समकालीन जनमत
देसवा

बूढी गंडक नदी और एक विस्थापित बूढ़ा

( पत्रकार मनोज कुमार के साप्ताहिक कॉलम ‘देसवा’ की नवीं क़िस्त  )

 

गंडक नदी की यूपी और बिहार में दो धाराएं हैं। मुख्य नदी को गंडक, बड़ी गंडक या नारायणी नदी कहते हैं जो तिब्बत-नेपाल सीमा के धौलागिरी पर्वत से निकलकर उत्तर प्रदेश के महराजगंज और कुशीनगर जिले में बहते हुए बिहार में प्रवेश करती है और सोन पुल के पास गंगा में मिल जाती है। यह नदी बिहार में कुल 260 किलोमीटर की यात्रा करती है। नेपाल में इस नदी को काली गंडकी, नारायणी नदी भी कहा जाता है।

इसकी एक पुरानी धारा बूढी गंडक के नाम जानी जाती है जिसे सिकरहना नदी भी कहते हैं। कहा जाता है कि 100 वर्ष पहले यही गंडक नदी की मुख्य धारा थाी। वर्तमान समय में यह नदी पश्चिमी चम्पारण जिले के विश्वम्भरपुर के पास चौतरवा ताल से निकली है जो पूर्वी चम्पारण, मुज़फ्फरपुर, समस्तीपुर, बेगुसराय होेते हुए खगड़िया जिले में गंगा में मिल जाती है। यह नदी मुज़फ्फरपुर शहर से होकर गुजरती है। बिहार मेें 320 किलोमीटर की यात्रा में कई छोटी नदियां -मसान, पनडाई, सिकटा, तिलावे, धनौती इसमें मिलती हैं।

छोटी गंडक नदी के नाम से एक और नदी है जो नेपाल सीमा पर यूपी के महराजगंज जिले के निचलौल क्षेत्र से शुरू होकर कुशीनगर, देवरिया होते हुए सीवान जिले के गुठनी क्षेत्र में में घाघरा नदी में मिल जाती है। यह घाघरा की सहायक नदी है। कुशीनगर के हेतिमपुर के पास यह प्रख्यात कवि और जन संस्कृति मंच के संस्थापक महासचिव गोरख पांडेय के गांव के पास से गुजरती है।

बूढी गंडक में यूं तो साल के आठ महीने ज्यादा पानी नहीं रहता लेकिन बरासत के दिनों में यह नदी अपनी सहायक नदियों और नालों का पानी लेने के बाद उग्र रूप धारण कर लेती हैं और इसकी बाढ़ से बड़ी आबादी प्रभावित होती है।

पश्चिमी चम्पारण जिले के मझवलिया प्रखंड का गांव रामपुर महनवा का बढइया टोला बूढी गंडक नदी के तट पर बसा है। बूढी गंडक नदी के प्रवाह के साथ यह गांव पिछले दो दशक से उजड़़ और बस रहा है। वर्ष 2001 से 2004 के बीच नदी का प्रवाह मार्ग उत्तर से दक्षिण की तरफ मुड़ना शुरू हुआ। नदी की कटान ने रामपुर महनवा की बढ़इया टोला को अपने आगोश में ले लिया और पूरा गांव खत्म हो गया। टोले के लोग भागकर नदी के दक्षिण तट से काफी दूर बस गए। ढाई हजार की आबादी वाले इस टोले में मुस्लिम सर्वाधिक हैं। इसके बाद दलित व पिछड़े हैं।

विस्थापित होने वालों में सिधारी राम, मोतीलाल राम, वीरेन्द्र राम, अमानुल्लाह, रामू राम, भंगीराम, दशरथ राम, दिनेश राम, सुरेन्द्र राम, सुधाई राम, जगविंदर राम, अखिलेश राम, गुलाब राम, दीनानाथ राम, अब्दुल वही, मोहम्मद आजाद, अतुल्लाह, जाकिर, रूबिदा, जाकिर नट, अली असगर अमानुल्लाह भी थे।

