पंकज श्रीवास्तव
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1980-90 के बीच सक्रिय रहे तमाम लोगों के लिए 5 मई बुधवार की सुबह बेतरह उदासी में डूबी हुई थी। फ़ेसबुक पर शोक की एक नदी बह रही थी जिसकी हर लहर- हर क़तरे पर एक नाम चमक रहा था-अरुण पांडेय। यह नदी कई-कई शहरों से ग़ुज़रती हुई विलाप को गहराती जा रही थी। यह विलाप उनका भी था जो अरुण भाई से दस-पंद्रह साल बड़े थे या फिर इतने ही छोटे। किसी को यक़ीन नहीं हो रहा था कि हर मुश्किल को आसान बनाने वाले अरुण भाई, इस तरह हार जायेंगे।
मुंबई में रह रहे दस्ता के साथी विमल वर्मा ने मंगलवार देर शाम व्हाट्सऐप पर संदेश भेजा था कि अरुण भाई की तबीयत बिगड़ गयी है। उन्हें अस्पताल में दिल का दौरा पड़ा है। तुरंत, अरुण जी के निकट रिश्तेदार और वरिष्ठ पत्रकार बृज बिहारी चौबे से फोन पर बात की तो उन्होंने भी यही कहा कि अब प्रार्थना ही कर रहे हैं। आख़िरकार काल की चाल भारी पड़ गयी। प्रार्थनाएँ काम नहीं आयीं। अरुण भाई का शरीर वैशाली के एक निजी अस्पताल में शांत पड़ गया। वे वरिष्ठ पत्रकार अजित अंजुम के साथ प.बंगाल का चुनाव कवर करने गये थे। वहीं से कोरोना लेकर लौटे थे। उनके ठीक होने, फिर हालत बिगड़ने पर वेंटीलेटर पर जाने, फिर ठीक होने की ख़बर आयी थी। पर मौत ने जैसे पंजा गड़ा रखा था। उसने आख़िरी झपट्टा मारा और….उड़ गया हंस अकेला..!
अरुण भाई का जाना तमाम शहरों में फैले हम जैसे न जाने कितने लोगों के एक हिस्से का मर जाना है जिन्होंने उनके साथ जवानी के उन जोश भरे दिनों में सूरज को हथेली में क़ैद करने का सपना देखा था। उनका मंद-मंद मुस्कराता चेहरा आँखों के सामने घूम रहा है। साथ ही बीते पैंतीस साल का सफ़र भी।
इंदिरा गाँधी की हत्या के दिन बाद के झंझावाती दिनों में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रगतिशील छात्र संगठन (पीएसओ) के कर्मठ नेता बतौर अरुण भाई से पहली मुलाक़ात हुई थी। हम भी संगठन में शामिल हो गये थे और अरुण भाई के ज़रिये एक नयी दुनिया खुल रही थी। धीरे-धीरे पता चला कि यह संगठन सीपीआई (एम.एल) से जुड़ा है जो तब भूमिगत पार्टी थी। तब कम्युनिस्टों के बारे में इतना ही जानते थे कि चीन में ’80 साल की उम्र होते ही गोली मार दी जाती है।’ और चेतना का स्तर यह था कि पहली बार सिविल लाइंस के हनुमान मंदिर में दर्शन करने गये तो ये सोचकर परेशान हो गये कि ब्रह्मचारी हनुमान जी के मंदिर में लड़कियों को प्रवेश करने क्यों दिया जाता है?
