समकालीन जनमत
कविता

दिलीप दर्श की कविताएँ सामाजिक द्वन्द्व को उकेरती हैं

कौशल किशोर


दिलीप दर्श की रचनात्मक स्थितियां वर्तमान के द्वन्द्व से तैयार होती हैं। इनमें सामाजिक संघर्ष, अतीत की सीखें, शोषक-शासक शक्तियों की पहचान, वर्ग विभाजित समाज में विकट होते जीवन संदर्भ और बेहतर की आकांक्षा हैं।

समकालीन कविता के मूल्यांकन का आधार यह देखना है कि वह अपने भाव-विचार में कितनी जनतांत्रिक है, वहीं अभिव्यक्ति में इन्द्रियों की गतिशीलता कितनी है। मुक्तिबोध कविता के दो मुख्य अवयव के रूप में जिस ज्ञान और संवेदना की बात करते हैं, वर्तमान में उसका मुख्य श्रोत यही है। दिलीप दर्श के रचनात्मक संघर्ष की दिशा कमोबेश यही है।

एक कविता है ‘बारिश के दिनो में’। कविता का आरम्भ होता है ‘बारिश के दिन याद नहीं करता/बारिश की रातें याद करता हूं’। कविता वर्तमान से अतीत की यात्रा करती है। इसमें मां-पिता के संघर्ष के रूप में आम आदमी की संघर्ष-कथा है। प्रश्न है कि बारिश के दिन की जगह रातों की याद क्यों? बारिश में घर का छप्पर चू रहा है। पानी भर जाने की समस्या है। ऐसे में आम आदमी क्या बचाये? उसके लिए दिन से ज्यादा रात भयावह है। इसमें बारिश का कहर तो है ही, उसके साथ रात के गहन अंधेरे से भी जूझना है। रात के अंधेरे को दूर करने का एक मात्र साधन ढिबरी है। चिन्ता इस बात की है कि कभी भी मिट्टी का तेल खात्म हो सकता है। यह बात भी मन को घेरे है कि बारिश में धान, जो खेतों में है, वह अतिशय वृष्टि में डूबकर नष्ट न हो जाय। उसके लिए धान जीवन के सुख, बच्चों के भविष्य और उसके छोटे-छोटे सपने हैं। सबसे जरूरी है कि बच्चे न भींगे। वे बचे रहेंः

‘पिता उस पर डाल देते थे/अपनी एक पुरानी खद्दर की धोती/कि हम बच्चों की देह में बची-बनी रहे गरमी/….घोती-साड़ी का सम्मिलित संघर्ष/कितना जरूरी है/दुनिया में गरमी बचाने के लिए’।

‘घोती-साड़ी’ संघर्ष के प्रतीक हैं, धोती पुरुष का और साड़ी स्त्री का। कवि का जोर इस बात पर है कि आम आदमी अपने अस्तित्व की रक्षा मिलकर ही कर सकता है। इसमें स्त्री-पुरुष को मिलकर उनका मुकाबला करना है। मुक्तिबोध के शब्दों में ‘मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते’। कवि की निजता सामाजिकता में बदल जाती है।

कविता का संघर्ष बेहतर मानवीय स्थितियों और समता पर आधारित समाज के लिए है। दिलीप दर्श की कविता ‘नया होगा यह देखना’ समय और समाज में आये बदलाव का पाठ है। जब समाज में धर्म, जाति, वर्ण आदि के आधार पर विभाजन किया जा रहा है और इसके द्वारा मनुष्य की खंडित पहचान बनाई जा रही है, ऐसे में प्रेम, भाईचारा, बाराबरी जैसे मूल्यों को वास्तविक जीवन मूल्य बताना ही सभ्यता है। सामंती काल को याद किया जाय, जब राजकुमारों ने गुरु से एकलव्य का अंगूठा दक्षिणा में मांग लेने का दबाव बनाया था। इसके बरक्स आज के समय का पाठ है कि राजकुमार और एकलव्य एक ही मंडली में शामिल हों, मिलकर नई सभ्यता का निर्माण करें। स्वाभाविक है ऐसा वर्णों में बंटकर नहीं, ‘राजकुमार’ होकर नहीं बल्कि मनुष्य होकर ही किया जा सकता है। इस भाव को कविता इस तरह व्यक्त करती हैः

‘नया होगा यह देखना भी/कि कुछ राजकुमार जाने लगे हैं स्कूल/एकलव्य की मंडली में दिन भर बैठ/सीख रहे हैं-नया ककहरा/जहां दो वर्णों के मेल के बिना/कोई भाषा ही नहीं बनती आदमी की/न ही बनता है सभ्यता का कोई व्याकरण’।