अमानुल्लाह से अगस्त महीने की 14 तारीख की शाम मुलाकात हुई। अमानुल्लाह को वो सारी बातें याद हैं जब नदी की कटान के कारण उन्हें घर छोड़ना पड़ा। अमानुल्लाह बताते हैं कि हमने गांव छोड़ने का फैसला किया। हर वर्ष बाढ़ में तो डूबते ही थे, इस बार घर-द्वार भी कट गया था। घर में जो सामान था, उठा कर चलने लगे तो पड़ोसी बोला कि मत जाओ। मेरे पास पांच कट्ठा जमीन है। उसमें फुलवारी है। उसी में रह लेना। हम फुलवारी के एक कोना में बस गए। आठ-नौ वर्ष उसी फुलवारी में काटे।

एक दिन बेतिया स्टेशन पर चाय की दुकान पर अखबार पढ़ रहा था। उसमें समाचार निकला था कि सरकार गरीबों और बिना जमीन वालों को बसाने के लिए जमीन देगी। गांव आकर हमने लोगों को बताया कि सरकार की योजना है। हम लोगों को जमीन के लिए लड़ना होगा।

‘ इसके बाद हम लोग धरना-प्रदर्शन करने लगे। डीएम और अन्य अफसरों को ज्ञापन दिया लेकिन कुछ हुआ नहीं। वर्ष 2014 में एक दिन डीएम गांव की तरफ आ गया। माघ महीन था। उ हमको शेर दिल लगा। हमें देख कर बोला ए चचा इधर आओ। हमने उसे अपना कागज दिखाया और कहा कि हम सात वर्ष से विस्थापित हैं। हम लोगों को कहीं बसा दिया जाए। यह सुनकर डीएम अपने मातहतों पर बहुत  बिगड़ा। सीओ को बुलाकर कहा कि गरीब आदमी सात वर्ष से दौड़ रहा है। उसकी अब तक सुनवाई नहीं हुई। इन लोगोे को तुरंत जमीन मिलनी चाहिए। ‘

डीएम के आदेश पर 41 परिवारों को सड़़क किनारे सात-सात डिस्मिल जमीन मिली। इन 41 परिवारों में 27 दलित और 14 मुस्लिम थे। मुस्लिम परिवार सड़क के उत्तर तो दलित परिवार दक्षिण तरफ बसे। आज यह बसावट रामपुर महनवा रोड नयी बस्ती के नाम से जानी जाती है।

इन विस्थापितों को बसने के लिए जमीन तो मिल गयी लेकिन हर साल आने वाली बाढ़ ने पीछा नहीं छोड़ा। इन विस्थापितों को बेतिया इस्टेट की गोशाला की जमीन के पास एक नाले के किनारे बसाया गया। बरसात के दिनों में बूढी गंडक नदी की बाढ़ का पानी नाले में आ जाता और इनके घरों को डूबो जाता।

अमानुल्लाह बताते हैं कि ‘ वर्ष 2017 की बाढ़ में सभी के घर कमर भर से उपर पानी आ गया। जान बचाने के लिए घर छोड़ना पड़ा। बच्चों और महिलाओं को दूसरे जगह भेजना पड़ा। हम आठ लोग 72 घंटे तक गाछ पर रहे। गाछ पर जान बचाने के लिए सांप भी चढ़ गए थे। सांप गाछ पर उपर की तरफ थे और हम नीचे की तरफ। थोड़ा पानी कम हुआ तो उतर कर नीचे आए। सड़क पर दो तख्ता, उसके उपर मेज और उसके उपर कुर्सी रखकर कई दिन तक पानी निकलने का इंतजार किया। हर वर्ष यही हाल होता है। ‘

