीवित किया कि ग्रामीण भारत तथा किसान-मजूर के पसीने की महक फिर से कविता का प्राणतत्व बनी। इसीलिए ठीक मुक्तिबोध की ही तरह गोरख आगे आने वाले क्रांतिकारी जनकाव्य के संस्कार बन गए।

मुक्तिबोध ने कविता को आजादी के बाद स्थापित सत्ता संरचना की जैसी व्यामोहमुक्त, मूलगामी आलोचना का अस्त्र बनाया, उसी भूमि पर गोरख ने लंबे अर्से के बाद कविता को फिर से खड़ा किया।

काव्य चिंतन तथा व्यवहार में गोरख ने लेखकों के विचारधारात्मक रूपान्तरण, अन्तर्वस्तु और रूप के द्वन्द्वात्मक संबंध तथा संप्रेषण की समस्या को सुलझाने का जैसा प्रयत्न किया, वह भी मुक्तिबोध के असमाप्त कार्यभार को ही आगे बढ़ाता है।

जहां मुक्तिबोध अन्तर्वस्तु और रूप के द्वन्द्वात्मक संबंध में गहरे उतरकर फैंटेसी के शिल्प को उपलब्ध करते हैं, वहीं गोरख के लिए संप्रेषण की समस्या केन्द्रीय चिंता बन जाती है।

गोरख के शब्दों में, ‘‘कलात्मकता और लोकप्रियता एक दूसरे की विरोधी नहीं बल्कि सहयोगी हैं। हम मध्यवर्ग के लिए या उच्‍चवर्ग के लिए किसान और मजदूर के जीवन और संघर्ष से जुड़ी रचनाएं नहीं करते, हमारे प्राथमिक श्रोता और पाठक खुद मजदूर और किसान हों, इस पर ध्यान देना चाहिए।’’

अपनी इसी प्रतिज्ञा के चलते उन्होंने सरलता के पक्ष में संघर्ष चलाया और यथार्थ के नए कलारूपों के बतौर भोजपुरी लोकगीतों को नया तेवर दिया। गोरख इन कलारूपों की लंबी परंपरा और जनता के भीतर इनकी जड़ों की ताकत को निचोड़कर बिल्कुल नई अन्तर्वस्तु से समृद्ध करके इन्हें जनता को वापस करते हैं। कहना न होगा कि सरलता की यह साधना कितनी कठिन रही होगी।

सावन के उल्लास को व्यक्त करने वाली पारंपरिक कजरी ‘मैना’ शीर्षक कविता में, गोरख के हाथों, सामंती क्रूरता से लहूलुहान लोक की करुणकथा का स्वाभाविक छंद बन जाती है। होली में गाया जाने वाला फगुआ जमीन-दखल का गीत बन जाता है-
केकरे नांवे जमीन पटवारी केकरे नांवे जमीन?…
जेकर धुरिए में जिनगी सिराइल
ओकर नउआ कहवां बिलाइल
जे धरती से दूर रहेला
कइसे करेला अधीन!
खून-पसीना नगरिया लूटल
लखि-लखि धीरज के बन्हवा टूटल
अब हम किसान मजूरा मिलिके
हक लेइब चोरन से छीन। (जमीन,1976)

इसी तरह ‘पैसे का गीत’ ठेठ गारी (शादी ब्याह के अवसरों पर औरतों द्वारा गायी जाने वाली गाली) की शक्ल में लिखा गया गीत है। ‘सपना’ शीर्षक गीत सोहर की तर्ज पर है जिसमें जन-संघर्ष की जीत का मनोरम सपना साकार हो उठा है-
अंखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा
त खेत भइलें आपन हो सखिया
गोसयां के लठिया मुरइआ अस तूरलीं
भगवलीं महाजन हो सखिया

निचली समझी जाने वाली जातियों और शिल्पकारों जैसे मेहनतकश तबकों में प्रचलित लोकरूपों को गोरख ने बड़े जतन से क्रांन्तिकारी चेतना से जोड़ा है। इन गीतों में ‘श्रम की लय’ और ‘श्रम की विचारधारा’ एकरूप हो गई है। ‘कोइला’ शीर्षक गीत ‘धोबियउवा’ (धोबियों का गीत) है। ‘मल्लाहों का गीत’ में खड़ी बोली भोजपुरी धुन में कहीं भी नहीं अखरती।

