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‘दर्द के काफ़िले’ संग कविता का सफर

प्रशांत जैन


दर्द का समंदर शायरी में जितना गहरा होता है, जीवन में उसकी अनुभूति उससे भी ज्यादा गहरी होती है। इस कोरोना काल से पहले क्या हमने दर्द के समंदर में इस कदर उठती सुनामी देखी है? और क्या उसे नदियों की तरह हहराकर सड़क पर बहते देखा है? मार्च 2020 के अंतिम सप्ताह में अचानक और अविचारित लॉकडाऊन के बाद सड़कों पर गर्भवती स्त्रियों और दुधमुँहे बच्चों के साथ निर्धन श्रमिकों के जो रेले अपने गाँव-जवार की ओर सड़कों पर किलोमीटर के सफर पर पैदल ही निकल पड़े थे, उन्हें क्या कहेंगे? भय और असुरक्षा की अजब बेहोशी में मशीन की तरह पैैैैदल चले जा रहे वे मानव शरीर क्या दर्द के घनीभूत रूप नहीं थे? जिन शहरों की उन श्रमिकों ने बरसों सेवा की, उनके बेगानेपन का दर्द, चिलचिलाती धूप में पैदल चलते नौनिहालों और बुजुर्गों का दर्द, राह में ही अनेक संगी-साथियों के दम तोड़ते जाने का दर्द, सड़क किनारे ही प्रसव के लिए मजबूर माताओं का दर्द और इन सब से ऊपर भूख-प्यास, सरकार की बेरुखी और पुलिस की लाठियों का दर्द – कुल मिलाकर इंसानों के ये काफिले क्या दर्द के भी काफिले नहीं थे?

लॉकडाऊन के दौरान अप्रैल से अगस्त तक की अवधि में लगातार बीस सप्ताह तक प्रत्येक रविवार वरिष्ठ कवि, समीक्षक, संस्कृतिकर्मी व संपादक कौशल किशोर ने ‘कविता संवाद’ नाम से काव्यपाठ की लाइव श्रृंखला प्रस्तुत की थी। कहते भी हैं कि जब जीवन की एक राह बन्द हो तो दूसरी राह की तलाश होती है। इसी तरह जीवन आगे बढ़ता है। लाॅकडाउन के समय में सोशल मीडिया का इस्तेमाल और उसकी उपयोगिता इसी रूप में सामने आयी। ‘कविता संवाद’ ऐसी ही राह थी। कोरोना के आतंक के बीच अचानक लॉकडाऊन, सरकारी लापरवाही और कुप्रबंधन, और कुत्सित राजनीति से उपजी सामान्य जन की पीड़ा को स्वर देती विभिन्न कवियों की रचनाओं के पाठ का यह कार्यक्रम एक घंटे का होता था। इस मंच से करीब सौ कवियों की रचनाएँ पढीं गयीं। इन्हीं में से सत्तासी कवियों की कवितााओं का साझा संकलन ‘दर्द के काफ़िले’ है। संपादन व चयन कौशल किशोर का है जिसे सृजनलोक प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।

हिंदी साहित्य के विभिन्न फेसबुक पेज लॉकडाऊन की शुरुआत से ही व्याख्यानों और चर्चा सत्रों का आयोजन कर रहे हैं। कुछ फेसबुक ग्रुप अपने सदस्यों का लाइव कविता पाठ भी आयोजित कर रहे हैं। कुछ कवि-लेखक स्वयं के पेज पर ही अपनी रचनाएँ लेकर लोगों से मुखातिब हैं। इस सब गहमा-गहमी के बीच कविता-संवाद अपने आप में एक अनूठा उद्यम था। एक ओर लोग जहाँ अपनी या आपसदारी में अपने मित्रों की कविताओं का छिटपुट पाठ कर रहे थे, वहीं इस मंच ने मानो सारे हिंदी कवि-समाज की ही जिम्मेदारी उठा रखी थी। चूँकि कार्यक्रम का विषय कोरोना एवं लॉकडाऊन से उत्पन्न परिस्थितियाँ थीं, कविताओं का मुख्य स्त्रोत विभिन्न कवियों के फेसबुक पेज बने, जहाँ इस विषय पर ताजा रचनाएँ उपलब्ध थीं। इसके इतर भी अनेक कवियों से व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क कर उनकी ताजा रचनाएँ आमंत्रित की गयीं। ये रचनाएँ कोरोना की मानवीय त्रासदी, सामान्य जन-जीवन पर उसके आर्थिक-सामाजिक दुष्प्रभाव और सरकार के तदर्थवादी रवैये पर केंद्रित थीं।

