समकालीन जनमत
पुस्तक

‘दबी-दूब का रूपक’ कालजयी ही नहीं, कालजीवी भी है

दबी-दूब का रूपक पुस्तक पर चर्चा
कृष्ण कुमार


दरभंगा, साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था अभिव्यक्ति के तत्त्वावधान में रामबाग में आयोजित एक सारस्वत समारोह में कमलानंद झा की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘दबी दूब का रूपक’ पर विशेष रूप से आमंत्रित वक्ताओं ने अपने समीक्षात्मक विचार व्यक्त किए। मुख्य वक्ता के रूप में डॉ० सतीश कुमार सिंह ने कहा कि ‘नागार्जुन : दबी-दूब का रूपक’ ऐसी पहली आलोचनात्मक कृति है, जिसमें नागार्जुन के रचना कर्म के बहुआयामी पक्षों को समेट कर उनकी सर्जना के सौंदर्य को उद्घाटित किया गया है। आलोचक ने नागार्जुन की हिंदी और मैथिली की कविताओं और उपन्यासों के अलावा उनके निबंध, साक्षात्कार, संस्मरण, आलोचना, चिंतन आदि को समाहित करते हुए स्थापना प्रस्तुत की है कि इस विस्तृत लेखन के मूल में ‘लोक’ के प्रति नागार्जुन की चिंता है। डॉ० सिंह ने संबोधन के क्रम को जारी रखते हुए कहा कि नागार्जुन के आईने से नागार्जुन की पहचान करके नागार्जुन को परखने का एक नया नजरिया इस पुस्तक की मौलिक विशेषता है। उन्होंने कहा कि नामवर सिंह के शब्दों में कहा जाए तो रचना कालजयी ही नहीं, बल्कि कालजीवी भी है।
वहीं उर्दू के जाने-माने शायर व आलोचक प्रो० मुश्ताक अहमद ने पुस्तक को नागार्जुन का हिंदी के एक ‘वर्सेटाइल जीनियस’ रचनाकार के रूप में जाँचने-परखने का एक नजरिया देनेवाली बताया।
प्रो० अहमद समारोह में बतौर मुख्य अतिथि मौजूद थे।
वहाँ उपस्थित श्रोताओं को इस जानकारी से भी वाकिफ कराया गया कि डॉ० अहमद अलहदा उर्दू के ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने नागार्जुन की पुस्तक का उर्दू में अनुवाद भी किया है।


इससे पहले प्रो० कमलानंद झा ने अपने वक्तव्य में बताया कि यह पुस्तक किताब से किताब नहीं बनाई गई है, बल्कि नागार्जुन की चिंताएँ, उनके सरोकार आदि मुद्दे, जो आलोचकों की नजर से ओझल रह गए हैं, इस पुस्तक में उनको तलाशने का भरसक प्रयास किया गया है।
अन्य वक्ता के रूप में एम आर एम कॉलेज की हिंदी की प्राध्यापिका डॉ० नीलम सेन ने कहा कि नागार्जुन पर आधारित पुस्तक ‘दबी-दूब का रूपक’ के लेखक कमलानंद झा चूँकि मिथिला के ही रहनेवाले हैं, इसलिए यहाँ की सभ्यता-संस्कृति आदि से वे भलीभाँति वाकिफ हैं, ऐसे में समीक्ष्य पुस्तक में ऐसी अच्छाइयाँ पाठकों को स्वतः ही मिलेंगी कि आप उनके बारे में जानकर चौंक जाएँगे। उनके अनुसार पुस्तक में व्याप्त क्षेत्रीय रूढ़ियों और परंपराओं की खूबियों एवं खामियों को बड़ी ही बेबाकी से रखा गया है, जो पुस्तक की खास विशेषता है।
समारोह की अध्यक्षता कर रहे हिंदी के ख्यात विद्वान प्रो० प्रभाकर पाठक ने पुस्तक की विशेषताओं को दर्शाते हुए उसे शैली की दृष्टि से सम्पन्न तथा विषय विशेष पर ‘फोकस’ करने वाला बताया। उनके अनुसार भाव-संयोजन की दृष्टि से भी पुस्तक पुनर्पाठ की अपेक्षा रखती है।
इस अवसर पर प्रो० अजीत कुमार वर्मा, प्रो.चंद्रभानु प्रसाद सिंह, मैथिली के मूर्धन्य साहित्यकार प्रो. भीमनाथ झा, डॉ. मंजू राय, प्रो. विश्वनाथ झा, प्रो. एम एस वर्मा, डॉ. सुरेश पासवान, डॉ. आर एन चौरसिया, श्यामानंद झा, प्रो. मुनीश्वर यादव, डॉ. रूपेंद्र कुमार झा, डॉ. संजीत कुमार झा, प्रो. श्याम भास्कर, डॉ. चंद्र मोहन पांडेय आदि उपस्थित थे
साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था अभिव्यक्ति के अध्यक्ष डॉ. कृष्णकुमार ने आगत गणमान्य व्यक्तियों के प्रति आभार प्रकट किया, वहीं प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ. नित्यानंद गोकुल ने मंच संचालन किया।

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion