अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में एक मामला आया, जिसमें भारत के उत्तर-पूर्व की एक छात्रा ने कहा; कि उसे ‘कोरोना’ कहा गया। यह मानवीय गरिमा के खिलाफ था। कोरोना वायरस का संक्रमण अब वैश्विक महामारी घोषित हो चुकी है।
कोरोना वायरस का संक्रमण सबसे पहले चीन में सामने आया और देखते-देखते पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया। उत्तर पूर्व या नॉर्थ ईस्ट की छात्रा को ‘कोरोना’ कहने के पीछे व्हाट्सएप पर फैलाए गए झूठ की भूमिका तात्कालिक थी, जिसमें यह कहा गया; कि कोरोनावायरस चीन ने लैब में विकसित किया और फैलाया। जबकि, अभी इसी हफ्ते अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के द्वारा चीन को जिम्मेदार ठहराने पर विश्व स्वास्थ्य संगठन यानि कि डब्ल्यू एच ओ ने डोनाल्ड ट्रंप को खूब खरी-खोटी सुनायी। इसका बदला लेने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ने डब्ल्यूएचओ को दिया जाने वाला फंड रोक दिया।
दूसरी तरफ दुनिया भर के चिकित्सा विज्ञानियों ने जहाँ कोरोना वायरस को प्राकृतिक बताया, वही समाज विज्ञानियों और बौद्धिकों ने इस वायरस के मानव शरीर में प्रवेश के पीछे पूँजीवादी लोभ-लालच की संस्कृति और अमीरों की असीमित लालसाओं को जिम्मेदार ठहराया है।
खैर नार्थ ईस्ट की छात्रा को कोरोना बोलने के पीछे उसके चीनियों जैसा दिखने का ही मामला था या उसके पीछे भारतीय राष्ट्र के भीतर की लंबे समय से चली आती सांस्कृतिक दिक्कत भी थी। सांस्कृतिक रूप से भारतीय राष्ट्र ने लगातार व्यवहार में खुद को बतौर हिंदी भाषी राष्ट्र ही पेश किया। इसके बाहर या इससे अलग विशेषताएं रखने वाली राष्ट्रीयता हिंदी भाषी समाज और शासक वर्गों के लिए अछूत, सेकेंडरी या ‘अन्य’ जैसी रही।
हिंदीभाषी समाज के वर्णवादी विभेदकारी, नफरती व्यवहार को पिछले छ साल से सत्ता में रह रही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार ने टाॅक्सिक लेवल से भी ऊपर पहुंचा दिया है, घातक जहर से भर दिया है। हिन्दी भाषी समाज अपनी समस्त सांस्कृतिक अपशिष्टताओं को ही राष्ट्र के रूप में आरोपित करता है। सत्ता से शह पायी इसी अपशिष्टता के बीच से नार्थ ईस्ट, कश्मीर, बंगाल और दक्षिण भारत के समाज के प्रति इसका व्यवहार तय होता है। लेकिन इन्हीं सब प्रतिकूलताओं के बीच इसी हिन्दी समाज के लेखकों ने भाव और संवेदना के स्तर पर इन समाजों से एकता, जुड़ाव प्रदर्शित किया है।
राष्ट्रीय एकीकरण की सच्ची भावना और भविष्य इसी में निहित है। साहित्य मनुष्य को संवेदनशील तो बनाता ही है लेकिन इससे भी आगे संवेदनशील, सचेत नागरिक निर्माण की प्रक्रिया में प्रबोधन का काम भी साहित्य करता है। अरविन्द गुप्त का कहानी-संग्रह, ‘मोनालिसा का सपना’ ऐसे में ही याद आया। इसकी अधिकांश कहानियाँ नार्थ ईस्ट के सामाजिक जीवन पर आधारित है।