कविता-संवाद के लिए कविताओं के चयन में संपादक ने कविता की गुणवत्ता को ही उसका मुख्य आधार बनाया है। इस तरह कविता का एक पूरा लोकतंत्र न सिर्फ कार्यक्रम में दिखा बल्कि ‘दर्द के काफ़िले’ की कविताओं के चयन में भी दिखता है। इसमें अनेक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित कवियों से लेकर युवतम कवियों की रचनाएँ शामिल हैं। वर्तमान में हिन्दी कविता में कई पीढ़ियां सक्रिय हैं। इस संकलन में उनका प्रतिनिधित्व है। विजेन्द्र, रामकुमार कृषक, विष्णुनागर, सुधीर सक्सेना, दिविक रमेश, सरला माहेश्वरी, शोभा सिंह, असद जैदी, मदन कश्यप, स्वप्निल श्रीवास्तव, जयप्रकाश कर्दम जैसे वरिष्ठ कवि है, वहीं अदनान कफिल दरवेश, विहाग वैभव,ं शिव कुशवाहा, सीमा आजाद, कर्मानन्द आर्य, प्रतिभा कटियार, भास्कर चैघरी, जमुना बीनी आदि युवा रचनाकार शामिल हैं। बीच की पीढ़ी के रचनाकार जैसे बोधिसत्व, रंजीत वर्मा, असंग घोष, बलभद्र, मीता दास, शहंशाह आलम, महेश पुनेठा आदि की कविताएं भी हैं। स्त्री रचनाकरों की अच्छी उपस्थिति है। जीवन सिंह, महेन्द्र नेह, देवेन्द्र आर्य, डी एम मिश्र, बल्ली सिंह चीमा, मालविका हरिओम आदि के इस काल में लिखे दोहे-गजलें संकलन को शैलीगत विविधता प्रदान करते हैं।

