कोरोना डायरी : लॉकडाउन-3
नीलिशा
[युवा पत्रकार नीलिशा दिल्ली में रहती हैं और इस भयावह वक़्त का दस्तावेज़ीकरण वे कोरोना डायरी नाम से कर रही हैं। समकालीन जनमत पर इस रोजनामचे को आप क्रमशः पढ़ रहे हैं। प्रस्तुत है तीसरी किस्त। सं.]
14 दिन की समय सीमा भी पूरी हुई, लेकिन कोरोना की साइकिल तो नहीं टूटी। महामारी से निपटने के लिए जुमले नहीं ठोस नीति-निर्णय और इलाज की व्यव्स्था की ज़रूरत थी। वैक्सीन अभी दूर थी औऱ व्यवस्थाएं न के बराबर। प्रधानमंत्री पुनः लाइव आए और 4 मई से 17 मई तक के लिए लॉकडाउन-3 की घोषणा की। ताली-थाली के टोटकों का असर खत्म हो रहा था। लोगों के सब्र का बांध टूटने लगा था। लोगों के पास रोज़गार नहीं था और जो लोग वर्क फ्रॉम होम कर रहे थे, वो भी ज्यादा लकी नहीं थे, उनकी सेलरी का एक बड़ा हिस्सा कट चुका था। कहीं 30 फीसदी तो कहीं 50 फीसदी तक सेलरी कट गई। ऐसे में परेशान होना लाजिमी था। काम डबल हो गया और सेलरी आधी। अब लोगों के लिए ईएमआई देना और रूटीन के खर्चे निकालना भी मुश्किल हो गया था। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी ने अपनी सर्वे रिपोर्ट में कहा कि कोविड-19 के चलते देश में बेरोजगारी दर तीन मई को 27.11 प्रतिशत हो गई। 15 मार्च को खत्म हुए हफ्ते में बेराजगारी दर 6.74 प्रतिशत थी। सर्वे रिपोर्ट के अनुसार 12.2 करोड़ से ज्यादा लोगों को अपने काम से हाथ धोना पड़ा है। इसमें विनिर्माण उद्योग में काम करने वाले कर्मचारी, फेरी-रेहड़ी वाले, सड़क किनारे सामान बेचने वाले और रिक्शा चलाने वाले भी शामिल हैं।
मीडिया संस्थानों ने भी तमाम लोगों की नौकरियां छीनी लीं। मेरे ही कई वरिष्ठों और मित्रों की नौकरियां चली गई। 15 साल एक मीडिया ग्रुप में काम करनी वाली मेरी एक वरिष्ठ को उनके संस्थान ने ऑफिस आने से मना कर दिया। मेरे लिए यह बहुत चैकाने और दुख देने वाली बात थी। उन्होने अपने जीवन के महत्वपूर्ण 15 साल उस संस्थान को दिए। उसके साथ संस्थान ने ऐसा बर्ताव किया। वह भी उम्र के ऐसे पड़ाव और ऐसे समय पर जब लोग भविष्य के प्रति अधिक भयग्रस्त थे। तब संस्थान ने उनके साथ खड़े होने के बजाय उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।
रोजगार की स्थिति ऐसी थी के लोग पहले एक-दूसरे से खैरियत नहीं पूछते थे, बल्कि यह पूछते थे कि तेरी सैलरी कितनी कटी….. मेरी तो इतनी कट गई, तुम्हारे यहां क्या हाल है। बीमारी ने किसको कितना घेरा यह किसी की चिंता का विषय नहीं था। दैनिक भास्कर के एक रिपोर्टर से कहा गया कि वह इस्तीफा दे दे। उसने संस्थान से बहुत आग्रह किया कि उसकी नौकरी न छीनी जाए, वह बहुत परेशानी में आ जाएगा। संस्थान में बड़े पदों पर बैठे लोगों से उसने अपनी परेशानी कही और नौकरी से न निकाले जाने की गुजारिश की। उसे नौकरी से तो नहीं निकाला गया, लेकिन उसकी बीट बदल दी गई। अचानक से उसकी बीट बदलकर ज्यादा खबरें लिखने के लिए दवाब बनाया गया। कोरोना के समय पर जब दूसरी बीट में खबर मिलना मुश्किल हो, तब ज्यादा खबरें निकलना उसकी