समकालीन जनमत
देसवा

‘ उसकी हर निशानी हटा दी है फिर भी आँखों से उसका चेहरा नहीं जा रहा ’

( पत्रकार मनोज कुमार के साप्ताहिक कॉलम ‘देसवा ‘ की चौथी क़िस्त )

बीआरडी मेडिकल कालेज में 10 अगस्त 2017 को हुए आक्सीजन हादसे के ठीक दस दिन बाद की बात है। आक्सीजन हादसे के बाद रोज मेडिकल कालेज जाना होता था। मैं 22 अगस्त को दोपहर 2.30 बजे जब बीआरडी मेडिकल कालेज के 100 बेड वाले इंसेफेलाइटिस वार्ड के पास पहुंचा तो देखा कि एक पेड़ के नीचे एक महिला दहाड़े मार कर रो रही है। महिला के साथ बैठा पुरूष भी रो रहा है। महिला रोते हुए बोल रही थी -अरे मोर बचवा ……अरे मोर बचवा।

अपने बच्चों का इलाज कराने आयी कुछ महिलाएं उसे दिलासा दे रही थीं। पास खड़ी महिलाओं में से एक ने पूछा कितने वर्ष का बच्चा था ? दूसरी महिला ने जवाब दिया-आठ वर्ष। एक महिला बोल पड़ी-अरे बाप रे ! बड़ा जुल्म कइल हो भगवान।

मुझे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी। यह समझना मुश्किल नहीं था कि इंसेफेलाइटिस वार्ड के बाहर किसी महिला या पुरूष के विलाप का क्या कारण हो सकता है।

महिला का विलाप कलेजे को दहला रहा था। तभी एक नौजवान वहां भागते हुए आया और बोला कि रोना बंद करो। बच्चे की सांस चल रही है। यह सुनते ही पति-पत्नी भागते हुए इंसेफेलाइटिस वार्ड के उस केबिन में पहुंचे जहां उनका बच्चा भर्ती था। केबिन के अंदर कई बच्चे वेंटीलेंटर पर थे। केबिन के बाहर शीशे से सब कुछ दिखायी दे रहा था। डाॅक्टर बच्चों के इलाज में जुटे हुए थे।

शीशे के केबिन के बाहर से बेड नम्बर 15 पर लेटे अपने लाडले को निहारते हुए महिला की आंखों से आंसू बहना बंद हो गया। अब उसकी आंखों में उम्मीद की किरण दिखने लगी। कुछ देर तक केबिन के बाहर से अपने बच्चे को देखने के बाद पति-पत्नी वहां से बाहर चले गए। केबिन के बाहर वह युवक रूका रहा जिसने बोला था कि बच्चे की सांस चल रही है। मैं भी वहीं रूक गया। मैं बच्चे की बीमारी और उनके घर वालों के बारे में जानना चाहता था।

बच्चे के माता-पिता जैसे ही केबिन से बाहर गए उन्हें बुलाकर लाने वाल युवक फफक पड़ा । उसे रोता देख हैरत हुई कि अब क्या हुआ ? मैंने धीरे सेे पूछा कि आप क्यों रो रहे हैं ? युवक ने कहा कि ‘अभी जो युवक व युवती यहां से गए हैं, वे मेरे भैया-भाभी हैं। मैने भाई और भाभी को झूठा दिलासा दिया कि उनका बेटा नैतिक जिंदा है। डाॅक्टर ने मुझे बोला है कि नैतिक को बचा पाना कठिन है। उसकी आखिरी सांसें चल रही हैं। मैंने भैया-भाभी को इसलिए नहीं बताया कि वह यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। नैतिक उनका इकलौता बेटा है। मैं जान रहा हूं कि नैतिक हम सभी लोगों को छोड़ कर जा रहा है।’

