समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

“ सभी मॉडल व्यर्थ साबित हुए हैं, अलबत्ता उनमें कुछ उपयोगी हैं ”

अनिल शुक्ल


हाइवे पर पैदल अपने मासूम बेटे को लेकर पंजाब से महोबा जाने वाली महिला के बेटे के पांव में जब छाले उछल आते हैं तो वह पस्त होकर सूटकेस को स्ट्रेचर में तब्दील कर देती है और उस पर बेटे को औंधा लिटा कर सूटकेस घसीटती सैकड़ों किमी तक चली आती है। आगरा में मीडियाकर्मी उसे स्पॉट करते हैं, इस भयावह दृश्य को अपने कैमरों में क़ैद कर लेते हैं। देश भर के टीवी चैनलों पर चलती ये तस्वीरें दर्द का पहाड़ बन जाने की ‘फेंटेसी’ पर रौशनी डालती है । लॉक डाउन के दौरान विस्थापन के हौलनाक क़िस्सों में यह दृश्य ‘आगरा मॉडल’ बनकर फ्रीज़ हो जाता है।

मां-बेटे की उपरोक्त दर्दनाक दास्ताँ को जब एक टीवी पत्रकार डीएम साहब के संज्ञान में लाता है तो वह अद्भुत प्रतिक्रिया देते हैं। चिड़चिड़ाये साहब कहते हैं कि ऐसे तो वह भी अपने बचपन में पिता के साथ सूटकेस की चड्डी चढ़ते रहे हैं। आज़ादी के बाद के विकास के कढ़ाह में क्रूरता और संवेदनहीनता की चासनी चाट कर सयानी होने वाली नौकरशाही पीढ़ी के बेलग़ाम बयानों की भीड़ में ‘साहब’ की टीवी बाइट ‘आगरा मॉडल’ बनकर चस्पां हो जाती है।

सरे शाम मां-बाप, बहू-बेटे, बेटी-दामाद, नाती-नातिन, पोता-पोती और न जाने कितने दूसरे रिश्तों के रूप में विकसित हुए कोरोना ‘संदेहास्पदों’ की बड़ी सी भीड़ बटोरी जाती है। भीड़ को मुल्ज़िमों की तरह पेलते-धकेलते शहर से 35 किमी दूर, एक इंजीनियरिंग कॉलेज के आननफानन में एक तबेला छाप ‘क़्वेरेन्टाइन सेंटर’ में तब्दील हुए ठिकाने पर लाया जाता है। भूखी-प्यासी बेहाल भीड़ जब अगली दोपहर तक हिला-हिला कर शटर पर आसमान उठा लेती है तब रहम खाकर स्वास्थ्य विभाग का कोई ‘वॉरियर’ ग्लूकोज़ डी के चंद पैकेट शटर के उस पार से उछालता है। सनसनाती बेक़ाबू भीड़ बिस्कुट के पैकेटों पर टूट पड़ती है। दूर खड़ा कोई सिरफिरा इस सरफ़रोश मंज़र को अपने मोबाईल में क़ैद कर लेता है। दम तोड़ते पब्लिक हेल्थ सिस्टम की बदइंतजामियों के लिए चर्चित देशव्यापी क़्वेरेन्टाइन सेंटरों के आर्काइव में वायरल यह वीडियो ‘आगरा मॉडल’ बनकर इतिहास में अपनी अनुगूंज दर्ज कराता है।

ऐसे पचासों क़िस्से हैं जो ‘आगरा मॉडल’ फ्रेम बनने को बेताब हैं। ये कमोबेश एक ही डिग्री के हैं। इनमें से अनेक वायरल हुए हैं तो बहुतों ने टीवी में जगहेें पायी। तमाम ऐसे भी हैं सोडा वॉटर की बोतल की गर्दन से निकलने वाले बुलबुले की तरह जो सतह पर आते ही डिजॉल्व हो गए। बहरहाल… इनका क्या ज़िक्र करना। सुना-सुना कर मैं भी पक जाऊंगा और सुन-सुन कर आप भी।

