समकालीन जनमत
स्मृति

अरुण पाण्डेय को इस तरह नहीं जाना था

प्रियदर्शन


अरुण पाण्डेय के कोविडग्रस्त होने और ठीक हो जाने की सूचना मुझे थी। मंगलवार सुबह उनकी पत्नी पुतुल से बात भी हुई- उन्होंने बताया कि उन्हें वैशाली के मैक्स अस्पताल के आईसीयू वार्ड में ले आया गया है। यह भी कहा कि वे पहले से बेहतर हैं।

लेकिन सिर्फ़ एक घंटे बाद खबर मिली कि उनको दिल का दौरा पड़ा है। कुछ समझ में नहीं आया। शाम होते-होते उनके लिए दुआओं की बात होने लगी और रात 11 बजे के बाद अंतिम सूचना सार्वजनिक हो गई।

यह सिहरा देने वाला अनुभव था। एक जीता-जागता व्यक्ति एक झटके से बस एक सूचना में बदल जाता है, एक स्मृति में।

मुझे बीस बरस पुराना एक दिन याद आया। 5 अगस्त 2001 की शाम हम अचानक अपने घर में आ टपके। अचानक इसलिए कि अपने मकान में हमें एकाध दिन में आना तो था लेकिन प्रभाष जोशी जी ने हमें इसी दिन ‘गृह प्रवेश’ करने का आदेश दिया क्योंकि वह‌ उनके मुताबिक शुभ दिन था।‌ मैंने उन्हें बताया कि दिन देख कर घर में जाने का फ़ैसला नहीं किया था और न ही गृह प्रवेश की पूजा का इरादा है। मगर उन्होंने कहा कि अपनी पत्नी से बात कराओ। उन्होंने उसे घर में कलश स्थापित करने का आदेश दिया। यह भी कहा कि कलश न हो तो मेरे घर से एक लोटा ले जाओ।
तो उनके आदेश का मान रखने के लिए हम लोग अचानक वसुंधरा की इस जनसत्ता सोसाइटी में पहुंच गए जहां‌ तब तक कुल जमा ग्यारह परिवार रहते थे। उन दिनों वसुंधरा बिल्कुल सन्नाटे में डूबी जगह थी जहां अंधेरा होने पर कहीं निकल पाना लगभग असंभव था।

तो उस शाम घर में प्रवेश की औपचारिकता निभा लेने के बाद हमें नोएडा में अपने किराये के घर लौटना था। तब अरुण पांडेय और अरुण त्रिपाठी ने अपने स्कूटर निकाले और हम लोगों को मंडी तक छोड़ा जहां से आगे के लिए बस मिल जाती।

हालांकि दोनों से परिचय पुराना था लेकिन यह‌ नए रिश्ते की शुरुआत थी। जनसत्ता सोसाइटी के उजाड़ में सबने एक-दूसरे का हाथ बहुत कस कर पकड़ रखा था। कोई छींकता भी तो बारह परिवार उसके यहां इकट्ठा हो जाते। बच्चों की जन्मदिन की पार्टियां भी एक बड़ा अवसर होतीं। तब जनसत्ता के इस पूरे ई ब्लॉक में हम दो ही परिवार थे- एक अरुण पांडेय-बृजबिहारी चौबे का और दूसरा हमारा। तो हमें एक-दूसरे की ज़रूरत भी ज़्यादा पड़ती और हमारा एक-दूसरे से संवाद भी ज़्यादा होता। अरुण जी के यहां तब टेलीफोन था जो गाहे-बगाहे हमारे भी काम आ जाया करता था।

अरुण जी में एक सहज गर्मजोशी थी और मित्र बनाने की कला। वे बहुत मिलनसार और पेशेवर पत्रकार थे। राष्ट्रीय सहारा की हस्तक्षेप टीम के प्रमुख सदस्य थे। उनसे किसी भी मुद्दे पर बात की जा सकती थी, असहमत हुआ जा सकता था और साथ बैठ कर चाय पी जा सकती थी। उनको उग्र या असंतुलित होते कभी नहीं देखा। लेकिन अपनी बात वे दृढ़ता से रखते थे। उन्होंने बताया था कि एक बार भारत की जनसंख्या को लेकर सहाराश्री की किसी विशेष टिप्पणी से उन्होंने असहमति जताई जिससे वे नाराज़ भी हो गए थे। जो लोग सहारा में काम कर चुके हैं, वे जानते हैं कि यह कितने साहस का काम था।

जो लोग उनको मुझसे पहले से जानते थे, वे विश्वविद्यालय के उनके दिनों को याद करते हैं। तब वे छात्र आंदोलनकारी हुआ करते थे। खुद इसकी चर्चा वे रस लेकर करते थे। दरअसल अब सोचता हूं तो लगता है कि जीवन की आपाधापी में भले छूट गया हो, लेकिन मिज़ाज उन्होंने आंदोलनकारी वाला ही पाया था। सबसे ज़्यादा उत्फुल्लता से वे उनसे गप्प करते पाए जाते थे। इसी आंदोलनधर्मिता का वैचारिक विस्तार उनके प्रगतिशील मूल्यों में दिखता है जिसका ढिंढोरा उन्होंने कभी नहीं पीटा, लेकिन उनकी राजनीतिक-सामाजिक प्राथमिकताओं में यह बात ख़ूब उभर-उभर कर आती थी। इसी का एक सिरा उनकी घुमक्कड़ी और उनकी मुलाकातों से जुड़ता था। वे लोगों से मिलने-जुलने वाले प्राणी थे।