मेरे लिए अब वहां रूकना मुश्किल हो रहा था। बीआरडी मेडिकल कालेज के इंसेफेलाइटिस वार्ड में ऐसे हादसे रोज पेश आते थे। बच्चों के शव को वार्ड से बाहर जाते और उनके विलाप करते परिजनों को देखना बड़े-बड़े पत्थर दिल वालों को रूला देता था। मैं वहां से वापस लौट आया।

अगले दिन 23 अगस्त को पूर्वान्ह 11.30 बजे फिर मैं जब मेडिकल कालेज के इंसेफेलाइटिस वार्ड में पहुंचा तो उस केबिन के बेड पर नैतिक नहीं था। उसकी जगह दूसरा बच्चा वहां लेटा हुआ था। यह समझने में देर नहीं लगी कि नैतिक अब इस दुनिया में नहीं रहा।

मैं बीआरडी मेडिकल कालेज और वहां बच्चों की मौत पर एक स्टोरी कर रहा था। स्टोरी में अपने सामने हुए इस हादसे का भी मैंने जिक्र किया।

कुछ दिन बाद मुझसे कहा गया कि स्टोरी में नैतिक के बारे में डिटेल नहीं है। उसके माता-पिता का क्या नाम है, वे कहां के रहने वाले हैं, क्या करते हैं ? नैतिक को कौन सी बीमारी थी ? क्या वाकई उसकी मौत हुई ? यह भी हो सकता है कि उसकी जान बच गयी हो और वह डिस्चार्ज हो गया हो ? आप कैसे दावे के साथ कह सकते हैं कि नैतिक की मृत्यु हो चुकी है ?

ये तमाम सवाल थे जिनके जवाब मेरे पास नहीं थे। स्टोरी में मैंने यही लिखा था कि अगले दिन जब मैं इंसेफेलाइटिस वार्ड में पहुंचा तो बेड पर नैतिक नहीं था। उसके माता-पिता भी नहीं दिखे।

वार्ड के बाहर नैतिक के चाचा से मैं सिर्फ यही जान सका था कि वे बिहार के गोपालगंज जिले के कुचायकोट के रहने वाले हैं। गांव का नाम खुटवनिया है।

मैंने मेडिकल कालेज के अपने एक सूत्र से यह पता करने को कहा कि 22 अगस्त की तारीख में नैतिक नाम का बच्चा भर्ती था, उसका क्या हुआ। उसे कौन सी बीमारी थी? उसके माता-पिता कहां के रहने वाले हैं ?

तीन-चार दिन बाद मेरे सूत्र ने बताया कि नैतिक की मौत इंसेफेलाइटिस से हुई है। उसके पिता का नाम पवन है लेकिन उसका मोबाइल नम्बर नहीं पता हो पाया। मोबाइल नम्बर इंसेफेलाइटिस वार्ड में मिल सकता है। वहां आने वाले सभी मरीजों का विवरण पहले एक रजिस्टर में दर्ज किया जाता है। यह रजिस्टर वहां की सबसे सीनियर स्टाफ नर्स के पास होता है।

आक्सीजन की कमी से बीआरडी मेडिकल कालेज में दो दिन में 34 बच्चों की मौत को लेकर पूरे देश में हंगामा मचा हुआ था। इस घटना के बाद इंसेफेलाइटिस वार्ड में पत्रकारों के आने-जाने पर सख्ती होने लगी थी और वहां से सूचनाओं का मिलना बहुत मुश्किल हो गया था।

मैंने इंसेफेलाइटिस वार्ड जाकर नैतिक के पिता का मोबाइल नम्बर हासिल करने की सोची ताकि उससे बातचीत की जा सके। मैने स्टाफ नर्स के पास पहुंच कर उनसे अनुरोध किया कि नैतिक नाम का एक बच्चा यहां भर्ती हुआ था। कृपया रजिस्टर देख कर बताएं कि वह कब भर्ती हुआ था। स्टाफ नर्स ने सहजता से कहा कि अभी रजिस्टर चेक कर बताती हूं। कुछ देर बाद वह रजिस्टर लेकर आयीं और खोल कर देखने लगीं।