दिलीप दर्श की कविता ‘अब जब कि बादलों ने’ में ‘पानी के दावेदारों’ और ‘पानी के मारों’ के रूप में भिन्न और विपरीत सामाजिक शक्तियों का द्वन्द्व है। इसके प्रतीक और बिम्ब जनजीवन से लिए गये हैं। इसलिए उनमें सहजता और संप्रेषणीयता है। द्वन्द्व कविता में यूं व्यक्त होता हैः

पानी के दावेदार खुश हैं/…पानी का निर्यात बढ़ेगा/बढ़ेगा विदेशी मुद्रा का भंडार/वे खुश हैं. कि कम समय में न्यूनतम लागत पर लक्षित बारिश हुई/और बादलों को धन्यवाद देना चाहते है/इसलिए उन्होंने रखा है/संसद में धन्यवाद-प्रस्ताव/पानी के मारों को घोर आपत्ति है/…इतनी बारिश संभाल नहीं पा रही नदियां/बह गए हैं गांव के गांव/डूब गयीं हैं फसलें…..’।

एक के लिए ‘पानी’ लूट और कमाई का साधन है। इसके लिए वह तरह-तरह के तिकड़म व झूठ का सहारा लेता है, साठ-गांठ करता है। वहीं, दूसरे के लिए ‘पानी’ की मार जीवन के अस्तित्व के लिए संकट का कारण है। उसकी वजह से वह तबाह-बर्बाद होता है। इसे लेकर संसद में जो बहसें होती हैं, वह उनके पक्ष में हैं, जो इनका इस्तेमाल अपनी तिजोरी भरने के लिए करते हैं। सत्ता पक्ष के ‘धन्यवाद प्रस्ताव’ और विपक्ष के ‘अफवाह’ के बीच चर्चा में मूल समस्या फंस या गायब हो जा रही है। यही हमारे समय और इस लोकतंत्र की सच्चाई है कि ‘पानी के दावेदारों’ के ‘पांव’ के नीचे ‘पानी के मारों’ के ‘गांव’ दबे हैं। त्रासदी मजाक बन जाए, इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी। देखेंः

‘यह मजाक ही है कि/जिस पानी में बह गए हैं/पानी के मारों के गांव/उस पानी में/पानी के दावेदार धो रहे हैं/अपने-अपने पांव’।

दिलीप दर्श की यह काव्य विशेषता है कि वे सामाजिक द्वन्द्व पर परदा नहीं डालते, इसके विपरीत उसे तार्किक परिणति तक ले जाते हैं। इसका विस्तार हम ‘पसीने की प्रयोगशाला में’ देखते हैं। समाज जब आम और खास में बंटा है तो प्रश्न है कि आप समाजिक जीवन और घटित घटनाओं और प्रसंगों को किस नजरिये से देखते हैं। यह पक्षधरता की कविता है। ‘पसीने की प्रयोगशाला में’ यह पसीने का वर्ग चरित्र है कि पसीना चूता भी है और चुआया भी जाता है। जहां ‘आम’ का पसीना श्रम से चूता है, वहीं जिमखाने में ‘खास’ अपनी मोटापे और दूसरी शारीरिक समस्याओं को दूर करने के लिए या अपने फिटनेस के लिए पसीना चुआता है। इस पसीने को रंग और गंध से पहचाना जा सकता है। यह शोषण की सामाजिक स्थितियां हैं जहा श्रमिक से मनुष्य सा नहीं जानवर सा काम लिया जाता हैः

‘पसीने की आणविक संरचना एक है/उसकी गंध और उसका रंग है/एक दूसरे से बिल्कुल अलग/यह फर्क होता है इसलिए/कि पसीने को चुआना और पसीने का चूना/दो अलग – अलग समाजशास्त्रीय बातें हैं/जिन्हें समझने के पहले/यह देखना आवश्यक है/कि चमड़ी किसकी है/वातानुकूलित कार में बैठ/पेट – क्लिनिक जाते हुए किसी डाॅगी की/या हल खींचते बैलों की!’

