समकालीन जनमत
फोटो-राजेश कुमार
जनमत

जीवन-संघर्ष का करुण कोलाहल

अम्बरीन आफ़ताब

वैश्विक महामारी के मौजूदा दौर में देश की अधिसंख्य आबादी अप्रत्याशित रूप से अपने घरों में कैद होने के लिए विवश है। आजीविका के साधनों के साथ-साथ आवागमन के विभिन्न स्रोत भी ठप पड़े हुए हैं। जहाँ दैनंदिन जीवन की गतिविधियाँ रुक सी गई हैं, वहीं  नगरों-महानगरों का व्यस्ततम जीवन भी  एक झटके में थम गया है। देश का साधन संपन्न वर्ग अपनी समस्त सुविधाओं के साथ घरों के भीतर बंद होकर समय व्यतीत करने के विविध उपक्रम तलाश करने में लीन है,  वहीं देश की एक बड़ी आबादी के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका है। उस पर विडंबना यह है कि हज़ारों-हज़ार लोग साधन-विहीन होकर सड़कों पर दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हैं।

एक ओर मृत्यु का भय है और उस भय के कारण सन्नाटा,  शांति और सामुदायिक अलगाव है, दूसरी ओर जीवन को बचाए रखने का संघर्ष है, भूख-प्यास से बिलखते बच्चों का रुदन है, थकान से बेहाल स्त्रियों की पीड़ा है और अपने परिजनों के लिए स्थितियों को बेहतर न बना पाने की व्यथा पुरुषों की बेबसी, लाचारी दर्शाने के लिए पर्याप्त है।

उच्च वर्ग के लिए ये समय जहाँ परिवार के संग ‘क्वालिटी टाइम’ बिताने और कामकाज से फुरसत का अवसर है, वहीं निम्न वर्ग के इस बड़े तबके के लिए अपने घरों तक किसी तरह, किसी भी अवस्था में- जीवित या मृत पहुँच पाने की जद्दोजहद है। एक ओर मृत्यु-जनित भय का दमघोंटू सन्नाटा है, तो दूसरी ओर जीवन-संघर्ष का करुण कोलाहल। मुर्दा शांति और जिजीविषा से भरे कोलाहल के बीच का यह द्वंद्व आज समूचे देश को अंतर्मथित कर रहा है जिसके केंद्र में है अपने जड़ों से पुनः जुड़ने के अथक प्रयास करता देश का श्रमिक वर्ग।

 तपती धूप और चिलचिलाती गर्मी में कई मीलों का लंबा सफर दिन-रात पैदल तय कर चुका ये वर्ग नहीं जानता कि उसकी यात्रा अभी और कितने दिन,कितनी रातों तक अनवरत चलती रहेगी परंतु उसका संकल्प दृढ़ है, इरादे अटल हैं।  ये देश का श्रमिक वर्ग है जो आज अपने साथ हो रहे इस अमानुषिक व्यवहार से सन्नाटे में है, हतप्रभ है। उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं।

मज़दूरों की कारुणिक स्थितियों को देखकर यह समझना कठिन नहीं है कि सरकारी नीतियों को जब किसी व्यवहारिक कार्य-योजना के अभाव में आकस्मिक ढ़ंग से लागू किया जाता है तो उसके परिणाम कितने घातक हो सकते हैं और एक बड़ा वर्ग किस प्रकार उन नीतियों की भयावहता का सहज ही शिकार बनता चला जाता है। महामारी से  निबटने के लिए एकजुटता का प्रदर्शन केवल प्रदर्शन बनकर रह जाता है और इस वर्ग के खाते में भूख-प्यास, अभावों के अतिरिक्त और कुछ नहीं आता।

ऐसे में, पीड़ित,-व्यथित,  आश्रयहीन और साधनविहीन होकर वह अपनी जड़ों की ओर पुनः लौटने के प्रयत्न करने लगता है। हालाँकि यह सुनने में यह जितना सहज और स्वाभाविक प्रतीत हो  रहा है, व्यवहारिक धरातल पर उतना ही कष्टदायक और दुष्कर है। मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को छोड़ दें तो भी ये वर्ग महज शासन की क्रूर नीतियों का ही शिकार नहीं है, अपितु इनके मार्ग में आने वाले हर राज्य, हर ज़िले की पुलिस व्यवस्था भी इनके प्रति उतनी ही निष्ठुर  सिद्ध हो रही है। दुधमुंहे बच्चे,  गर्भवती स्त्रियाँ, बीमार वृद्ध, विकलांग जन और न जाने कितने लोग – अभावों के साथ-साथ अपनी-अपनी विवशताओं, मजबूरियों की गठरी संभाले अपने गंतव्य की ओर बढ़ते चले जाते हैं। कहीं क्षण भर के लिए ठहरते हैं तो अपनी व्यथा की करुण कथाओं को विभिन्न स्वयंसेवी समूहों अथवा पत्रकारों से साझा कर लेते हैं जिनमें पीड़ा ऐसी कि किसी का भी हृदय चीर दे और दर्द इतना कि पत्थर भी कराह उठे।

