समकालीन जनमत
ये चिराग जल रहे हैं

‘अचल’ वाले जीवन चंद्र जोशी

( वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक नवीन जोशी के प्रकाशित-अप्रकाशित संस्मरणों की  श्रृंखला ‘ये चिराग जल रहे हैं’ की  तीसरी   क़िस्त  में  प्रस्तुत  है   कुमाऊंनी भाषा की पहली   पत्रिका  ‘अचल ‘  के  संपादक  जीवन चंद्र  जोशी  की कहानी . सं.)

लखनऊ में बर्लिंगटन चौराहे से केसरबाग को जाने वाली सड़क पर ओडियन सिनेमाघर से कुछ आगे, बाएं हाथ की तरफ कालीबाड़ी नाम का पुराना मुहल्ला है. वहां काली का पुराना मंदिर होने से यह नाम पड़ा. कालीबाड़ी  मंदिर से पहले वाली गली तनिक आगे जाकर दाएं मुड़ती है. उसी मोड़ के कोने पर दाहिनी तरफ एक पुराना मकान था. सड़क से लगा छोटा दरवाजा. ‘हीरा तिवारी’ नाम की तख्ती के नीचे लगी ‘कॉल बेल’ का स्विच मैं बड़े संकोच से दबाता था. दरवाजा खुलता तो धीरे-से पूछता- ‘जोशी जी से मुलाकात हो पाएगी?’

मुलाकात लगभग हो ही जाती थी क्योंकि उन दिनों वे कहीं आ-जा नहीं पाते थे. कभी ज्यादा अस्वस्थ हुए तो मैं ही लौट आता. जोशी जी माने जीवन चंद्र जोशी, ‘अचल’ वाले. ‘अचल’ यानी कुमाऊंनी बोली की पहली पत्रिका, जो 1938-40 में अल्मोड़ा से प्रकाशित हुई थी. जीवन चंद्र जोशी उसके मुख्य योजनाकार और सम्पादक थे. वैसे, ‘अचल’ उनके योगदान का एक ‘शृंग’ भर है. इसके अलावा भी वे कुमाऊंनी बोली के लिए बहुत दौड़े-लड़े-झगड़े-जूझे. अशक्त और अस्वस्थ हो जाने बाद अपना बुढ़ापा लखनऊ में बेटी हीरा तिवारी के पास काट रहे थे. हम उन्हें जीवन बड़बाज्यू कहते. कभी-कभार मिलने चले जाते थे. उनसे बहुत कुछ पुराना और कीमती सुनने को मिलता. प्रेरणा मिलती.

मई 1980 के बाद मैंने वह कॉल बेल नहीं बजायी. 2020 में जीवन बड़बाज्यू को मरे 40 साल हो गये मगर उनकी याद बराबर आती है. जब भी कुमाऊंनी बोली की कोई पत्रिका घर पहुंचती है, जब भी कोई कुमाऊंनी में लेख, आदि लिखने का आग्रह करता है, या कुमाऊंनी बोली पर गोष्ठी या सम्मेलन का न्योता मिलता है, वे याद आ जाते हैं. मरते समय तक उनका एक ही दुख था कि कुमाऊंनी बोली को कुमाऊं के लोग ही ल्याख नहीं लगाते. अपनी बोली के लिए उनमें हीन भावना है, ऐसा कहते थे. जीवित होते तो शायद खुश होते. स्तर उनकी अपेक्षा के अनुरूप हो, न हो, मगर कुमाऊंनी में अब खूब लिखा-छापा जा रहा है.

जीवन बड़बाज्यू से मुलाकात 1978 में बंसीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ जी ने कराई थी. उन दिनों हम ‘आंखर’ संस्था बना कर कुमाऊंनी-गढ़वाली बोली में नाटक मंचन करते और कुमाऊंनी बोली में ‘आंखर’ पत्रिका नियमित निकालने की तैयारी में  थे. जिज्ञासु जी हमारी प्रेरणा थे और उनकी प्रेरणा थे जीवन बड़बाज्यू. तब वे 77 साल के हो चुके थे और कई बीमारियों से ग्रस्त थे. उनके हाथ कांपते थे, जिह्वा लखड़ाती थी लेकिन बोलते तो वाणी की प्रखरता साफ मालूम होती. उनकी भीतरी ऊर्जा कायम थी.