स्वराज भवन के ऐन सामने पीएसओ का दफ्तर था, पर अरुण भाई हमें लेकर दूसरे छोर पर आनंद भवन के सामने एक चाय की गुमटी पर बैठते थे और तमाम मूर्खतापूर्ण सवालों का समाधान करते थे। धीरे-धीरे बात समझ आने लगी थी। विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल लॉन में हर हफ्ते होने वाली स्टडी सर्किल जैसे एक नयी दुनिया में ले जाती थी जिसमें किसी विषय पर चर्चा के लिए तमाम मेधावी छात्र, शिक्षक या विषय विशेषज्ञ जुटते थे। संगठन की लाइब्रेरी में तमाम किताबें थीं। वहाँ से मोटी जिल्ददार किसी किताब को साथ लेकर जब अपने ठिकाने पर लौटता था तो रायबरेली से इलाहाबाद पढ़ने साथ आये स्कूली मित्रों पर अलग ही रोब पड़ता था। पीएसओ में जाना पुनर्जन्म सरीखा था। पोस्टर बनाना, नुक्कड़ नाटक करना, गीत गाना और मजमे में लोगों से बेहिचक आर्थिक सहयोग माँगना ऐसी चीज़ें थीं जो कुछ समय पहले अकल्पनीय थीं।
इस परिवर्तन में अरुण भाई का बड़ा हाथ था। पीएसओ की लाइब्रेरी के नीचे जिस कमरे में वे रहते थे वहाँ हम भी अक्सर पड़े रहते थे। एक बार ‘शान-ए-सहारा’ अख़बार में तानाशाही के ख़िलाफ़ छपी पाकिस्तान के एक शायर की ग़ज़ल – ‘दोस्तों बारागहे क़त्ल सजाते जाओ, क़र्ज़ है रिश्ता-ए-जाँ क़र्ज चुकाते जाओ’ गुनगुना रहे थे कि अरुण भाई ने पकड़ लिया। कहा-आप तो बढ़िया गाते हैं और कुछ दिन बाद ही यूनियन हॉल में आयोजित पीएसओ के किसी कार्यक्रम में हम मंच पर थे। वही गज़ल गा रहे थे। फिर कब संगठन की सांस्कृतिक संस्था ‘दस्ता’ के हिस्से बने और हाथ में ढफली उठाकर शहर-शहर घूमने लगे, पता ही नहीं चला।
वे इंडियन पीपुल्स फ्रंट (IPF) के तूफानी दिन थे। हर तरफ़ ज़बरदस्त उत्साह था। छात्र संगठन की ओर से हमेशा कोई न कोई आयोजन या आंदोलन होता था। याद आ रहा है 1985 में हुआ फ़ीसवृद्धि के विरुद्ध हुआ ज़बरदस्त आंदोलन। कुमुदनी पति पीएसओ की ओर से छात्रसंघ उपाध्यक्ष चुनी गयी थीं। उन पर हिंदू हॉस्टल चौराहे पर लाठीचार्ज हुआ था। पूरा शहर जैसे धधक उठा था। अरुण भाई तब खड़े बालों वाले बेहद दुबले पतले युवा हुआ करते थे पर आंदोलन को धार देने में सबसे आगे थे। उस दिन सड़क पर उनके नेतृत्व में कुछ ऐसे ‘ऐक्शन’ हुए कि अब यक़ीन करना मुश्किल है। उन दिनों यूपी में आंदोलनों की एक नयी लहर आयी हुई थी। प्रदेश भर की कताई मिलों के मज़दूरों का संघर्ष तेज़ हो रहा था। जगह-जगह किसान सभा उठ खड़ी हुई थी। छात्र आंदोलन भी नये तेवर में फैल रहा था। 1988 में कमल कृष्ण रॉय पीएसओ के बैनर तले छात्रसंघ अध्यक्ष चुने गये थे। साथ में सैयद मोहम्मद शहाब उपमंत्री हुए थे। हर तरफ जोश था। 1989 में तय हुआ कि कुमुदिनी पति प्रतापगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ेंगी जहाँ विश्वविद्यालय के विवादित कुलपति आर.पी.मिश्र भी प्रत्याशी बनकर उतरे थे। अरुण भाई पर्दे के पीछे हर जगह मौजूद थे।
