(त्रिलोचन के जन्मदिन पर समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत है त्रिलोचन की डायरी पर शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक की अवधेश प्रधान द्वारा लिखी गई भूमिका से एक अंश-सं. ।)
अवधेश प्रधान
इस डायरी में त्रिलोचन जी का सबसे नजदीकी कोई है तो नामवर सिंह हैं। 21 अप्रैल 1950 की टीप है, ‘‘डाकिया नामवर का कार्ड दे गया। पढ़कर मनःस्फूर्ति हुई और रोमांच हो गया।’’ 1 जनवरी 1951 की टीप है, ‘‘नामवर के यहाँ गया। गाढाश्लेष। मन मुदित हुआ। पिछली बातें दुहराईं। आगमिष्यत् की अभिनव रूप-कल्पना। नामवर के घर का मिष्ठान्न खाया। स्वादिष्ट, स्नेहपरिप्लुत।’’ 9 जनवरी 1951 को उन्होंने नामवर जी के साथ ‘अरक्षणीया’ फिल्म देखी और उस दिन की टीप में नामवर की प्रशंसा करते हुए लिखा, ‘‘हृदय के आवेश के साथ इस आदमी में सावधानता का अद्भुत योग है।’’ उनकी रसिकता के बारे में 22 फरवरी 1951 की टीप है, ‘‘नामवर स्त्रियों से खुलकर शिष्टतापूर्ण परिहास करने में पटु हैं।’’
त्रिलोचन जी नामवर जी के साथ मँझले भाई राम जी सिंह के गौने में रैपुरा (सकलडीहा) गए। वहाँ छोटे भाई काशीनाथ सिंह की ‘बौद्धिक तीव्रता’ की प्रशंसा करते हए नामवर जी ने त्रिलोचन जी से कहा-इसने गणित के बिना भी अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। रात को महमूद नाई ने गा गा कर कहानी सुनाई- ‘‘महमूद की कहानी के स्वरों की छाँह में सोया’’ (25 फरवरी, 1951 की टीप)। सबेरे बनारस की ट्रेन पकड़ने के लिए त्रिलोचन और नामवर को एक मील तक दौड़ लगानी पड़ी। शिवप्रसाद सिंह के पिता बाबू चंद्रिका प्रसाद सिंह ने नामवर को बताया कि आपके पिता मेरे सहपाठी थे। 26 जनवरी 1953 की टीप है, ‘‘शिवप्रसाद के प्रति नामवर के मन में स्नेह और आत्मीयता का भाव पल्लवित हो रहा है। मुझे इस बात से हर्ष है।’’
त्रिलोचन जी का नामवर के यहाँ या नामवर का त्रिलोचन जी के यहाँ लगभग रोज का आना-जाना था। जब न तब दोनों का खाना-पीना भी एक साथ होता। किसी गोष्ठी में या फिल्म देखने साथ-साथ जाते। इस अनौपचारिक मैत्री में हँसी-मजाक, बहसा-बहसी, नोंक-झोंक, रीझ-खीझ के भी मौके आते रहते थे। नामवर सिंह अक्सर आने को कहकर भी नहीं आते या देर से आते। घर पर रास्ते में उनकी प्रतीक्षा करते-करते त्रिलोचन जी खीझ उठते। परीक्षा छोड़ने पर उनको या तो उनकी पत्नी खुलकर फटकारती थीं या फिर नामवर जी। जब भी त्रिलोचन जी कहीं नौकरी करने की सोचते, नामवर जी उन्हें केवल पढ़ाई में लगे रहने को उत्साहित करते। अक्सर उनकी आर्थिक सहायता भी करते। 1952 में जब त्रिलोचन परीक्षा में बैठने-न बैठने को लेकर दुविधा में थे; कभी सोचते, नहीं बैठूँगा, फिर पत्नी बिगड़कर बोलतीं तो सोचते, बैठ ही जाता हूँ- तब नामवर ने कहा-‘‘यह क्या कि झूला झूल रहे हैं। कोई एक बात तय कीजिए। इस साल परीक्षा मत दीजिए। (3 मार्च 1952) जब 1953 में भी परीक्षा छोड़ने की बात कही तो नामवर जी ने उन्हें राय दी कि नागपुर से हिंदी में एम0ए0 कीजिए लेकिन त्रिलोचन जी का निश्चय था- बी0एच0यू0 से करूँगा। (22 फरवरी, 1953) 1951 में जब पढ़ाई छोड़कर नौकरी करने की सोच रहे थ्ो तो नामवर सिंह ने उन्हें पढ़ाई जारी रखने की राय दी और कहा-आपके भोजन और फीस का खर्च मैं उठा लूँगा। (22 मई 1951)