एक बार बोलने लगते तो यादों का पिटारा खुल पड़ता. स्मृति बढ़िया थी. एक व्यक्ति पर बोलने लगते तो उससे जुड़े कई व्यक्तियों का जिक्र आ जाता. एक साथ कई प्रसंग खुल पड़ते. मूल बात कहीं पीछे छूट जाती और उसकी अंतर्कथाएं खुलने लगतीं. भावावेश, नराई और स्मृति के आवेग से आधा वाक्य उनके मुंह ही में रह जाता. नोट्स लेना मुश्किल हो जाता. लगता कि टेप रिकॉर्डर होना चाहिए, जो कि तब अपने पास  था नहीं. बाद में लगता रहा कि उस युग के महत्त्वपूर्ण लोगों की कितनी बातें, कितने संस्मरण और कितने दस्तावेज उनके साथ ही गुम हो गये.

अपने पिता के बारे में वे बहुत उल्लास और गर्व के साथ बताते थे. पं लीलाधर जोशी कुमाऊं के सांस्कृतिक-साहित्यिक इतिहास का महत्वपूर्ण किंतु अल्पज्ञात नाम है. जो जानकारियां जोशी जी ने उनके बारे में हमें दी थीं उनके अनुसार लीलाधर जी अत्यंत अध्ययवसायी और विलक्षण प्रतिभाशाली थे. उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में स्नातक किया और स्वर्ण पदक जीता था. अंग्रेजी और संस्कृत में विशेष योग्यता प्राप्त की थी. वे अंग्रेजी और कुमाऊंनी में मौलिक लेखन के अलावा अनुवाद भी खूब किया करते थे. ‘मेघदूत’ और ‘गीता’ का कुमाऊंनी में छंदबद्ध अनुवाद किया था. ‘गीता’ का अनुवाद हू-ब-हू अनुष्टप छंद में है. बाण की प्रख्यात पुस्तक ‘हर्षचरित’ के कुछ अध्याय भी उन्होंने कुमाऊंनी में श्लोकबद्ध किये थे. अंगरेजी में अपनी आत्मकथा लिखी थी. मौलिक लेखन भी बहुत सारा किया था. लीलाधर जी धाराप्रवाह संस्कृत बोलते थे और अधिकतर पत्र-व्यवहार भी उसी भाषा में करते थे. कुमाऊंनी बोली के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे और उनका आग्रह होता था कि मैदानों में आ बसे कुमाऊंनी जन अपनी बोली छोड़ें नहीं. अंगरेजी से कुमाऊंनी सीखने के लिए उन्होंने अपने मित्र जय दत्त जोशी से एक किताब भी लिखवाई थी, जिसका नाम था- ‘शिशु-बोध’. लीलाधर जी की कुछ रचनाएं प्रकाशित हुईं और बाकी अप्रकाशित रह गई थीं.

हमने जीवन बड़बाज्यू से इन दस्तावेजों के बारे में कई बार पूछा था. कहते थे कि उनका सारा संग्रह अल्मोड़ा में रह गया. ‘अचल’ का भी कोई अंक उनके पास लखनऊ में नहीं था. वे लाचारी और बीमारी में अल्मोड़ा छोड़ कर लखनऊ आये थे, जैसे दशकों पहले बीमारी के कारण ही लखनऊ छोड़ कर अल्मोड़ा लौटे थे. हम बार-बार आग्रह करते थे उनसे कि कुछ दस्तावेज मंगवाइए. वे लाचारी में दोनों हाथ उठा देते. खुद जाने लायक नहीं थे और शायद कोई कर देने वाला भी न था. वे अपनी बेटी के पास रह रहे थे जो खुद भी दुखियारी थी. पहाड़ में छूट गये अपने संग्रह का जिक्र आने पर उनकी आंखें सजल हो उठती थीं.

पता नहीं उनका कीमती संग्रह आज कहां और किस हाल में होगा. उसकी पड़ताल करने की जरूरत है. उसमें हमारी अमूल्य धरोहर है. कुमाऊंनी बोली और उसके साहित्य पर शोध करने वालों को निश्चय ही वह खजाना तलाशना चाहिए. आशंका है कि वह कहीं नष्ट न हो गया हो.

लीलाधर जोशी जी मुंसिफ थे. कई शहरों-कस्बों में उनका तबादला होता रहता था.  सन 1901 में वे सफीपुर (जिला उन्नाव, उत्तर प्रदेश)) में तैनात थे. वहीं 23 अगस्त को उनकी पत्नी कौशल्या देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया. जीवन चन्द्र नाम का यह बालक बचपन में बहुत चंचल और शरारती था. अध्ययवसायी पिता के इस बालक को पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी न थी. वह दिन भर पतंग उड़ाने और ताश खेलने में मस्त रहता. 1903 में तबादले के बाद से लीलाधर जी का परिवार लखनऊ रहने लगा था. पतंगबाजी के दीवाने बालक जीवन को मुहल्ले के लड़के ‘पतंगबाज भैया’ के नाम से जानते थे.