आखिरकार उनके रजिस्टर में नैतिक का नाम मिल गया। नैतिक के नाम के आगे उसकी उम्र, पिता का नाम, गांव का पता और सम्पर्क नम्बर लिखा हुआ था। मैंने सम्पर्क नम्बर ज्योंही नोेट करना चाहा, स्टाफ नर्स ने अचानक रजिस्टर बंद कर दिया और मुझसे पूछा कि आप कौन हैं और ये सब क्यों जानना चाहते हैं ? स्टाफ नर्स के इस सवाल के लिए मैं तैयार नहीं था। मैं जानता था कि ज्यों ही  पत्रकार के रूप में परिचय दूंगा मुझे कोई जवाब नहीं मिलने वाला है और मैं वहां से सख्ती से बाहर कर दिया जाउंगा। मेरे मुंह से निकल पड़ा कि मैं नैतिक के पिता का जानने वाला हूं। मेरे इस जवाब से स्टाफ नर्स के तेवर और सख्त हो गए। उसने रजिस्टर को आलमारी में बंद कर लाॅक करते हुए कहा कि वह कोई जानकारी नहीं दे सकती। हम लोगों को इंसेफेलाइटिस के बारे में कुछ भी बोलने से मना किया गया है। हम लोगों के मोबाइल नम्बर तक सर्विलांस में हैं।

मेरे सामने वहां से लौटने के अलावा और कोई चारा नहीं था। मैंने अब नैतिक के गांव जाने का निश्चय किया। मैंने याद करने की कोशिश की कि पवन के भाई से बातचीत में क्या-क्या जानकारी मिल सकी थी। पवन के भाई ने बताया था कि वे गोपालगंज के कुचायकोट ब्लाक के खुतवनियां गांव के रहने वाले हैं। पवन गुजरात में कपड़ा के एक कारखाने में मजदूरी करते हैं। पिता पुरोहिती करते हैं। नैतिक पवन का बड़ा बेटा था। उसके बाद उनकी दो वर्ष की बेटी है। परिवार के पास खेती के लिए कुछ जमीन है लेकिन गुजारा पवन द्वारा गुजरात से भेजी कमाई पर ही होता है।

आठ सितम्बर 2017 को मैं सुबह-सुबह अपने  मित्र सौरभ के साथ नैतिक के गांव के लिए रवाना हो गया। सुबह 10 बजे हम खुटवानिया गाँव पहुँच गए।

गोरखपुर के बी आर डी मेडिकल कालेज से करीब 130 किलोमीटर दूर पवन तिवारी का गांव खुटवानिया चौबे है। नेशनल हाइवे 28 पर बिहार के कुचायकोट ब्लाक से 3 किलोमीटर दूर जाने पर दाहिने तरफ खड़ंजा सड़क खुटवानिया चौबे गांव तक जाती है। बेहद संकरी और खराब सड़क पर चारपहिया वाहन बमुश्किल गुजर पाता है। यह गांव ब्राह्मण बहुल है।   ब्राह्मणों के 300 घर हैं और 40 घर पिछड़ी और दलित जाति के लोगों के हैं।

पवन तिवारी का परिवार गरीब है। पक्का घर जरूर है लेकिन आधे हिस्से पर छत नहीं है। घर में दरवाजा तक नहीं लग पाया है। पर्दा टांग कर काम चलाया जाता है। घर के सामने एक गाय खूंटे से बंधी है। एक तरफ चारा काटने की मशीन है। घर के दाएं तरफ झोपड़ी का छोटा सा बैठकखाना है जिसके आधे हिस्से में भूसा रखा हुआ है। उसी में एक मोटर साईकिल रखी है। प्लास्टिक की दो कुर्सियां भी हैं।