सर्द हवाओं के बीच
इस संग्रह की पहली कहानी है, सर्द हवाओं के बीच’। इसकी थीम है, सूदखोरी, गरीबी और असंतोष। लेकिन, इसके लिए कथानक बुनते समय कहानीकार ने जीवन की हर वाह्य गतिविधि को इस तरह पेश किया है, कि कहानी के भीतर का भूगोल, सामाजिक जीवन और उत्तर-पूर्व के दैनंदिन जीवन में सैनिकों की अनचाही उपस्थिति भी सहज ढंग से व्यक्त हो गई है। अपनी बात और शिल्प में यह कहानी रूसी शाॅर्ट स्टोरीज़ की तरह गहन और प्रभावी है। कहानी के पहले दो पैराग्राफ में भौगोलिक स्थिति या वातावरण और सामाजिक गतिविधि यूं व्यक्त होती है-
“सुबह आसमान साफ होता है। कंचनजंघा पर धवल बर्फ चमकती है। पहाड़ों के पीछे से लाल चक्का निकलता है और बर्फ सुनहरी हो जाती है। धूप फिर चीड़ और सागौन और देवदार के पेड़ों पर आती है और धीरे-धीरे सीढ़ियां उतरती जाती है। कुहरा तब गहरी घाटियों में रुई की तरह बिछा होता है। सीढ़ियों के बीच चौड़ी जगहों पर काफी लोग धूप खाने निकल आते हैं। बूढ़े नीचे बैठ जाते हैं। बच्चे चाट बिछाकर पढ़ते होते हैं और युवक रेलिंग पकड़कर हिलते-डुलते खड़े रहते हैं। औरतें अलग गप-शप करती रहती हैं और माथे में पड़ी जुएं बिनती रहती हैं।धीरे-धीरे धूप कड़ी होने लगती है या कुहरे के झोंके के साथ बादल छा जाते हैं। तब लोग बाग अपने-अपने घरों में घुसने लगते हैं। पीठ पर टोटकों में सब्जी और फल लिए आगे की ओर एकदम झुके हुए, पसीने पोंछकर छिड़कते हुए लोग लगातार सीढ़ियां चढ़ते जाते हैं और कुछ सीढ़ियां चढ़कर लंबी सांसें छोड़ते हैं।”
“इस कमरे की खिड़की से सीढ़ियों की पूरी गहराई और ऊंचाई, चक्करदार घुमाव कुछ नजर नहीं आते। सिर्फ सीढ़ियों का एक छोटा सा हिस्सा, बीच की वह चौड़ी जगह और नीचे की तरफ दबा हुआ, बाहर की ओर झुका हुआ रेलिंग ही दिखाई पड़ता है।… काफी दूर तक लकड़ी के घर, जंगल, घाटियाँ और पर्वत नजर आते हैं। कंचनजंघा के उतार-चढ़ाव और चमकीली बर्फ की परत नजर आती है। पीठ पर लकड़ियां लादे हुए लोग सीढ़ियां टेकते हुए चढ़ते हैं। पीठ पर दूध लादे हुए लोग ऊपर चढ़ते जाते हैं और कहीं कहीं रुककर नपना उड़ेलते जाते हैं।”
तीसरे पैराग्राफ में कहानी अपने मूल अंतर्वस्तु पर आती है। इसी में कहानी के अंत के कुछ संकेत और वह मुख्य चरित्र आता है जो यहां के सामाजिक जीवन के बीचो-बीच जोंक की तरह है-