दमा रोग के कारण हांफते-हांफते जीवन बड़बाज्यू के बूढ़े मुख पर एक स्मित खिल जाती थी- ‘मैं पढ़ने के लिए बैठता ही न था. तब पिता जी ने मुझे अक्षर ज्ञान कराने के लिए अभिनव तरीका निकाला.  वे ताश की नयी गड्डी ले आये और उसके पत्तों पर स्वर, ब्यंजन तथा गिनतियां लिख दीं. मुझसे कहते, आओ, ताश खेलें. मैं खुशी-खुशी खेलने बैठ जाता. वे खेलते-खेलते सिखाते रहते- इक्का माने अ, बादशाह माने आ….  इस तरह मैंने पढ़ना-लिखना सीखा. धीरे-धीरे पढ़ाई में रुचि विकसित होने लगी. सन 1912 में जब लीलाधर जी की बदली बहराइच हुई तब तक बालक जीवन की स्कूली पढ़ाई शुरू नहीं हुई थी.  मगर तब तक वह तरह-तरह की किताबें पढ़ने लगा था.

बहराइच में लीलधार जी के एक दोस्त बने आशुतोष हाजरा. वे एक स्कूल के हेडमास्टर थे. एक दिन हाजरा जी जोशी जी के घर आये थे तो उनके बेटे को देख कर पूछ लिया- ‘किस दर्जे में पढ़ते हो?’ लीलाधर जी ने दोस्त से कहा- ‘इसने अभी तक स्कूल ही नहीं देखा.’ हाजरा जी ने दूसरे ही दिन पिता-पुत्र को स्कूल बुलाया.

जीवन बड़बाज्यू हंसते हुए बताते थे कि ‘स्कूल पहुंचे तो हेडमास्टर ने मुझसे पूछा-क्या-क्या पढ़ सकते हो? मैंने कह दिया था- सब पढ़ सकता हूँ. हेडमास्टर ने मुस्कराते हुए अंगरेजी की एक पुस्तक मेरे सामने खोल दी. कहा- पढ़ो. जो पन्ना खुला था वह मैंने फटाफट पढ़ दिया. हेडमास्टर ने खुश होकर मेरी पीठ ठोकी. पता चला कि वह कक्षा सात की पाठ्य पुस्तक थी. उसी दिन मुझे कक्षा सात में भर्ती कर दिया गया.’

उसी साल यानी 1912 ही में लीलाधर जी का नैनीताल में निधन हो गया. इस आघात के बाद परिवार अल्मोड़ा आ गया.  किशोर जीवन चन्द्र ने 1916-17 में अल्मोड़ा से हाईस्कूल पास किया. उन दिनों के अल्मोड़ा की सांस्कृतिक-साहित्यिक चेतना एवं सक्रियता अद्भुत थी. जीवन चंद्र के साथ पढ़ने वाले विद्यार्थियों में सुमित्रानन्दन पंत, इलाचंद्र जोशी, गोविंदबल्लभ पंत (नाटककार) जैसे नाम थे जो बाल्यकाल से ही साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय थे. हाईस्कूल में पढ़ते हुए इन लड़कों ने अल्मोड़ा में ‘मर्चेण्ट ऑफ वेनिस’ और ‘वीर अभिमन्यु’ जैसे नाटक खेले थे. शेक्सपियर के मशहूर नाटक में  क्रूर शायलॉक की भूमिका जीवन चंद्र जोशी ने निभायी थी. दूसरे नाटक में सुमित्रानन्दन पंत अभिमन्यु बने थे. जीवन चंद्र जोशी ने कर्ण का पात्र निभाया था. हंसते हुए जीवन बड़बाज्यू बताते थे कि हमने एक और नाटक खेला था- ‘दुर्गादास’. राजेंद्र राय का लिखा यह बांग्ला नाटक  राजनैतिक था जिसका रूप नारायण पाण्डे ने हिंदी में अनुवाद किया था. इसे खेलने के लिए हमें बड़ी डांट पड़ी थी. सम्भ्रांत और कुलीन अल्मोड़ा को लड़कों का यह राजनैतिक दखल कतई पसंद नहीं आया था. खैर.

