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मोनिका कुमार की ‘आश्‍चर्यवत्’ कविता की नई सरणी है

आलोक धन्वा ने एक बातचीत में मोनिका कुमार की कविताओं की चर्चा की थी, तब तक उनकी कविताएं पढ़ी नहीं थीं मैंने। हां, फेसबुक पर उनकी टिप्पणियों की वैचारिकता से जरूर प्रभावित था। फिर आश्‍चर्यवत् के बारे में पता चला कि यह संकलन है, जिसे पढ़ा तो सचमुच आश्चर्य में पड़ गया। लगा, कविता की एक नई सरणी है यह।

हिंदी कविता में मोनिका कुमार की कविताएं नयी परिघटना की तरह हैं। एक नया अंदाजे बयां – चकित, चुप कराता अपनी चुप्पियों में बोलता हुआ –

‘सभी अनुमान मेरी भाषा की नाकामी हैं।
मुझे चाहिए कुछ विस्‍मयादिबोधक
आश्‍चर्य वाहक,
ये करते हैं मेरी नाकामियों का
विनम्र अनुवाद।’

उनकी ‘राई का दाना’ और ‘जंग लगना’ जैसी कविताओं से गुजरते हुए अज्ञेय के सप्‍तकी प्रयोगों के मुकाबले उसी समय बिहार में किये गये नकेनवादियों के प्रयोगों की याद आती है, हालांकि मोनिका के प्रयोग उनके मुकाबले ज्‍यादा मुखर हैं –

‘फिर भी जंग लगना टूटने का सुंदर ढंग है
पीस डालो खुद को
बीच से रंग उतर आये,
धैर्य इतना कि दिल में छेद हो जाये,
लोहे को सिर्फ लोहा नहीं काटता,
उसका अपना लोहा भी काटता है।’

मरीना स्‍वितायेवा ने अपनी कविता ‘ कवि ‘ में लिखा है – कि कवि खा डालता है कान्‍ट का भी दिमाग। ये कविताएं भी दिमाग खा डालती हैं –

‘दुखों के सामने,
छोटी मोटी बुद्धि, चालाकी
और हास्‍यबोध किसी काम नहीं आता।
दुखों को सहने में इनकी भूमिका संदिग्‍ध थी
जबकि आलू और गुलाबजामुन खाकर
तुरन्‍त राहत मिलती थी।’

जाने कितने झीने पर्दों में मोनिका अपना अंतस छुपाए रहती हैं। अगर आप उन पर्दों के पार जा सकें तो उन्‍हें जानने की खुशी व त्रास एक साथ पा सकते हैं। हिंदी में शमशेर के यहां भी ऐसे पर्दे खूब हैं। उनकी प्रेम कविता ‘ टूटी हुई बिखरी हुई ‘ का आंरभ एक बोरा ढोते मजदूर के चित्र से होता है। इस हकीकत से रूबरू होते होते प्रेम का रोमान हवा होने लगता है।

विष्‍णु खरे सी कविताई मोनिका के यहां भी है। इनकी कविताओं के बीच से कुछ पंक्ति‍यां कोट करना अक्‍सर एक मशक्‍कत भरा काम हो जाता है, पूरी कविता कोट किये बिना काम नहीं चलता।

मोनिका कुमार की कविताएं संक्रामक कविताएं हैं जो आपके भीतर कविता लिखने की प्रेरणाएं जगाने को नये नये दृश्‍य पैदा करती हैं जो उन्‍हें पढने से पहले आप के जेहन में नहीं आये होते हैं। मतलब मोनिका हमेशा एक संपूर्ण कविता नहीं लिखतीं बल्कि कई बार वे अधूरी सी कविता लिखती हैं जिन्‍हें पढते उससे आगे की कविता आपके भीतर जन्‍म लेती है। इनकी कुछ कविताओं में सवाल इस तरह आते हैं कि जवाब में आपकी कविता शुरू हो जा सकती है। यह कविताएं संपूर्णता पर प्रश्‍नचिन्‍ह की तरह हैं कि एक आदमी संपूर्ण कैसे हो सकता है अपने आप में कि वह – कहीं से निकला है और कहीं जुडकर उसे संपूर्ण होना है।
‘बारिश में भीगना’ ऐसी ही एक कविता है। जिसे पढते ऐसा लगता है कि अभी कुछ कहा जाना बाकी है और उसे पाठक कह सकता है – इस हद तक हिस्‍सेदार बनाती, पुराने शब्‍दों को नयी अर्थ ध्‍वनियां सौंपतीं, आत्‍मीयता की पूरक रचनात्‍मकता की भावनाओं को विकसित करती कविताएं हैं ये –

‘बूढे लोग शांत चेहरों से युद्ध लड़ते हैं
लगभग सभी विवादों और दुखों का अंत वे जानते हैं,
लगभग तय जीवन में वे सतत जिज्ञासु और आशावान बनकर जीते हैं,
उनका प्रिय विषय अतीत है,
और सबसे बड़ा हथियार विलम्‍ब है।

‘चंपा का पेड़’ कविता की पंक्तियां देखें –

‘जीवन है तो ऐसी निस्‍पृहता क्‍यूं मेरे पेड़!
कौन है तुम्‍हारे प्रेम का अधिकारी,
सर्वत्र तो दिखते हो,
मन में किसके बसते हो।’

सत्‍य की सामान्‍यतया दो परिकल्‍पनाएं सामने आती हैं – प्रिय सत्‍य और अप्रिय सत्‍य। मोनिका एक तीसरी तरह के करूण सत्‍य से हमारा परिचय कराती हैं –

‘सत्‍य पृथ्‍वी नारायण होते हुए भी उभयचर है
निर्द्वंद्व है पर करूणा से रिक्‍त नहीं।’

मोनिका के भीतर एक दार्शनिक बैठा दिखता है जो बहुत कम बोलना चाहता है पर उसके भीतर का कवि उसकी चोंच खोल उसमें नये शब्‍द डालता चलता है।
विडंबना को इतने खूबसूरत ढंग से लिखती हैं मोनिका कि एमिली डिकिंसन की कविताएं याद आती है। एमिली में भी एक बुद्धिजीविता है पर इसके बावजूद एमिली दो टूक और स्‍पष्‍ट कहती हैं जबकि मोनिका इसके मुकाबले नये अर्थदृश्‍यों की ओर इशारा करती चुप रहना ज्‍यादा पसंद करती हैं –

‘नल से बहता बेतुका पानी ऊब का सुंदर अनुवाद है।’

अपनी उहापोह और उधेड़बुन को रचती चलती हैं मोनिका

‘ऊब भरी शाम का बहुत महत्‍व है।
ऐसी शाम
मेरा मन आराम करता है,
शरीर नींद पूरी करता है …।’

– ऊब पर इस तरह भी सोचा जा सकता है।
भीतर पैदा होती बदमाशियों को बहुत विनम्रता से अभिव्‍यक्‍त करती चलती हैं मोनिका –

‘अखण्‍ड विनम्रा है वह।
विनम्रता ने सभी को उसके निकट कर दिया
विनम्रता से ही उसकी सभी से अनिवार्य दूरी भी बन गयी…।’

संदर्भों को नया करते चलने की अच्‍छी बीमारी है मोनिका में –

‘यह नरम नरम जो बचा है खरगोश में,
उस मासूमियत का शेष है,
जो कछुए के साथ दौड़ लगाने की स्‍पर्धा में,
थक कर नींद बन गयी।’

***

पुस्‍तक – आश्‍चर्यवत्
कवयित्री – मोनिका कुमार
प्रकाशन – वाणी
साल – 2018

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