दरअसल, अरुण भाई ज़बरदस्त आर्गनाइज़र थे। संसाधनों के अभाव के बावजूद बड़े-बड़े आयोजन उनकी वजह से संभव हो जाते थे। जब अगस्त 1990 में पीएसओ जैसे तमाम राज्यों में सक्रिय छात्र संगठनों को मिलाकर ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) का गठन हुआ तो वे महत्वपूर्ण भूमिका में थे। उसके आसपास ही वे लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्रसगंठन बनाने की ज़िम्मेदारी लेकर गये थे, लेकिन वहाँ ज़रूर कुछ ऐसा हुआ कि कुछ समय बाद उनका रुख दिल्ली की ओर हुआ और वे पत्रकारिता की दुनिया में आ गये। छात्रजीवन में एक समय ऐसा आता है जब आगे के जीवन के बारे में निर्णायक फ़ैसले लेने होते हैं। अरुण भाई ने भी लिया।
अरुण जी पूर्वी दिल्ली के पटपड़गंज में मदर डेयरी के पीछे शायद चेतना अपार्टमेंट में रहते थे। उनका घर न जाने कितने बेरोज़गारों का अड्डा बना। तमाम लोगों को उन्होंने नौकरियाँ दिलवायीं। हमारे लिए भी तभी पत्रकारिता में आने का रास्ता खुला था, लेकिन एक तो नौकरी न करने का फ़ितूर दिमाग़ में था और दूसरा, पत्रकारों को उस समय के वेतन से ज़्यादा यूजीसी की फ़ेलोशिप थी, जो हमें मिल रही थी। ऐसे में नौकरी न करके बीच-बीच में दिल्ली में होने वाले आयोजनों में आता रहा, अरुण भाई का अड्डा, अपना अड्डा है के यक़ीन के साथ। इस अड्डे का नज़ारा अलग ही था। कई बार अरुण जी दफ्तर से लौटते तो उनके सोने की जगह नहीं होती थी। तमाम जाने-अनजाने चेहरे फ़र्श पर लुढ़के होते थे। अरुण जी भी वहीं कहीं अपने लिए जगह निकाल लेते थे। उनके चेहरे पर इसे लेकर कभी कोई शिकन नज़र नहीं आयी। वे लंबे समय से कम्यून जैसी स्थिति में रहकर आये थे जो यहाँ भी उनके साथ चल रहा था।
अरुण भाई राष्ट्रीय सहारा के शनिवारीय परिशिष्ट ‘हस्तक्षेप’ में महत्वूर्ण भूमिका निभा रहे थे। ‘पूर्व गूगल’ दिनों में हस्तक्षेप का क्या महत्व था, यह उन दिनों के छात्रों से पूछा जा सकता है। एक ही विषय के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा कराने का यह उपक्रम, ख़ासतौर पर प्रतियोगी छात्रों के लिए इतना ज़रूरी बन गया था कि वे इसकी फाइल बनाकर रखने लगे थे। अरुण जी की ज़िंदगी की फ़ाइल भी व्यवस्थित हो रही थी। बलिया से आये फ़क्कड़ नौजवान अरुण बरास्ते इलाहाबाद, दिल्ली में पत्रकारिता में झंडे गाड़ रहे थे। हम लोग भी अरुण जी की नयी भूमिका से ख़ुश थे क्योंकि उनके हस्तक्षेप के केंद्र में वही लोकतांत्रिक भारत का सपना था जो हम सबका साझा था।
इलाहाबाद में उनकी शादी हुई तो उसका जश्न मनाने कई शहर वहाँ जमा हुए। अरुण जी का निजी परिवार कहाँ था, हम लोग जान ही नहीं पाये। उनका व्यापक परिवार ज़िलों और राज्यों की सरहद के पार फैला हुआ था। कुछ साल पहले, उन्होंने दिल्ली में शादी की शायद पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर एक आत्मीय आयोजन किया था जिसमें हम और मनीषा भी आमंत्रित थे। वहाँ मुंबई से विमल भाई भी पहुँचे थे और इलाहाबाद में साथ रहे तमाम पुराने दोस्त भी। पता ही नहीं चला कि उस जश्न के माहौल में हम और विमल भाई कब उन्हीं गीतों को गाने लगे जिन्हें इलाहाबाद की सड़कों पर गाते थे। पूरा माहौल ही बदल गया। गाते-गाते हम और विमल भाई अचानक रोने लगे। अरुण भाई की आँख में भी आँसू थे। हम सबके बीच एक सवाल तैर रहा था जो कोई किसी से पूछ नहीं रहा था- “कहाँ जा रहे थे, कहाँ आ गये हम..?”