हँसी में नामवर जी कई बार शिष्टता की मर्यादा भी लाँघ जाते। 22 नवम्बर 1950 की टीप में एक प्रसंग है। गंगा तट पर नहाते समय ‘‘रामप्रताप सिंह ने किसी के विषय में कहा कि मातृहीन हैं। नामवर ने सहास्य कहा, मातृहीन लोग उन्नति कर जाते हैं। हम भी मातृहीन होते तो ऐसे ही उन्नत होते। इस पर तु0 ना0 (तुलसी नारायण सिंह) ने हँसते हुए कहा, भाई, ऐसा मत कहिए, नहीं त्रिलोचन गाँव जाकर माँ को मारकर मातृहीन होने का प्रयत्न करेंगे। इसके पक्ष विपक्ष में मैंने कुछ न कहा। हँसता रहा पर यह तो परिहास नहीं, आत्यंतिक अशिष्टतापूर्ण उद्गार थे। नामवर ने कहा, हाँ, वे सब कुछ कर सकते हैं।’’ त्रिलोचन ने दुखी मन से लिखा, ‘‘वे लोग भी शिष्ट और बुद्धिमान बनते हैं।’’ शिष्ट हास्य-विनोद का एक प्रसंग 30 अक्टूबर, 1950 की टीप में है, ‘‘स्नान के समय आज एक अनोखी बात हुई। नामवर से, जो जल में स्थित थे, मैंने कहा, अफेंदी होता तो आप के चित्र बना देता। इस पर नामवर ने कहा, तूलिका लिए तो आप लोग भी बैठे हैं। प्रोफेसर तु0ना0 और मैं दोनों दातून कर रहे थे। उन्होंने और कहा, उनके चित्र अपने मुँह में बना रहे हैं। मैंने कहा, हाँ, और इसमें भी तुम्हें विचित्र देखकर हम बार-बार थूक देते हैं। इस पर तु0ना0 हँस पड़े। नामवर ने जवाब ढूँढ़ा, बोले, एक बात है। मैंने कहा, अब कोई बात नहीं है।’’
शांतिप्रिय द्विवेदी और जानकी वल्लभ शास्त्री में कौन बड़ा-इस पर नामवर जी शांतिप्रिय द्विवेदी का नाम ऊपर करते और त्रिलोचन जी जानकी वल्लभ शास्त्री का। एक बार विवाद का विषय निकला-प्रसाद और रवीन्द्र में कौन बड़ा। त्रिलोचन जी ने कहा-‘‘वाजपेयी के कंधों पर खड़े होकर प्रसाद रवीन्द्र से बड़े नहीं हो सकते। (16 नवंबर, 1950)
इस डायरी से पता चलता है कि नामवर सिंह के भी विचारों का क्रमशः विकास हुआ है। 20 नवंबर 1950 की टीप है, ‘‘अध्ययन के अभाव में कोई कितना हीन हो जाता है- आज नामवर की बातों से सिद्ध हुआ। रूस और राजनीति की सुनी-सुनाई बातों के आधार पर उन्होंने जर्मनी और रूस की डिक्टेटरशिप को फॉर्म में एक कहा। अंधहु बधिर न कहहिं अस।’’ रैपुरा (सकलडीहा) वाले पारिवारिक आयोजन के प्रसंग में नामवर जी पर 26 फरवरी 1951 की टीप है, ‘‘विवाह में यह आदमी आज इतना असावधान था कि उसने रामकृष्ण, दयानंद आदि को पहला ब्राह्मण व्यवस्था-विरोधी बताया। बुद्ध आदि का कोई नाम नहीं।’’ फिर 27 फरवरी की टीप है, ‘‘नामवर ने आज फिर क्लासिसिज्म को रीतिवाद कहा। इस आदमी का हठ जैनेन्द्र के समान अबुद्धि को भी बुद्धि मान सकता है।’’ तब नामवर जी, शिवमंगल सिंह सुमन को मुक्तिबोध से बड़ा कवि मानते थे। 