(‘प्रेमचंद : घर में’ प्रेमचंद के निधन के बाद उनकी पत्नी शिवरानी देवी द्वारा संस्मरणों की एक शृंखला के रूप में लिखी गई पुस्तक है। हालाँकि लेखिका ने इसमें जीवनी-लेखन की व्यवस्थित शैली का कोई दावा नहीं किया है, फिर भी यह प्रेमचंद की जीवनी का एक आरंभिक और प्रामाणिक स्रोत है। इसमें घरेलू संस्मरण ही अधिक हैं और घटनाएँ या प्रसंग जिस क्रम से लेखिका को याद आते गए हैं उसी क्रम से प्रस्तुत किए गए हैं। एक महान और असाधारण साहित्यकार के बेहद साधारण घरेलू और सामाजिक जीवन का चित्रण ही इसका मुख्य उद्देश्य रहा है जिसमें लेखक के व्यक्तित्व का नितांत मानवीय पहलू भी पाठकों के सामने उभर आता है।
प्रस्तुत अंश पुस्तक का तेरहवाँ अध्याय है जिसमें शिवरानी देवी ने प्रेमचंद के विवादस्पद कहानी-संग्रह ‘सोज़े वतन’ का संदर्भ दिया है। प्रकाशन के बाद 1905 में किसी समय इस संग्रह को तब की अंग्रेज़ी सरकार ने सत्ता विरोधी पाया था और उसके लिए लेखक को तलब किया गया। प्रस्तुत संस्मरण में एक सच्चे राष्ट्रप्रेमी लेखक के रूप में प्रेमचंद का संघर्ष, दुविधा, उलझन और लेखक-धर्म के प्रति निष्ठा एकसाथ देखने को मिलती है। यहाँ लेखिका ने ईमानदारी से यह भी स्वीकार किया है कि प्रेमचंद के रचनाकार व्यक्तित्व के सान्निध्य में क्रमशः उनकी रचना-क्षमता का भी विकास हुआ और एक लेखक होने के दैनंदिन अनुभवों को अक्सर उन दोनों ने साथ-साथ महसूस भी किया।
एक बेशकीमती किताब से ली गई एक बेशकीमती सामग्री जो अपने आप में किसी दस्तावेज़ से कम नहीं है। प्रेमचंद पर केंद्रित सीरीज़ में ‘समकालीन जनमत’ की एक ख़ास पेशकश!)
उन्नीस सौ पाँच (1905)
मेरे आने से पहले ही आपकी [प्रेमचंद जी की] साहित्य-सेवा जारी थी। आपका पहला उपन्यास ‘कृष्णा’ प्रयाग से प्रकाशित हो चुका था। मेरी शादी के साल ही आपका दूसरा उपन्यास ‘प्रेमा’ निकला, जिसका नाम आगे चलकर ‘विभव’ हुआ। मेरी शादी के एक वर्ष बाद आपका कहानी-संग्रह ‘सोज़े वतन’ प्रकाशित हुआ। उस पर मुक़दमा भी चला। हमलोग महोबा में थे। वहाँ भी खुफ़िया पुलिस पहुँची। उसके बाद उनको कलक्टर की आज्ञा मिली कि आकर मुझसे मिलो।
आपको दौरे पर आर्डर मिला। रात भर बैलगाड़ी पर चलने के बाद आप ‘कुलपहाड़’ पहुँचे। आप उसी दिन घर आने वाले थे। जब दूसरे रोज़ मेरे पास पहुँचे तो मैंने पूछा—‘कल आप कहाँ रह गए थे?’
आपने कहा—‘रहो, बताता हूँ। बड़ी परेशानी में पड़ गया था। कल सारी रात चलता रहा।’
मैं बोली—‘अरे, बात क्या है?’
आप बोले—‘सोज़े वतन’ के सिलसिले में सरकार ने मुझे बुलाया था।’
मैंने पूछा—‘आख़िर बात क्या थी?’
आप बोले—‘कलक्टर ने उसी सिलसिले में मुझे बुलाया था। मैं गया तो देखा कलेक्टर की मेज़ पर ‘सोज़े वतन’ की कॉपी पड़ी थी।’
मैंने पूछा—‘क्या हुआ तब?’