लिए बड़ा ही चुनौतीपूर्ण और तनावभरा था। काम करते हुए वह कोरोना पॉजिटिव हो गया और गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। जब वह एम्स में इलाज के लिए भर्ती हुआ तो उसने अपने संपादक से छुट्टी मांगी कि वह पॉजिटिव हो गया है, उसे छुट्टी की जरूरत है। संपादक ने कहा, कोई बात नहीं। तुम अस्पताल से ही खबरें भेजते रहो। जो व्यक्ति गंभीर रूप से बीमार हो, वह खबर कैसे लिख सकता है। वह संस्थान की संवेदनहीनता को सह नहीं सका। एक दिन उसने एम्स की तीसरी मंजिल से कूदकर अपनी जान दे दी। इतने बड़े हादसे के बाद भी संपादक पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। यह रिपोर्टर संघ से जुड़ा हुआ था, लेकिन आड़े वक्त कोई उसके काम नहीं आया। परिवार को न दिल्ली सरकार से और न ही केंद्र सरकार की तरफ से कोई आर्थिक मदद नहीं दी गई। पत्रकारों ने ही व्यक्तिगत तौर पर परिवार की मदद के लिए हाथ बढ़ाए। इस एक घटना से ही पूरे सिस्टम की संवेदनहीनता समझी जा सकती है।
अब तक जो मजदूरों के बाहर निकलने और अपने घरों की तरफ लौटने पर ज्ञान दे रहे थे, वह भी अब अपनी सेलरी कटने पर रो रहे थे। लेकिन सरकार को कोसने और जिम्मेदार ठहराने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। उन्हें लग रहा था कि एक-दो महीने में सब ठीक हो जाएगा, लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि अब उनके पुराने सुकून भरे दिन जल्दी लौटने वाले नहीं हैं।
महामारी के से पैदा हुई स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने जो 20 हजार करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा कि उसमें से किसके हिस्से कितना आएगा, यह गणित कोई नहीं लगा पा रहा था। तीन महीने ईएमआई न देने का ऐलान भी राहत देने की बजाय सिर्फ भ्रमित करने वाला था। तीन महीने की ईएमआई की छूट सिर्फ तात्कालिक राहत थी। इसका लाभ लेने का अर्थ जेब पर भोझ बढ़ाना ही था। ज्यादातर बैंकिंग एक्सपर्ट यही कह रहे थे कि अगर दे सकते हों तो ईएमआई जरूर भर दें, नहीं तो नुकसान हो जाएगा। अब लोगों के लिए ईएमआई का बोझ इतना ज्यादा हो गया था कि बहुत से लोगों ने अपने फ्लैट रीसेल में डाल दिए। हमारे आसपास रहने वाला हर दूसरा व्यक्ति अपना फ्लैट खाली करके जा रहा था। अगर सरकार कंपनियों को राहत पैकेज देती तो शायद यह हाल न होता। लोगों के स्थापित बिजनेस बर्बाद हो गए थे। ऑटो-रिक्शा चलाने वाले, छोटे बिजनेस करने वाले भी फल और सब्जी के ठेले लगाने लगे। कई लोगों से मैंने पूछा तो वे बोले, क्या करें, सब बर्बाद हो गया। अब सिर्फ सब्जी ही बेच सकते हैं और यही बिक भी रही है। भोपाल का एक कैमरापर्सन भी नौकरी जाने के बाद सब्जी की दुकान लगाने लगा। हालात लगातार खराब होते जा रहे थे।