साहित्यिक मोर्चे पर ये ‘लड़के’ खूब सक्रिय रहते थे. उनमें आपस में ही होड़ लगी रहती थी. अलग-अलग ग्रुप बन गये थे और एक-दूसरे से अच्छा करने की प्रतियोगिता जैसी रहती थी. कुछ लड़कों ने ‘शुद्ध साहित्य समिति’ बनायी और एक पुस्तकालय खोला. तब के चर्चित कुमाऊंनी कवि श्यामाचरण दत्त पंत को अपना संरक्षक बनाया. इस ग्रुप ने ‘सुधाकर’ नाम से मासिक पत्र निकाला जो हाथ से लिख कर बांटा जाता था. दूसरे ग्रुप के लीडर जीवन चंद्र जोशी थे. उन्होंने ‘वसंत’ और ‘उशीर’ नाम से हस्तलिखित पत्रिकाएं निकालीं.

हाईस्कूल स्तर के लड़कों की यह साहित्यिक-सांस्कृतिक सक्रियता आज चकित कर सकती है लेकिन उस दौर में परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने की तनावपूर्ण प्रतियोगिता नहीं होती थी. दूसरे, अल्मोड़ा शहर की चेतना और सक्रियता स्वाभाविक रूप से किशोरों-युवाओं को उद्वेलित-प्रेरित करती थी. बीसवीं सदी के शुरुआती पांच-छह दशकों का अल्मोड़ा का इतिहास इसका साक्षी है.

हाईस्कूल पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए जीवन चंद्र जोशी लखनऊ आ गये. लखनऊ से उनका पुराना सम्पर्क रहा था. लखनऊ के केनिंग कॉलेज से , जो बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय कहलाया, सन 1923 में उन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास में एम ए की डिग्री हासिल की. इस पूरे दौर में साहित्यिक कर्म भी जारी था. लिखते और यत्र-तत्र छपते भी थे लेकिन पढ़ना और साहित्यकारों से सम्पर्क कराना उससे ज्यादा होता था. बाल-सखा सुमित्रानंदन पंत, इलाचंद्र जोशी और गोविंदबल्लभ पंत भी क्रमश: कविता, कहानी और नाटक के क्षेत्र में उभरता नाम बन चुके थे. हालांकि सब-अलग-अलग चले गये थे लेकिन सम्पर्क बना हुआ था. यह दायरा लगातार बढ़ता रहा.

इतिहास में परास्नातक कर चुकने के बाद जीवन चंद्र जोशी जी का इरादा कुमाऊं के प्रागैतिहासिक काल पर शोध करने का था. तभी उनके साथ कुछ हादसे हो गये. एक के बाद एक  उनकी दो दीदियों का निधन हुआ. फिर एक भांजे की मौत हुई. खुद उन्हें लखनऊ की लू के थपेड़ों ने इतना बेहाल किया कि उनका स्नायु तंत्र प्रभावित हो गया, जिसने बाद में भी उन्हें काफी परेशान किया. इन दुखद घटनाओं से परेशान होकर वे पहाड़ लौट गये थे.

उनके मामा, नैनीताल के एडवोकेट मथुरादत्त पाण्डे, नैनीताल बैंक के प्रमुख कर्ता-धर्ताओं में एक थे. अपने इन मामा के बारे में जोशी जी कहा करते थे कि उन्होंने नैनीताल में अंगरेजों के मुकाबिल भारतीयों को बसाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. बहरहाल,  नौकरी नहीं करने का इरादा कर चुके जोशी जी नैनीताल बैंक का काम-काज देखने में अपने मामा की मदद करने लगे.  उस दौरान बैंक की कुछ शाखाएं खोली गयीं. पहाड़ में और भी बहुत कुछ करने की योजना थी लेकिन मथुरादत्त जी की मृत्यु  से सब ठप हो गया.

सन 1937 में ‘विशाल भारत’ में छपे एक लेख ने जीवन चंद्र जोशी जी का जीवन-लक्ष्य निर्धारित कर दिया. कलकता से प्रकाशित होने वाले उस समय के इस प्रमुख पत्र में देवेंद्रकुमार जोशी का कुमाऊंनी साहित्यकारों के बारे में एक लेख छपा था. इस लेख में जीवनचंद्र जोशी का भी जिक्र था. इस लेख पर एडवोकेट बदरी शाह, श्रीधर प्रसाद और तारादत्त पाण्डे जैसे मित्रों से चर्चा में यह बात निकली कि हिंदी के लिए कुछ किया तो ठीक, लेकिन बात तो तब है जब अपनी बोली, कुमाऊंनी के लिए नया काम किया जाए. बात-बात में कुमाऊंनी में एक पत्रिका निकालना तय हुआ. कुछ दिन बाद दिल्लगी-दिल्लगी ही में ‘शक्ति’ और ‘कुमाऊं कुमुद’ अखबारों में इसका विज्ञापन छपवा दिया.