दिलीप दर्श की कविता में यह बात साफ होकर आती है कि ग्लोबल हो रही दुनिया ने लोकल को ग्रस लिया है। जहां दुनिया की मुस्कुराहट गायब हो रही है, वहीं एक की मुस्कुराहट अट्टहास में बदल रही हैं। कविता इस सच्चाई से रूबरू कराती है कि दुनिया मुनाफ-पुरुष के कब्जे में है। उसके चिन्तन से प्रकृति, पर्यावरण, मानव जीवन, उसकी खुशहाली बेदखल है। वह इस बात पर खुश और सन्तुष्ट है कि उसका मुनाफा बढ़ रहा है। भले ही दुनिया पर उदासी की परत मोटी होती जायः

‘मुस्कुरा रहा है वह/किनारे खड़ा एक मुनाफा पुरुष/….मुस्कुराहट बता रही है/सब कुछ ठीक वैसा ही चल रहा है/जैसा वह चाहता था/दुनिया रोज बन रही है/मुस्कुराहट का कब्रिस्तान/और अकेले उसकी मुस्कुराहट/मोटी हो रही है रोज थोड़ी-थोड़ी’

वह ‘मनी-प्लांट’ का विनिमय करता है। ज्ञान-विज्ञान, फौज-फांटा सब उसके सेवक हैं। मनुष्यता के लिए चाहे कैसा भी समय हो, उसके लिए तो ‘आपदा अवसर है’। कविता भूमंडलीकृत हो रही दुनिया के यथार्थ तथा विश्व पूंजीवाद के ताने -बाने से पाठक को परिचित कराती है।

दिलीप दर्श के यहां प्रेम जीवन संघर्ष से अलग नहीं है। उसे निरपेक्षता में नहीं देखा जाना चाहिए। कविता भूख से ग्लानि की ओर नहीं ले जाती, वरन इसके विरुद्ध क्रोघ व घृणा पैदा करती है। वह प्रतिरोध रचती है। ‘प्रेम कविता लिखने से पहले’ जीवन के गद्य को जानना-समझना आवश्यक हैंः

‘प्रेम कविता लिखने से पहले/देखना होगा/हवश के कितने सर्गों-खण्डों में बंटा है जीवन का गद्य/कहां-कहां कैद है उसकी भाषा उनमें/बुन लिए हैं उनके शब्दों ने/इन सर्गों -खण्डों की अभेद्य दीवारों के सहारे/कितने मकड़जाल’

इस कविता से गुजरते हुए बांग्ला कवि सुकान्त भट्टाचार्य की कविता याद हो आती है जिसमें वे जीवन के गद्यमय हो जाने की बात करते हैं।

दिलीप दर्श की एक कविता है ‘पत्थर और मछलियां’। वे कहते हैं ‘पत्थर जब लिख रहे थे/पहाड़ों का इतिहास/पानी का इतिहास लिख रही थीं/मछलियां उस वक्त’। लेकिन कविता में स्थितियों का विकास जिस तरह होता है, उसमें कविता अपने पूर्व कथन का खण्डन करती है। पत्थर पहाड़ से टूटकर अलग हुए। उनका अपना अस्त्त्वि कायम रहा। इससे पहाड़ से लेकर पत्थरों तक की दुनिया बनी। उसका इतिहास बना। लेकिन मछलियों का अस्तित्व नदी, बादल और समुद्र से जुड़ा रहा। उसके बाहर उनकी दुनिया नहीं। कविता में मछलियों को लेकर कथन में असंगति हैः

‘मछलियां पानी से बाहर नहीं आ सकीं/किसी भी पन्ने में कभी/वे पानी से बाहर आ ही नहीं सकतीं/इसलिए पानी में रहकर पानी का/इतिहास नहीं लिख सकतीं/पत्थरों ने यह भी लिखा है/पहाड़ों के इतिहास में कहीं’

बहुत स्पष्ट नहीं होता कि पत्थर और मछलियों के माध्यम से कवि का क्या कहना है। पत्थर और मछलियों के बीच क्या कोई संगति है। मछलियों को लेकर कविता के आरम्भ और अन्त में कथन में ऐसा विरोधाभास क्यों? ऐसी असंगति कविता को अमूर्त बनाती है। प्रतीकों के इस्तेमाल में यह सजगता जरूरी है।

दिलीप दर्श की कई कविताएं अनावश्यक फैलाव लेती हैं। इस पर कवि को गौर करने की जरूरत है। वैसे, दिलीप दर्श की कविताओं को पढ़ते हुए और विचार करते हुए यदि मुक्तिबोध और बांग्ला कवि सुकान्त याद आते हैं, तो यह कवि की अन्तर्निहित संभावना को व्यक्त करता है।

 