इस दौरान जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, वह थे अस्पताल। कोरोना पीड़ितों की संख्या बढ़ती जा रही थी और अस्पताल मरीजों को भर्ती करने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। दिल्ली में केंद्र सरकार, एमसीडी और दिल्ली सरकार के अस्पताल हैं। दिल्ली का सबसे बड़ा अस्पताल एम्स हैं, लेकिन कोरोना के मरीजों के इलाज में इस अस्पताल की भूमिका पर लगातार सवाल उठते रहे। दिल्ली की स्वास्थ्य व्यवस्था पर जब भी कोई बात होती तो दिल्ली सरकार पर ही सवाल उठते। जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली के अस्पतालों में सिर्फ दिल्ली के ही लोगों का इलाज होगा तो विपक्ष ने इस पर आपत्ति जताई। किसी ने भी यह नहीं कहा कि केंद्र और एमसीडी के अस्पताल तो हैं न, इनमें बाहर के लोगों का भी इलाज होगा। एमसीडी भारतीय जनता पार्टी के पास है और केंद्र में भी उसकी सरकार है, लेकिन इस पर किसी ने भी सवाल नहीं उठाया। किसी ने भारतीय जनता पार्टी से यह सवाल नहीं पूछा कि उसके अस्पतालों में कोरोना के मरीजों का इलाज क्यों नहीं कर पा रहा है। एक टीवी चैनल की डिबेट में जब भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ने दिल्ली सरकार को घेरते हुए आम आदमी पार्टी के विधायक राघव चड्ढा से पूछा कि उनकी सरकार कोरोना के मरीजों का इलाज क्यों नहीं कर पा रही है तो राघव चड्ढा ने उनसे पलट कर पूछा कि केंद्र और एमसीडी के भी अस्पताल दिल्ली में हैं। बताइए कि कोरोना के मरीजों के लिए इन अस्पतालों में कितने बेड हैं। कितने मरीज भर्ती हैं। संबित पात्रा इसका जवाब ही नहीं दे पाए।
दिल्ली सरकार ने एक एप भी शुरू किया। इस एप से लोग दिल्ली के निजी और सरकारी अस्पतालों की सूची के साथ ही खाली बेड की संख्या भी जान सकते हैं। फिर भी अस्पताल अपनी मनमानी पर लगे रहे, विशेषकर, प्राइवेट अस्पताल। सरकारी अस्पताल सामान्य मरीजों को बेड नहीं दे रहे थे और प्राइवेट अस्पताल में इलाज इतना महंगा था कि इलाज कराना मुश्किल था। सरकारी अस्पताल मरीजों के साथ लापरवाही कर रहे थे। शाहदरा के एक व्यक्ति को हाई फीवर और ब्लड ग्लूकोज लेवल हाई होने पर लेडी हार्डिंग हॉस्पिटल भर्ती कराया गया। उनके परिवार ने कोरोना टेस्ट कराने के लिए कहा तो उनका टेस्ट किया गया। टेस्ट के बाद पता चला कि उनका सैंपल ही खो गया है। परिवार ने दोबारा टेस्ट करने के लिए बोला तो हॉस्पिटल ने कहा कि उनके पास टेस्टिंग किट नहीं है। इसमें ही चार दिन बीत गए। तब तक यह व्यक्ति वेंटिलेटल पर चला गया और फिर उसकी मौत हो गई। इसके बाद पूरे परिवार ने अपना टेस्ट कराया तो पता चला कि सब कोरोना पॉजिटिव हैं। ऐसी लापरवाही भी खूब सामने आईं।
साउथ दिल्ली में रहने वाले अरविंद शुक्ला (बदला हुआ नाम) ने फोन किया के उनकी मां कोरोना पॉजिटिव हैं। वह उन्हें एलएनजेपी हॉस्पिटल में भर्ती करना चाहते हैं, लेकिन हॉस्पिटल उनसे कह रहा है कि उसके पास बेड ही नहीं हैं। जब हॉस्पिटल भर्ती नहीं करेंगे तो वह इलाज कराने कहां जाएगा। मां बुजुर्ग हैं, इसलिए घर में रखकर इलाज करने में डर लग रहा है कि कहीं अचानक कोई बड़ी समस्या न हो जाए। प्राइवेट अस्पताल भी ऐसे ही व्यवहार कर रहे थे। दिल्ली में रहने वाले एक व्यक्ति का वीडियो वायरल हुआ, जिसमें वह रो-रो कर अपनी आपबीती बता रहा