ये अलग बात है कि मानवीयता से कोसों दूर और सुनने-समझने में नितांत असमर्थ हमारी शासन व्यवस्था तक इनके दुखों के निम्नतम स्वर भी नहीं पहुंच पा रहे हैं। प्रायः सत्ता ये भूल जाती है कि आज अपने जीवन के साथ-साथ अस्तित्व को बचाने के संकट से जूझ रहा ये वर्ग अगर आजीविका की तलाश में अपने गाँव-घर से दूर शहरों की ओर पलायन करता है तब भी दोष उस व्यवस्था का ही है जो उसे अपनी धरती, अपनी ज़मीन पर दो जून की रोटी उपलब्ध कराने में असमर्थ है । सत्ता पर कुंडली मारे बैठे राजनेताओं की अकर्मण्यता, भ्रष्ट नौकरशाही और दोषपूर्ण व्यवस्था के कारण पलायन, मानो इन श्रमिकों की नियति बन गई है।

ऐसे में, अगर उनके कदम वापस अपने घरों की ओर मुड़ रहे हैं तब भी उन्हें कोई राहत मिलती नज़र नहीं आ रही है। इसके विपरीत यह उनके लिए किसी त्रासदी से कम साबित नहीं हो रही है जहाँ चहुँओर अंधकार ही अंधकार है और प्रत्येक क्षण अनिश्चितताओं के साथ-साथ दुश्चिंताओं से घिरा हुआ है। इतने पर भी, ये श्रमिक सत्ता से किसी सहायता की आशा नहीं कर रहे । इन्हें शासन से कोई उम्मीद नहीं । अपने श्रम, लगन और पुरुषार्थ पर भरोसा करते हुए भले ही ये अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ते चले जा रहे हैं परन्तु अपनी शक्ति और सामर्थ्य  से कहीं अधिक की दूरी नाप चुके इन श्रमिकों की स्थिति आने वाले दिनों में और कितनी चिंताजनक हो सकती है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

कहना न होगा कि स्थितियां नियंत्रित होने की अपेक्षा दिन-प्रतिदिन भयावह होती चली जा रही हैं। यद्यपि कई स्वयंसेवी संगठनों एवं  ज़िम्मेदार नागरिकों के व्यक्तिगत प्रयासों से व्यापक स्तर पर राहत कार्य किए जा रहे हैं तथापि देश के मौजूदा हालात को देखते हुए ये अपर्याप्त सिद्ध हो रहे हैं।

ग़ौरतलब है कि देशव्यापी तालाबंदी के चार चरणों की घोषणा कर दिए जाने के पश्चात भी अगर सरकार इनके हित में कोई सार्थक कार्य-योजना नहीं बना पाई है तो इसे शासन-व्यवस्था की घोर असफलता के अतिरिक्त और क्या कहा जाए। असमय काल-कवलित होते, जगह -जगह दुर्घटनाओं के शिकार होते , गाड़ियों-पहियों के नीचे दबते-कुचलते मज़दूरों की दशा और अधिक दारुण होती जा रही है। ऐसे में, मज़दूर कवि साबिर हका की एक कविता की पंक्तियाँ याद आ रही हैं जिनमें वह मज़दूरों की तुलना गिरते हुए शहतूतों से करते हैं। अंतर्मन को गहराई  तक झकझोर कर रख देने वाले दृश्य और हृदय विदारक स्थितियों को देखकर भी अगर सरकार की मज़दूरों के प्रति संवेदना नहीं जाग रही या सत्ता के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रहा तो इससे अमानवीय कुछ हो ही नहीं सकता है ।

 ध्यानपूर्वक विचार करें तो  वैश्विक महामारी की संक्रमणशील परिस्थितियों ने श्रमिक वर्ग की चिंताजनक स्थिति और अभावग्रस्त जीवन को उजागर किया ही है, उससे कहीं अधिक पूंजीवादी समाज के निरंकुश और असंवेदनशील चेहरे को अनावृत्त करके रख दिया है । मज़दूरों के हाड़-तोड़ श्रम के बल पर चमचमाते महानगरों की चकाचौंध एकदम से फीकी दिखाई पड़ने लगी है। कृत्रिम संवेदनाओं के पीछे छिपी निष्ठुरता इस समय मानो उभरकर सतह पर आ गई है।

श्रमिकों की बदहाल अवस्था और उनकी दुर्दशा के बहाने पूंजीवादी व्यवस्था का वह वीभत्स रूप हमारे सामने है जहाँ निम्न वर्ग के जीवन का कोई मोल नहीं,  उसके दुःख-पीड़ा से कोई सरोकार नहीं । ऐसे में, इस क्रूर समय को और अधिक भयावह होने से बचाने के लिए यह जरूरी है कि अपने घरों की ओर लौटते श्रमिकों की शासन स्तर पर यथासंभव सहायता की जाए। सत्ता-तंत्र और प्रशासन द्वारा मिलकर इस दिशा में समुचित प्रबंध किए जाएं जिससे कि वे न केवल सुरक्षित अपने-अपने घरों तक पहुँच सके बल्कि मनुष्यता और संवेदनशीलता जैसे जीवन-मूल्यों की बची-खुची लाज भी बनी रहे। हालाँकि वर्तमान संदर्भों में  बात करें तो सत्ता से ऐसी किसी भी प्रकार की सुविधा-सहायता की आशा करना नितांत अव्यावहारिक प्रतीत हो रहा है।

( अम्बरीन आफ़ताब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शोधार्थी हैं )

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