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‘अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे’

गीतेश सिंह


फ़िल्म, टेलीविजन और थिएटर की जानी मानी अभिनेत्री और अनेक अन्तर्राष्ट्रीय फिल्मों में काम कर चुकी शबाना आज़मी का आज जन्म दिन है । अन्नू कपूर को रेडियो के लिए दिए अपने एक इंटरव्यू में शबाना बताती हैं कि वे महज़ चार माह की थीं, जब उनके वालिद, मशहूर तरक्की पसंद शायर कैफ़ी आज़मी और इप्टा की रंगकर्मी वालिदा शौक़त आज़मी उन्हें लेकर मुंबई (तब का बम्बई) आ गए ।

कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे और अपनी सारी कमाई पार्टी के नाम कर देते थे । पार्टी सभी कॉमरेड्स को चालीस रूपए खर्च करने के लिए देती थी जो अक्सर परिवार चलाने के लिए पूरा नहीं पड़ता था । ऐसे में शौकत आज़मी को काम पर जाना पड़ता था और चार माह की शबाना उनकी पीठ पर सवार रहती थीं ।

हुआ यों कि शबाना का जन्मदिन था। शौक़त कैफ़ी उन दिनों पृथ्वी थिएटर में काम करती थी। उन्होंने उस दिन छुट्टी ले रखी थी। पार्टी द्वारा दिये गए एक क़मरे के मक़ान में वे उन दिनों रहते थे। वे कैफ़ी के संघर्ष के दिन थे। शौक़त ने कैफ़ी को सख़्त हिदायत दी थी कि वे शाम को ठीक वक़्त पर पहुँच जाएँ और कैफ़ी ने भी पहुँचने का वादा किया था। किसी संगीत निर्देशक ने उस दिन कैफ़ी को कुछ एडवांस देने के लिए शाम को बुलाया था। कैफ़ी को इल्म था कि वो निर्देशक से पैसे लेकर शबाना के लिए कोई गुलाबी सी फ्रॉक ले लेंगे।

वे प्रतीक्षा करते रहे। जब शाम ढल गयी तो उन्होंने नौकर से पुछवाया तो पता चला कि निर्देशक ने न आ पाने का एक रुक्का पहुंचाया है। कैफ़ी बहुत मायूस हुए । अब देर हो गयी थी। वे घर की तरफ इस हालत में लौटना नहीं चाह रहे थे। वे शबाना की खोजती निगाहों का सामना नहीं करना चाहते थे। इधर अब्बा के न आने पर शबाना बहुत मायूस हुई । उसने रो रो कर अपना बुरा हाल कर लिया। अब्बा से कभी बात न करने का इरादा भी कर लिया। शौक़त को भी कैफ़ी की इस हरकत पर बहुत गुस्सा आया। उसने किसी तरह समझा बुझा कर शबाना को चुप कराया।

देर रात थके हारे कैफ़ी पहुंचे। शौकत ने उन्हें काफी भला बुरा कहा। कैफ़ी चुप रहे। अपने कुर्ते की जेब से उन्होंने एक कागज का टुकड़ा निकाला और शौकत को यह कहते हुए दिया कि सुबह उठते ही शबाना को ये दे देना। कागज़ को खोल कर जब शौक़त ने पढ़ा तो उनकी आँखों में आंसू आ गए।

सुबह उठते ही शबाना ने सामने की दीवार पर एक कागज का टुकड़ा लगा देखा । वह पढ़ने लगी-

“अब और क्या तिरा बीमार बाप देगा तुझे

बस इक दुआ कि ख़ुदा तुझको क़ामयाब करे,

वो टाँक दे तिरे आँचल में चाँद और तारे

तू अपने वास्ते जिसको भी इंतिख़ाब  करे “

पढ़ते ही शबाना ने अब्बा को गले लगा लिया। शबाना और कैफ़ी का रिश्ता ताउम्र ऐसा ही रहा।

भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान की छात्रा रहीं शबाना समानांतर सिनेमा की मकबूल अदाकारा हैं । अनेक भारतीय भाषाओं में लगभग सवा सौ फिल्मों में काम कर चुकी शबाना आज़मी की पहली फिल्म श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी अंकुर थी, जिसके लिए उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला । बाद में अर्थ, कन्धार, पार और गॉडमदर के लिए भी उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया गया ।

समानांतर सिनेमा के भविष्य के सवाल पर टाइम्स ऑफ इंडिया के एक लेख में शबाना कहती हैं-“मुक्त हो रहे भारत में समानांतर सिनेमा की फिल्मों के निर्माण में भी बदलाव आ रहा है । बहुत सारे लोग जो कहते हैं कि समानांतर सिनेमा पूरी तरह से मर चुका है, मैं उनसे सहमत नहीं हूँ । मुझे लगता है कि शहरी, समकालीन, अंग्रेजी बोलने वाले पुरुष और महिलाओं द्वारा एक अलग तरह के समानांतर सिनेमा का प्रयास किया जा रहा है । ये सब अपनी हकीकत बयाँ कर रहे हैं । ये फिल्में अब अंग्रेजी में भी बनाई जा रही हैं क्योंकि ये निर्देशक अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की तलाश में हैं ।”

आज के दौर में जब सच बोलने के बदले गद्दार कहलाना आम हो चला है और सवाल पूछने के एवज़  में ‘एंटी नेशनल’ कहकर खारिज कर दिया जाता है, ऐसे में शबाना हमेशा सच और हक़ की लड़ाई की ही तरफदार रही हैं.
इस मुल्क की बेहतरी के लिए यह जरूरी है कि हम अपनी खामियों की शिनाख्त करें । हर युग आलोचना और आलोचनात्मक विवेक के रास्ते ही आगे बढ़ता है। शबाना का पूरा जीवन इस आलोचनात्मक विवेक का प्रमाण रहा है। वे डरे बगैर हर तरह की वर्चस्ववादी ताकतों का विरोध करती रही हैं।

शबाना को बचपन से ही संघर्ष का हौसला अपने वालिदैन और उनकी पूरी सर्कल से विरासत में मिला । बचपन से ही वे एक सादा जीवन जीती रहीं,  इस सादगी को उन्होंने अपनी फिल्मी भूमिकाओं में भी शिद्दत के साथ निभाया । एक जगह वे कहती हैं – मेरी माँ ने सिखाया है कि हालात का सामना कैसे करें और यह भी कि ख़्वाब देखना ज़रूरी  है, तभी वे पूरे होंगे। 

जब शबाना ने ऐक्ट्रेस बनने का फैसला किया तो उनके अब्बा कैफी साहब ने कहा कि-‘कैरियर चाहे जो चुनो, चाहे वह ऐक्ट्रेस हो या मोची का…उसमें बेहतरीन करो ।’

अभिनय के अलावा भी शबाना आज़मी सामाजिक मुद्दों पर संवेदनशीलता से सक्रिय रहती हैं ।
शबाना अपने आप में एक युग हैं। उनके अभिनय से हमने अपने इर्द गिर्द की दुनिया को संवेदनशीलता से देखना सीखा है। बकौल कैफ़ी आज़मी-

“एक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्या
मुझे तो अपना हमजुबां नहीं मिलता”

कहना न होगा, शबाना आज़मी में हम सबको अपना हमज़ुबां मिलता है।

 

(लेखक गीतेश सिंह केंद्रीय विद्यालय संगठन, लखनऊ में  उप-प्राचार्य हैं. यह लेख मित्रों के साथ बातचीत, शबाना आज़मी के टेलीविजन, रेडियो और प्रिंट मीडिया के साक्षात्कारों पर आधारित है )

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