अखबारों में विज्ञापन छप गया तब फिक्र होनी शुरू हुई कि क्या होगा, कैसे होगा. फिर सोचा, जो होगा देखा जाएगा. अब करना तो है ही. और, जुट गये काम में. पत्रिका का नाम रखा गया ‘अचल’. तय हुआ कि मासिक प्रकाशन होगा. सम्पादक तो खुद जोशी ही ठहरे, तारादत्त पाण्डे को सहकारी सम्पादक बनाया. प्रबंध सम्पादक के रूप में धर्मानंद पंत का नाम गया. बहुत सारे परिचितों को चिट्ठियां लिखीं कि कुमाऊंनी में कविता, कहानी, लेख, वगैरह लिखो. बाल-सखा गोविंदबल्लभ पंत को लिखा –‘यार, अपनी नक्काशी दिखाओ. अब वक्त आ गया है.’ बात यह थी कि पंत जी चित्रकारी भी करते थे. सो, उनसे ‘अचल’ का मुखपृष्ठ बनाने के लिए कहा गया. निवेदन नहीं, आदेश. पंत जी ने जिद्दी मित्र का आदेश तुरंत माना. प्रवेशांक के लिए जो आमुख तैयार हुआ उसमें पर्वत श्रंखलाएं, ध्रुव तारा, आदि बनाए यानी अचल-प्रतीक.

कुमाऊंनी में लिखने वाले बहुत कम थे. कुछ रचनाएं आईं, कुछ उन्होंने पीछे पड़ -पड़ कर लिखवायीं. फिर भी सामग्री का संकट हुआ तो जोशी जी ने अलग-अलग नामों से खुद कई चीजें लिखीं. इस तरह ‘अचल’ का प्रवेशांक फरवरी 1938 में प्रकाशित हुआ. वास्तव में, उसे ‘प्रवेशांक’ नहीं कहा गया था. ‘वर्ष’ और ‘अंक’ लिखने की परम्परा निभाने की बजाय नया प्रयोग किया गया. ‘अचल’ को पहाड़ मान कर वर्ष के लिए ‘श्रेणी’ और अंक के लिए ‘शृंग’ लिखा गया. यानी ‘वर्ष एक, अंक एक’ की बजाय ‘श्रेणी एक, शृंग एक’.

यह ऐतिहासिक अवसर था. कुमाऊंनी बोली की पहली पत्रिका जन्म ले चुकी थी. इसी ‘अचल’ को भविष्य में कुमाऊंनी बोली के लिखित साहित्य में मील का पत्थर बनना था. इसे अनेकानेक लेखकों को अपनी बोली में लिखने के लिए प्रेरित करना था. आने वाली पीढ़ी में अपनी दुधबोली में पत्रिका प्रकाशन का उत्साह जगाना था.

‘श्रेणी एक, शृंग एक’ की चढ़ाई तो चढ़ ली मगर आगे के शृंगों का सफर तय करते रहना निश्चय ही आसान नहीं था. कदम-कदम पर दिक्कतें थीं. संसधान की कमी थी लेकिन वह ज्यादा बड़ी बाधा नहीं बनी. पहले दो ‘शृंग’ प्रकाशित होने के बाद अल्मोड़ा के इंदिरा प्रेस वालों से, जहां से ‘अचल’ छप रहा था, झगड़ा हो गया. इसका भी रास्ता निकाल लिया गया. अगले अंक छापने की व्यवस्था नैनीताल के ‘किंग्स प्रेस’ से हो गयी.

मुख्य समस्याएं दो थीं. पहला- नियमित रूप से स्तरीय सामग्री जुटाना. दूसरा- पत्रिका के लिए ऐसा पाठक वर्ग तैयार करना जो इस ‘अचल’ का महत्त्व समझे और उसे सम्मान दे. कुमाऊंनी में अच्छी सामग्री के लिए जोशी जी ने हर सम्भव दरवाजा खटखटाया, हर उपलब्ध लेखक को टोका और सम्भावनाशील व्यक्तियों को लिखने के लिए प्रेरित किया. खुद भी अलग-अलग नामों से लिखा.

इस संदर्भ में सुमित्रानंदन पंत का किस्सा रोचक और उल्लेखनीय है. पंत जी तब तक हिंदी कविता-आकाश के चमचमाते तारे बन चुके थे. जोशी जी ने पंत जी से अपनी बोली में भी लिखने को कहा. कई बार आग्रह किया लेकिन पंत जी ने कुमाऊंनी में कुछ भी लिख कर नहीं दिया. तब जोशी जी को गुस्सा आया. उन्होंने सुमित्रानंदन पंत को फटकार लगा दी- ‘कैसे पहाड़ी हो तुम? पहाड़ी में कुछ लिख कर दो वर्ना कह दो कि मैं पहाड़ी नहीं हूँ.’