“वह नाटे कद वाला लड़का उस कोने पर मोदी की दुकान के सामने रुकता है, सांस लेता है और कहता है, ‘एक गिलास पानी पिलाओ न…’ मोदी बैठा रहता है, घूरता रहता है। लड़का चला जाता है। छोटे टोको में जब हल्के सामान लेकर बुढ़िया ऊपर आती है, मोदी उठता है, निहारता है और पूछता है- ‘इसमें क्या है?’… वह सब टको रख कर बैठ जाती है। और उनमें रखे हुए आरू, अरूचा, स्कोस, स्कोस की जड़ या कपड़े की पोटली में रखी हुई चायपत्ती निकाल कर दिखाती है। वह सब का भाव एक साथ करता है। हर बार थोड़ा अधिक तौलता है और जो बचता है यूंही रख लेता है। ‘पैसे बाद में ले जाना’।
सामाजिक जीवन में लगातार आवाजाही करते सत्ता के घुसपैठिए, अनचाहे सैनिक वहाँ के जीवन में जितनी देर के लिए आते हैं, कहानी में भी वह उतनी ही देर का प्रसंग बनता है। पहली बार में यह प्रसंग बेवजह लगता है। लेकिन यही बात इस प्रसंग की वजह भी है। क्योंकि, वहाँ के जीवन में भी सैनिकों की उपस्थिति बेवजह है। घटनाओं और प्रसंगों का ऐसा सचेत, सार्थक संयोजन कहानी को अर्थ संकेतों से भर देता है। अकथ कहानी कह देता है।
“तभी तड़तड़ाते हुए बूटों में, रायफलें लिए हुए वर्दीधारी जवान सीढ़ियां उतरते जाते हैं। तब सिर्फ बूटों की आवाज ही सुनाई पड़ती है देर तक। ये लोग इधर-उधर देखते जाते हैं और खड़ी हुई लड़कियों को मुड़ मुड़कर घूरते जाते हैं।… नीमा खैनी मलते हुए रेलिंग पर बैठा होता है। कांइला थामी खाँसते हुए निकलता है। छिरिंग भी आ जाता है- फिर ‘आ… आ… धप्प’ … देर तक एनीमोर चलता है।
थोड़ी देर में सब कुछ सुनसान होने लगता है। नीचे लेबंग के पास के जंगलों में ठांय-ठांय फायरिंग शुरू हो जाती है और पूरा जंगल काँप उठता है।”
आगे का पैराग्राफ वहां के जीवन में एक पराए संस्कृतिक विचार से संवलित वर्ग की उपस्थिति को प्रकट करता है। इसकी उपस्थिति भी सैनिकों की ही तरह है और उस प्रसंग से ठीक लगा हुआ भी-
“आंखों पर ऐनक चढ़ाए तभी नीचे माईथान के पंडित जी आ जाते हैं और यजमान मोदी को आशीर्वाद दे जाते हैं। मोदी बदले में कुछ पैसे उनके हाथों में रख देता है और ऐसा करते हुए वह दोनों हाथ जोड़ लेता है। तुरंत ही मोदी की झिड़कियाँ सुनाई देती हैं। वह माइला नेवार या डेविड या तोक्पे को बकाए के लिए गाली गलौज कर रहा होता है। वे लोग सुन कर रह जाते हैं या कभी-कभी गरमा-गरमी भी हो जाती है।”
इस प्रसंग में उत्तर भारतीय हिंदी समाज के वर्ण विभाजित सांस्कृतिक विशेषताओं के रूप दिखते हैं जो नार्थ ईस्ट के जीवन के लिए उतने परिचित नहीं है लेकिन फिर भी वहां है यह सैनिकों के प्रसंग के ठीक बाद आता है जो यह प्रकट करता है कि भारतीय शासक वर्ग अपनी पूरी सांस्कृतिक पहचान के साथ वहां मौजूद है।
अरविंद गुप्त की नजर सामाजिक जीवन की हर गतिविधि पर जाती है। इससे वे सामाजिक जीवन के डिटेल्स तो कहानी में लाते ही हैं साथ ही इन डिटेल्स के द्वारा वे समाज की प्रकृति और चरित्र को उभारते चलते हैं। समाज के भीतर के सहज और असहज तत्व सामने आते जाते हैं.