‘इस वर्ष जुलाई महीने के आखिरी सप्ताह में आयी बाढ़ से सभी के घर डूब गए हैं। झोपड़ियां धराशायी हो गयीं। अब ये सभी विस्थापित सड़क पर पन्नी डाल कर रह रहे हैं। प्लास्टिक सीट के अलावा उन्हें और कोई सहायता नहीं मिली है।

अमानुल्लाह बताते हैं कि ‘ एक महीना से अधिक समय हो गया, हम सड़क पर रह रहे हैं। अफसर आए थे। बोले कि गांव चलिए। वहीं पर रहने और खाने की व्यवस्था की गयी है। हमने मना कर दिया। कहा कि छाला खाकर जी लेंगे लेकिन अब वहां आपका दाल-भात खाने नहीं जाएंगें। आखिर बाल-बच्चों व सामान छोड़ कहां जाएं ? हमने अफसर से कहा कि हमारे लिए सिर्फ पानी की व्यवस्था कर दीजिए। उंचा स्थान पर एक कल लगवा दीजिए। हम लोग यहीं पर जी लेेंगे। सरकार पानी की व्यवस्था भी नहीं कर पायी। एक-एक पन्नी, दो किलो चिउड़ा, आधा किलो चना, एक पाव मीठा भिजवा दिया। पानी में डूबे हैण्डपम्प तक पवंर कर जाते हैं, पानी निकालकर उसे पकाकर फिर ठंडा कर पीते हैं। ‘

‘ चारो तरफ पानी भर जाने से जहरीले सांप हमारी झोपड़ियों में आ गए हैं। अनाज निकालने गए तो कई सांप दिखे। डर कर भाग आए। सड़क पर भी जहरीले सांप आ रहे हैं। कल ही घोटकरईत सांप को मारा है। सांपों से बच्चों की रक्षा के लिए पूरी रात बारी-बारी पहरेदारी करते हैं। ‘

‘ हर साल सरकारी अधिकारी-कर्मचारी आते हैं। नाम लिखकर ले जाते है। कहते हैं कि सरकार सहायता देगी लेकिन अभी तक खाते में पैसा नहीं आया। छह वर्ष से यहां रह रहे हैं लेकिन कभी नगद सहायता नहीं मिली। इस बार मुखिया मोबाइल देखकर बोला कि आपका नाम लिस्ट में है लेकिन अभी तक पैसा नहीं मिला।

‘ नाले के किनारे बसा तो दिया लेकिन कुछ और नहीं दिया। हैण्डपम्प तक न दिया। बेतिया में कुछ लोगों ने चंदा कर पैसा दिया तो दो हैण्डपम्प लगवाया। आज तक शौचालय, आवास नहीं मिला। सरकारी कर्मचारी टीका लगाने भी नहीं आते। कहते हैं कि सुराही टोला पर आइए तभी टीका लगेगा। ‘

अमानुल्लाह का एक बेटा 20 वर्षीय मिनातुल्लाह दिल्ली में मजदूरी करता है। एक साल से दिल्ली में है।

‘ इस साल सर्दियों में दिल्ली में साम्प्रदायिक हिंसा में वह फंस गया। फोन कर बोला कि गोली चल रही है। अब्बू अब हम नहीं बचेंगे। गलती-सही, कहा-सुना माफ करना। हमने उसे धीरज धराया। बोला कि बेटे हिम्मत न हार। सब खिड़की-दरवाजे बंद कर ले। अलसुबह घर से निकल जा। कोई रास्ते में मारे-पीटे, गाली दे कुछ न बोलना। जो ट्रेन  मिल जाए पकड़ कर घर लौट आ। ‘

मिनातुल्लाह घर आ गया। दंगा शांत हुआ तो कोराना आ गया। लाॅकडाउन लग गया। तभी से बेटा घर बैठा था। अभी 12 अगस्त को वापस दिल्ली गया है। हमने मना किया कि बेटा अब दिल्ली न जा। यहां हम नून-रोटी खकर जी लेंगे। वह बोला कि यहां बैठ कर क्या करेंगे। ठेकेदार बुला रहा है।