दरअसल यह युग बाज़ार का है लिहाज़ा यहां सभी चीजें अंततः ‘ब्रांड’ बन जाती हैं। इस बाज़ार में इंसानियत भी एक ब्रांड या मॉडल है और हैवानियत भी। प्रशंसा से लेकर घृणा के बीच ब्रांडों में होड़ लगी है। आप अच्छे हैं तो ब्रांड कैसे हैं और बुरे हैं तो भी ब्रांड हैं या नहीं, सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है। बाज़ार ने स्वास्थ्य सैक्टर को भी एक ब्रांड या मॉडल में तब्दील कर दिया है, जहां बहुत सारी जिंसों की खरीद फ़रोख़्त होती है।

सन 1848 में अपने ऐतहासिक दस्तावेज़ ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र’ में कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगिल ने माल (कमॉडिटी) की सारगर्भित व्याख्या के संदर्भ में लिखा था कि पूंजीवाद ने डॉक्टरी और सामाजिक सेवाओं वाले पेशों को भी एक क्रूर व्यापार में बदल दिया है । मार्क्स और एंगेल्स इसलिए महान दार्शनिक बन पाये क्योंकि उन्होंने प्रारम्भिक काल में ही पूंजीवाद के लक्षण पहचान लिए और आने वाली शताब्दियों में उसकी लूट-खसोटी की भविष्यवाणियां कर दीं। हम आज 172 साल बाद भी लल्लू बने इस बाज़ारवाद में ठेला लगाए सब्ज़ी बेचने वाले के भीतर ‘हिन्दू’ या ‘मुसलमान’ को ढूंढ रहे हैं। बहरहाल बात ब्रांड या मॉडल की। ‘पब्लिक हेल्थ’ सेक्टर के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पहले कोविड-19 एक ब्रांड बना और फिर उसके भीतर से जन्म हुआ बहुत सारे ‘ब्रांड’ या’ मॉडल’ का। मज़ेदार बात यह है कि ‘बाज़ार’ की सेवा में क़ैद विज्ञान ने कोविड-19 की बायलॉजिकल प्रस्थापनाओं में सबसे पहले ‘SIR मॉडल’ की खोज की, फिर ‘SIS’ और कालांतर से ‘SIRD’ व ‘SEIR’ मॉडल की। वायरस के रूप-आकार और व्यवहारगत पैटर्न से लेकर रोगी के लक्षण तक की वैज्ञानिक व्याख्याओं के संक्षेपण (Abbreviation) से संबद्ध हैं ये सभी शब्द। इनके पीछे के तर्क और व्याख्याओं पर दुनिया भर के वैज्ञानिकों में मतभेद है इसीलिये इनमें से कुछ जमे और कुछ ख़ारिज होकर चलन से बाहर कर दिए गए। सुप्रसिद्ध ब्रिटिश सांख्यिकीकार जॉर्ज बॉक्स के शब्दों में (कोविड-19 सम्बन्धी व्याख्या में उन्होंने लिखा है) “सभी मॉडल व्यर्थ साबित हुए हैं, अलबत्ता उनमें कुछ उपयोगी हैं।”

कोरोना के संदर्भ में बाज़ारवाद ने एक ओर जहां वैज्ञानिक स्थापनाओं में मॉडलों को गढ़ने के चलन को ‘प्रमोट’ किया, वहीं आगे चलकर समाजशास्त्र और प्रशासनतंत्रीय संस्थापनाओं में भी इसे निरूपित किया गया। नतीजतन सबसे पहले चीन से (सन 1970 के दशक से अंतर्राष्ट्रीय जगत का सबसे नया और प्रकारांतर से बाज़ारवाद का सबसे बड़ा और प्रमुख केंद्र) ‘वुहान मॉडल’ आया, फिर ‘दक्षिण कोरिया’ मॉडल’, ‘जर्मनी मॉडल’, और ‘स्विट्ज़रलैंड मॉडल’ आए।