घर के बाहर ही पवन तिवारी से मुलाकात हुई। बेटे नैतिक की मौत के बाद उन्होंने सर मुंड़वा लिया था। पवन कमर में गमछा लपेटे हुए थे और शरीर का ऊपरी हिस्से में कोई कपड़ा नहीं है। सिर्फ जनेऊ दिखाई दे रहा था।

अभी उनसे बातचीत शुरू हुई ही थी कि उनके पिता लल्लन तिवारी आ गए और पूछा कि आप लोग कौन हैं और क्यों आये हैं ? मैंने उनको बताया कि मैं पत्रकार हूँ और गोरखपुर से आया हूँ। हम नैतिक के बारे में जानना चाहते हैं। मैं उनको बताता हूँ कि हम उनसे मेडिकल कालेज में मिले थे।

इतना सुनते ही वह बोल उठे -‘जो होना था हो गया। अब बात करने से क्या फायदा। बच्चा तो रहा नहीं। अब मैं किसी मुसीबत में नहीं पड़ना चाहता। मैं नहीं चाहता कि हमसे इस बारे में बातचीत की जाये। करम में भीख मांगना है तो मांगना है। गांव का कर्ज भरना है। दो कट्ठा जमीन है। बेच कर भरेंगे लेकिन हमें परेशान न किया जाय। यदि अब कोई परेशानी आयी तो यदि हम सुखले मर जायेंगे।’

लल्लन तिवारी ने सख्ती से हमें जाने को कहा। उनकी बातचीत से लगा कि उन्हें डर है कि बच्चे की मौत के बारे में कोई सरकारी जाँच न हो और उन्हें परेशान किया जाय। हमें कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। इतनी दूर से आए थे और यहां आते ही जाने के लिए कहा जा रहा था।

तभी लल्लन तिवारी की पत्नी पत्नी मयनमावती वहां आ गयीं और रोने लगीं। रोते हुए बोलीं-’ बच्चा हमारे नसीब में नहीं था। हम किसे दोष दें। माई-बाप को दोष दें कि भगवान को दोष दें। भगवान को यही मंजूर था। ‘

अब लल्लन तिवारी और क्रुद्ध हो गए। उन्होंने मयनमावती को डांटा और घर के अंदर जाने को कहा। वह घर के अंदर चली गयीं।
मैंने पवन तिवारी से बातचीत शुरू की। अभी पांच मिनट भी नहीं हुए थे कि पवन की मां घर के अंदर से दौड़ती हुई बाहर आयीं और पवन से बोलीं कि जल्दी घर के अंदर चलो। बहू को दांत लग गया है। गांवों में लोग बेहोश होने को दांत लगना बोलते हैं। पवन भागते हुए घर के अंदर चला गया। कुछ देर बाद उसकी पत्नी रिंकी के रोने की आवाज सुनाई देने लगी।

दस  मिनट बाद पवन वापस आया। बोला कि ‘ जबसे नैतिक गया है रिंकी की हालत खराब है। बार-बार बेहोश हो जाती है। अब मुझे उसको डॉक्टर के पास ले जाना पड़ेगा। ‘

पवन ने हमें कुर्सियों पर बैठने का इशारा किया। वह अपनी जिंदगी के बारे में बात करने लगा।

हाई स्कूल की पढाई करने के बाद पवन वर्ष 2006 में सूरत चला गया। गांव के कुछ लोग पहले से वहाँ कपडे के कारखानों में काम कर रहे थे। सूरत जाकर पवन भी एक कारखाने में मजदूर हो गया। वह पावर लूम और वाटर जेड मशीन पर कपडा बुनने का काम करने लगा। चार वर्ष बाद 2010 में उसकी शादी कुशीनगर जिले के जोकवां के पास अमवां गांव की रहने वाली रिंकी से हुई। शादी के एक वर्ष बाद नैतिक का जन्म हुआ। फिर 2014 में बेटी अनशिखा पैदा हुई।