आप बोले—‘कलेक्टर ने पूछा, यह किताब तुम्हारी लिखी है? मैंने कहा, हाँ। उसे पढ़कर मैंने सुनाया भी। सुनने के बाद वह बोला—अगर अंग्रेज़ी राज में न होते तो आज तुम्हारे दोनों हाथ कटवा लिये गये होते। तुम कहानियों द्वारा विद्रोह फैला रहे हो। तुम्हारे पास जितनी कॉपियाँ हों, उन्हें मेरे पास भेज दो। आइंदा फिर कभी लिखने का नाम भी मत लेना।’
मैंने कहा कि आप किताबें भेज दीजिएगा?
आप बोले—‘वाह! अरे यह कहो कि सस्ते छूटे, मेरा ख़याल था कि कोई बड़ी आफत आयेगी।’
मैंने कहा—‘तो फिर लिखना भी अब बंद ही समझूँ?’
आप बोले—‘लिखूँगा क्यों नहीं? उपनाम रखना पड़ेगा। खैर, इस वक़्त तो बला टली। मगर मैं सोचता हूँ अभी यह और रंग लाएगा।’
मैं बोली—‘नहीं जी, जो कुछ होना था हो गया। उस संग्रह के कारण तो आप पर ऐसी आफत आई, और मैंने वह अभी तक पढ़ा भी नहीं।’
आप बोले—‘यह तो हमेशा की बात है। जब सरकार किसी पुस्तक को ज़ब्त करती है तो उसके ख़रीदारों की संख्या बढ़ जाती है, महज यह देखने के लिए कि आख़िर उसमें है क्या?’
मैंने कहा—‘आपने कभी सुनाया भी नहीं। मैं उर्दू जानती नहीं।’
‘अच्छा अब आएगी तो मैं तुम्हें पढ़कर सुनाऊँगा।’
मैं बोली—‘ज़रूर सुनाना।’
शादी के पहले मेरी रुचि साहित्य में बिल्कुल नहीं थी। उसके बारे में मैं कुछ जानती भी नहीं थी। मैं पढ़ी भी नहीं के बराबर थी।
कानपुर से ‘सोज़े वतन’ का पार्सल आया। एक कॉपी रख ली। बाक़ी मजिस्ट्रेट को वापस कर दी गईं।
उन दिनों मैं अकेले महोबे में रहती थी। वे जब दौरे पर रहते तो मेरे साथ ही सारा समय काटते और अपनी रचनाएँ सुनाते। अंग्रेज़ी अखबार पढ़ते तो उसका अनुवाद मुझे सुनाते। उनकी कहानियों को सुनते-सुनते मेरी भी रुचि साहित्य की ओर हुई। जब वे घर पर होते, तब मैं उनसे पढ़ने के लिए कुछ आग्रह करती। सुबह का समय लिखने के लिए वे नियत रखते। दौरे पर भी वे सुबह ही लिखते। बाद को मुयाइना करने जाते। इसी तरह मुझे उनके साहित्यिक जीवन के साथ सहयोग करने का अवसर मिलता। जब वे दौरे पर होते, तब मैं दिन भर किताबें पढ़ती रहती। इसी तरह साहित्य में मेरा प्रवेश हुआ।
उनके घर रहने पर मुझे पढ़ने की आवश्यकता न प्रतीत होती।
मुझे भी इच्छा होती कि मैं भी कहानी लिखूँ। हालाँकि मेरा ज्ञान नाममात्र को भी न था, पर मैं इसी कोशिश में रहती कि किसी तरह मैं कोई कहानी लिखूँ। उनकी तरह तो क्या लिखती? मैं लिख-लिखकर फाड़ देती। और उन्हें दिखाती भी नहीं थी। हाँ, जब उन पर कोई आलोचना निकलती तो मुझे उसे सुनाते। उनकी अच्छी आलोचना प्रिय लगती। काफ़ी देर तक यह ख़ुशी रहती। मुझे यह जानकार गर्व होता है कि मेरे पति पर यह आलोचना निकली है। जब कभी उनकी कोई कड़ी आलोचना निकलती, तब भी वे उसे बड़े चाव से पढ़ते। मुझे तो बहुत बुरा लगता।
