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सिनेमा के बारे में जावेद अख्तर से नसरीन मुन्नी कबीर की बातचीत

गीतेश सिंह


भारतीय सिनेमा पर हिंदी में या तो बहुत कम साहित्य उपलब्ध है, या मेरी खोज की ही सीमा रही होगी कि बहुत दिनों से इस तरफ प्रयासरत होने के बावजूद बहुत किताबें नहीं खोज पाया . अभी पिछले दिनों लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में जाना हुआ. वहां राजकमल प्रकाशन पर मशहूर पटकथा लेखक और गीतकार जावेद अख्तर से निर्माता-निर्देशक नसरीन मुन्नी कबीर की लम्बी बातचीत किताब की शक्ल में मिल गई- ‘जावेद अख्तर से बातचीत-सिनेमा के बारे में’ .

शोले, ज़ंज़ीर और दीवार जैसी अपने वक्त की बॉक्स ऑफिस हिट्स आज भी हममें से ज्यादातर लोग अक्सरहां देख लेते हैं. इन फिल्मों की कहानी, संवाद योजना और खासकर पात्रों की दमदार संवाद अदायगी पर हम फ़िदा हैं. अमिताभ को महानायक के ओहदे तक पहुंचाने में जिन फिल्मों का ख़ास योगदान रहा है, उनमें से अधिकांश की पटकथा जावेद साहब की ही लिखी हुई है.

तस्वीर ‘जावेद अख्तर से बातचीत: सिनेमा के बारे में’ किताब से

किताब जावेद अख्तर के पारिवारिक जीवन की पड़ताल के साथ साथ हिंदी सिनेमा के विविध पक्षों को भी उद्घाटित करती है. “इस पुस्तक में मौलिक विचारक जावेद अख्तर ने विश्लेषणात्मक ढंग से हिंदी सिनेमा की परंपरा, गीत लेखन और कथा तत्व के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित किया है और फिल्म-लेखन के कई पक्षों की सारगर्भित चर्चा की है.”

किताब के विषय की गंभीरता, भाषा की रवानी और अपनी बात कहने के दिलचस्प अंदाज़ को नसरीन मुन्नी कबीर की इस टिप्पणी से समझा जा सकता है-“सच तो यह है कि मैं आज तक दूसरे किसी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिली, हिंदी सिनेमा के विषय में जिसकी सोच इतनी सुलझी हुई हो और जो कुछ ही पलों में हल्की-फुल्की बातों से बहुत ही गहरी बातें करने में माहिर हो .”

जावेद अख्तर को शायरी और प्रगतिशील मूल्य विरासत में ही मिले हैं. अपने बारे में एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं-“कम्युनिस्ट पार्टी का हिन्दुस्तान में कुछ असर था. अदीबों और शायरों समेत बहुत से लोग इसकी तरफ खिंच रहे थे. मेरे वालिद पार्टी के मेंबर तो थे ही, वो प्रोग्रेसिव राइटर्स असोसिएशन के प्रेजिडेंट भी थे. वे अंडरग्राउंड हो गए और बम्बई के लिए रवाना हो गए. मेरी वालिदा पीछे भोपाल में रह गयीं. वो हमीदिया कॉलेज में पढ़ा रही थीं.”

अपनी फिल्मों के नायकों के बारे में बात करते हुए जावेद अख्तर एक बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं जो हिंदी सिनेमा के उस वक्त को समझने के लिए प्रस्थान बिंदु हो सकता है-  ‘किसी ने एक बार कहा था-हीरो वह इंसान हैं जो नाकामयाबी को भी शानदार बना दे. क्या कमाल की बात कही है. जब दीवार का हीरो नाकामयाब होता है तो उसकी नाकामयाबी एक शानदार नाकामयाबी है. लोग उसको ऊंची निगाह से देखते थे और उससे ईर्ष्या करते थे:’काश मैं भी इसी तरह नाकामयाब हो सकता’. देवदास बेशक नाकामयाब हुआ लेकिन क्या  ग्लैमरस नाकामयाबी थी उसकी ! वो शराब पी-पीकर अपने को खत्म कर लेता है और आखिरकार लौटकर अपनी माशूका के गांव में जाता है और दम तोड़ देता है. क्या लाजवाब मौत है. कोई भी ऐसी मौत मरना चाहेगा. आप लोगों को धीमी आवाज में एक दूसरे से कहते हुए सुन सकते थे, ‘ये है हीरो’.

हिंदी सिनेमा की एक खासियत है कि वह एक बने बनाए फार्मूले पर काम करता है. जो कहानी या जो प्लॉट हिट हो गया, बार-बार उसी के इर्द-गिर्द फिल्में बनाई जाती हैं. चाहे वह डायरेक्टर हो या प्रोड्यूसर सभी सभी चाहते हैं कि हिट फिल्मों के फार्मूले को बार-बार दोहराया जाए. लेकिन जावेद साहब इससे इत्तफाक नहीं रखते. कहते हैं-‘मेरे ख्याल से गड़बड़ यह होती है कि आप-हम ना कामयाब होने से बहुत डरने लगते हैं. और जब आप नाकामयाब होने से डरेंगे तो आप नए तजुर्बे नहीं करेंगे और जब आप तजुर्बे नहीं करेंगे तो आप बासी हो जाएंगे.

