समकालीन जनमत
पुस्तक

लोकतंत्र का मर्सिया हैं ‘सुगम’ की ग़ज़लें

 

हिंदी ग़ज़ल में महेश कटारे ‘सुगम’ जाना-माना नाम है। ‘सुगम’ हिंदी ग़ज़ल की उसी परंपरा से आते हैं, जिसे दुष्यंत, अदम गोंडवी, शलभ श्रीराम सिंह जैसे ग़ज़लकारों ने पुष्पित-पल्लवित किया है।

सुगम की ग़ज़लों का यह नया संग्रह इन्हीं शख्सियतों को समर्पित भी है। इस संग्रह में कुल 90 ग़ज़ल हैं। इन ग़ज़लों में सियासत के छल-छद्म, दांव-पेच तथा उसके जनविरोधी चरित्र पर गहरी चोट की गयी है।

महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी आदि समस्याएं सियासत से जुड़ी हैं। और, ऐसी सियासत के वर्ग चरित्र को सुगम बखूबी पहचानते हैं।

खासकर, पिछले पांच-छः सालों में सत्ता का जो फासिस्ट चरित्र सामने आया है, उसने जीवन समाज के हर क्षेत्र में जो बर्बादी और विनाश लीला प्रारंभ की है; उसी से आज की वास्तविकता बनती है। जिसे, इस संग्रह की कई ग़ज़लों में व्यक्त किया गया है।

आपका ही गुनाह है साहिब
शक भरी हर निग़ाह है साहिब

हर गली, घर, सड़क, मोहल्ला तक
हादसे का गवाह है साहिब
क्या मकां, क्या दुकान, क्या बस्ती
आज सब कुछ तबाह है साहिब

किसी भी रचनाकार के लिए जरूरी होता है अपने समय को जानना। इसकी हर गति को नजर में रखना। लेकिन, एक जन पक्षधर रचनाकार के लिए जरूरी होता है अपने समय के डार्क शेड्स, अंधेरे, स्याह पक्ष को जानना। क्योंकि, इसी में जनता के दुश्मनों के चेहरे ज्यादा साफ दिखते हैं। सुगम के इस ग़ज़ल संग्रह में कई जगह मौसम आदमखोर आता है-

ज़ुल्म ज़ब्र का ज़ोर लिखा दीवारों पर
मौसम आदमखोर लिखा दीवारों पर

अपराधों में हुई गिरावट है तो फिर
मौसम आदमखोर समझ से बाहर है

स्याह पक्ष को जानने-देखने वाले ही फासिस्ट सत्ता के हर पाखंड, झूठ, फरेब को अपनी रचना में व्यक्त कर पाते हैं, जो इस संग्रह की ग़ज़लों में है।

इस विकास का शोर समझ से बाहर है
कहां है इसका शोर समझ से बाहर है
मुद्रा और बाजार नियंत्रण में तो फिर
महंगाई का ज़ोर समझ से बाहर है

तुम कहते हो चमक उठा है सूरज तो
यह धुंधली सी भोर समझ से बाहर है

किसी रचना का महत्व इस बात से भी परखा जा सकता है, कि सियासत का सामाजिक ताने-बाने पर पड़ने वाला असर उसकी मुख्य चिंता में है, कि नहीं। इस संग्रह की ग़ज़लों को इस कसौटी पर रख कर भी देखा जा सकता है-

प्यार, मोहब्बत, रिश्ते, भाईचारे की
डोर हुई कमज़ोर लिखा दीवारों पर
कहीं दिखायी देती नहीं बहारें, पर
बस उन्मादी शोर लिखा दीवारों पर।

प्रश्न हमारा था रोटी और पानी का
उसका मजहब वाला उत्तर देख लिया।

कुल मिलाकर इस संग्रह को फासिस्ट समय में दर्ज एक बयान के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए! साथ ही
बराबरी, न्याय, स्वतंत्रता और लोकतंत्र के मर्सिया के रूप में भी यह ग़ज़ल संग्रह पढ़ा जा सकता है!

 

ग़ज़ल संग्रह: सारी खींचतान में फ़रेब ही फ़रेब है

ग़ज़लकार: महेश कटारे ‘सुगम’,

मूल्य रूपये 120

बोधि प्रकाशन, जयपुर 302006
मोबाइल 0 141-4041 794, 98290 180 87

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