धर्म का आध्यात्मिक गाउन ओढ़कर भौतिक वायरस से पंजा लड़ाने की मध्यकालीन कोशिशों की पुनरावृत्ति और फिर इसके भरभराकर धाराशायी हो जाने के ‘इटली’, ‘स्पेन’ और ‘फ़्रांस मॉडल’ की अनुगूंज भी कालांतर में सुनने को मिली। इसी दौरान ‘ब्रिटिश मॉडल’  की भी ख़ूब चर्चा हुई जहां ‘बेखौफ होकर सबसे हाथ मिलाने (शेक हैंड करने) की लंतरानी हांकता एक प्रधानमंत्री अंततः आईसीयू में लद्द से जा गिरता है और 2 हफ़्ते बाद वापसी पर बाहर निकल कर अपनी शेख़ीखोरी पर शर्मिंदगी के दो शब्द भी नहीं बोलता। ‘अमेरिकी मॉडल का ज़रूर ज़िक्र होना चाहिए जिसका ऐलान इन दिनों ज़ोरों पर है और जिसमें एक महादेश का महाराष्ट्रपति महीनों की अपनी मुसलसल लापरवाह और ग़ैर ज़िम्मेदार हरकतों का ठीकरा चीन के सिर फोड़ता है और इस तरह ‘खंभा नोचती खिसियानी बिल्लियों के झुंड में सबसे आगे आ जाता है। इनमें से कुछ इतिहास में मौजूद रहेंगे और कुछ का नामोनिशान भी नहीं मिलेगा। जॉर्ज बॉक्स के शब्दों में-सभी मॉडल व्यर्थ साबित होंगे, अलबत्ता उनमें कुछ उपयोगी बचेंगे।

भारत में 30 जनवरी को पहले कोरोना केस की दस्तक हुई। यह केरल का एक छात्र था जो दरअसल वुहान में पढ़ाई करके लौटा था। एक ऐसे दौर में जबकि सारी दुनिया में कोरोना का कोहराम मचा हो, इस पहली दस्तक पर किसी भी देश या राज्य में खतरे की घंटी बजना एक स्वाभाविक प्रशसनिक घटना होनी चाहिए थी। । केरल ने इसका ठीक ठीक नोटिस लिया लेकिन अप्रैल में “समय रहते चेत जाने” का ढिंढोरा पीटने वाले प्रधानमन्त्री और उनकी प्रशासनिक मशीनरी मार्च के तीसरे सप्ताह तक नींद में ग़ाफ़िल रहे। 12 मार्च को वित्त राज्य मंत्री किसी भी तरह की ‘आर्थिक आपात स्थिति’ की संभावनाओं से इंकार करते रहे।

राहुल गांधी के बयान पर 18 मार्च को प्रधानमंत्री भी कहते रहे “वह देश में बेवजह का खौफ फैलाना चाहते हैं।” दिल्ली सहित समूचा मुल्क 19 मार्च की झुलसदार गर्मियों की रात 8 बजे तक शीतनिद्रा (hibernating) की अवस्था में था। उन्होंने 22 मार्च के ‘जनता कर्फ्यू का आह्वान करके देश की जनता से अपने मन की ताली और और थाली पिटवाने की बात कही। देश लेकिन तब सन्नाटे में आ गया जब उन्होंने 24 मार्च की रात झटपट 21 दिन का लॉकडाउन घोषित कर दिया। विश्व बैंक से 1 करोड़ डॉलर की आपातकालीन ऋण गत मदद को रंग देने के लिए उन्होंने ये ठोंकी थी। सूचना बाद में लीक हुई कि ‘लॉकडाउन’ और ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ दरअसल ‘विश्व बैंक’ की ऋण सम्बन्धी शतों में शुमार था। उस दिन तक देश में 180 कोरोना पॉज़िटिव केसों की रिपोर्ट आ गयी थी, 4 की मृत्यु हो चुकी थी। इन 48 दिनों में दिल्ली का निजाम सोता रहा या फिर ‘नमस्ते ट्रम्प’ का ‘गुल्ली-डंडा’ अथवा एमपी में सत्ता परिवर्तन की छुपमछुपायी का खेल खेलता रहा। केरल लेकिन जागृत बना रहा और उसने नया इतिहास रच डाला।