प्रभाष जोशी, राम बहादुर राय, चितरंजन सिंह और न जाने कौन-कौन उनके आत्मीय जनों की सूची में शामिल थे। अजीत अंजुम उनके करीबी मित्रों में थे। इसी घुमक्कड़ी के चाव में वे बंगाल चुनाव देखने भी पहुंच गए। बहुत लोगों को मलाल है कि अगर वे बंगाल न गए होते तो बचे रहते। लेकिन मुझे लगता है कि हम जो जीवन जीते हैं, उसी में हमारी मृत्यु भी प्रतिबिंबित होती रहती है।

अरुण कुमार पांडेय ने यह घुमक्कड़ स्वभाव, खुला मन-मिज़ाज न पाया होता तो शायद वे वैसे न बन पाए होते जिस रूप में हम उन्हें याद कर रहे हैं। बंगाल उनको जाना ही जाना था- भले उसके जोखिम थे।

निस्संदेह वे अच्छे लेखक भी थे। कम लोगों को अब याद होगा कि उन्होंने अभय कुमार दुबे के संपादन में निकली पुस्तक शृंखला ‘आज के नेता’ के तहत ज्योति बसु पर एक किताब लिखी थी। उन दिनों बंगाल में वाम मोर्चे की अजेयता का उन्होंने बहुत गहन विश्लेषण किया था। उनकी एक किताब सूचना के अधिकार पर भी थी जो उन्होंने किसी बड़ी फेलोशिप के तहत लिखी थी।
जनसत्ता सोसाइटी पर लौटें। जैसे-जैसे सोसाइटी साधन-संपन्न होती गई, जैसे-जैसे हम लोग नई नौकरियों में गए, वैसे-वैसे हमारी आपसी पकड़ ढीली पड़ती चली गई। अब एक-दूसरे की ज़रूरत कम पड़ने लगी, व्यस्तता बढ़ने लगी, संवाद घटने लगा।

अरुण जी से भी बाद के वर्षों में कम बात होती थी- बस घर से निकलते हुए मिलने पर अपना या देश-दुनिया का हाल-चाल लेने तक। हमारे बच्चे इस बीच बड़े हो चुके थे। वे अपना जन्मदिन अपने दोस्तों के बीच मनाने लगे थे। बेशक हम एक-दूसरे का हाल-चाल लेते रहते। अरुण जी की बेटी गौरी बहुत शिष्ट और मेधावी रही और पढ़ाई पूरी करने के बाद किसी अच्छी नौकरी में हैं। बचपन में बहुत चुलबुला रहने वाला तन्मय अब एक गंभीर छात्र हैं।

इन दिनों सुबह की सैर पर अरुण जी और उनकी पत्नी पुतुल से भेंट हुआ करती थी। मैं कभी-कभार मज़ाक में कहता, हम सब बूढ़े हो रहे हैं, अरुण जी युवा बने हुए हैं। आख़िरी बातचीत अरुण जी से तब हुई जब वे अस्पताल में थे। मैंने फोन पर पूछा, अस्पताल क्यों चले गए, घर पर रहते। उन्होंने बताया, ऑक्सीजन स्तर काफ़ी नीचे जा चुका था। अस्पताल से लौट कर जब उन्होंने जनसत्ता सोसाइटी के वाट्सैप समूह पर अपने स्वस्थ होने की सूचना दी तो मैंने भी सबके साथ उन्हें शुभकामनाएं दीं।

लेकिन शुभकामनाएं इन दिनों काम नहीं आ रहीं। मौत नाम की चील जैसे शिकार खोजने निकली है। कभी भी किसी का वक़्त आ सकता है। और इस बार यह चील अपने शिकार को बिल्कुल अकेला कर दे रही है।

दिल्ली में रहते अब 27 साल से ऊपर होने को आए हैं। इस बीच न जाने कितने लोगों की मृत्यु और अंतिम यात्रा का साक्षी बना। लेकिन यह इकलौता साल है जब यह यात्रा भी ठीक से संभव नहीं हो पा रही। कोई दूसरा दौर होता तो जनसत्ता सोसाइटी अरुण कुमार पांडेय के मित्रों से पट गई होती। लेकिन यह वह समय था, जब वे अस्पताल से सीधे गाज़ीपुर के श्मशान घाट में लाए गए। वहां बस परिवार के गिनती केसदस्य थे- और कुछ दोस्त जो किसी दुस्साहस की तरह वहां जा पहुंचे।

वहां मैं भी था-हालांकि देर से गया था। गाज़ीपुर के उस श्मशान घाट में जैसे हर तरफ भीड थी- क़दम-क़दम पर शव जल रहे थे। परेशान-क्लांत लोग इधर से उधर भटक रहे थे। मैंने अरुण जी के रिश्तेदार बृज बिहारी चौबे को फोन किया। उन्होंने बताया, अंतिम संस्कार हो चुका है। वे लोग सड़क के पार खड़े थे।

बृज बिहारी चौबे वहां अरुण जी की बेटी गौरी और बेटे तन्मय के साथ मिले। अरुण पांडेय के दो अभिन्न मित्र अजीत अंजुम और अमिताभ श्रीवास्तव भी मौजूद थे। हमने कुछ देर बात की। अजीत एक बार जज़्बाती होते दिखे, लेकिन फिर ख़ुद को संभाला। कुछ उदास-अनमनी बातचीत के बाद हम अपने-अपने रास्ते हो लिए। ख़याल आया, अरुण जी, बस इतनी ही यात्रा आपके हिस्से बदी थी। लेकिन अलविदा, देर-सवेर हम सब आपके पीछे आएंगे। आपके मित्र आपके न होने को कभी भुला नहीं पाएंगे। आपके न रहने से हमारी सोसाइटी कुछ सूनी हो गई है।

 

(लेखक प्रियदर्शन हमारे दौर के प्रमुख कहानीकार, अनुवादक और संपादक के रूप में ख्यातिप्राप्त हैं)

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