16 मार्च 1951 की टीप है, ‘‘नामवर ने सावेश आज सुमन की प्रशंसा और मुक्तिबोध की निंदा की। मैंने मुक्तिबोध को सुमन से बड़ा कवि कहा। बात व्यक्ति के मनोविश्लेषण और शैली पर चली गई। नामवर डिरेक्टनेस के पक्ष में थे। मैंने कहा था, आज तक के काव्य विकास को झुठलाया नहीं जा सकता।’’ मुक्तिबोध का महत्व जो आज हिंदी मानस में स्थापित है, उसका भी एक इतिहास है, यह याद रखना चाहिए। मुक्तिबोध को केन्द्र में रखकर ‘कविता के नए प्रतिमान’ गढ़ने वाले नामवर जी 1951 में सुमन को उनसे बड़ा कवि मानते थे। इसी प्रकार 22 फरवरी 1952 की टीप में उल्लेख है कि तब नामवर जी उर्दू को ‘‘मूल में सांप्रदायिक’’ मानते थे और आत्मनिर्णय और सांस्कृतिक संरक्षण की बात को हवा में उड़ा देते थे। कहना न होगा कि भाषा और साहित्य की अनेक मान्यताएँ लंबे संघर्ष के बाद ही निर्मित, परिवर्तित, विकसित और स्थापित होती हैं।
नामवर त्रिलोचन जी से दस साल छोटे हैं फिर भी दोनों एक दूसरे से मैत्री के धरातल पर मिलते हैं। दोनों को दोनों के स्वभाव को लेकर शिकायतें हैं। दोनों के संबंध में इतना खुलापन है कि दोनों हँसी-मजाक भी कर ल्ोते हैं और वक्त जरूरत एक दूसरे को डाँट-फटकार भी देते हैं। ‘‘यू0पी0 कॉलेज में नामवर ने पूछा, संगम आपने देखा है?’ ‘जब से तुम्हारा साथ छूटा, संगम का सुख कहाँ मिला?’ उन्होंने कहा, हाँ यमुना। मैंने जोड़ा, हाँ बहन गंगा।’’
उन दिनों नामवर जी ‘बकलम खुद’ वाले व्यंग्य निबंध लिख रहे थे। जब उनका संग्रह छप गया, तब उन्होंने बड़े भैया त्रिलोचन को, ‘‘प्रणिपातपूर्वक’’ पुस्तक भेंट की। ‘बकलम खुद’ की विज्ञप्ति त्रिलोचन जी ने लिखी थी। (6 जनवरी 1951) वे अपने सवैये और निबंध सबसे पहले त्रिलोचन को सुनाते। त्रिलोचन भी उन्हें भरपूर स्नेह करते। लेकिन नामवर की अशिष्टता उनको अक्सर खटकती। 29 मई 1951 की टीप है, ‘‘क्या अशिष्टता और नामवर का नित्य संबंध है। क्या बिना झापड़ का भय दिखाए बात का प्रभाव नहीं पड़ सकता।’’ 4 जून 1951 को ‘‘मजाक मजाक में नामवर ने ढकेल दिया। असावधान था। किवाड़ के कोर से माथा टकरा गया। कड़ी चोट आई। पीलापन और फिर एक स्याही सी निगाहों में तैर गई। नामवर ने हल्दी लाकर लगा दी।’’ दर्द के करण त्रिलोचन ने रात का खाना नहीं बनाया। नामवर रात को 11 बजे आए। दोनों बिना खाए सो रहे। 25 अगस्त 1950 को जयप्रकाश नारायण के भाषण में त्रिलोचन जी नहीं पहुँच सके, इस पर नामवर जी ने उन्हें ‘‘भरपेट कोसा। कुवचन भी कहे। स्वभावानुसार विरोध नहीं किया। हाँ, मैंने कहा, तुम्हारी राय हो तो त्यागपत्र दे दूँ। इस पर नामवर ने कहा, आप और कर ही क्या सकते हैं। न अपने लिए कुछ किया, न घर के लिए, न लड़के के लिए। भूमि भार बने हैं। सब सुना। शांत रहा। अंत को और भी प्रशांत चित्त लौटा।’’ (26 अगस्त 1950 की टीप) लगता है, जय प्रकाश का भाषण नवसंस्कृति संघ में था। त्रिलोचन न0सं0सं0 से त्यागपत्र देने की बात कह रहे थे। राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर गणेश प्रसाद उनियाल की पुस्तक का काम त्रिलोचन जी कर रहे थे। जब उन्हें पढ़ाई के साथ-साथ यह काम करना बोझ जैसा लगने लगा तो उन्होंने नामवर जी से कहा, डॉ0 गणेश के पंजे से मुझे मुक्त कीजिए। नामवर जी ने जो कुछ कहा, उसकी प्रतिक्रिया 25 मार्च 1951 की टीप में इस प्रकार दर्ज है, ‘‘नामवर असंयत और अशिष्ट हैं। बेवकूफ, मूर्ख आदि शब्द उनकी रसना के अग्रभाग पर नाचते रहते हैं।’’