दिलीप दर्श की कविताएँ

1. बारिश के दिनों में

बारिश के दिनों में
बारिश के दिन याद नहीं करता
बारिश की रातें याद करता हूँ मैं

उन्हीं रातों के भींगते अंधेरे में उगतीं थीं
मां की आंखें
कभी गुम हो जाती थीं
अंधेरा चीरने की कोशिश में
घर के अंदर उसी अंधेरे में
कभी बरसती नहीं थीं
बस पसीजती थीं कभी-कभी
घर की कच्ची दीवार की तरह

घर दुबका रहता था
अंधेरे की भींगी – भारी चादर में
हम भाई – बहनें दुबके रहते थे
एक रस्सी खाट पर मां की सूती साड़ी में
और पिता उसपर डाल देते थे
अपनी एक पुरानी खद्दर धोती
कि हम बच्चों की देह में बची – बनी रहे गरमी
लेकिन हम बच्चे
तब यह कहाँ समझते थे
कि धोती – साड़ी का सम्मिलित संघर्ष
कितना जरूरी है
दुनिया में गरमी बचाने के लिए

भींगते अंधेरे में
माँ जब बुझी हुई ढिबरी दुबारा बालती थी

हम बच्चे तब नहीं जानते थे
कि यह ढिबरी दरअसल वह
अपनी ही आंखों से निकालती थी
और पिता उसकी थरथराती रोशनी में
शिनाख्त करते थे – छप्पर कहाँ – कहाँ चूता था
और माँ को बताते थे कि
चूते हुए छप्पर के नीचे घर में
कौन-सा कोना सुरक्षित है ढिबरी के लिए
ताकि रोशनी में कम होती रहे रात की लंबाई

पिता ही बताते थे
माँ को कि कहाँ -कहाँ करने थे तैनात
घर के सारे खाली बरतन
घर की जमीन गीली होने से बचाने के लिए

घर के ठीक बीचोंबीच खड़ा
वह बूढ़ा खंभा क्यों चिढ़ता था
बरतन – बूँद की टन् – टन् जुगलबंदी पर
और क्यों सहमा रहता था
दीवार पर अपनी ही मोटी छाया हिलती देख
हम बच्चे यह कहां समझते थे तब ?

सिरहाने में बैठी मां
पैताने में बैठे पिता
उनके चेहरे से चूती हुई चिंता
फिलहाल ढिबरी में खत्म होते
मिट्टी तेल को लेकर थी
या उस डूबते धान को लेकर
जिसके सीस पर टिके होते थे कल के
सुख और सपने
हमें तब यह सब समझ में कहां आता था !

और जैसे – जैसे असुरक्षित होते जाते थे
घर में बाकी कोने एक – एक कर
ढिबरी और हम बच्चे सहित खाट की जगह
रात – भर बदलते ही रहते थे मां – पिता
ताकि ढिबरी बलती रहे
और वे हमें भींगते अंधेरे से बचा सकें
बचा सकें वे अपनी जिंदगी की कुल कमाई
आगे बारिश के दिनों में खरचने के लिए

अभी यहाँ
उन रातों को याद किए बिना मुश्किल है
अभी की बारिश को कोई अर्थ देना
और बारिश को समझे बिना मुश्किल है
जिंदगी की जड़ें ढूँढना

इसलिए
बारिश की रातें याद करता हूँ मैं
बारिश के दिन याद नहीं करता
बारिश के दिनों में ।

 

2. नया होगा यह देखना

मेरे लिए नया नहीं है
धनुष की चढ़ी प्रत्यंचा को उतरते देखना
हर दिन
बांसुरी की चढ़ती लय के साथ

ध्यानस्थ बुद्ध के ठीक सामने बैठ
चार्वाक को चाय पीते देखना
नया नहीं है मेरे लिए

तुलसी के कमंडल से गंगाजल निकाल
रहीम को वुज़ू करते देखना
बिल्कुल नया नहीं है

नया तो होगा
देखना काशी के पंडितों को
पसीने से तर – बतर अपने कुर्ते से
धागे खींच – खींच जनेऊ बनाते हुए
वहाँ के जुलाहों के लिए

नया होगा यह देखना भी
कि कुछ राजकुमार जाने लगे हैं स्कूल
एकलव्य की मंडली में दिन -भर  बैठ
सीख रहे हैं- नया ककहरा
जहाँ दो वर्णों के मेल के बिना
कोई भाषा ही नहीं बनती आदमी की
न ही बनता है सभ्यता का कोई व्याकरण

नया होगा यह देखना
कि इस पार खड़ा आदमी
सामनेवाले आदमी की पीठ को
उसकी पीठ ही समझता है
पुल नहीं समझता
उस पार जाने के लिए

