लखनऊ में शीरोज बतकही की दसवीं कड़ी
लखनऊ. हर रविवार आयोजित होने वाले शीरोज बतकही की दसवीं कड़ी में साम्प्रदायिक राजनीति के वर्तमान निहितार्थ पर बातचीत हुई.
बातचीत की शुरुआत सामाजिक कार्यकर्ता दीपक कबीर ने की । उन्होंने कहा कि आइडेंटिटी पाॅलिटिक्स के नये उभार का रास्ता, साम्प्रदायिक उभार के रास्ते से संभव हो रही है। उन्होंने कहा कि पहले भी आइडेंटिटी पाॅलिटिक्स होती थी मगर तब वह सत्ता पाने का उपकरण नहीं होती थी। अब स्थिति बदल चुकी है। ब्रिटिश भारत में 1918-20 के आसपास, देश में साम्प्रदायिक संस्थाओं की नींव पड़ने लगी थी। देश विभाजन और गांधी जी की हत्या के बाद तो साम्प्रदायिकता का वीभत्स रूप सामने आया।
उन्होंने कहा कि द्वितीय विश्व यु़द्ध के बाद उपनिवेशों के सिमटने के साथ ही महाशक्तियों ने इस्लामिक देशों पर प्रभुत्व जमाने, अपने हथियारों को बेचने आदि के लिए, उन देशों को अशांत करने की कूटनीति रची। इस्लामिक देशों में उपजे कट्टरता ने सेकुलर देशों को प्रभावित किया। उनका मानना था कि विगत तीस सालों में हमारे यहां वैज्ञानिक सोच और समझ को ध्वस्त किया गया है। ऐसे में साम्प्रदायिकता का फैलाव आसानी से होता चला गया है। आज स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि जिन्होंने इसे खाद-पानी दिया है, उनके हाथ से यह निकलता जान पड़ रहा है।
सामाजिक कार्यकर्ता ताहिरा हसन का मानना था कि साम्प्रदायिकता के बीज पहले से ही थे। 1949 में नेहरू ने भी माना था कि कांग्रेस में भी साम्प्रदायिक सोच के लोग हैं। हाल के दशकों में नई आर्थिक नीतियों और साम्प्रदायिकता ने एक साथ पांव फैलाया है। हमारी आर्थिक नीतियों का साम्प्रदायिकता से संबंध होना सत्ता समीकरण के लिए ज्यादा मुफीद जान पड़ता है। आज मुस्लिम समाज के जागरुक लोगों को अपनी सोच का मूल्यांकन करना होगा। जब वे गुजरात के साम्प्रदायिक उभार की आलोचना करते हैं तो उन्हें 1984 के सिखों के नरसंहार की भी निंदा करनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि आज पूरे विश्व में मुसलमानों को हिंसक बताया जा रहा है । यह अमेरिकी नीति का हिस्सा है, जिसे अपने हथियार बेचने हैं। दुनिया को जितना अशांत रखा जायेगा, उतना ही महाशक्तियों का हित सधेगा। अशांत मुस्लिम देशों के सहारे भारत जैसे देशों की आम जनता की सोच को मुस्लिम विरोधी तैयार करना आसान हो जाता है। हमारे यहां जिस तेजी से पूंजीपति मजबूत हो रहे हैं, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि के जरूरी सवाल हल नहीं किए जा रहे हैं, ऐसे में जनता के आक्रोश को साम्प्रदायिकता के सहारे भिन्न और हिंसक दिशा में मोड़ दिया जा रहा है। सत्ता के हित के लिए साम्प्रदायिकता एक कारगर हथियार साबित हो रही है। हिन्दू धर्म का सहारा लेकर इस तरह से साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया है कि अब कोई भी पार्टी मुसलमानों के साथ खड़ी होने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। हाशिये के समाज की नसों में साम्प्रदायिकता का जहर डाला जा रहा है। किसानों, मजदूरों और बेरोजगारों के सारे मुद्दे साम्प्रदायिकता के सामने भुला दिये जा रहे हैं। हमारे यहां उच्च जातीय कारपोरेट गणतंत्र तैयार किया जा रहा है।
प्रभात त्रिपाठी ने कहा कि हिन्दुत्व का उभार, मुस्लिमों पर हावी हो चुका है। यह सही है कि अंग्रेजों के पहले भी साम्प्रदायिकता के बीज थे मगर धर्म के साइड इफेक्ट और उसको सत्ता पाने का हथियार बनाने के कारण साम्प्रदायिकता का उभार तेज हुआ है। बेशक कुछ मुस्लिम शासकों ने मंदिरों को तोड़ा और उससे हिंदुओं को उभारा तब भी अंग्रेजों के पूर्व, हिन्दू-मुस्लिम समाज में इतना विभाजन न था। 1857 के गदर में अंग्रेजों ने देखा कि हिन्दू और मुस्लिम शासक, जो एक दूसरे के विरोधी रहे हैं, वे भी एक साथ आ गये तो उन्होंने उन्हें धर्म के आधार पर अलग करने की नीति अपनाई। 1910 से 1920 के बीच हिन्दू और मुस्लिम विभाजन तेज किया गया । यहां तक की आजादी की लड़ाई में शामिल हिन्दू और मुस्लिम नेतृत्व को अंग्रेजों ने बांटने का पूरा प्रयास किया और सफल भी रहे। कुछ उच्च जातियों ने संसाधनों पर कब्जा करने की नीति के कारण भी साम्प्रदायिकता को हथियार बनाया।