अगर एक राइटर की रचना धर्मिता के बारे में समझना हो तो  जावेद अख्तर की यह बात बहुत काम की हो सकती है –‘किसी चीज को दिलचस्प बनाने के लिए पहले खुद आपकी उसमें दिलचस्पी होनी चाहिए. अगर आप खुद अपने काम में पूरी तरह शामिल नहीं होंगे तो आप दूसरों को उसमें क्या शामिल करेंगे ? लेकिन अगर आप खुद अपने काम में पूरी तरह शामिल हैं तो दूसरे भी जरूर उसमें शामिल होंगे । जैसे-जैसे आप और ज्यादा प्रोफेशनल बनते रहेंगे वैसे वैसे दो चीजें होंगी. एक तो यह कि आप मशीनी होते जाएंगे और आप में जज्बात के सही-सही खजाने को बड़ी तेजी से उस सीन से जोड़ सकने की सलाहियत आती जाएगी जिसे आप लिख रहे हैं. यहां तक तो ठीक है. लेकिन एक और चीज जो हो सकती है वह यह है कि आपके पास सिर्फ आपका शिल्प रह जाए और जज़्बात का सोता बिलकुल सूख जाए. मेरे ख्याल से इंसान और फनकार के बीच कोई दीवार नहीं होती चुनांचे अगर जज्बात इंसान में जिंदा है तो फनकार में भी जिन्दा रहेंगे.

देखिए तो जावेद साहब स्त्री सशक्तिकरण के बारे में कितनी शानदार बात करते हैं कि मैं यह मानता हूं कि जल्दी ही औरतें दुनिया पर छा जाएंगी. हजारों वर्षों तक औरतों को जिंदगी के एक छोटे से हिस्से तक सीमित रखा गया है लेकिन जब आपके पास काम करने के लिए छोटा सा कैनवस होता है तो आप की निगाह बहुत बारीक हो जाती है. आज दुनिया बदल गई है और टेक्नोलॉजी ने औरतों की बनिस्बत मर्द की सारी जिस्मानी श्रेष्ठता को बेकार कर दिया है. कंप्यूटरों के इस दौर में जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है वह बारीक निगाह. मुझे तो लगता है कि औरत ही भविष्य है. मर्द तो आज इस दौर के लिए बेकार हो चुका है.

हाल के हिन्दुस्तान में मजहबी फसाद बढ़ते ही जा रहे हैं . ऐसी साम्प्रदायिकता के बारे में जावेद अख्तर कहते हैं-“असल में लोग जाती तौर पर नाखुश होते हैं, उनके दिलों में कड़वाहट होती है . अब अगर वो अपनी इस हालत के लिए जिम्मेदार वजूहात को समझने की कोशिश करेंगे तो उन्हें उनको दूर करने के लिए काफी कुछ करना पड़ेगा, इसलिए वो आसान रास्ता चुनते हैं और दूसरों के साथ मिलकर किसी एक समुदाय से नफरत करने लगते हैं. इस तरह उनकी भड़ास निकल जाती है.” क्या आज हम ऐसे ही मुल्क में नहीं रह रहे हैं जहाँ बेहद तंगहाली में गुजर कर रहा शख्स भी दूसरे समुदाय से नफरत कर अपनी फ्रस्ट्रेशन निकाल रहा है!”

पटकथा लेखन से शुरू करके गीतों की दुनिया को सजाने वाले जावेद अख्तर का सपना है फिल्म डायरेक्शन का. कहते हैं कि मौका मिला तो अपने इस सपने को जरूर पूरा करूँगा.

ऐसे खूबसूरत जवाबों के लिए सबसे जरूरी चीज जो है, वह है वैसे ही सुन्दर सवाल . और यह आता है विषय की गहरी समझदारी से, जो नसरीन में बखूबी है .

हिंदी के जाने-माने लेखक असगर वजाहत ने इस किताब का अनुवाद किया है. कई नाटकों , कहानियों के लेखक असगर वजाहत के लोकप्रिय नाटक ‘जिन लाहौर नहीं वेख्या….’ का भारत समेत अनेक देशों में प्रदर्शन हो चुका है. आपने कई फीचर फिल्मों की पटकथा तथा दूरदर्शन के लिए ‘बूंद-बूंद’ धारावाहिक भी लिखा है.

असगर वजाहत जामिया मिलिया विश्वविद्यालय दिल्ली में हिंदी विभाग के प्रोफेसर हैं.

हिंदी सिनेमा को नजदीक से जानने समझने में रुचि रखने वाले लोगों के लिए यह जरूरी किताब है.

(गीतेश सिंह लखनऊ के एक केन्द्रीय विद्यालय में उप प्राचार्य हैं. इनसे geetesh82@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है .)

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