उसमें वह व्यक्ति के भीतर के राग द्वेष से लेकर उसके जातीय चरित्र तथा समाज में मौजूद विषमता और असंतोष को सहज ढंग से रचते हुए कथा को आगे बढ़ाते हैं और रोजमर्रा की घटनाओं में से ही एक घटना को हल्का सा टिल्ट देकर कहानी के मुख्य विचार को चमका देते हैं। हिंदी में अब ऐसे बहुत कम कहानीकार हैं जो छोटी सी कहानी में सामाजिक सांस्कृतिक यथार्थ का बड़ा वितान रचते हैं। एक अन्य और बड़ी विशेषता उनकी यह भी है कि वे मानवीय गरिमा का पूरा ख्याल रखते हैं।
किसी भी चरित्र का मजाक नहीं बनाते हैं। सर्द हवाओं के बीच, कहानी में कांइयां और भ्रष्ट मोदी को लेकर कहानीकार कहीं भी पक्षकार नहीं बना है। घटनाएं और प्रसंग स्वयं ही पात्रों के चारित्रिक गुणों को सामने कर देते हैं।
“मैंने कई बार देखा है वह पीली साड़ी वाली औरत मोदी की दुकान में जाती है। देर तक बैठती है और जब बाहर आती है उसका चेहरा काफी उतरा हुआ होता है। एक बार देखा वह काले कोट वाला आदमी वहां एक ट्रांजिस्टर लेकर गया और जब वह बाहर निकला उसके हाथ खाली थे। एक बार आंखों पर काला चश्मा चढ़ाए एक आदमी आया और जब दुकान से बाहर हुआ उसकी आंखें नंगी थी। तब मैं खूब उलझा खिड़की से नीचे उतर आया और उस आदमी को गौर से देखने लगा। उसने मेरी और नहीं देखा। अक्सर देखता हूं प्रोजेक्ट ऑफिस के बड़े साहब मोदी की दुकान पर आकर बैठते हैं, झुक कर बातें करते हैं, बार-बार हाथ जोड़ते हैं; उसका पैर तक छूते हैं। लेकिन मैली टोपी और गंधाते कोट में गुलथुल बैठा मोदी एकटक दूसरी ओर देख रहा होता है। कंधे पर चादर का बोझ शायद उतना नहीं होता जितना झुके हुए वे दुकान से बाहर होते हैं। लोग कहते हैं इन बंगाली बाबू का अपना कोई नहीं। बस भाई के बच्चों के लिए मोदी से सूद पर उधार पर उधार लिए जाते हैं।”
उसके बाद कहानी कुछ और छोटे-छोटे प्रसंगों को बुनती है जो इस कहानी को अधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय बनाते हैं। इसमें प्रस्तुत सामाजिक जीवन ज्यादा जीवित और चलता हुआ दिखता है। कहानी में जो गरीब तबका है, अपने जीवन और मान-सम्मान, गरिमा को लेकर गहरे तनाव, अवसाद, विषाद और असंतोष में है। कहानी में इसका संकेत पहले है। लेकिन कहानी के अंत में अचानक से वह प्रकट होता है। भीतर-भीतर पलने वाली वर्ग-घृणा और गुस्सा अचानक से मोदी के सीने पर पत्थर की तरह पड़ता है और वह गिर पड़ता है। एक समर्थ और सचेत विचार संपन्न कहानीकार ही ऐसा सामाजिक यथार्थ रच पाता है। वह यथार्थ जो प्रकट से ज्यादा अप्रकट है।
कहानीकार को भी इसके बारे में पहले से पता हो, ऐसा जरूरी नहीं। लेकिन, उसके पास वह संवेदना और विचार होना चाहिए कि अचानक से घटित इस अप्रकट के सामाजिक संदर्भ को जान-समझ सके या इस अचानक का संदर्भ उसकी ज्ञान मीमांसा में हो! ‘सर्द हवाओं के बीच’ इन सभी बातों के साथ हिंदी की एक बेहतरीन कहानी है। कहानी का अंतिम प्रसंग कुछ इस तरह है-
“ऐसे ही एक सर्द हवाओं वाली रात थी जब मैं चौरस्ते से लौटकर कपड़े बदल चुका था और बिस्तर पर जाने वाला था कि एक चिग्घाड़ सुनाई पड़ा और मैं खिड़की पर आ गया।
‘दोरजा खोल मोदी… दोरजा खोल।’ कोई आदमी चीख रहा था। अंधेरे के कारण पहचान में नहीं आ रहा था। वह लगातार चीखे जा रहा था- ‘दोरजा खोल स्साला…’
भीतर से बत्ती जली और दरवाजा खोलकर मोदी बाहर आया। और डांटना शुरू किया- रात-रात को परेशान करता है स्साला पी-पी कर… उधार खाकर बैठा है… आज तो तुझको बताता हूँ…’ और मोदी ने उस पर डंडा चला दिया। वह आदमी चोट खाकर सँभला और देर तक मोदी को घूरता रहा। फिर किनारे हट आया और एक बड़ा पत्थर उठा लिया- ‘अब बोलो…?’
मोदी घबराकर झटपट दरवाजा बंद करने ही जा रहा था कि पत्थर उसकी छाती पर जा लगा और वह गिरकर छटपटाने लगा।”
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लेखक दुर्गा सिंह आलोचक और संस्कृतिकर्मी हैं. संपर्क: 09451870000