श्री त्रिपाठी ने कहा कि आज हिन्दुत्व के उभार के लिए इस्लाम का हौव्वा खड़ा किया जा रहा है। मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि के डरावने आंकड़े पेश किए जा रहे हैं। इस भय को बढ़ाने में मुस्लिम समाज के कुछ नेता भी सहायक हैं । जैसे कि अगर हम इमाम बुखारी के फतवे का विरोध नहीं कर पायेंगे तब हिन्दुओं के धर्म गुरुओं के फतवों का विरोध कैसे करेंगे ? आजादी के बाद मुसलमानों में डर पैदा कर उनकी गोलबंदी की गई है । इससे सत्ता प्रतिष्ठानों को यह फायदा हुआ कि वे एकमुश्त मुस्लिम वोट पाने में सफल होते गये।
हसन उस्मानी ने कहा कि आज मुस्लिम समाज डरा हुआ है। उसे हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है। वर्षों से साथ रह रहे समाज को बांटा जा रहा है, यह स्थिति मुल्क के लिए ठीक नहीं है।
बतकही में पहली बार शामिल हुए संजय ने कहा कि पारिवारिक परिवेश हमें धार्मिक और कट्टर बना रहे हैं । रही सही कसर सोशल मीडिया पूरी कर रही है। आज कुछ तत्व सोशल मीडिया का दुरुपयोग कर कट्टरता फैला रहे हैं। काॅन्वेंट और मिशनरी स्कूलों में ज्यादातर हिंदू लड़के पढ़ते हैं । हिन्दू छात्रों से ही इन स्कूलों को ज्यादा फीस मिलती है। ऐसे में वे मुस्लिमों के प्रति फैलाये जा रहे नफरत के खिलाफ कुछ भी कर पाने की मानसिकता में नहीं हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता अजय कुमार शर्मा ने कहा कि ब्रिटिश सत्ता के पूर्व कभी भी हमारे यहां हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता का इतिहास नहीं रहा है। वोट की राजनीति के शुरु होते ही साम्प्रदायिकता का उभार तेजी से हुआ है। आखिर यह कैसे संभव हुआ कि औरंगजेब पच्चीस वर्षों तक दिल्ली से दूर, दक्षिण भारत में रहा मगर उसके सत्ता सिंहासन पर कोई खतरा पैदा नहीं हुआ ? तब वोट से सत्ता का कोई संबंध नहीं था। सत्ता तलवारों के बल पर कायम थी । वोट की राजनीति ने समाज विभाजन के लिए साम्प्रदायिकता का सहारा लिया। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा कराये गये विभिन्न जातिगत जनगणना के द्वारा साम्प्रदायिक विभाजन के तत्वों की तलाश की।
उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिकता को बढ़ाने के लिए किसी व्यक्ति या समुदाय के प्रति परसेप्शन पैदा किया जाता है। आज चूंकि सिस्टम ही साम्प्रदायिकता फैला रही है, समुदायों में दूरियां बढ़ा रही है, ऐसे में उससे लड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है। यह एक दिन इतना अनियंत्रित हो जायेगा कि जिन्होंने इसे बढ़ाया है, उनके नियंत्रण से भी बाहर होगा। उनके लिए भी घातक होगा। उनका मानना था कि माॅबलिंचिंग और साम्प्रदायिक दंगों में फर्क होता है। माॅबलिंचिंग सत्ता की ज्यादा जरूरत पूरी कर रहा है । बेशक हमें जागरुक नागरिक का दायित्व निभाना होगा मगर विभिन्न राजनीतिक दलों की कमोबेश मानसिकता एक ही है। बदलाव के पक्ष में बहुत थोड़े लोग हैं। कभी भाषा, कभी जाति को लेकर यहां समाज विभाजन किया गया । भाषा और जाति की राजनीति भी साम्प्रदायिकता से जुड़ जाती है। आज इस खेल को कारपोरेट खेलने लगा है। हर दंगों में गरीब मरता है।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने भूमिका के रूप में अपनी बात रखते हुए बातचीत को सही दिशा में ले जाने का प्रयास किया । उन्होंने कहा कि समाज के निम्न समुदाय के आर्थिक हितों पर जिन्होंने डांका डाला है, जिन्होंने उसे सत्ता, समाज और सामाजिक नेतृत्व से अलग किया है, वे ही लोग उसे धार्मिक बना कर, उसके अंदर के गुस्से को शांत करने के लिए साम्प्रदायिकता की जहरीली दवा पिला रहे हैं। साम्प्रदायिकता हमेशा अल्पसंख्यक या निम्न समुदाय की आर्थिक जरूरतों पर चोट करती है । उसे और परतंत्र बनाती है। उसे कारपोरेट, सत्ता और सबल का दास बना कर छोड़ती है । उन्होंने कहा कि हाशिये के समाज का साम्प्रदायीकरण उसकी गरीबी, भूखमरी, बदहाली से ध्यान भटकाने के रूप में किया जाता है जबकि पड़े-लिखों का साम्प्रदायीकरण कर सत्ता, अपने वर्गीय हितों को सुरक्षित रखती है।
बतकही में आशा कुशवाहा भी शामिल हुईं और उन्होंने साम्प्रदायिक विभाजन पर दुख व्यक्त किया।