                                     आगरा मॉडल 

अब ज़रा ‘आगरा मॉडल’ पर आते हैं। आगरा में सबसे पहला कोविड-19 संक्रमित मामला 3 मार्च को प्रकाश में आया। दिल्ली के मयूर विहार क्षेत्र से एक सज्जन अपने रिश्तेदारों से मिलने आगरा आये। रिश्तेदार परिवार जूता उद्योग से जुड़ा था। दिल्ली से आया मेहमान भी जूता कारोबारी था और कुछ दिन पहले ही इटली से लौटा था। आगरा से लौट कर जब वह वापस दिल्ली पहुंचा तो बीमार हो गया। जांच हुई तो कोरोना पोज़िटिव! उनके ‘कॉन्टेक्ट’ ट्रेस किये गए। दिल्ली से सरकारी सन्देश आगरा आया, और यहाँ होस्ट के सैम्पल पूना भेजे गए। आगरा वाले परिवार के 6 भी सदस्य संक्रमित निकले और उन्हें दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल भेज दिया गया।

यहीं ज़िला प्रशासन को चैतन्य हो जाना चाहिए था, ज़िले की सभी सीमाओं को सील कर देना चाहिए था और रेल से आने वालों की गहन पड़ताल करनी चाहिए थी। आगरा चूंकि पर्यटन का केंद्र है लिहाज़ा सभी विदेशी पर्यटकों की कठोर स्वास्थ्यगत पड़ताल करना वक़्त की मांग थी। कहने को सब कुछ होता गया लेकिन वह कागज़ी खानापूरी तक ज़्यादा सीमित था। अख़बारों में प्रशासनिक अधिकारियों के लंबे-लंबे इंटरव्यू धड़ाधड़ छप रहे थे लेकिन वह लोगों के चटखारे लेकर पढ़ने तक ही सीमित थे। बीमारों की तादाद बढ़ती जा रही थी लेकिन प्रशासन यह नहीं जान पा रहा था की सिरे का छोर कहाँ से पकड़ा जाय।

जिस समय यह पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं, आगरा में कोरोना से 807 मरीज़ सन्क्रमित हो चुके हैं। यह यूपी का सबसे बड़ा आंकड़ा है। बीते 3 दिनों की छोड़ दें तो प्रतिदिन पॉज़िटिव केसों की तादाद 2 दर्जन से ऊपर निकल रही थी। लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद प्रशासन ने न तो नागरिकों को जागरूक बनाने की कोई सुविचारित योजना बनाई और न उन्हें लोकतान्त्रिक तरीके से इस महामारी के खतरों से निबटने के लिए एकजुट होने के लिए आंदोलित किया। लॉकडाउन लागू होने के 5 दिनों तक मोहल्लों में ताश की बैठकें हो रही थीं और सडकों और मैदानों में जम कर क्रिकेट खेला जा रहा था। संक्रमितों का आंकड़ा तेजी से ऊपर चढ़ने लगा तो आननफानन में सख्ती की घोषणा हुई।

बड़े बड़े मोहल्लों और कॉलोनियों में यदि एक भी मरीज़ निकलता तो उस एरिया को ‘रेड स्पॉट’ घोषित करके सील कर दिया जाता। देश के दीगर हिस्सों की तरह यहां शरुआत के कुछ दिन जमातियों का शोरोगुल भी चला। असली संकट लेकिन प्राइवेट अस्पतालों ने पैदा किया। नामनेर में विदेश से लौटे एक डॉक्टर , उनके स्टाफ और कुछ मरीज़ कोविड-19 मिले. इसके बाद एक और हॉस्पिटल से कई लोगों तक संक्रमण का प्रसार हुआ. अस्पताल के संचालक और पेशे से डॉक्टर का डॉक्टर पुत्र विदेश यात्रा से लौटे थे. दोनों पाजिटिव मिले. प्रशासन को सूचना देने के बजाय उनका अपने अस्पताल में ही इलाज होता रहा. इस दौरान डॉक्टर पिता, स्टाफ का बड़ा हिस्सा और 100 से ज़्यादा मरीज़ संक्रमित हुए। इनमे काफी बड़ी तादाद आसपास के ज़िलों से आने वाले मरीज़ों की थी।