इस डांट का असर पड़ा और पंत जी ने अपनी पहली और सम्भवत: एक मात्र कविता ‘अचल’ के लिए लिखी- “सार जंगव में त्वे जस क्वे नहां रे, बुरांश/ फुलन छै के बुरांश/ सार जंगव जस जलि जां…”

‘अचल’ के कुछ अंक निकले तो फिर कई रचनाकारों को जोश आ गया. स्थापित कुमाऊंनी कवियों को तो मंच मिला ही, कई नए रचनाकार भी प्रेरित हुए. लेखक बिरादरी जुटती गयी. श्यामाचरणदत्त पंत, जयंती पंत, रामदत्त पंत, भोलादत्त पंत ‘भोला’, बचीराम पंत, दुर्गादत्त पाण्डे, त्रिभुवनकुमार पाण्डे, आदि–आदि की बड़ी टीम बन गयी. ‘अचल’ में पहाड़ के उस समय के अखबारों की समीक्षाएं भी प्रकाशित होती थीं. उदाहरणार्थ, श्रेणी-2, शृंग- 6 में लैंसडाउन से प्रकाशित साप्ताहिक ‘कर्मभूमि’ के प्रथम वर्ष के 16वें अंक की ‘आलोचना’ में उसके सम्पादक भक्तदर्शन जी को बधाई देने के साथ ही यह अपेक्षा की गयी थी कि वे इसमें गढ़वाली साहित्य-संस्कृति को भी प्रकाश में लाएंगे (“हमारी सम्पादक ज्यू थैं यो विज्ञप्ति छ कि ऊं यैका द्वारा गढ़वाल का साहित्य और संस्कृति कैं लगै प्रकाश दीना… “)

‘अचल’ का भीतरी पृष्ठ 

उस समय के बहुचर्चित हैड़ाखान बाबा और सोमवारी बाबा पर सबसे पहले ‘अचल’ ने विस्तार से सामग्री छापी थी., जो बाद में उन पर पुस्तक लिखे जाने में सहायक हुई. प्रख्यात रूसी चित्रकार निकोलाई रोरिख के हिमालय सम्बंधी लेखों का कुमाऊंनी अनुवाद भी उसमें प्रकाशित किया गया.

जहां तक ‘अचल’ को कुमाऊंनी समाज में व्यापक स्वीकृति और सम्मान मिलने का सवाल है, जीवन चंद्र जोशी जी को इसमें बहुत कटु अनुभव हुए. कुमाऊंनी रचनाकारों ने तो स्वाभाविक ही ‘अचल’ का स्वागत किया लेकिन तथाकथित कुमाऊंनी भद्र लोक ने उसे हिकारत से देखा. बीमारी और वृद्धावस्था के बावजूद वह प्रसंग हमें बताते हुए उन्हें गुस्सा आ जाता था. कहते थे कि अंग्रेजों के पिछलग्गू बने हमारे बहुत सारे कुमाऊंनी परिवार अपनी बोली को हीन भावना से देखते थे. जब उन्हें ‘अचल’ भेजा गया तो कुछ ने बिना पत्रिका खोले उस पर यह लिख कर वापस कर दिया कि “डू नॉट सेण्ड सच ट्रेश” (ऐसा कचरा न भेजें). कुछ ने इसे ‘एण्टी नेशनल’ काम बता दिया.

जीवन बड़बाज्यू गुस्से में बोलने लगते तो आवाज कांपने लगती थी- “ हम कहते, अरे, कैसे है एण्टी नेशनल काम? हम बता रहे हैं हमारे भीतर क्या है. तुम अपने भीतर का बाहर लाओ. हमारी उलटी खोपड़ी यह मानती थी कि कुमाऊंनी में बहुत किया जा सकता है. कभी बांग्ला की स्थिति ऐसी ही थी. बोशी सेन जैसे लोग कहते थे- ‘यू हैव ब्रॉट आउट अ ग्रेट थिंग, बट यू आर वर्किंग फॉर अनग्रेटफुल पीपल.’ सही कहते थे वे. हम पहाड़ियों में अपण्याट ही नहीं रहा”. उन्हें अंतिम समय तक यह तकलीफ रही कि पहाड़ियों में अपनी बोली के प्रति वह प्रेम, वह समर्पण नहीं है जो बंगाली या मराठी लोगों में है.

तब भी वे नियमित रूप से ‘अचल’ का प्रकाशन करते रहे. ठीक दो साल बाद जनवरी,1940 का अंक अंतिम साबित हुआ, क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने से कागज मिलना मुश्किल हो गया था. समाज का सहयोग भी निराशाजनक था. फरवरी 1938 से जनवरी 1940 तक दो वर्षों में, श्रेणी-एक के तहत बारह एवं श्रेणी-दो के तहत बारह, कुल में 24 शृंग (अंक) प्रकाशित हुए. इनमें सम्भवत: दो शृंग संयुक्तांक के रूप में निकालने पड़े थे.

