विद्वानों के मुताबिक़ अद्दहमाण [अब्दुल रहमान] का काल 12वीं सदी के कुछ पहले ही ठहरता है। यहाँ कुछ छंद उनके ग्रंथ ‘संदेस–रासक‘ से चुने गए हैं। हर छंद के नीचे उनके काव्यानुवाद की कोशिश की है। ये काव्यानुवाद आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और विश्वनाथ त्रिपाठी उत्कृष्ट सम्पादित ‘रासक‘ के अर्थों पर आधारित हैं। इसलिए अनुवाद में जो भला वह आचार्यों का, बुराई मेरी।
शास्त्रीय भाषा में कहें तो इन छंदों में हमारा यह पुरखा कवि अपनी कविता का ‘औचित्य‘ बताता है। औचित्य बताते हुए वह एक मूलभूत सवाल की ओर इशारा भी करता जाता है कि ‘कविता किसे कहते हैं?’ किम्वदंती है कि बाणभट्ट ने अपनी अधूरी कृति कादम्बरी पूरी करने के लिए अपने आख़िरी वक़्त में अपने दोनों बेटों को बुलाया और सामने खड़े एक सूखे वृक्ष का वर्णन करने को कहा। एक पुत्र ने उसे ‘नीरव तरुरिह विलसति पुरत:’ कहा और दूसरे ने ‘शुष्के काष्ठे तिष्ठति अग्रे‘ बताया। बाण ने कादम्बरी का लेखन पहले पुत्र को दिया।
तो क्या कविता सिर्फ़ उदात्त और अलंकृत, रसभरा वक्तव्य है? क्या शुष्क और कड़ा वक्तव्य कविता नहीं हो सकती? हमने देखा कि 90 के बाद हिंदी पट्टी में दलित और स्त्री कविता के उभार ने इस बात को बहुत साफ़ तरीक़े से स्थापित किया कि कविता का सौंदर्य अलग हो सकता है। कविता एक ही तरह की नहीं होती। पर यह बात साहित्य के इतिहास में लगातार कई मोड़ों पर स्थापित होती रही है कि कविता या साहित्य के मेयार बदले जाने चाहिए। प्रेमचंद ने ‘हुस्न के मेयार‘ बदलने की बात कही थी। दिलचस्प यह है कि 12वीं सदी का हमारा कवि इस बात को गहराई से अपनी कविता में रेखांकित करता है कि ‘हुस्न का मेयार‘ एक नहीं हो सकता। और यह भी ज़रूरी नहीं कि अच्छी कविता की कोई एक परिभाषा हो।
अद्दहमाण की कविता के ये अंश दूहा छंद में है। ये अंश रासक के शुरुआती खंड से हैं। इनमें पहली पंक्ति में सौंदर्य का एक मानक है और दूसरी पंक्ति में दूसरा। इस तरह 10 दोहों में अब्दुल रहमान ने सौंदर्य के दो तरह के मानकों को आमने–सामने रख दिया है। ये सौंदर्य के मानक नागर और ग्रामीण, उच्च वर्गीय और निम्न वर्गीय, दो तरह की अवस्थितियों से उभरते हैं। तालाब में सूर्य की आभा से विकसित होते कमल के फूल और छानी पर चढ़ती लौकी इसी तरह के दो बिम्ब हैं।
अहवा ण इत्थ दोसो जइ उइयं ससहरेण णिसिसमये।
ता किं ण हु जोइज्जइ भुवणे रयणीसु जोइक्खं॥
[दोष नहीं कुछ इसमें, जैसे चाँद खिला हो, फिर भी
माटी के दीपक बारे जाते हैं अपने घर में]
जइ परहुएहिं रडियं सरसं सुमणोहरमं च तरुसिहरे।
ता किं भुवणारूढ़ा मा काया करकरायंतु॥
[जो वृक्षों के शिखरों कोयल, लुब्ध स्वरों में कूजे
क्यों ना कौवे भी मुंडेर पर, कांव-कांव कर गायें ?]
तंतीवायं णिसुयं जइ किरि करपल्लवेहि अइमहुरं।
ता मद्दलकरडिरवं मा सुम्मउ रामरमणेसु॥
[पल्लव कोमल मृदुल करों से, सज्जित वीणा मधुरिल
गाँव की औरत ढ़ोल धुनों पर सोहर भी ना गाये ?]
जइ मयगलु मउ झरए कमलदलब्बहलगंधदुप्पिच्छो।
जइ अइरावइ मत्तो ता सेसगया म मच्चंतु॥
[वह गज शानदार जिसके, गंडस्थल से मद रिसता
तो क्या बाकी हाथी, भीगी बिल्ली बन रह जाएँ ?]
जइ अत्थि पारिजाओ बहुविहगंधड्ढकुसुम आमोओ।
फुल्लइ सुरिंदभुवणे ता सेसतरू म फुल्लंतु॥
[नन्दन कानन में सुगंधि का, पारिजात द्रुम, उत्सव
बाकी पेड़ निफूले होकर, काहे को रह जाएँ ?]
जइ अत्थि णई गंगा तियलोए णिच्चपयडियपहावा।
वच्चइ सायरसमुहा ता सेसतरी म वच्चंतु॥
[शिव लट सौरभ लय, समुद्र तक रमती-बहती गंगा
क्या बाकी नदियां, चुल्लू भर पानी बन रह जाएँ ?]
जइ सरवरंभि विमले सूरे उइयेसु विअसिआ नलिणी।
ता किं वाडिविलग्गा मा विअसउ तुंबिणी कहवि॥
[अगर सरोवर में सूरज को, चूम विकसती नलिनी
तो क्या छानी चढ़ती, हरियर लौकी नहीं फुलाये ?]
जइ भरहभावछंदे णच्चइ णवरंग चंगिमा तरुणी।
ता किं गामगहिल्ली ताली सद्दे ण णच्चेइ॥
[भरत छंद उत्तम तालों पर, तरुणी नृत्य मनोहर
तो क्या काकी-भौजी, ताली बजा न नाचे पाएँ ?]
जइ बहुलदुध्धसंमीलिया य उल्ललइ तंदुला खीरी।
ता कणकुक्कससहिआ रब्बडिया मा दडब्बडउ॥
[औटे दुग्ध संग तंदुल के, खीर स्वाद अलबेला
चोकर भूसी गुड़ से दड़बड़, क्या बखीर शरमाये ?]
जा सस्स कव्वसत्ती सा तेण अलज्जिरेण भणियव्वा।
जइ चउमुहेण भणियं ता सेसा मा भणिज्जन्तु॥
[जैसी कविता हो जिसमें वह वही करे कविताई
महाकवि के आछत कवि क्या छंद न एक बनावें ?]
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