उर्मिलेश
दिल्ली से बंगाल-चुनाव कवर करने गये कई पत्रकार मित्रों से वहां की राजनीतिक स्थिति को लेकर मेरी फोन पर बातचीत होती रहती थी. बंगाल से लौटकर इनमें कई पत्रकार कोरोना संक्रमित हुए. ज्यादातर ठीक हो गये या ठीक होने के रास्ते पर हैं. इसलिए भरोसा था कि अपना अरुण भी ठीक हो जायेगा…किसी दिन जल्दी ही वह हॉस्पिटल से हाथ में कोई किताब लिये घर लौट आयेगा. फोन करने पर बोलेगा: ‘हं, भाई साहब, तोड़कर रख दिया कोरोना ने. बड़ी मुश्किल से जान बची.’ फिर मैं उसे हिदायतें देते हुए थोड़ी डांट भी लगाऊंगा और बताऊंगा कि तुम्हारे लिए कितने सारे पुराने इलाहाबादी न जाने किन-किन शहरों में परेशान थे. इनमें कुछ तो मुझे फोन कर तुम्हारा हालचाल ले रहे थे. ज्यादा लोग तारिक नासिक से पूछा करते थे. अभी तो बीती रात ही स्वयं कोरोना के हमले से उबरी कुमुदनी पति ने पूछा. अद्यतन जानकारी के लिए मैने पहले तारिक़ को और फिर ब्रिज बिहारी चौबे को फोन किया. चौबे जी और परिवार के अन्य लोग कुछ ही समय पहले अस्पताल से लौटे थे.
कोरोना से उबरने के बाद की शारीरिक परेशानियों और जटिलताओं ने अरुण के सामने मुश्किलें पैदा की थीं. ये जटिलताएं कल सुबह ह्रदय तक पहुंच गईं पर डाक्टरों ने कार्डियक अटैक से तब अरुण को बचा लिया. पर जीवन और मौत के बीच कशमकश चलता रहा.
आज सुबह सोशल मीडिया से ही अरुण के जाने की बेहद बुरी खबर मिली. पुराने दिनों के हमारे वरिष्ठ साथी रामजी राय के अलावा किसी से बात करने की हिम्मत नही जुटा सका.
सोशल मीडिया पर सुबह जब देखा: वरिष्ठ हिंदी पत्रकार अरुण पांडेय नहीं रहे! इस पर भरोसा करने का जी नहीं कर रहा था. मैंने हडबडी में अरुण के कई निकटस्थ पत्रकारों या उनके पूर्व सहकर्मियों के फेसबुक पेज खोले, देखा हर जगह यह खबर दर्ज है. उस बुरी खबर को मानने के लिए अपने मन को भी मनाना पड़ा.
अरुण को मैने किशोर से युवा होते देखा था, उसका जुझारूपन, कभी न हारने वाला और कभी न थकने वाला रूप देखा था. इसलिए मुझे इस बार भी लगता था कि वह अस्पताल से स्वस्थ होकर लौट आयेगा.
ठीक-ठीक याद नहीं, अरुण पांडेय से मेरी मुलाकात किस सन् में हुई! अनुमान लगा सकता हूं, यह सन् 19780-81 का वर्ष रहा होगा. इलाहाबाद में एक नया छात्र संगठन बना था. तब उसका नाम रखा गया-PSA यानी प्रोग्रेसिव स्टूडेंट्स एसोसिएशन. इसकी पहली बैठक नये बने ताराचंद हॉस्टल के एक कमरे में हुई थी. संभवतः वह सन् 1978-79 का सत्र था. वह शरद श्रीवास्तव या अरविंद कुमार का कमरा रहा होगा.
मैंने कुछ ही समय पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन SFI से इस्तीफा दिया था. नये संगठन की स्थापना में हम आठ-दस लोग लगे हुए थे, इसमें शरद, अरविंद और हमारे अलावा रामजी राय, रवि श्रीवास्तव, निशा आनंद, राजेंद्र मंगज, हिमांशु रंजन, हरीश और कुछ और लोग शामिल थे. जिन लोगों का नाम यहां नही दर्ज कर पाया, वे मुझे माफ करेंगे. सबकुछ स्मृति से लिख रहा हूं, उस समय का मेरे पास कोई नोट नही है.
नये संगठन के दो सह-संयोजक चुने गए थे: रामजी राय और उर्मिलेश.
यही PSA कुछ महीने बाद PSO यानी Progressive Student Organization बन गया. इसने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जो पहला चुनाव लड़ा, उसमें हमारी एक मात्र उम्मीदवार थीं: सुनीता द्विवेदी, जो उपाध्यक्ष पद के लिए लड़ रही थीं. उस चुनाव को हम लोगों ने जीत लिया. जीत के बाद विश्वविद्यालय रोड पर PSO का जो विजय जुलूस निकला, वह अभूतपूर्व और ऐतिहासिक माना गया.