मैं इसी तरह कहानियाँ लिखती और फाड़कर फेंक देती। बाद में गृहस्थी में पड़कर कुछ दिनों के लिए मेरा लिखना छूट गया। हाँ, कभी कोई भाव मन में आता तो उनसे कहती, इस पर आप कोई कहानी लिख लें। वे ज़रूर उस पर कहानी लिखते।
कई वर्षों के बाद, 1913 के लगभग, उन्होंने हिन्दी में कहानी लिखना शुरू किया। किसी कहानी का अनुवाद हिन्दी में करते, किसी का उर्दू में।
मेरी पहली ‘साहस’ नाम की कहानी ‘चाँद’ में छपी। मैंने वह कहानी उन्हें नहीं दिखाई। ‘चाँद’ में आपने देखा। ऊपर आकर मुझसे बोले—‘अच्छा, अब आप भी कहानी-लेखिका बन गईं।’ फिर बोले—‘यह कहानी आफ़िस में मैंने देखी। आफ़िसवाले पढ़-पढ़कर खूब हँसते रहे। कइयों ने मुझपर संदेह किया।’
तब से जो कुछ मैं लिखती, उन्हें दिखा देती। हाँ, यह ख़याल मुझे ज़रूर रहता कि कहीं मेरी कहानी उनके अनुकरण पर न जा रही हो। क्योंकि मैं लोकापवाद से डरती थी।
एक बार गोरखपुर में डॉ. एनीबेसेंट की लिखी हुई एक किताब आप लाए। मैंने वह किताब पढ़ने के लिए माँगी। आप बोले—‘तुम्हारी समझ में नहीं आएगी।’ मैं बोली—‘क्यों नहीं आयेगी? मुझे दीजिए तो सही।’ उसे मैं छः महीने तक पढ़ती रही। रामायण की तरह उसका पाठ करती रही। उसके एक-एक शब्द को मुझे ध्यान में चढ़ा लेना था। क्योंकि उन्होंने कहा था कि यह तुम्हारे समझ में नहीं आएगी। मैं उस किताब को ख़तम कर चुकी तो उनके हाथ में देते हुए बोली—‘अच्छा, आप इसके बारे में मुझसे पूछिए। मैं इसे पूरा पढ़ गई।’ आप हँसते हुए बोले—‘अच्छा!’
मैं बोली—‘आपको बहुत काम रहते भी तो हैं। फिर बेकार आदमी जिस किसी चीज़ के पीछे पड़ेगा, वही पूरा कर देगा।’
मेरी कहानियों का अनुवाद अगर किसी और भाषा में होता तो आपको बड़ी प्रसन्नता होती। हाँ, उस समय हम दोनों को बहुत बुरा लगता, जब दोनों से कहानियाँ माँगी जातीं। या जब कभी प्लाट ढूँढने के कारण मुझे नींद न आती, तब वे कहते—‘तुमने क्या अपने लिए एक बला मोल ले ली? आराम से रहती थीं, अब फ़िजूल की एक झंझट ख़रीद ली।’ मैं कहती—‘आपने नहीं बला मोल ले ली! मैं तो कभी-कभी लिखती हूँ, आपने तो अपना पेशा बना रखा है।’
आप बोलते—‘तो उसकी नक़ल तुम क्यों करने लगीं?’
मैं कहती—‘हमारी इच्छा! मैं भी मज़बूर हूँ। आदमी अपने भावों को कहाँ रखे?’
क़िस्मत का खेल कभी नहीं जाना जा सकता। बात यह है कि वे होते तो आज और बात होती। लिखना-पढ़ना तो उनका काम ही था। मैं यह नहीं लिख रही हूँ; बल्कि शान्ति पाने का एक बहाना ढूँढ रखा है। बीसों वर्ष की पुरानी बातें याद करके मेरा दिल बैठ जाता है। मेरे वश में है ही क्या? हाँ, पहली बातों को सोचकर मुझे नशा-सा हो जाता है। उस नशे से कोई उत्साह नहीं मिलता, बल्कि एक तड़पन-सी पैदा होती है। अब बीती बातों को याद करके मन बहला लेती हूँ।
(शिवरानी देवी प्रेमचंद की पुस्तक ‘प्रेमचंद : घर में’ से साभार। सामग्री उपलब्ध कराने के लिए डॉ. पंकज कुमार बोस का धन्यवाद )
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