 

 

3. अब जबकि बादलों ने

अब जबकि बादलों ने
पूरा कर लिया है
मानसूनी तिमाही में ही
पूरे साल की बारिश का बजट
और बारिश लगभग खत्म हो गई है
पानी पर बहस जारी है
पानी के दावेदारों और पानी के मारों के बीच

पानी के दावेदार खुश हैं
कि बाकी दिन अब इत्मीनान से गुजरेंगे
देश में पानी की कमी नहीं रहेगी
पानी का निर्यात बढ़ेगा
बढ़ेगा विदेशी मुद्रा का भंडार

वे खुश हैं कि कम समय में
और न्यूनतम लागत पर लक्षित बारिश हुई है
और बादलों को धन्यवाद देना चाहते हैं
इसलिए उन्होंने रखा है
संसद में धन्यवाद- प्रस्ताव

पानी के मारों को घोर आपत्ति है इस पर

आपत्ति है
कि बारिश एकाएक हुई है
एकाएक इतनी बारिश
संभाल नहीं पा रहीं हैं नदियाँ
बह रही हैं अभी भी

खतरों के निशान से ऊपर

बह गए हैं गाँव के गाँव
डूब गईं हैं फसलें
बचे हुए लोग या जानवर दिख रहे हैं
बस ऊंचे-ऊंचे बांधों पर

अफवाह गरम है कि
बांध कभी भी टूट सकते हैं
क्योंकि इस बार भी
बड़े-बड़े चूहों ने
बनाए हैं बड़े-बड़े बिल इनमें
बिलों ने बांध को
बिल्कुल खोखला कर दिया है
ऐसी अफवाह है

पानी के मारों की मांग है
धन्यवाद प्रस्ताव पर नहीं
चर्चा हो तुरंत इस अफवाह पर
जांच हो कि
एकाएक जब इतनी बारिश होती है
तो चूहे अचानक क्यों बढ़ जाते हैं ?
बादल बहाते हैं गाँव
चूहे खाते हैं बांध
बादलों और चूहों के बीच आखिर
क्या है साठ – गांठ ?

सच्चाई का सामने आना जरूरी है
अन्यथा

यह धन्यवाद प्रस्ताव
पानी – पीड़ित जनता के दुख का मजाक है

यह मज़ाक ही है कि
जिस पानी में बह गए हैं
पानी के मारों के गाँव
उस पानी में
पानी के दावेदार धो रहे हैं
अपने – अपने पाँव !

 

4. इसलिए वे पेड़ थे

जब बंट रहे थे
पृथ्वी पर जड़ और पैर
पैर लेने से इंकार कर दिया था
हमारे पूर्वजों ने

समय के विरुद्ध उन्होंने
पैरों के बदले जड़ों को चुना था
गति – विरोधी नहीं थे वे
लेकिन चलना स्वीकार नहीं था उन्हें

समझ साफ थी कि
जड़- विहीन कोई आगे तो बढ़ सकता है
ऊपर नहीं उठ सकता
इसलिए उर्ध्वगति के पक्षधर थे वे

पैरों के संभावित खतरों को लेकर
उन्हें आशंका थी कि
योग्य या समर्थ माना
सिर्फ उन्हीं पैरों को माना जाएगा
जो शामिल होंगे
किसी आक्रांता के फ्लैग मार्च में
और शेष को घोषित कर दिया जाएगा
मड़ियल या अपाहिज
जिनके लिए शांति मार्च ही रहेगा
एकमात्र और स्थायी विकल्प

उन्हें स्वीकार नहीं था
चलते हुए अपने कदमों को
किसी ताकतवर के हाथों सौंप देना
या अपाहिज घोषित होकर जीना भी
ऐसे पैरों के बल
उन्हें नहीं लगा था कि
वे कभी अपने पैरों पर खड़े हो पाएँगे
विकलांग आत्म- निर्भरता भी
स्वीकार नहीं थी उन्हें

उन्हें लगा था कि चलने से ज्यादा
पैरों से लिया जाएगा कुचलने का काम
वो भी इतना ज्यादा
कि चलते – चलते पैर
भूल जाएंगे चलना
उन्हें याद रहेगा सिर्फ और सिर्फ कुचलना ही

सदियों- सहस्राब्दियों में होगा कोई एक
जिसके पैरों के तलवों से उठेगी
पृथ्वी की छाती पर गुदगुदी
और छाती में गुदगुदी से उतरेगा दूध
तबतक रौंदी ही जाती रहेगी पृथ्वी
सांढ़ों के झुंड आ – आकर बार – बार
नोंचते – खुरचते ही रहेंगे
खुरों से पृथ्वी की सांवली चमड़ी
और उड़ाते ही रहेंगे धूल