नवम्बर 2014 में वह, रिंकी और दोनों बच्चों को सूरत ले गया। वहां उसने एक स्कूल में एडमिशन कराया। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। पवन को 16 हजार रूपये हर महीने मजदूरी मिल रही थी। कुछ पैसे बचाकर घर भेजता था। छोटा भाई अंजन तिवारी को भी जामनगर स्टील प्लांट में काम मिल गया। इससे पिता को आर्थिक सहारा मिलने लगा। वह खेती के अलावा गांव में पूजा -पाठ भी कराते थे।

सूरत में ढाई वर्ष रहने के बाद वह जुलाई 2017 में सपरिवार गांव लौटा। मां और पिता ने आग्रह किया कि बहू और बच्चों को एक -डेढ़ वर्ष के लिए यही छोड़ दे। उनका भी मन लगेगा। पवन ने नैतिक का एडमिशन एक निजी स्कूल में नर्सरी में करा दिया। इनके बाद वह सूरत चला गया। एक पखवारे बाद वह दुबारा वापस आया।

10 अगस्त को नैतिक को बुखार आया। वह नैतिक को बघौच जो कि गांव से दो किलोमीटर दूर है, वहां एक प्राइवेट डॉक्टर के पास ले गया। डॉक्टर ने नैतिक के खून -पेशाब की जाँच कराई और दवा दी। नैतिक को दवा से आराम मिला। खून पेशाब की जाँच रिपोर्ट देखने के बाद डॉक्टर ने बताया कि नैतिक को टायफाइड है।

चार-पांच दिन बाद नैतिक ने पेट में दर्द की शिकायत की। उसे बुखार फिर से आ गया जो दवा देने पर उतर जाता था और फिर चढ़ जाता था। नैतिक को फिर उसी डॉक्टर के पास ले जाया गया। उसने अल्ट्रासाउंड कराने की सलाह दी। गांव से लगभग 3 किलोमोटर दूर कुचायकोट में अल्ट्रासाउंड हुआ जिस पर 500 रूपये खर्च हुआ।

अल्ट्रासाउंड देखने के बाद डॉक्टर ने नैतिक को गोपालगंज में बच्चों के एक निजी डॉक्टर को दिखाने की सलाह दी। पवन 18 अगस्त को नैतिक को लेकर गांव से 22 किलोमीटर दूर गोपालगंज पहुंचा। दोपहर बाद 4 बजे डॉक्टर ने नैतिक की छाती का एक्सरे कराया। एक्सरे देखने के बाद डॉ अग्रवाल ने नैतिक को गोरखपुर ले जाने की सलाह दी। वहां से सभी वापस गांव लौट आये क्योकि उनके पास गोरखपुर जाने और इलाज कराने के लिए पैसे नहीं थे। गांव आकर नैतिक ने कुछ लोगों से पैसे उधार लिए। गांव के ही एक व्यक्ति ने अपनी बोलेरो जीप दी और उसका किराया नहीं लिया। पवन को गाड़ी में सिर्फ डीजल के पैसे देने पड़े जो करीब 1500 रूपये थे।

नैतिक को लेकर पवन अपने पिता लल्लन तिवारी, भाई अंजन तिवारी और मां के साथ आठ बजे सुबह रवाना हुए। तीन घंटे बाद सभी मेडिकल कालेज पहुंचे। रात 11 बजे नैतिक को भर्ती कर लिया गया। मेडिकल काले के डॉक्टरों ने नैतिक की हालत को गंभीर बताया। पवन से डॉक्टरों ने कहा-भगवान पर भरोसा रखो। हम पूरी कोशिश करेंगे।

गोरखपुर ले जाते वक्त नैतिक की सांस फूल रही थी। रस्ते में उसने दो बार उल्टी की। वह कई दिन से कुछ खा नहीं पा रहा था। नैतिक को मेडिकल कालेज में भर्ती कराने के बाद पवन और उसकी पत्नी रिंकी 19 अगस्त को गांव लौट आये क्योकि इलाज में और मेडिकल कालेज में रहने पर रोज आने वाले खर्च के लिए रूपये का इंतजाम करना था। मेडिकल कालेज में भाई और मां-पिता रूक गए। रिश्तेदारों और गांव के लोगों से कर्ज लेकर पति -पत्नी फिर मेडिकल कालेज पहुंचे।