गजब की सावधानी है कि पारंपरिक रूपों की किसी भी रचना में जनता की चेतना का पिछड़ापन कहीं से भी प्रवेश नहीं पाता क्योंकि गोरख इस तथ्य से पूरी तरह सचेत हैं कि किसी भी वर्गविभाजित समाज में ‘शोषितों के विचार बहुधा शोषकों के ही विचार होते हैं’।

किसी समय निराला जी ने छंद से मुक्ति को कविता की मुक्ति बताया था। गोरख ने लोकछंद को वर्चस्वशाली वर्गों के विचार और संस्कार से मुक्त करके कविता की मुक्ति को जनता की व्यापक मुक्ति से एकरूप किया। उन्हीं के शब्दों में-
‘वे तार बदलो न जिनके सुर में नये जुनूं का सबब बयां हो,
रहा न हो काम का साज़ भी ये तो फिर मुकम्मल ही इब्तिदा हो’

इसीलिए वे ‘मेहनत का बारहमासा’ लिख सके। लोक शिक्षण अर्थात् जनता की चेतना का वैज्ञानिक विकास गोरख की कविता का अनिवार्य कार्यभार है।

सामंती पूंजीपति राजसत्ता का चरित्र ‘कुर्सीनामा’, ‘उनका डर’, ‘स्वर्ग से विदाई’, ‘राजा के सिर पर सींग’, ‘भूखी चिड़िया की कहानी’, ‘भेड़िया’, ‘सुनो भाई साधो’ आदि कविताओं में बखूबी समझाया गया है, जबकि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सरल जनभाश्य ‘समय का पहिया’ अथवा ‘कइसे चलेले सुरुज चनरमा’ जैसी कविताओं में उपलब्ध है।

कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीयतावाद न केवल ‘उठो मेरे देश’, ‘फिलिस्तीन’, ‘रूसी सैनिक उतर पड़े हैं’ जैसी कविताओं में बल्कि ‘जनता के पलटनि’ जैसी भोजपुरी लोकधुन में भी उतनी ही ताकत से मौजूद है-
‘हिले लागे एसिया हिलेला अफरिकवा
हिलेला अमेरिका लतिनिया
हिलेले झकझोर दुनिया,
हिलेला युरोपवा हिलेला अमरीकवा
हिले लागे चारो महदीपवा
हिलेले झकझोर दुनिया

जुझारू और अदम्य देशभक्ति तथा सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का गहरा रिश्ता ‘उठो मेरे देश’ शीर्षक लंबी कविता में अद्भुत ताकत के साथ व्यक्त हुआ है-
‘मै खुशी और सम्मान से
चिल्ला उठा- मेरे देश का सही नाम वियतनाम है
अमेरिकी जंगबाजों से लोहा लेता हुआ वियतनाम’

गोरख की कविता में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के विरुद्ध भारतीय जनता का संघर्ष और नव-जनवादी क्रांति का प्रकल्प किसी तसव्वुर की तरह नहीं बल्कि जटिल वास्तविकता के धरातल पर विस्तार पाता है।

मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा उनकी कविताओं की संरचना में बेहद सफाई के साथ अन्तर्गुंफित है, लेकिन सीधे नारे से भी उनकी कविता को कोई परहेज नहीं है –
‘मरकस अगुआ लेनिन बड़ अगुआ
माओ देखलावेलें रोसनिया
हिलेले झकझोर दुनिया,’

गोरख के समग्र काव्य का अध्ययन और मनन वक्त की जरूरत है- खासकर तब जबकि 90 के दशक में इतिहास, मार्क्सवाद, और विचारधारा के अंत की जोरदार घोषणाओं के बाद दुनियाभर में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष और मार्क्सवाद नए सिरे से जोर पकड़ रहा है। हमारे देश में भी फासीवादी तांडव के खिलाफ जनता की लामबंदी के लिए गोरख की कविता की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा महसूस होती है।

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