रामनगर, नैनीताल से कुमाऊंनी बोली में ‘दुधबोलि’ प्रकाशित करने वाले कुमाऊंनी साहित्य-सेवी मथुरादत्त मठपाल जी, जिन्हें कुमाऊंनी में उल्लेखनीय कार्य के लिए चारुचंद्र पाण्डे जी के साथ ही बोली में काम करने के लिए साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित किया गया है,  विभिन्न सम्पर्कों से ‘अचल’ के सभी अंक जुटाने के अभियान में लगे हैं. उन्हें अधिसंख्य ‘शृंग’ हासिल भी हो गये हैं. ‘दुधबोलि’ के 2007 के वार्षिकांक में उन्होंने ‘अचल’ श्रेणी-2 के शृंग दो, तीन, छह एवं सात से कुछ सामग्री प्रकाशित भी की है.

जीवन बड़बाज्यू का बचपन और कैशौर्य मैदानी शहरों-कस्बों में बीता था. बाद में भी कई वर्ष वे कुमाऊं से दूर शहरों में रहे लेकिन उन्हें अपनी बोली से अद्भुत लगाव था. निश्चय ही इसमें उनके पिता लीलाधर जोशी जी के कुमाऊंनी-प्रेम का योगदान रहा होगा.  कुमाऊंनी के लिए वे किसी से भी लड़ पड़ते थे. सम्भवत: 04 सितम्बर 1935 की बात है. एक दिन पहले, 03 सितम्बर को दिन जवाहर लाल नेहरू अल्मोड़ा जेल से रिहा हुए थे. अगले दिन नेहरू जी के स्वागत में कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने अल्मोड़ा शहर में एक सभा का आयोजन किया. उस सभा में बदरीदत्त पाण्डे ने जैसे ही हिंदी में भाषण शुरू किया, जीवनचंद्र जोशी जी ने प्रतिरोध किया कि कम से कम अल्मोड़ा में तो कुमाऊंनी में बोलिए. समर्थन में सभा से कुछ और आवाजें उठीं तो बदरीदत्त पाण्डे और फिर हरगोविंद पंत को कुमाऊंनी में बोलना पड़ा था.

इस घटना से ग्यारह साल पहले यानी 1924 में जीवनचंद्र जी की शादी हुई थी. पत्नी बुलंदशहर जिले के अनूपशहर नगर में पली-बढ़ी थीं और कुमाऊंनी बोलना नहीं जानती थीं. शादी के बाद पत्नी को कुमाऊंनी सिखाना उन्होंने अपना पहला दायित्व मान लिया. जल्दी ही वे सीख भी गयीं. ऐसा ही संयोग उनके बेटे की शादी के समय हुआ. बहू को कुमाऊंनी नहीं आती थी. जोशी जी ने घर में सबको निर्देश दिया कि बहू से सभी लोग सिर्फ कुमाऊंनी में बात करेंगे ताकि वह जल्दी अपनी बोली सीख सके. बच्चों को लोरियां सुनाना, लाड़ करना और  खेल खिलाना तो कुमाऊंनी में ही होता था. उनका मानना था और सबसे कहते रहते थे कि अपनी बोली-भाषा ही नहीं आयी तो मनुष्य कैसा!

मैं और जिज्ञासु जी लखनऊ में जब भी उनसे मिलने जाते तो सारी बातचीत कुमाऊंनी ही में होती. एक दिन मैं उनका इण्टरव्यू करने पहुंचा. सवाल हिंदी में तैयार करके ले गया था. उन्होंने सारे जवाब कुमाऊंनी में दिये और मुझसे भी कहा था कि ‘आपणि बोलि में किलै ने पुछना.’ (अपनी बोली में क्यों नहीं पूछते?)

1977 में जब ‘नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन शुरू हुआ तो कुछ माह बाद मैंने उन्हें इसके बारे में बताया. फिर उन्हें डाक से नियमित अंक भेजे जाने लगे. खुश होते थे और अक्सर कहते थे कि इसमें कम से कम आधा पन्ना कुमाऊंनी के लिए रखना चाहिए. मैंने उनकी सहमति से उनके ही नाम से इस बारे में सम्पादक के नाम पत्र भेज दिया. 15 अक्टूबर, 1978 के नैनीताल समाचार में उनका यह पत्र प्रकाशित हुआ लेकिन मेरी गलती यह थी कि मैंने पत्र हिंदी में लिख दिया था. बाद में मुझे बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई हालांकि उन्होंने इसका कोई जिक्र नहीं किया.