हम 2007 में स्टार न्यूज़ की नौकरी छोड़कर लखनऊ से दिल्ली आ गये थे, सहारा का राष्ट्रीय चैनल ‘समय’ की लांचिंग टीम का हिस्सा होकर। अरुण भाई तब भी वहीं थे, लेकिन स्थिति कुछ बदली हुई लग रही थी। कुछ दिन बाद वे सहारा छोड़ गये। पहले न्यूज़ 24 और फिर इंडिया टीवी। कहना न होगा कि टीवी पत्रकारिता ने उस पुराने तेजस्वी अरुण को खा लिया जिसका ‘हस्तक्षेप’ हिंदी पट्टी महसूस करती थी। अंधविश्वास की प्रसारक टीवी पत्रकारिता में उन दिनों जो हो रहा था, उसके साथ उनका मन किसी सूरत में नहीं बैठ सकता था, लेकिन वे नौकरी कर रहे थे। कैसे कर रहे थे, यह कभी-कभार होने वाली बातचीत से पता चलता था। टीवी में उनके साथ काम करने वाले उन्हें बहुत ‘शांत’ बताते हैं। वे उस तूफ़ान को कभी नहीं समझ सकते जिसे दबाकर अरुण जी शांत नज़र आते थे। कितना मुश्किल रहा होगा वह सब मैनेज करना, पर वे करते थे। शायद ज़िम्मेदारियों के बोझ ने उन्हें कमज़ोर कर दिया था। इलाहाबाद के लोहे पर दिल्ली की ज़ंग लग गयी थी। ऐसी हालत में वे हाईपरटेंशन के मरीज़ न होते तो क्या होते?
ख़ैर, यह क़िस्सा भी कुछ समय पहले ख़त्म हो गया। वे चैनल से भी बाहर आ गये थे। गाहे-बगाहे उनके लेख अख़बारों में दिखने लगे थे। बीच में एक-दो बार कुछ ‘नया’ करने को लेकर बातचीत भी हुई, लेकिन फ़क़त योजनाओं से क्या हो पाता! मोदी सरकार आने के बाद से बेरोज़गारी के आते-जाते सिलसिले के बीच मीडिया विजिल जैसा एक उपक्रम बन तो गया लेकिन संसाधन के नाम पर अपना ख़ून, अपना पसीना! अरुण जी करते भी क्या। बहरहाल पिछले दिनों ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर किसान आंदोलन को लेकर उन्हें अभय कुमार दुबे और अजित अंजुम के साथ यूट्यूब पर चर्चा करते देखा तो ख़ुशी हुई। वे पूरी रौ में थे। फिर वे अजित जी के इसी यूट्यूब चैनल के लिए उनके साथ बंगाल चुनाव कवर करने चले गये। उन्हें वहीं कोरोना हुआ। हो सकता है कि शुरुआती लक्ष्णों को उन्होंने महत्व न दिया हो। चुनाव कवर करने का रोमांच एक पत्रकार ही समझ सकता है जिसके आगे वह अक्सर अपनी हालत को महत्व नहीं देता। इसकी बड़ी क़ीमत आज हम सबको उन्हें खोने के रूप में चुकानी पड़ रही है।
कुछ दिन पहले अंबरीष राय भाई भी इसी तरह अचानक चले गये। शोक की नदी हर दिन विकराल रूप ले रही है। पता नहीं कौन बचेगा कौन नहीं। इस दुनिया को बदलने का जो सपना देखा गया था, वह अब भी पुकार रहा है, पर दुनिया बचेगी और वैसी ही बचेगी, इसका भरोसा नहीं रहा। मरने वाले के लिए तो बस खटका दबने जैसा मसला है, मृत्यु का असल अहसास तो उन्हें होता है जो जीवित रह जाते हैं।
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब, क़यामत का है गोया कोई दिन और..!
अलविदा अरुण भाई! आपके अरमान, हमारे अरमानों में ज़िंदा रहेंगे, हमेशा !