मिनातुल्लाह दिल्ली में टाइल्स लगाने का काम करता है। अमानुल्लाह के पांच बेटे हैं। एक बेटा अहमदाबाद और जामनगर में जेसीबी और लोडर चलता था। लाइसेंस बनवाने की फीस 18 हजार रूपए लगती है। इतना पैसा नहीं था। लाइसेंस नहीं बन पाया। घर वापस आ गया और फिर मजदूरी करने नेपाल चला गया। वहां फर्नीचर बनाने का काम करता हैं। एक बेटा मोबाइल रिपेयरिंग का काम करता है। कोरोना के कारण नेपाल में लाॅकडाउन लग गया और बार्डर बंद हो गया। चारों  बेटे वापस आ गए। हमारे गांव के सब लड़के नेपाल में ही काम करते थे। अब पांच महीने से बेकार घर बैठे हैं।

अमानुल्लाह अपनी कहानी सुनाते जा रहे हैं।

 

‘ यहां बसे सभी परिवार भूमिहीन हैं। हम जो जन जुगिए से भूमिहीन हैं। यहां के सभी लोग पेंट पालिश व फर्नीचर बनाने का काम जानते हैं। पास में नेपाल है। इसलिए वहीं चले जाते हैं। वहां उन्हें अपने देस की तुलना में मजदूरी अच्छी मिलती है। एक दिन में 550-600 रूपए मजदूरी मिल जाती है। ठेका पर काम मिल गया तो हजार रूपया तक बन जाता है। यहां तो खेती में मजदूरी करने में 100 रूपया भी नहीं देता हैं। घर के आस-पास गोशाला की 22 बीघा जमीन में धान, गेहूं, गन्ने की खेती होती है लेकिन हम लोगों को मजदूरी नहीं मिलती। बाहर से मजदूर बुलाकर काम कराया जाता है। हम लोग काम मांगने जाता है तो कहता है कि 100 रूपया मजदूरी मिलेगी। आप ही बताइए 100 रुपए में कइसे गुजारा होगा। गोशाला की जमीन ‘ डकारी ’ लोग तीन लाख रुपया में लीज पर ले लेता है। उ लोग यहां सिपाही रखता है। हम लोगों की बकरी खेत में चली जाए या दिशा-फराकत के लिए खेत में चले जाएं तो सिपाही मारता-पीटता है। ‘

‘ हम एक बीघा खेत बटहिया पर लिए हैं। धान-गेहूं बोते हैं। इ साल बाढ़ में धान क फसल बर्बाद हो गइल। सारा मेहनत पानी में चल गईल। पांच हजार रूपया पूंजी लगल रहल। सब डूब गइल। राशन मिलत बा। कइसहों नून रोटी चलत बा। ’

अमानुल्लाह बूढी गंडक नदी की ओर दिखाते हुए कहते हैं -‘ बीच धार के अउर उधर हमार घर रहल। नदी हर साल चौड़ा होत जात है। कुछ लोग के आधा जमीन चल गईंल, आधा बचल बा। हमरी जइसन कई लोग पूरा खाली हो गईलन। ’

‘ खाली हो गए लोगों ‘ की झोपड़ियां एक पतली सड़क के उत्तर और दक्खिन पानी में डूबी हुई हैं। शाम हो रही है। सड़क पर कुछ चूल्हे सुलग रहे हैं। चूल्हे पर गर्म तवा पर रोटी सिंक रही है। एक महिला रोटी बेल रही है। लड़की तवे पर रोटी पलट रही है। पास में भूखा बच्चा बैठा हुआ है।

क्या आपको भी धूमिल की कविता याद आ रही है !

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ–
यह तीसरा आदमी कौन है ?
मेरे देश की संसद मौन है।

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