था। उसकी मां को सांस लेने में तकलीफ हुई तो वह उनका इलाज कराने के लिए मैक्स हॉस्पिटल, पटपड़गंज पहुंचा। हॉस्पिटल में उनकी मां को भर्ती करके डॉक्टरों ने उनका इलाज शुरू किया। साथ ही कोरोना टेस्ट के लिए भी उनका सैंपल ले लिया। इसके अगले दिन पता चला कि मां कोरोना पॉजिटिव हैं। इसके बाद हॉस्पिटल के डिप्टी मेडिकल सुप्रिंटिंडेंट ने उसे बुलाया और कहा कि उसकी मां कोरोना पॉजिटिव हैं। उनके हॉस्पिटल में कोविड के मरीजों के लिए बेड खाली नहीं हैं, इसलिए वह उन्हें कहीं और भर्ती करा दे। उसने कई अस्पतालों में फोन किया, लेकिन कोई भी अस्पताल उसकी मां को भर्ती करने को राज़ी नहीं हुआ। यह व्यक्ति रो-रो कर अपनी मां को भर्ती करने के लिए गुहार लगा रहा था, लेकिन कोई नहीं सुन रहा था। व्यक्ति ने सरकार द्वारा जारी किए गए हेल्पलाइन नंबरों पर भी फोन किया, लेकिन कोई मदद नहीं मिली। जब मैंने मैक्स हॉस्पिटल के पीआर डिपार्टमेंट में बात की तो उन्होंने कहा कि हमारे साकेत स्थित मैक्स हॉस्पिटल में ही कोरोना के इलाज की व्यवस्था है। मैंने कहा, फिर वहीं भेज देते। तो बोली, अब कुछ बेड तो हमें अपने स्टाफ के लिए भी तो रखने पड़ेंगे। कल अगर हॉस्पिटल का स्टाफ संक्रमित हो जाता है तो उनका इलाज कहां होगा। इन्होंने तो ईमानदारी से यह बात कह दी, लेकिन बाकी के हॉस्पिटल यह भी नहीं कह रहे थे। हकीकत यह है कि लगभग हर हॉस्पिटल कुछ बेड वीआईपी लोगों के लिए सुरक्षित रखे गए थे, इसीलिए किसी वीआईपी को हॉस्पिटल-हॉस्पिटल घूमना नहीं पड़ रहा था।
प्राइवेट अस्पतालों में इलाज इतना महंगा था कि लोग पूरा इलाज ही नहीं करवा पा रहे। लक्ष्मीनगर के रहने वाले एक व्यक्ति ने बताया कि उसके पिता पॉजिटिव हुए तो उसने मैक्स हॉस्पिटल में अपने पिता को भर्ती कराया। वहां पर उनका एक हफ्ते तक इलाज चला लेकिन उन्हे बचाया नहीं जा सका। अस्पताल वालों ने आठ लाख रुपये का बिल बना के दिया। बाजार में कोरोना की कोई दवा नहीं है, इसके बावजूद हॉस्पिटल लाखों रुपये वसूल रहे हैं। जबकि हॉस्पिटल में सामान्य मरीजों को सिर्फ गर्म पानी और विटामिन की गोलियां खाने को देते हैं और रोजाना एक पीपीई किट पहनने के लिए देते हैं। इसके अलावा अगर कोई अलग से परेशानी है तो लक्षण के अनुसार उसकी दवा दी जाती है।
दिल्ली का ही रहने वाला एक 40 वर्षीय व्यक्ति, जो कि किडनी का मरीज था, कोरोना पॉजिटिव हो गया। इस संक्रमित व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती कराने के लिए परिवार ने सर गंगाराम हॉस्पिटल फोन किया। सर गंगाराम भी प्राइवेट हॉस्पिटल है। जब परिवार ने फोन किया तो हॉस्पिटल ने कहा कि उन्हें पांच लाख रुपये एडवांस में जमा कराने पड़ेंगे, तब मरीज को भर्ती करेंगे। परिवार इतनी फीस नहीं दे सकता था, इसलिए उन्होंने मैक्स हॉस्पिटल, साकेत में फोन किया तो वहां से कहा गया कि ढाई लाख रुपये एडवांस में देने पड़ेंगे, तब भर्ती करेंगे। परिवार ने कहा कि मैक्स हॉस्पिटल में किसी तरह से भर्ती कराया। हॉस्पिटल में चार दिन भर्ती रहा। वहां पर कोई