अस्तित्व या वर्चस्व की खूनी लड़ाई में
पैर ही हथियार होंगे
जड़ें नहीं
पैर नहीं बचा पाएंगे उन्हें
योग्यतम की उत्तरजीविता के उपासक होने से
तब जड़ें ही बचा सकेंगी उन्हें

उन्हें आशंका थी
कि शांति काल के खुशनुमा दिनों में
अवसर की समानता का अधिकार तो रहेगा
पर अधिकतर पैरों के तले नहीं रहेगी
कोई जमीन

बिना जमीन के जीना
स्वीकार नहीं था हमारे पूर्वजों को
उन्हें विश्वास था
कि जड़ें ही बचा सकेंगी कुछ जमीन
प्रलय के प्रवाही दिनों में भी

तो जड़ ही बेहतर विकल्प थी
हमारे पूर्वजों के लिए
इसलिए वे पेड़ थे।

 

5. पत्थर और मछलियाँ

पत्थर जब लिख रहे थे
पहाड़ों का इतिहास
पानी का इतिहास लिख रहीं थीं
मछलियाँ उस वक्त

पहाड़ों से टूटकर पत्थर
बहुत पहले ही अलग हो गए थे
मछलियाँ अभी भी तैर रही थीं
पानी में

पहाड़ों का अब कोई दबाव नहीं था
पत्थरों के अस्तित्व पर
कोई छाया नहीं थी
पहाड़ों के खौफ की
उनकी स्मृतियों पर भी

पत्थर लिख सके
पहाडों के भीतर गुफाओं की
सभी पथरीली सच्चाईयां
जिनसे निर्मित हुई थीं ऊंचाईयां
पहाड़ों की

पत्थर लिख सके
लोग डरें नहीं पहाड़ की ऊंचाईयों से
न ही पालें चोटियाँ
अपने सपनों में

पत्थर बता सके
ऊंचाई का भूगोल कभी
ऊंचाई के इतिहास को माफ नहीं करता

वहीं मछलियाँ
पानी के चौतरफा दबाव में
नदी, बादल या समुंदर के विरुद्ध
इतिहास में कुछ नहीं लिख सकीं

मछलियाँ पानी से बाहर नहीं आ सकीं
किसी भी पन्ने में कभी

वे पानी से बाहर आ ही नहीं सकतीं
इसलिये पानी में रहकर पानी का
इतिहास नहीं लिख सकतीं
पत्थरों ने यह भी लिखा है
पहाड़ों के इतिहास में कहीं

 

6. मनी – प्लांट

असमय झड़ने लगे हैं
होठों से हंसी के फूल

पृथ्वी के नीले रंग को
निगल रही है कोई धूसर उदासी
पसर रही है अजगर – सी
आमेजन के जंगलों से लेकर
सवाना की घास पर भी
बह रही है वही मिसिसिपी में भी
पहुँच रही है वोल्गा से गंगा तक
ह्वांगहो का पानी भी उदास है

मुस्कुरा रहा है वह
किनारे खड़ा एक मुनाफा -पुरुष
वह नहीं मानता –
पृथ्वीवासी के उदास या लहूलुहान पैरों से
उदास हो जाती हैं नदियाँ
या हंसी के फूल असमय झड़ने लगते हैं

मुस्कुराहट बता रही है –
सब कुछ ठीक वैसा ही चल रहा है
जैसा वह चाहता था

दुनिया रोज बन रही है
मुस्कुराहट का कब्रिस्तान
और अकेले उसकी मुस्कुराहट
मोटी हो रही है रोज थोड़ी -थोड़ी

मृदा – विज्ञानियों ने दावा किया है
कि इस कब्रिस्तान की मिट्टी
सबसे उपयुक्त और सस्ती हो सकती है
मनी प्लांट उगाने के लिए

मौसम – वैज्ञानिकों का अनुमान है-
मुनाफे की पुष्प-वृष्टि के लिए
सबसे उपयुक्त मौसम है यह

उसके विषाणु – विज्ञानियों ने देख लिया है
विषाणु के नागरिकता – कालम में
देश या राष्ट्र का रिक्त या भरा
कोई बाक्स ही नहीं होता

तो मनी प्लांट
कितना भी लहलहाए – लतराए
कभी कम नहीं पड़ेगा
कब्रिस्तान बढ़ता ही जाएगा निरंकुश
झड़ते ही रहेंगे असमय हंसी के फूल