 अस्पताल सील कर दिया गया। संक्रमित पैरा मेडिकल स्टाफ और स्थानीय मरीजों के सम्पर्क में आने से कई बस्तियों में कोविड-19 पाजिटिव संक्रमण का प्रसार हुआ.  जमातियों को देश भर में कोरोना बम बताने वाली सरकार और प्रशासन आगरा के इस अस्पताल से हो रहे संक्रमण से बेखबर बने रहे। एक सप्ताह बाद जबकि मीडिया में इस बारे में खूब छपने लगा तब शासन कुछ सक्रिय हुआ। मरीज़ों की खोजबीन शुरू हुई। कुछ मिले कुछ नहीं मिले। लखनऊ के सत्ता गलियारों में अपने रसूख के दम पर अपने विरुद्ध किसी भी प्रकार की कार्रवाई में टालमटोल करवा पाने में सक्षम अस्पताल संचालक के विरुद्ध 2 हफ्ते बाद कार्रवाई हो सकी। इसके बाद बस्तियों में ज़ोर शोर के साथ कोरोना का संक्रमण फूट निकला जो अभी तक नियंत्रित नहीं हो पा रहा है।

ब्रिटिश काल सन 1860 में बने आईपीसी की महामारी से निबटने संबंधी धाराएं ,1897 के ‘महामारी क़ानून’ और सन 2005 में बने ‘आपदा प्रबंधन क़ानून’, इन तीनों का अध्ययन किया जाए तो यह संक्रमण काल में लोगों के सभी लोकतंत्री अधिकार छीन कर समाज को एकीकृत नेतृत्व की दिशा में धकेल देती हैं और यही इसके अलोकतांत्रिक चरित्र को उजागर करती है और लोगों को प्रशासनिक प्रबंधन के ढाँचे के बरख़िलाफ़ ग़ुस्से और बग़ावत से भर देती है। ब्रिटिश राज में प्लेग और इन्फ्लुएंजा जैसी महामारियों के दुःख और संताप में डूबी जनता का स्वागत एक बार नहीं, बारम्बार लाठी, गोली और जेल से किया गया है। इतिहास साक्षी है कि कभी लोग इस दमन के आगे टूट गए हैं और कभी उन्होंने इसका उग्र विरोध किया है। कोरोना महामारी के समय भी इतिहास के इन्हीं पन्नों की पुनरावृत्ति हुई है। जहाँ तक आगरा का सम्बन्ध है बीते 55 दिनों में विरोध और दमन की अनेक छोटी-बड़ी वारदातें हुई हैं। ये क़ानून प्रशासनिक अधिकारियो को संवेदनशून्य बन जाने के लिए दबाव बनाता है।

सभी क़ानून जिला शासन की अंतिम बाग़डोर ज़िलाधिकारी या कलक्टर को सौंप देता है और फिर वह तानाशाह की तरह अपने हुक़्म के पालन के लिए दमन के अस्त्र का जम कर इस्तेमाल करता है। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दौर और बीसवीं सदी की शुरुआत (जबकि ब्रिटिश औपनिवेशिक राज था और नाम के लिए जन प्रतिनिधि होते थे) की तुलना यदि इक्क्सवीं सदी के दूसरे दशक से की जाय जबकि देश में पूर्ण स्वराज्य है और लोगों के पास पूर्ण लोकतांत्रिक अधिकार हैं, उन्हें अपनी बात को रखने की इजाज़त नहीं मिलती।

‘आगरा मॉडल’ जनप्रतिनिधियों और ज़िलाधिकारी के बीच पिछले 55 दिन से चल रहे खुल्लमखुल्ला संघर्ष की दास्ताँ सुनाने के लिए काफी है। भाजपा से निर्वाचित आगरा के मेयर ने मुख्यमंत्री को जो मार्मिक चिट्ठी भेजी उसमें सरकारी मशीनरी के शिकंजे में कसमसाते “आगरा को वुहान बन जाने से रोकने” की प्रार्थना थी। चिट्ठी देश भर के मीडिया में वायरल हुई, आगरा के 2 सांसद और 9 विधायकों (सभी भाजपा) का कड़ा विरोध इसमें शामिल था लेकिन फिर भी इसे तवज्जो नहीं दी गयी। बताया जाता है कि उलटे मेयर को पार्टी के आलाकमान की फटकार सुननी पड़ गयी।

मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की हमने। ‘आगरा मॉडल’ की यही कुछ दास्तान है। शरू में हमने बाज़ारवाद में मॉडल की ज़रुरत का उल्लेख किया था। ‘केरल मॉडल’ और ‘भीलवाड़ा मॉडल’ का जब प्रचार चल निकला तो भाजपा को चिंता हुई कि ‘कोरोना काल’ के इतिहास में उसका ब्रांड नहीं बन पा रहा है। परिणाम स्वरूप ‘आगरा मॉडल’ क नारा बुलंद किया गया लेकिन वह जल्द ही फेल हो गया। ‘केरल मॉडल’ अगर कामयाब हुआ तो ज़रूरी नहीं कि सारे मॉडल पास होंगे। आख़िर जॉर्ज बॉक्स ने कहा भी तो है “सभी मॉडल व्यर्थ साबित हुए हैं, अलबत्ता उनमें कुछ उपयोगी हैं।”

'केरल मॉडल' की दास्तान

केरल मॉडल’ की बड़ी चर्चा है। यह चर्चा देश में तो है ही, विदेशी भी इसके रहस्य को जानने के बेहद इच्छुक हैं। पढ़े-लिखे क़िस्म के राजनीतिज्ञ पूछताछ करते रहते हैं । वरिष्ठ अधिकारी भी केरल के अपने बैचमेट दोस्तों से बड़ी जिज्ञासा से इस मॉडल की बाबत जब-तब पूछते हैं। केरल के मंत्री और अफसर दोनों जवाब देते हैं-हमारे पास कोई रोल मॉडल तो था नहीं, हमने ख़ुद इसे कर के सीखा है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि मीडिया में इसका कोई विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता। अपनी डेली प्रेस ब्रीफ़िंग में एक दिन भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी ‘आगरा मॉडल’ का ढोल-तांसा पीटते ज़रूर पेश हुए थे लेकिन दूसरे दिन से ही ‘आगरा मॉडल’ की हवा निकल गयी। ‘केरल मॉडल’ की बाबत अलबत्ता उनके मुखारविंद से कभी कुछ प्रकट नहीं हुआ। प्रधानमंत्री भी अपने मन या तन की बात में कभी ‘केरल मॉडल’ की चर्चा में एक शब्द बोलते भी नहीं दिखे। आखिर क्या है यह ‘केरल मॉडल’ ?

फरवरी के पहले हफ्ते में ही पूरे प्रदेश की सीमाओं को सीलबंद कर दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों से उतरने वाले यात्रियों को 3 हफ़्ते के सघन क़्वेरेन्टाइन सेंटर में रक्खा गया जो बड़े साफ़-सुथरे और चाक-चौबंद इंतज़ामों से लैस थे। सिविल सोसायटी से जुड़े हज़ारों लोगों को ‘प्रतिबद्ध वॉलेंटियर्स’ की आर्मी में तब्दील कर दिया गया। उत्तर भारत के राज्यों की तरह केरल में ‘नागरिक आपूर्ति’ और ‘जन स्वास्थ्य’ के नेटवर्क अभी तक नष्ट नहीं हुए थे । उन्हें बड़ी मेहनत से सहेज कर रखा गया था। क्या यूडीएफ और क्या एलडीएफ, सभी ने उसकी परवाह की थी। इन्हें नागरिकों की सेवा में पूरी ताकत से झोंक दिया गया। प्राकृतिक चिकित्सा और आयुर्वेद की परंपरागत जड़ें समाज में गहरे में रोपी हुई थीं, मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए इनका जम कर दोहन किया गया।

फ़रवरी के पहले सप्ताह से ही मुख्यमंत्री, स्वास्थ्यमंत्री, जनआपूर्ति मंत्री, वित्तमंत्री, चीफ़ सेक्रेटरी और राज्य के वरिष्ठतम अधिकारियों की दैनंदिन बैठक होती और मीडिया के माध्यम से मुख्यमंत्री रोज़ राज्य के नागरिकों के समक्ष बीते 24 घंटों का रोज़नामचा और सलाह पेश करते। ज़रा सा संदेह होते ही बड़े पैमाने पर जांच का प्रबंध किया गया। यदि फ़रवरी और मार्च के जांच आंकड़ों को देखें, जबकि देश के बाक़ी हिस्सों में कोरोना पोज़िटिवों की रफ़्तार बहुत सुस्त थी, केरल में यह रफ़्तार तेज़ी से बढ़ रही थी। अप्रैल में, जबकि देश त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लग गया था, केरल शांतचित हो चुका था। पॉज़िटिव मरीज़ों के लिए सरकारी अस्पतालों की चेन थी, उत्तर भारत के सरकारी अस्पतालों से विपरीत यहां ड्यूटी करने वाले डॉक्टरों की आत्मा में ख़ुदा का वास अभी भी शेष था और नर्सों की रिश्तेदारी ‘लेडी विद द लैंप’ वाली फ्लोरेंस नाइटिंगेल के साथ बची रह गयी थी।