‘दर्द के काफ़िले’ की कविताओं में मानवीय संवेदना अपने चरम पर दिखाई देती है। हो भी क्यों न, जिस तरह के अविश्वसनीय और हृदय-विदारक दृश्य इस अवधि में हमने देखे, वे एक कवि तो क्या एक साधारण मनुष्य को भी हिला और रुला देने वाले थे। तिस पर कोढ़ में खाज रही सत्ता राजनीति। भारत में हृदयहीन और अवसरवादी राजनीति का जो कुत्सित रूप कोरोना काल की शुरुआत से ही हम देख रहे हैं, वैसा उदाहरण किसी और देश से अब तक सुनने में नहीं आया है। अब भी अमूमन वही स्थिति है। ‘आपदा में अवसर’ की लंतरानियाँ तो देश ने बाद में सुनीं, मगर सरकारी स्तर पर यह खेल लॉकडाऊन की शुरुआत से ही शुरू हो गया था। महामारी और तद्जनित सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों से मुँह फेरकर सत्तारूढ़ दल की एजेंसियों ने इस अवसर का इस्तेमाल खुलेआम अपने सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में किया। पहले शाहीनबाग और फिर तब्लीगी जमात के बहाने सारी ऊर्जा उन्होंने एक कौम विशेष को निशाना बनाने में लगा दी। राजधानी में इन तत्वों द्वारा लगाई गई दंगों की आग में पचासों मासूमों को प्राणों से हाथ धोना पड़ा। इस संपूर्ण प्रकरण में पुलिस की भूमिका भी संदिग्ध रही। फिर दंगों के असली दोषियों को छोड़ निर्दोषों की गिरफ्तारियाँ भी खूब हुईं। इसी दौरान भीमा-कोरेगाँव कांड की जाँच के बहाने भी जनपक्षधर बुद्धिजीवियों को सलाखों के पीछे डालने का सिलसिला जारी रहा। इन तमाम झूठे मामलों में गिरफ्तार छात्रों, लेखकों, पत्रकारों आदि पर एनएसए जैसी धाराएँ लगाकर उन्हें जमानत के अधिकार तक से वंचित कर दिया गया। किसानों की आत्महत्याएँ और रोहित वेमुला जैसे प्रतिभाशाली युवाओं के जातिवाद की बलि चढ़ जाने जैसी घटनाएँ तो देश में अब खबर भी नहीं बनतीं। तमाम संवैधानिक संस्थाएँ सरकार के पूर्ण नियंत्रण में हैं। निरंकुश सरकार और चंद कार्पोरेट घरानों के अनैतिक गठजोड़ ने आम आदमी का जीना मुहाल कर रखा है।

साल 2020 की शुरुआत में जहाँ एक ओर विश्व कोरोना के फैलाव को लेकर आतंकित था, वहीं दूसरी ओर देश में राजनीति का अलाव जल रहा था जिसमें पूरी निर्लज्जता के साथ राजनीतिक रोटियाँ सेंकी जा रही थीं। केंद्र में सत्तारूढ़ दल के लिए मध्यप्रदेश में साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमालल करते हुए अपनी सरकार बना लेना महामारी से बचाव की तैयारियों से ज्यादा महत्वपूर्ण था। विश्व भर में जहाँ अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें प्रतिबंधित की जा रही थीं, वहीं भारत सरकार ट्रंप की आवभगत की तैयारियों में व्यस्त थी। ऐसे विडंबनापूर्ण समय में जबकि सरकार से सवाल करना देशद्रोह माना जाता हो और शोषित-वंचित वर्ग के पक्ष में आवाज उठाना अर्बन नक्सलवाद, कविता-संवाद की कविताओं ने प्रतिरोध का अपना स्वर बुलंद रखा। उपरोक्त विषयों को इन कविताओं ने छुआ ही नहीं बल्कि इन पर विमर्श की जमीन तैयार करने में भी अपना योगदान किया। हालांकि यह भी स्पष्ट है कि लोक-लाज से ऊपर उठ चुकी यह तथाकथित जनतांत्रिक सरकार अब तक हर प्रकार के प्रतिरोध से अप्रभावित ही रही है। मौजूदा समय में दिल्ली में जारी किसान आंदोलन में यह तथ्य और भी पुष्ट होता नजर आता है। दक्षिणपंथी राजनीति का यह नकारात्मक प्रारूप कुछ हद तक अनेक विकसित देशों में भी जड़ें जमा रहा है। अमेरिका जैसे देश में इसकी परिणिति जॉर्ज फ्लाॅयड की पुलिस अधिकारी द्वारा खुलेआम हत्या के रूप में कुछ ही अरसा पहले हमने देखी है। यह दक्षिणपंथी राजनीति अपने दर्शन में ही जनविरोधी है। इसका सबसे कुत्सित रूप लॉकडाऊन की अचानक घोषणा के बाद हुई प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा के रूप में हमने देखा। उद्योगपतियों के हित में रातों-रात संसद में बिल पास कराने वाली सरकार सड़कों पर हफ्तों पैदल चलते और दम तोड़ते मजदूरों के लिए दो महीनों तक कुछ न कर सकी। देश-दुनिया की उपरोक्त स्थितियाँ किसी भी चिंतनशील व्यक्ति के मानस को उद्वेलित करने वाली हैं। कविता-संवाद में पढ़ी गई तथा ‘दर्द के काफ़िले’ में संकलित कविताएँ इसी यथार्थ को रचती हैं और आज के समय की विडंबनाओं और उलटबाँसियों को पूरी शिद्दत के साथ रेखांकित करती हैं। इस अर्थ में यह संकलन अपने समय का एक अनूठा काव्यात्मक अभिलेख है जिसका निश्चित ही एक ऐतिहासिक मूल्य है।