18 जून 1951 की टीप में नामवर से एक बतबढ़ाब का जिक्र है। 17 जून को त्रिलोचन कमरे की चाभी अपने पड़ोसी ओझा को देकर चले गए थे। ओझा लौटे रात दस बजे। इस बीच नामवर जी आए। उनका खाना कमरे में बंद। कहाँ खायँ? कुछ रोटियाँ हरिवंश राय के यहाँ खाई, कुछ रोटियाँ बलराम राय के यहाँ। 18 जून को सबेरे नामवर ने त्रिलोचन को उलाहना दिया, ‘‘कल मैंने अपने आप को उस कुत्ते के समान अनुभव किया जिसका मालिक ताला बंद कर कहीं निकल गया हो और जिसे करुणापूर्वक कोई एक कौर कोई दो कौर दे रहा हो।’’ त्रिलोचन ने कहा, ओझा जी को आपने ही कुंजी दे जाने को कहा। यहाँ-वहाँ खाने की बात पर बोले, ‘‘मैं होता तो देने पर भी किसी के यहाँ नहीं खाता।’’ नामवर ने कहा, ‘‘आप को क्या? आप तो दस दिन बिना खाए रह सकते हैं।’’ 10 अगस्त (1950) को नामवर सिंह के यहाँ पहुँचे तो उनसे मक्का खिलाने को कहा। ‘‘उन्होंने पैसे देकर मँगाया। सोचता हूँ, आदत बिगड़ रही है, जो जी में आ जाय वही चीज माँगने की बात प्रकृति की न दिखानी चाहिए। सब की परिस्थितियों में कुछ न कुछ कठिनाई अवश्य रहती है।’’ 13 सितंबर (1950) को त्रिलोचन ने नामवर से ‘मिलन यामिनी’ माँगी। ‘‘उन्होंने देने से इनकार किया। नामवर या तो दूसरों की मनोवृत्ति का ख्याल नहीं करना चाहते अथवा बेकार समझते हैं।’’
बहुत निकट के संबंधों में स्वभाव अलग-अलग होने पर ऐसी हूँ-टूँ लगी रहती है लेकिन संबंध बने रहते हैं। अगले दिन त्रिलोचन का चांद्रमास के अनुसार जन्मदिन (भाद्रपद शुक्ल तृतीया) था। उस दिन ‘नामवर से दो आना लेकर गुड़ लाए और उसी से सबने रोटियाँ खाईं। (14 सितंबर 1950) 1953 में साहित्यिक संघ के अध्यक्ष पद से त्रिलोचन ने जो भाषण किया, देवेन्द्र सत्यार्थी और उदय नारायण तिवारी ने उसकी प्रशंसा की लेकिन नामवर ने उसका मजाक उड़ाया। 14 फरवरी (1953) की डायरी में त्रिलोचन ने लिखा, ‘‘बात नहीं आती तो नामवर में छोटापन आ जाता है।’’ नामवर ने कहा कि ‘‘अपने भाषण द्वारा आप ने स्वयं को टीचर सिद्ध कर दिया। ‘समझे’ और ‘असल बात यह है’ की भरमार थी।’’ स्वभावतः इस पर लोग हँसे। फिर उन्होंने दूसरा अस्त्र चलाया, ‘‘ ‘माया’ में इधर अज्ञेय की कुछ कहानियाँ निकली हैं। शास्त्री जी प्रशंसा करते नहीं थकते। अभी इलाहाबाद गया था, वहाँ मालूम हुआ कि मुस्तफी के माँगने पर अज्ञेय ने लिखना मंजूर न किया तो उसने बदला लेने के विचार से कहानियाँ लिखकर अज्ञेय के नाम से छापनी शुरू कर दी हैं। क्यों शास्त्री जी?’’ त्रिलोचन ने स्पष्ट किया, ‘‘उनमें से कोई कहानी मैं पढ़ नहीं पाया। केदारनाथ सिंह कैसा समझते हैं, यही मैंने कहा था। मैं नाम नहीं, रचना देखता हूँ। अच्छी चीज को बुरा कहना मेरा स्वभाव नहीं।’’ इस पर लोग हँसे। नामवर ने कहा, ‘‘घबराइए मत। यह तो मैंने यों ही कहा था। रचनाएँ अज्ञेय की ही हैं। अब आप प्रशंसा कर सकते हैं।’’ लोग फिर हँसे। त्रिलोचन ने गंभीरता से कहा, ‘‘बिना देखे रचना को मैं उत्तम मध्यम नहीं कहा करता पर एक बात-अज्ञेय की बराबरी करने वाला हिंदी में आज कोई नहीं है।’’ त्रिलोचन को नामवर में ओछापन दिखाई दिया तो नामवर को त्रिलोचन में ‘सेन्स ऑफ ह्यूमर’ की कमी। (14 फरवरी 1953)
कपिला जी के बारे में नामवर जी की कोई बात त्रिलोचन ने जगत शंखधर से कह दी। केदार जी ने त्रिलोचन को बताया कि इससे नामवर जी नाराज हैं क्योंकि यह बात उन्होंने कही ही नहीं। त्रिलोचन ने नामवर से संबंध तोड़ने का निश्चय किया। उन्हें केदारनाथ सिंह, सूर्यप्रताप और पत्नी ने ऐसा करने से मना किया। (5 मार्च 1953) छह दिनों बाद कुछ पश्चात्ताप हुआ, आत्म समीक्षा की- दोषों की तुलना में गुण अधिक हैं। लोगों से नामवर के गुणों की ही चर्चा करनी चाहिए। 8 अप्रैल को शिरीष का फूल लेकर नामवर से मिले। संबंध फिर मधुर हो गए। मैत्री के तंतु इतने मजबूत थे कि कभी टूटे नहीं तो इसमें दोनों का योग था-प्रीतियोगं परस्परम्।
नामवर ने ही त्रिलोचन को बताया था कि आचार्य केशवप्रसाद मिश्र ‘‘बीर’’ का अर्थ बड़ी अवस्था वाली सखी बताते हैं और ‘‘भटू’’ का छोटी अवस्था वाली सखी। हजारी प्रसाद द्विवेदी से त्रिलोचन को जोड़ने वाला सूत्र भी नामवर सिंह से होकर गुजरता था। द्विवेदी जी की कई बातें उनको नामवर के ही जरिए मालूम होती थीं। 15 मई 1951 की टिप्पणी से पता चलता है कि द्विवेदी जी ने नामवर को नौकरी की चिंता छोड़कर रिसर्च करने की राय दी। वे उन्हें कमच्छा नहीं, सीधे विश्वविद्यालय में लाना चाहते हैं। द्विवेदी जी ने त्रिलोचन को एक ट्यूशन दिलाया था। नामवर के साथ वे द्विवेदी जी से मिलने जाते थे। 5 जून 1951 को त्रिलोचन उनके साथ संकटमोचन गए। द्विवेदी जी ने अपने आरंभिक दिनों के संस्मरण सुनाए। त्रिलोचन ने उनके आगरे और दिल्ली के भाषणों का जिक्र किया। नामवर जी नव संस्कृति संघ के साथ-साथ साहित्यिक संघ के भी मंत्री बनाए गए थे। 9 अप्रैल 1953 को राहुल जी पर आयोजित सरस्वती प्रेस की गोष्ठी के सभापति पद से द्विवेदी जी ने भाषण दिया। त्रिलोचन ने उसकी प्रशंसा की है। ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग’- नामवर जी ने इस पुस्तक में बहुत-सी सामग्री रामसिंह तोमर की थीसिस से ली है- इस तरह की बातें उड़ाई जा रही थीं। केदारनाथ सिंह ने त्रिलोचन को बताया कि ‘‘शिवप्रसाद सिंह ने हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहास और नामवर के ‘अपभ्रंश का योग’ में हूबहू अनेक वाक्य ढूँढ़ निकाले हैं। द्विवेदी ने शिव प्रसाद से कहा कि लोग नामवर पर अपहरण का दोष व्यर्थ लगाते हैं। उन्हें मालूम नहीं कि तोमर राम सिंह और नामवर सिंह दोनों का उद्गम स्रोत मैं हूँ।’’ (8 मार्च 1953)
(चित्र: प्रभाकर राय )