जिस समय देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा हुई, देश के दूसरे राज्यों में मकान मालिकों द्वारा बेदखल भूख से बिलबिलाते प्रवासी मज़दूर अपने बीबी बच्चों के साथ सड़कों पर निकल आने को मजबूर हुए। 50-55 दिन बाद भी वे पैदल या जैसे तैसे सड़कों पर अपने गांव की ओर कूच करते देखे जा रहे है और तेज़ रफ़्तार सड़क-रेल दुर्घटनाओं में कुचल कर दम तोड़ रहे हैं। उत्तर भारत से शुरू होकर मज़दूरों के ये रेले आंध्र, तेलांगाना, कर्णाटक तक की सड़कों पर दिखाई दे रहे हैं लेकिन फिर क्या वजह है कि केरल की एक भी सड़क पर भी वे नहीं दिखे। पूरे केरल के शहरों और गांवों में इन मज़दूरों के लिए हज़ारोँ की तादाद में ‘पब्लिक किचन’ की स्थापना की गयी है। सरकारी अधिसूचना और स्थानीय लोगों की ज़बान में इन्हें प्रवासी मज़दूर नहीं, ‘अतिथि मज़दूर’ कहकर सम्बोधित किया जाता है।

मई के दूसरे सप्ताह में पहली बार उत्तर भारत के किसी चैनल (एनडीटीवी) से बात करने के लिए वहां के एडीशनल चीफ सेक्रेटरी और इस अभियान में प्रभावशाली भूमिका निभाने वाले डॉ. विश्वास मेहता तिरुअनंतपुरम से अपलिंक कर रहे थे। एंकर ने पूछा कि इस महामारी को नियंत्रित करने के लिए आपकी हाई-पावर कमिटी में कितने लोग थे, तो उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा “वो हम अभी नहीं बता सकते। हम सूचनाएं एकत्रित कर रहे हैं।” ताज्जुब में डूबे एंकर ने दोबारा सवाल किया-कुछ मोटा अंदाज़ ही बता दीजिये-2,4,6,12,14… तो जवाब मिला “वह संख्या दरअसल लाखों में है। राज्य सचिवालय के कमरों से लेकर हर ग्राम पंचायत तक हाई पावर कमेटियां सक्रिय हैं। वे अपनी प्रॉब्लम को एक्जामिन करती हैं और उनका वहीँ निदान कर देती हैं। हम उनकी टोटल संख्या को वर्कआउट कर रहे हैं, जल्द ही आपको बता देंगे।“

मानवीयता की इस मलयाली गंगा की बाबत जब मीडिया ने मुख्यमंत्री से जानना चाहा कि उन्होंने ये सब कहाँ से सीखा और उनका आदर्श मॉडल कौन है तो उन्होंने जवाब दिया- “ये सब हमने और हमारी जनता ने अपने अनुभवों से सीखा है। हमारा कोई आदर्श मॉडल नहीं, यह हमारा अपना मॉडल है। आप चाहें तो इसे केरल मॉडल कह सकते हैं।” लोगों को ताज्जुब हुआ। आज भी यहाँ मरीज़ों की स्थिति पूरे नियंत्रण में है।

( अनिल शुक्ल: पत्रकारिता की लंबी पारी। ‘आनंदबाज़ार पत्रिका’ समूह, ‘संडे मेल’ ‘अमर उजाला’ आदि के साथ संबद्धता। इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता साथ ही संस्कृति के क्षेत्र में आगरा की 4 सौ साल पुरानी लोक नाट्य परंपरा ‘भगत’ के पुनरुद्धार के लिए सक्रिय।)

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