जीवन तो क्षण-भंगुर है ही, लॉकडाऊन में हमने रोजी-रोजगार की क्षण-भंगुरता भी देखी। प्रवासी मजदूरों के लाखों की संख्या में सड़कों पर पैदल निकल पड़ने का यही तो कारण था। सुविधाहीन और सुविधाभोगी का इतना स्पष्ट और क्रूर वर्ग-विभाजन शायद ही दुनिया ने इससे पहले कभी देखा हो। विश्व भर में आज मनुष्य के जीवन की अव्यवस्था सिर्फ अर्थ, समाज और राज्य तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उपभोक्तावादी जीवन शैली ने पर्यावरण के स्तर पर भी भारी अव्यवस्था पैदा की है। परिणामस्वरूप जीवन शैली जनित नई-नई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं, और पुरानी बीमारियाँ ज्यादा मारक होती जा रही हैं। कोरोना की महामारी ने इस दृष्टि से भी मनुष्य जाति को सचेत किया है। लॉकडाऊन के दिनों में वायू प्रदूषण में कमी आई और कारखानों में उत्पादन के बाधित होने से नदियों के जल को भी स्वच्छ होते देखा गया। इस संकलन की कविताओं ने इन मुद्दों को भी समुचित रूप से अपने संज्ञान में लिया है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, आज का समय ही आज की कविता को रचता है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आज की कविता ही आने वाले समय की जमीन तैयार करती है। मनुष्य और समाज के जागरण और निर्माण में और राजनीति को दिशा देने में साहित्य, और विशेष तौर पर कविता की स्पष्ट भूमिका इतिहास में हमेशा रही है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि हमारे सामाजिक और राजनीतिक व्यवहार में गहरे पैठ रहे स्वार्थ और विभेद के अँधकार की उम्र लंबी नहीं होगी और कविता अवश्य नया सूर्योदय लेकर आएगी। हाँ देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार इसमें समय जरूर लग सकता है।

बात अधूरी रहेगी अगर आवरण चित्र की चर्चा न की जाय। इसे प्रसिद्ध चित्रकार कुंवर रवीन्द्र ने बनाया है। यह कोलाज है जो कोरान काल को सजीव करता है। रेल की पटरी पर बिखरी रोटियां और पहियों वाले सूटकेस पर लटके हुए बच्चे की छवियाँ, इस क्रूर व्यवस्था के माथे पर स्थायी और अमिट कलंक है। उदास, चिन्तामग्न, उद्विग्न और उद्वेलित कर देने वाला यह आवरण चित्र संकलन की कविताओं की अन्तर्वस्तु से पाठक को जोड़ता है। कुल मिलाकर ‘दर्द के काफ़िले’ कोरोना काल में व्यवस्था के क्रूर चेहरे को बेनकाब करता और आम आदमी के प्रतिरोध को सामूहिक स्वर देता इस कालखंड का एक सृजनात्मक दस्तावेज है।
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कोरोना काल की कविताओं का संकलन: दर्द के काफिले
संपादक: कौशल किशोर
प्रकाशक: सृजनलोक प्रकाशन, खानपुर, नई दिल्ली – 110062
पृष्ठ संख्या: 252
मूल्य: 320 रुपये
मोबाइल – 9820262706

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