‘कोरस‘, हमारे महादेश की रंग-बिरंगी संस्कृति का मंच है.जनता के मेहनतकश तबकों, स्त्रियों, बच्चों और बुजुर्गों के जीवन का समूह-संगीत, उनके सुख-दुःख, संघर्ष और आशाओं का कोरस देश-दुनिया को बेहतर बनाने के काम आये, यही इसका उद्देश्य है. ‘कोरस’, हिंसक शोर-शराबे के बीच जनता के संघर्षमय जीवन-संगीत को डुबो देने के खिलाफ प्रतिरोध का मंच है. ‘कोरस’ पूंजी की सभ्यता का विकल्प रचनेवाले सच्चे जन-आंदोलन का हमराही है. सदियों से शास्त्र और शस्त्र-बल से खामोश किये गए लाखों मूक नायक-नायिकाओं की मुखरता है ‘कोरस’. हमारे देश और दुनिया में चल रही हज़ारहां सांस्कृतिक पहलकदमियों के बीच एक पहल ‘कोरस’ भी है.
1 मई को रात ठीक 9 बजे रुनझुन अपनी ढपली और समता राय जन और लोकगीतों के खजाने के साथ समकालीन जनमत के पेज से लाइव हुईं, और ठीक उसी समय दर्शकों का बड़ी संख्या में जुड़ना इस बात का प्रमाण था कि सभी इस कार्यक्रम का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. सामान्य औपचारिकताओं और परिचय के बाद विजेंद्र अनिल के गीत ‘हम तोसे पूछीला जुल्मी सिपाहिया बता द हमके ना/काहे गोलिया चलावला बता द हमके न’ से शुरुआत हुई.
वर्तमान कोरोना संकट और उससे उपजे संकटों के बीच सबसे अधिक कष्टों और संघर्षों से किसी को गुजरना पड़ रहा है तो वह है मजदूर वर्ग. जिस तरह बिना कोई समय और सुविधा दिए बंदी की घोषणा हुई, लाखों मजदूर अपने घर बार से दूर फंसे हुए हैं, और उनमें से जो अपने घर जाना चाह रहे थे, पुलिस ने उनके साथ बर्बर व्यवहार किया. कहीं उन्हें मुर्गा बनाकर चलने पर मजबूर किया गया, कहीं उन पर लाठियां बरसाई गईं तो कहीं उन पर सैनिटाइजर ही छिड़क दिया गया. ऐसे में विजेंद्र अनिल का यह गीत एक तरह से वर्तमान परिस्थितियों में संघर्ष का गीत बनकर उभरता है. कोरोना काल ने पहले से बर्बाद हो रही अर्थव्यवस्था के अंतर्विरोधों को और उजागर कर दिया और इसका सबसे ज्यादा असर मजदूरों पर पड़ने वाला है. जिस तरह लगातार मजदूरों के काम के घंटों में बढ़ोत्तरी के सुझाव आ रहे हैं, और काम का वक्त बढ़ाया जा रहा है, ऐसे में लगातार संघर्षों से मजदूरों के हासिल हक पर ही सवालिया निशान खड़ा हो जाता है. ऐसे में यह सवाल ही अपने आप में मजदूर संघर्ष का प्रतिनिधि बन जाता है कि-‘काहे गोलिया चलावला ?’
इसी सवाल को आगे बढ़ाता है नरेंद्र श्रीवास्तव का गीत ‘सारी जिनगी गुलामी में सिरान पिया/कहाँ ग बिहान पिया न.’ और जैसे जैसे गीत आगे बढ़ता है आज़ादी के बाद के विकास और परिवर्तन के स्वप्न के टूटने और बिखरने का सटीक विश्लेषण करता है-‘जब से मिली आज़ादी/ढेर बढ़ी बर्बादी.’
इसके बाद कोरस ने गोरख पाण्डेय का मल्लाहों का गीत ‘हमको कोई तो बताए ओ सजनी/नदिया क्यूँ बहती जाए ओ सजनी’ गाया. इस गीत के बारे में समता ने बताया कि-‘इसको बहुत ज्यादा नहीं गाया है. इस गाने की धुन गोरख की ही आवाज़ में मेरे मन में बसी है, ये धुन उनकी आवाज़ में मेरे कानों में गूंजती है. गोरख की आवाज़ में एक सच्चाई और मासूमियत थी.’
मजदूर दिवस के दिन गोरख पाण्डेय के ही गीत ‘नेह की पाती’ की प्रस्तुति भी बेहद प्रभावशाली और महत्वपूर्ण रही. ‘तू हवा श्रम के सुरुजवा हो, हम किरिनिया तोहार/तोहरा से भगली बन्हनवा के रतिया/हमरा से हरियर भइली धरतिया/तूँ हवऽ जग के परनवा हो, हम संसरिया तोहार’. यह मजदूरों की लड़ाई का प्रतिनिधि गीत है जो कहता है कि हमारे हँसिया और हथौड़े से जमींदार और पूंजीपति दोनों ही काँपते हैं. कहता है गीत कि संग साथ के संघर्ष से मुक्ति की राह पाई जा सकती है.
बारिश की वजह से चैत की फसल बर्बाद हो रही है, ऊपर से लॉक डाउन के कारण कटाई की अनुमति भी देर से मिली है. ऐसे में कोरस का अगला गीत और भी मौजूँ हो जाता है- ‘चैत में गेहूँ के कटनिया हे, अरे कटनिया हे, पियवा मोर पलटनिया’.
इस कार्यक्रम के आख़िरी में कोरस ने महेश्वर का गीत कौन रंगरेजवा प्रस्तुत किया. ‘कौन रंगरेजवा रंगी मोरी चुनरी/इंद्रधनुष की ले के लहरिया/नक्सलबाड़ी से आई चुनरिया/चुनरी पहन के लगूँ बड़ी सोनरी/बैर प्रीत की ताना भरनी/मोरे बलम की अनूठी करनी/चुनरी पहन के लगूँ बड़ी सोनरी/कौन रंगरेजवा…’ से इस अनूठी सांगीतिक प्रस्तुति का समापन हुआ.
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