पवन ने बताया कि 19 अगस्त को दोपहर में नैतिक ठीक लगने लगा। वह डॉक्टरों से खाना और पानी मांग रहा था। मैं शाम को जब गांव से लौटकर पहुंचा तो वह देखते ही पापा-पापा कहते हुए लिपट गया। इसके बाद वह कुछ नहीं बोला। चार दिन तक हम उसके मुंह से कुछ भी न सुन सके। हम उसे मरते हुए देखते रहे। दोपहर बाद नैतिक नहीं रहा। एक रिश्तेदार ने अपनी गाड़ी दी। नैतिक से शव के साथ हम सभी वापस आये। अगले दिन हमने शव को दफना दिया। हिन्दू धर्म में छोटे बच्चों के शव को जलाया नहीं जाता है।
पवन के अनुसार नैतिक के बीमार होने से उसकी मृत्यु तक एक लाख से अधिक रूपये खर्च हो गए। गांव के कई लोगों से कर्ज लिया।

मैं चुपचाप पवन की आंखों से बहते हुए आंसू देख रहा था।

‘ बेटे को छठी मइया की वेदी के पास दफन कर दिया। वही छठी मइया जिसकी पूजा कर महिलाएं बच्चों की लंबी आयु की प्रार्थना करती हैं। मैंने बेटे की कोई निशानी नहीं रखी। उसके कपडे, किताबें सब फेंक दिया। उसका एक फोटो तक नहीं रखा। जब लड़का ही चला गया तो कपड़ा, फोटो रख क्या करें। यह सब देख उसकी बार-बार याद आएगी। उसकी हर निशानी हटा दी है फिर भी आँखों से उसका चेहरा नहीं जा रहा। मेडिकल कालेज में डॉक्टरों ने पूरी कोशिश की लेकिन भगवान को ही मंजूर नहीं था। आज वह जिन्दा रहता तो दो वर्ष बाद उसका जनेऊ संस्कार करता। उसकी जगह 27 अगस्त को मृत्यु बाद संस्कार करना पड़ा। ‘

पवन रोते हुए बेटे नैतिक को याद कर रहा था तभी उसकी 3 वर्ष की बेटी अनशिखा वहां आ गयी। उसके हाथ में एक तस्वीर थी। वह तस्वीर हमें दिखाते हुए बोली-ई हमार भैया ह। ’

अनशिखा के हाथों में जो तस्वीर थी, वह  नैतिक की थी। पवन, उसके माता-पिता और हम सभी सन्नाटे में आ गए। सभी लोग काफी देर तक चुप रहे। काफी देर बाद पवन की माँ मयनमावती ने सन्नाटा तोड़ा। बोलीं- जब नैतिक एक वर्ष का था तब यह तस्वीर चंडीगढ़ में ली गई थी। बहू रिंकी के मायके वाले चंडीगढ़ में रहते हैं। रिंकी और नैतिक वहां गए हुए थे। तभी की यह तस्वीर है। ’

मेरी नजर अचानक पवन के घर की तरफ गयी। घर में दरवाजे की जगह ओट के लिए टंगा पर्दा हल्का सा हिल रहा था। मुझे लगा पर्दे के पीछे रिंकी है। वह हमसे बात करना चाहती है। उसी ने अनशिखा को यह तस्वीर लेकर मेरे पास भेजा था। मैने पवन से कहा कि क्या हम रिंकी से बात कर सकते हैं? तभी लल्लन तिवारी की आवाज गूंजी-‘ नहीं। अब कोई बात नहीं। आप लोग जाइए। ’

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