अगर मैं भूल नहीं रहा हूं तो अरुण पांडेय कुछ समय बाद कैम्पस में आये और PSO से जुड़े. बहुत जल्दी ही संगठन के प्रमुख कार्यकर्ता बनकर उभरे. उस दौर में बहुत सारे प्रतिभाशाली छात्र PSO से जुड़ने लगे थे. तब तक मैं दिल्ली जा चुका था. लेकिन सांगठनिक रिश्ता बरकरार था. दिल्ली में मैं उस संगठन का पदाधिकारी भी था.
इलाहाबाद में हमारे समकालीन साथी-अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने संगठन का कुशलता के साथ नेतृत्व किया. वह बाद में PSO के बैनर से चुनाव लड़कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बने. आज भी वह बदलाव की राजनीति के एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं. उनके अलावा कमल कृष्ण राय, लाल बहादुर सिंह, आदित्य वाजपेयी, राजकुमार, अनिल सिंह, कुमुदनी पति, विनोद श्रीवास्तव, राम शिरोमणि, शिवशंकर मिश्र, ईश्वरी प्रसाद कुशवाहा, दयाशंकर राय, प्रमोद सिंह, तारिक़ और भी कई लोग(बहुत पुरानी बात है, माफ करेगे, याददाश्त से लिखने के चलते कुछ नाम छूट रहे होंगे.) भी जुड़े. इनमें कमल, लालबहादुर और कुमुदनी भी छात्र संघ के पदाधिकारी बने. सभी अपने-अपने ढंग से आज भी बदलाव की वैचारिकी से जुड़े हैं.
संगठन में अरुण की छवि एक बहुत मेहनती, समझदार और जुझारू कार्यकर्ता की थी. लोगों का दिल जीतने और जन-संपर्क में माहिर. जहां तक याद है, अरुण और विनोद संगठन के कोष के प्रभारी बनाये गये थे. कुछ समय बाद मुझे इलाहाबाद छोड़ना पड़ा क्योंकि फेलोशिप के साथ M.Phil./Ph.D. करने दिल्ली के JNU में दाखिला मिल गया. इलाहाबाद में फेलोशिप नही मिली वरना मैं दिल्ली आता भी नहीं. मुझे इलाहाबाद बहुत पसंद था.
दिल्ली आने के बाद भी सन् 1981 या 82 तक मेरा इलाहाबाद आना-जाना बना रहा. कम से कम छात्र संघ के चुनाव में अपने प्रत्याशी के प्रचार के लिए जरूर पहुंचता था. यही कारण है कि संगठन मे शामिल हुए नये छात्रों से भी मिलना-जुलना होता रहता था. इसी दरम्यान कभी अरुण पांडेय से मुलाकात हुई होगी. नये लोगों मे वह बहुत सक्रिय थे. उन्हें संगठन का कामकाज संभालने वालों की अग्रिम कतार में देखता था. अपनी पढ़ाई और लड़ाई(छात्रों की जेनुइन मांगो के लिए संघर्ष ), दोनों मोर्चो पर वह अव्वल थे. मिलनसार और व्यवहारिक भी थे.
पत्रकारिता में आने के बाद भी अरुण ने अपना झंडा बुलंद रखा. सहारा जैसे अखबार में ‘हस्तक्षेप’ जैसा परिशिष्ट/पत्रिका निकालना कोई आसान काम नही था. पर अरुण पांडेय ने वह कर दिखाया. ‘हस्तक्षेप’ को हिंदी पत्रकारिता में उनके बड़े अवदान के रूप में याद किया जायेगा. उन्होंने कई टीवी न्यूज़ चैनलों के लिए भी काम किया.
सूचना के अधिकार पर अरुण ने बहुत अच्छा काम किया. उनकी किताब भी आई. वह किताब मुझे भेंट की. जल्दी ही पढ़ गया. कुछ नोट्स भी लिये थे कि कभी लिखेंगे इस पर. अफसोस, उस दौर में मैं उस पर कुछ लिख नही पाया. उन दिनों मेरा लिखा(रिपोर्ट के अलावा) मेरे अखबार में बहुत कम छपता था और अपने नाम से बाहर तो लिख नही सकता था. अभी कुछ ही महीने पहले उस किताब को खोजता रहा पर मेरे घर की बेहद अस्त-पस्त और अव्यवस्थित लाइब्रेरी में मैं उसे खोज नहीं सका. जल्दी ही खोजूंगा और सहेज कर रखूगा.
अपने प्यारे भाई अरुण पांडेय को सादर श्रद्धांजलि और परिवार के प्रति शोक-संवेदना!