डॉ. स्कंद शुक्ला
शरद की रातें आसमान के हीरों को निहारने के लिए हैं। बरसात अब उतनी नहीं हो रही कि पूरी कालिमा पर मेघाच्छादन रहे। लेकिन इतनी फिर भी चल रही है कि धूल के कणों को बुहार कर पृथ्वी पर वापस कर दिया जाए ताकि अन्तरिक्षीय मणियाँ जगमगा उठें। सो खगोलविदों और प्रेमियों को अगर रात की भाषा पढ़नी है , तो समय यही है।
जाने दो वह कविकल्पित था ,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभचुम्बी कैलासशीर्ष पर
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है !
बादल को घिरते देखा है !
प्राचीन कालिदास अपने मेघदूत से यक्षिणी को सन्देश भिजवाते हैं और आधुनिक नागार्जुन उसे कविकल्पित कह देते हैं। सत्य है कि सुन्दर कल्पनाएँ सुन्दर यथार्थों की भूमि पर ही लहलहाती हैं। प्राचीन कवि प्रकृति के तमाम अवयवों के प्रति अन्यायी रहे , तो इसमें उनका कोई दोष नहीं। जितना उन्हें आँखों से दिखा , तदनुसार उन्होंने कल्पित कर लिया। लेकिन आज जब हम बेहतर दृष्टि और ज्ञान वाले हैं , तो हम कालिदासीय कल्पनाओं को उधार क्यों लें ! हमें तो अपनी कविताओं-कहानियों में अपने नये कलेवर के दर्शन-कल्पन से सजाना होगा न !
आज हम प्राचीन शब्दावली को यथावत् ढोते हुए संवर्त-पुष्कलावर्त मेघों की बातें नहीं कर सकते। अमरकोश को यत्न-मनोयोगपूर्वक अन्तःस्थ कर लेने के बाद भी हमें आधुनिक ढंग-ढर्रे का ज्ञान अपनाना ही हो होगा : अन्यथा हम आधुनिक अन्दाज़ में साहित्य-सर्जना नहीं कर पाएँगे।
सो जानिए कि बादलों की चार जातियाँ हैं , जिनके मिश्रण से कई अन्य उपजातियाँ बन जाती हैं। पट्टी-तहदार बादल कहलाते हैं स्ट्रेटस। ढेरीदार बादलों को नाम दिया जाता है क्यूमुलस। ये दोनों प्रजातियाँ कम ऊँचाई पर पायी जाती हैं। इनके मिश्रण के कारण कई बार जो बादल आपको नज़र आते हैं , वे स्ट्रेटोक्यूमुलस के नाम से जान जाते हैं।
फिर मध्यम ऊँचाई पर मिलने वाले बादल के नामों में ‘ऑल्टो’ लगा होता है। मध्यम ऊँचाई पर आकृति के अनुसार ऑल्टोस्ट्रेटस या ऑल्टोक्यूमुलस। इसके बाद सबसे ऊँचे वे बादल आते हैं , जो आपको पंखों की तरह नज़र आते हैं : पतले और रेशेदार। इन्हें कहा जाता है सिर्रस। दो प्रजातियों के आकार-आकृति के मिलने से सिर्रोक्यूमुलस और सिर्रोस्ट्रेटस बादलों का भी जन्म होता है।
बरसात कराने वाले बादल ! विज्ञान इन्हें ‘निम्बस’ नाम देता है। फिर अगर घण्टों चलती बरसात-बर्फ़बारी के आपको वाहक जानने हैं , तो इन्हें जाना जाता है स्ट्रेटोनिम्बस नाम से और जो गरज कर ओलों-पानी के साथ कुछ ही देर में बरस जाते हैं , वे क्यूमुलोनिम्बस कहे जाते हैं। स्ट्रेटोनिम्बस बादल कम ऊँचाई पर तैरा करते हैं : मात्र पाँच-छह हज़ार फ़ीट से इनका आरम्भ हो जाता है। जबकि क्यूमुलोनिम्बस बादल दो-हज़ार फ़ीट से आरम्भ होकर पचासों हज़ार फ़ीट की ऊँचाई तक फैलते हुए पहुँचते हैं।
आसमान को देखिए : अगर आपको काले-धूसर बादलों से वह पटा नज़र आये , जो एक दिशा से दूसरे में तेज़ी से जा रहे हैं , तो ये निचली ऊँचाई वाले निम्बोस्ट्रेटस मेघदूत हैं। कई घण्टे बारिश-हिमपात होंगे आप के सिर के ऊपर आज। लेकिन अगर गोभी-कपास के फाहे-सा कोई स्लेटी-धूसर बादल किसी आकार-विशेष में ऊपर को उठता चला गया है , तो वह क्यूमुलोनिम्बस प्रजाति का है।
कालिदास को अपने काव्य के लिए मेघदूत निम्बोस्ट्रेटस बादलों से नहीं मिला होगा। बल्कि वह जिसे देखकर यक्ष-यक्षिणी का विप्रलम्भ शृंगार वर्णित किया गया , उसके मूल में कवि का किसी निम्बोक्यूमुलस बादल को देखना और फिर कल्पना में खो जाना है।
वह जो श्रीलंका के ऊपर उठा है किसी मनुष्य के धूसर-स्लेटी चेहरे-सा नज़र आता ; वही कालिदास का मेघदूत रहा होगा। उसी का नाम नागार्जुन अपनी कविता में लाते हैं। पचासों हज़ार फ़ीट ऊँचा। जो अचानक तेज़ बारिश के साथ कुछ ही देर में बरस जाएगा , किन्तु सतत घण्टों की बारिश जिसके वश में नहीं। निरन्तर बरसने वाले इतने निम्नकोटीय और आननहीन होते हैं कि कोई कालिदास या नागार्जुन उन्हें अपनी कविता का मुख्य-गौण पात्र बना ही न सकेगा। वह जो मानव को मानव-सा दिखेगा ही नहीं , उसे न कोई प्रेम का वाहक समझेगा और न वर्षा का मुख्य सूत्रधार। वह बेचारा अनामवर्षी रह जाएगा और तमाम महाकवियों की कल्पनाएँ उसका भविष्य की पीढ़ियों के लिए कहीं अंकन न छोड़ेंगी।
लेकिन आप मानसूनी निम्बोस्ट्रेटस बादलों को जानिए ! वे जो प्रेम-काव्य में स्थान न पाकर भी भारत-भू के जीवनचक्र के संचालक रहे हैं सदियों से।
( फीचर चित्र में निम्बोस्ट्रेटस व पोस्ट में निम्बोक्यूमुलस बादल। आप इन्हें देखते ही समझ जाएँगे कि कोई कवि कविता के संदेशवाहक के तौर पर निम्बोक्यूमुलस को क्यों चुनेगा और निम्बोस्ट्रेटस को क्यों नहीं )
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