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साहित्य-संस्कृति

बाहर से शांत, दिमाग के भीतर धधकती आग थे अनिल सिन्हा- अजय कुमार

लखनऊ। लेखक और पत्रकार अनिल सिन्हा के दसवें स्मृति दिवस के मौके पर जन संस्कृति मंच ने स्मृति कार्यक्रम का आयोजन किया। यह 25 फरवरी को लखनऊ के शिरोज हैंगआउट, गोमतीनगर में सम्पन्न हुआ। विशिष्ट अतिथि थे जौनपुर से आये कवि व लेखक अजय कुमार और अध्यक्षता की मशहूर कथाकार व जसम उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष शिवमूर्ति ने।

कार्यक्रम दो चरणों में था। पहला चरण यादों का था तथा दूसरा रचना पाठ का। पहले चरण में शिवमूर्ति, अजय कुमार, दयाशंकर राय, भगवान स्वरूप कटियार, हिरण्मय धर, विनय श्रीकर, विमल किशोर, कौशल किशोर आदि ने अनिल सिन्हा के साथ की यादों को साझा किया और कहा कि  प्रगतिशीलता और जनवादिता अनिल जी के जीवन व्यवहार का अनिवार्य तत्व था। बाहर से भले ही वे शांत दिखते हों लेकिन उनके दिल दिमाग के भीतर धधकती आग थी। उन्होंने रचना और विचार के कई क्षेत्र में काम किया। कहानी, पत्रकारिता, समीक्षा, आलोचना, संगठन आदि उनके क्षेत्र रहे। वे कला के गहरे पारखी थे। उनके असामयिक निधन से जो अंतराल पैदा हुआ, उसे आज तक भरा नहीं जा सका है।

वक्ताओं का यह भी कहना था कि अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले कलाओं के अन्र्तसम्बन्ध पर जनवादी, प्रगतिशील नजरिये से गहन विचार और समझ विकसित करने वाले विरले समीक्षक और मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के मानक थे। सिद्धान्तों के साथ कोई समझौता नहीं, ऐसी दृढ़ता थी। वहीं, व्यवहार के धरातल पर ऐसी आत्मीयता, खुलापन व साथीपन था कि वैचारिक रूप से असहमति रखने वाले भी उनसे प्रभावित हुए बिना, उनका मित्र बने बिना नहीं रह सकते। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से प्रगतिशील रचनाकर्म के बाहर के दायरे में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय थे। कवि भगवान स्वरूप कटियार ने अपनी कविता से अनिल सिन्हा को याद किया।

कार्यक्रम के दूसरे चरण में रचना पाठ का आयोजन हुआ। युवा कथाकार फरजाना महदी ने अपनी दो छोटी कहानियां सुनाईं जो संवाद शैली में थीं। एक ‘गांधी और कमाल पाशा’ और दूसरी हिटलर और मुसालिनी’ के बीच के संवाद के माध्यम से इतिहास से लेकर समकाल को सामने लाती है। उमेश पंकज ने ‘महाराज’ सीरीज की कई कविताएं सुनाकर वर्तमान समय की विद्रूपता और क्रूरता को कविता के माध्यम से उकेरा कुछ यूं ‘मेरी बांयी आंख में चन्द्रमा/और दांयी में चिपका है सूरज/हिमालय को हथेली में लेकर उड़ सकता हूं/समुद्र मेरे घर की एक छोटी कटोरी में समा सकता है/पूरी पृथ्वी एक बाजार है/जो मेरी मुट्ठी में है’। 

अजय कुमार ने अपने संस्मरणात्मक आलेख का पाठ किया। रिपोर्ताज शैली में लिखा यह आलेख उन दिनों के सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक संघर्ष को लेकर था जब इमरजेंसी के बाद नई सामजिक  शक्तियां उभर रही थीं और बिहार ऐसी शक्तियों की अगवानी कर रहा था। ये चुनावबाज नहीं थीं। इनकी अपील लोकतांत्रिक थी। जनमानस पर इनका असर हो रहा था। ऐसा ही समय था जब बकरी बाघ से पंजा लड़ा रही थी। यह जनजागरण का ऐसा दौर था जिसने नागार्जुन, गोरख पाण्डेय, महेश्वर, विजेन्द्र अनिल जैसे रचनाकारों को प्रेरित किया। 

 

इस अवसर पर विमल किशोर ने अपना कविता संग्रह ‘पंख खोलूं उड़ चलूं’ अजय कुमार को भेंट किया। कार्यक्रम में ‘जनसंदेश टाइम्स’ के प्रधान संपादक व कवि सुभाष राय, युवा आलोचक अजीत प्रियदर्शी व आशीष सिंह, कवि व कथाकार तरुण निशांत, कलाकार धर्मेन्द्र, सृजनयोगी आदियोग, कवि कलीम खान, रिहाई मंच के राजीव यादव आदि शामिल थे। शिवमूर्ति जी ने पढ़ी गई रचनाओं पर संक्षिप्त टिप्पणी की। 

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