खास दवाएं भी नहीं दी गईं, लेकिन बिल बन गया दो लाख रुपये का। बाद में इस व्यक्ति ने हॉस्पिटल को अनावश्यक चार्जेज के लिए एक लीगल नोटिस भी भेजा। नोटिस में कहा गया कि हॉस्पिटल ने बिल में वो दवाएं लिखी हैं, जो दी ही नहीं गईं। इन दवाओं के लिए 71 हजार रुपये का बिल बनाया गया। व्यक्ति का आरोप था के उसे ग़लत बिल बनाकर दे दिया गया है। हॉस्पिटल ने मरीज से पीपीई किट का पैसा, 8900 रुपये प्रति के हिसाब से 35600 रुपये वसूला। कोरोना के मरीजों के लिए मैक्स हॉस्पिटल की ओर से एक रेट लिस्ट भी बनाई गई। रेट लिस्ट की जानकारी मैक्स हॉस्पिटल ने ट्वीटर पर जारी की। कोविड मेडिकल मैनेजमेंट प्रतिदिन के पैकेज के हिसाब से इकोनॉमी मतलब जनरल वार्ड का चार्ज 25000, डबल मतलब एक साथ दो मरीजों को रखने पर चार्ज 27100, आइसोलेशन के साथ प्राइवेट रूम चार्ज 30400, बिना वेंटिलेटर के आईसीयू का चार्ज 53000, वेंटिलेटर के साथ आईसीयू का चार्ज 72500 रुपये। इसके अलावा दवाएं (?), पीपीई किट, एंबुलेंस और भी तमाम चार्ज जोड़कर बिल बनाया जाता देते हैं। अस्पतालों की मनमानी के चलते लोगों में कोराना का भय लोगों के मन में गहरे तक बैंठ गया।
लॉकडाउन का असर सिर्फ अर्थव्यवस्था तक ही सीमित नहीं था। इस दौरान महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा के मामले भी बढ़ गए। पुरुष अब पूरा समय घर में ही बिता रहे थे इस कारण महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा की घटनाएं सामान्य से अधिक बढ़ गईं। मार्च के पहले सप्ताह में ही राष्ट्रीय महिला आयोग को देशभर से महिलाओं के खिलाफ अपराध की 116 शिकायतें मिलीं। लॉकडाउन में 23 मार्च से 31 मार्च के दौरान घरेलू हिंसा की शिकायतें बढ़कर 257 हो गईं। वहीं 24 मार्च से एक अप्रैल तक घरेलू हिंसा की 69 शिकायतें मिलीं। इस शिकायतों में लगातार इजाफा होता रहा। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने कहा कि उन्हें शिकायतों के रोज एक या दो ई-मेल आ रहे हैं। एनसीडब्ल्यू के आंकड़ों के मुताबिक, लॉकडाउन के दौरान पुलिस ने घरेलू हिंसा के 69 मामले, गरिमा के साथ जीने के 77, विवाहित महिलाओं की प्रताड़ना के 15 मामले, दहेज की वजह से हत्याओं के दो मामले, बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के 13 मामले दर्ज हुए हैं। घरेलू हिंसा और प्रताड़ना की सबसे ज्यादा 90 शिकायतें उत्तर प्रदेश से आईं, दिल्ली से 37, बिहार से 18, मध्यप्रदेश से 11, महाराष्ट से 18 शिकायतें आईं। लॉकडाउन से पहले उत्तर प्रदेश से समान अवधि में 36, दिल्ली से 16, बिहार से आठ, मध्यप्रदेश से चार, महाराष्ट से पांच शिकायतें दर्ज हुई थीं। जब शिकायतें बढ़ने लगीं तो एनसीडब्ल्यू ने एक व्हाट्सएप नंबर भी जारी किया, ताकि जो महिलाएं ई-मेल से शिकायत नहीं दर्ज करा पा रही हैं, वो सीधे व्हाट्सएप् कर दें। कुल मिलाकर लॉकडाउन का समय महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा मुश्किलों भरा रहा।
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