मनुष्यता का सुकाल हो या दुष्काल
वह नहीं मानता
कि मुनाफे का ड्रीम बजट पूरे कर सकते हैं
सिर्फ बारिश या वसंत के दिन ही

उसे तो दिखते हैं
अवसर के हरे – हरे पत्ते
पतझड़ में उदास खड़े ठूंठ पर भी

उसके देश का कारोबारी मुनाफा
किसी काल या मौसम का फलन है

वह ऐसा नहीं मानता

उसका तो मानना है
कि दुनिया के काल या मौसम को
विनियमित करती आई है हमेशा
कारोबारी चमड़ी ही
गोली या बम तो चमड़ी का कवच मात्र है
सेना तो बस एक आक्रामक पात्र है
इस कारोबार में

इस कारोबार में
उसकी संवेदना ऐसी है
कि जापान में कोई बच्ची जब रोती है
अपने खिलौने के टूट जाने पर
रोने की आवाज टकराती है
जहाँ दुनिया के तमाम समुद्री तटों से
वहीं बाज़ार- खोजी मुनाफा- पुरुष के कानों तक
पहुँचती है सिर्फ
खिलौने के टूटने की आवाज़
इनके टूटने में ध्वनित हो उठता है अवसर
बज उठती है मुस्कुराहट
मुनाफा- पुरुष की !

वही बच्ची जब हँसती है
नए खिलौने देख एकाएक
तो उसकी हँसी की खिलखिलाहट देखने
सूरज सिर्फ जापान में ही नहीं
वह उगता है
रूस में उदास बच्चों के गालों पर भी

तब उसे यकीन नहीं होता
कि दुनिया वाकई इतनी छोटी हो गई है
या मुस्कुराहट किसी एक चेहरे की
एकाकी घटना नहीं है।

 

7. प्रेम कविता लिखने से पहले

प्रेम कविता लिखने से पहले
देखना होगा
अपने  – अपने खेतों में
कितना प्रेम उपजाया है तुमने
बंजर होने से कितना बचा पाए हो
उन खेतों को
या वहाँ सिर्फ शब्दों की खेती की है
और काटी हैं फसलें सिर्फ बातों की

देखना होगा
भूख पर लिखी जा रही कविता के अंत में
उभरा है कितना क्रोध
क्रोध में उतरी है कुलबुलाती हुई कितनी घृणा
उठा है कितना विरोध या प्रतिरोध
कविता का अंत क्या वाकई अंत है
या शुरुआत है
भूख पर किसी अगली कविता की ?

देखना होगा
भूख पर लिखी जा रही कविता रह जाती है
अक्सर क्यों अधूरी ?
उसे छोड़ आधी या अधूरी
क्या लिखी जा सकती है कोई प्रेम कविता  ?

कविता होगी फूल पर
जब खिलेगा फूल
और फूल तब खिलेगा
जब जरूरत भर पानी मिलेगा
जड़ों को और

हवा या धूप मिलेगी पत्तों को

प्रेम कविता लिखने से पहले
देखना होगा
हवश के कितने सर्गों – खंडों में
बंटा है जीवन का गद्य
कहाँ -कहाँ कैद है उसकी भाषा उनमें
बुन लिए हैं उनके शब्दों ने
इन सर्गों – खंडों की अभेद्य दीवारों के सहारे
कितने मकड़जाल

देखना होगा
जीवन का गद्य अगर नहीं है
उपलब्ध अखंड, मुक्त या अप्रतिहत
तो क्या लिखी जा सकेगी
एक मुकम्मल प्रेम कविता ?

 

 

8. पसीने की प्रयोगशाला में

पसीने की प्रयोगशाला में
इकट्ठे किए गए नमूनों पर
समाज  – विज्ञानियों का कहना है –
बहुत हद तक जाना जा सकता है
सिर्फ दो नमूनों से ही
पसीने का सामाजशास्त्रीय  रहस्य

आधा रहस्य खोलती है
पसीने की गंध
और आधा खुलता है
पसीनों के रंग से

उनका कहना है
कि जिस नमूने में खुशबू है किसी
डियो की या इत्र की
और जिसका रंग है किसी
महंगी शराब के जैसा
थोड़ा सुनहला या चटक
वह जरूर किसी
जिमखाने से लिया गया है
जहाँ कुछ लोग आते हैं
कि वे बहा सकें पसीना
क्योंकि उन्हें मालूम है
कि वे खाते – पीते लोग नहीं
बल्कि अधिक खाते – पीते लोग हैं
जानते हैं
ज़रूरत से ज़्यादा कैलोरी
सेहत के लिए ठीक नहीं है
फिर दफ्तर के नियंत्रित
20 डिग्री तापमान पर
पसीने भी कहाँ छूटते हैं !