29 अप्रैल 1980 को लखनऊ में अपनी पुत्री हीरा तिवारी के घर में ही उनका निधन हुआ. ‘नैनीताल समाचार’ के एक जून के अंक में मैंने उनके बारे में विस्तार से लिख कर श्रद्धांजलि दी थी. उसे पढ़ने के बाद हीरा तिवारी ने अपनी प्रतिक्रिया भेजी जो 15 जून 1980 के अंक में छपी. उनकी चिट्ठी साफ-सुथरी कुमाऊंनी में थी. जीवनचन्द्र जोशी जी की कन्या के रूप में अपना परिचय देने के बाद उन्होंने लिखा था- “आपुं लोगन का बारा में (बाबू) सदैव कूंछिया  कि मैकन बड़ो हर्ष छ कि मेरा नानातिना हिम्मत धरी समाचार निकालण रईं. उनन कन सफलता मिलते रौ. ऊं हर वक्त उत्साहित करन चाहन छिया और कूंछिया कि मैं तो के नि करी सक्यूं पर यो बच्चन कन उत्साहित करुलो तो यनरो हौसला बढ़लो.” (आप लोगों के बारे में बाबू सदैव कहते थे कि मुझे बड़ा हर्ष है कि हमारे बच्चे हिम्मत धर कर ‘समाचार’ निकाल रहे हैं. और कहते थे कि मैं तो कुछ नहीं कर सका पर इन बच्चों को उत्साहित करूंगा तो इनका हौसला बढ़ेगा.)  इस चिट्ठी से समझा जा सकता है कि उन्होंने अपने बच्चों में कुमाऊंनी के प्रति कितना प्यार और गर्व भर रखा था.

हिंदी साहित्य में उनकी बढ़िया पकड़ थी और अच्छे सम्पर्क भी. प्रेमचन्द, निराला, अनूप शर्मा (इनका डॉक्टर पुत्र अंत तक उनका इलाज करता रहा) वासुदेव शरण अग्रवाल, दुलारे लाल भार्गव, कृष्णबिहारी मिश्र, बनारसीदास चतुर्वेदी, आदि से उनका साहित्यिक विमर्श होता था. लखनऊ से प्रकाशित भार्गव जी की चर्चित पत्रिका ‘सुधा’ में उन्होंने काफी लिखा. ‘सुधा’ का दफ्तर साहित्यकारों का खास अड्डा हुआ करता था, जहां प्रेमचन्द और निराला ने भी काम किया. जोशी जी बताते थे कि मैंने दुलारे लाल जी के कहने पर ‘सुधा’ के कुछ सम्पादकीय भी लिखे. लिखने-पढ़ने की उनकी तेज गति सराही जाती थी.

अल्मोड़ा में प्रसिद्ध चित्रकार ब्रूस्टर, वैज्ञानिक बोशी सेन से लेकर माइकल एण्टनी और प्रख्यात नृत्यकार उदय शंकर से उनका घनिष्ठ सम्पर्क रहा. उदय शंकर ने अपनी फिल्म ‘कल्पना’ के निर्माण के दौरान कुमाऊंनी घसियारी नृत्य के बारे में जोशी जी से विचार-विमर्श किया था.

इस सब के बावजूद उनका पहला प्रेम कुमाऊंनी था. कुमाऊंनी में कुछ करते रहने और होता देखने की उनमें अदम्य ललक थी. बहुत सारी योजनाएं थीं उनके मन में. कुमाऊंनी-गढ़वाली-नेपाली का शब्दकोश बनाना चाहते थे. मगर 1960 के बाद अकेले पड़ गये और बीमारी ने उन्हें लाचार बना दिया था.

1938-40 में कुमाऊंनी पत्रिका निकालने का उनका ऐतिहासिक प्रयास और संघर्ष उन्हीं के साथ खत्म नहीं हुआ. 1960 के दशक में जब वे अपने को असहाय और अकेला महसूस करने लगे थे, बंसीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ नाम का एक और धुनी व्यक्ति कुमाऊंनी साहित्य-संस्कृति की निष्काम सेवा की राह पर चल पड़ा था. फिर मथुरादत्त मठपाल जैसे समर्पित कुमाऊंनी सेवी अपनी ‘दुधबोली’ की मार्फत एक स्तरीय मंच बनाने में जुटे रहे. हाल के वर्षों में यह सिलसिला और तेज हुआ है.

(‘अचल’ के दोनों चित्रों के लिए अशोक पांडे का आभार )

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