तो बेहतर है कि
जितना खर्च हुआ है फास्ट फूड पर
उसका कोई पच्चीस फीसदी
खर्च किया जाए
यहाँ जिमखाने में पसीने चुआने पर
और रहा जाए स्वस्थ
जरूरत से ज्यादा खाते – पीते हुए
जीते हुए आत्मस्थ
वक्त के साथ बेखौफ बहा जाए

दूसरा नमूना है ऐसा
कि समाज विज्ञानियों को रखने पड़े हैं
रूमाल अपनी – अपनी नाक पर
रखने पड़े हैं आंखों पर चश्मे
क्योंकि इसके मटमैले रंग को
खुली आँखों से देखना खतरनाक है

उनका कहना है कि
यह पसीना
जरूर किसी ऐसे जिस्म का है
जो धूप में तपती – पिघलती
कलकत्ते ( सिटी आफ ज्वाय ) की
कोलतारी रोड पर हाँफते हुए
बाँहों के बल रिक्शा खींचते
दौड़ रहा है अभी भी सरपट
पीछे इत्मीनान से पसरकर बैठे
एक आदमी को
जिमखाने से घर पहुँचाने के लिए

समाज- विज्ञानियों का
यह भी कहना है
कि पसीने की आणविक संरचना से
नहीं जाना जा सकता
पसीने का समाजशास्त्रीय रहस्य

क्योंकि पसीने की आणविक संरचना एक है
उसकी गंध और उसका रंग है
एक दूसरे से बिल्कुल अलग

उनका कहना है
यह फर्क होता है इसलिए
कि पसीने को चुआना और पसीने का चूना
दो अलग – अलग समाजशास्त्रीय बातें हैं
जिन्हें समझने के पहले
यह देखना आवश्यक है
कि चमड़ी किसकी है
वातानुकूलित कार में बैठ
पेट – क्लिनिक जाते हुए किसी डाॅगी की
या हल खींचते बैलों की !

 

 

 

(कवि दिलीप दर्श
जन्म तिथि : 05 फरवरी 1975 ), शिक्षा : स्नातक , प्रतिष्ठा ( इतिहास ), मूल निवास – बलिया, प्रखंड – रूपौली, जिला – पूर्णिया, बिहार. सम्प्रति : गोवा में निवास ।
लेखन: पिछले पन्द्रह सालों से कविता, कहानी, आलोचना के क्षेत्र में  लेखन। कई पत्रिकाओं में विभिन्न रचनाएं प्रकाशित। कविता – संग्रह ‘ सुनो कौशिकी’ और कहानी संग्रह ‘ ऊँचास का पचास” प्रकाशित ।
मोबाइल सं : 8806668710/ 7030654223
इ मेल : kumardilip2339@gmail.com

 

टिप्पणीकार कौशल किशोर
कवि, समीक्षक, संस्कृतिकर्मी व पत्रकार, जन्म: सुरेमनपुर (बलिया, उत्तर प्रदेश), 01 जनवरी 1954, स्कूल के प्रमाण पत्र में।
संपर्क: एफ – 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ – 226017, मो – 8400208031

‘युवालेखन’ (1972 से 74) ‘परिपत्र’ (1975 से 78) तथा ‘जन संस्कृति’ (1983 से 90) का संपादन। दैनिक जनसंदेश टाइम्स के साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ में संपादन सहयोग (2014 से 2017)।
संप्रति : लखनऊ से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ के प्रधान संपादक।
जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में प्रमुख तथा मंच के पहले राष्ट्रीय संगठन सचिव। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष।

प्रकाशित कृतियाँ: दो कविता संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ तथा ‘नयी शुरुआत’। कोरोना काल की कविताओं का संकलन ‘दर्द के काफिले’ का संपादन। वैचारिक व सांस्कृतिक लेखों का संग्रह ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ तथा ‘शहीद भगत सिंह और पाश – अंधियारे का उजाला’ प्रकाशित। कुछ कविताएं काव्य पुस्तकों में संकलित। 2015 के बाद की कविताओं का संकलन ‘उम्मीद चिन्गारी की तरह’ तथा समकालीन कविता पर आलोचना पुस्तक की पाण्डुलिपियां प्रकाशन के लिए तैयार। कुछ कविताओं का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद।)

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