रमेश ऋतंभर
प्रतिष्ठित कवयित्री-कथा लेखिका व स्त्री विमर्शिका अनामिका को हिन्दी कविता के लिए 2020 का ‘साहित्य अकादमी सम्मान’ दिये जाने की घोषणा अपने-आप में कई अर्थ रखता है। सबसे पहले तो जैसा कि बताया जा रहा है कि यह कविता के लिए किसी हिन्दी कवयित्री को दिये जाने वाला पहला सम्मान है और यही ही नहीं वह जिस सूबे बिहार से सम्बद्ध रखती हैं, उस सूबे की भी हिन्दी की किसी लेखिका को दिया जाने वाला साहित्य अकादमी का यह पहला सम्मान है।
किसी हिन्दी पट्टी की कवयित्री को ऐसे समय में यह सम्मान दिये जाने की घोषणा हुई है, जब इस बड़े हिन्दी पट्टी में विगत सालों/ दिनों महिलाओं के साथ कई दुर्व्यवहार और असंवेदनशील, अमानवीय एवं शर्मनाक घटनाएँ हुई हैं। हिन्दी-पट्टी या पूरे भारतीय समाज में स्त्रियों के प्रति पितृसत्तात्मक सोच, नजरिये और रवैये की परत-दर-परत अनामिका अपनी रचनाओं विशेषकर कविताओं में खोलती रही हैं, इसलिए उन्हें यह सम्मान दिया जाना अर्थपूर्ण है। यही नहीं अनामिका को यह सम्मान दिये जाने की घोषणा से स्त्रियों की महत्वपूर्ण व विशिष्ट सर्जनात्मक क्षमता को भी एक बार फिर शिद्दत से स्वीकारा गया है।
अनामिका बिहार के सांस्कृतिक शहर ‘मुजफ्फरपुर’, जिसकी एक पुरानी समृद्ध साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत है, उससे सम्बन्ध रखती हैं और उसका अवगाहन करती हैं। उत्तर छायावाद दौर के लोकप्रिय कवि-लेखक मुजफ्फरपुर के विश्वविद्यालय के हिन्दी के विद्वान प्राध्यापक-कुलपति डॉ.श्यामनन्दन किशोर एवं हिन्दी की ही प्राध्यापिका डॉ.आशा किशोर की होनहार बेटी अनामिका मुजफ्फरपुर में ही जन्मी व पली-बढ़ी। बाद में उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली गयीं। इसीलिए उनकी कविताओं में सतत स्थानीय कस्बाई रंग व भाषा-स्वर है। जिस तरह से किसी व्यक्ति को अपने जन्म भूमि-क्षेत्र व परिवेश की अनुगूँजें व स्मृतियाँ साथ नहीं छोड़तीं, ठीक वैसे ही कवयित्री अनामिका को अपने जन्म-भूमि मुजफ्फरपुर शहर की स्मृतियाँ व अनुगूँजें साथ हैं।
उनकी कविताओं में यह स्मृतियाँ और अनुगूंजें निरंतर प्रकट व मुखर हैं। अनामिका को उनके जिस कविता-संग्रह ‘टोकरी में दिगन्तः थेरीगाथा-2014’ के लिए इस सम्मान के लिए चुना गया है, उसमें भी उनके जन्म व संस्कार शहर मुजफ्फरपुर का लोकेल है। तीन अंकों यथा; ‘थेरियों की बस्ती’, ‘ये मुजफ्फरपुर नगरी है सखियों’ एवं ‘चलो दिल्ली,चलो दिल्लीः वैशाली एक्सप्रेसः2009’ में बँटे इस संग्रह का एक खंड ही अपनी जन्म-शहर बिहार के ‘मुजफ्फरपुर’ की याद को ही अर्पित है।
सम्मानित कवयित्री अनामिका के इस कविता संग्रह के ‘ये मुजफ्फरपुर नगरी है, सखियों’ खंड में मुजफ्फरपुर शहर का डिटेल्स लोकेल मौजूद है। उदाहरणतः जन्म का पड़ाव ‘हरिसभा चौक’ से लेकर चैपमैन कन्या विद्यालय, महंत दर्शनदास महिला महाविद्यालय, लंगट सिंह महाविद्यालय, सेंट फ्रांसिस जेवियर चौराहा, आमगोला चौक, भगवान बाजार, अघोरिया बाजार, मिठनपुरा, दाता शाह मजार, क्रान्ति चौक, शहीद चौक आदि पढ़ाई व घूमाई की जगहें, सड़कें, गलियों, चौराहे, बाजार और स्कूल-कॉलेज के नाम मौजूद हैं। यही नहीं इस संग्रह की कविताओं में कवयित्री अनामिका के कैशोर्य एवं पढ़ाई-लिखाई के दिनों के साथ-साथ जी और महसूसी गयीं मुजफ्फरपुर शहर की स्त्रियाँ और उनके दुख-दर्द जीवंत हुए हैं।
अनामिका का यह संग्रह एक विशिष्ट प्रयोग है। उन्होंने इसमें बुद्ध की थेरियों एवं ऐतिहासिक स्त्री-चरित्रों की संघर्ष-चेतना को स्मरित करती हैं और उस बहाने समकालीन समय की स्त्रियों के दुख-संघर्ष को चित्रित करती हैं तथा उन्हें उनके नाम के साथ थेरी नाम भी देती हैं। इस कविता-संग्रह के पहले खंड ‘थेरियों की बस्ती’ में भावरूप व इतिहासरूप स्त्रियों की संघर्ष-चेतना को याद करती वर्तमान की स्त्रियों की संघर्ष-चेतना को याद व वर्णित करती हैं। उदाहरणतः तृष्णा, वितृष्णा, स्मृति, भाषा एवं जीजिविषा भावरूपी स्त्री-चेतना और ऐतिहासिक स्त्री-चरित्र सुजाता, तिलोत्तमा, चम्पा, अभिरूपा, लल्लद्य से लेकर समकालीन स्त्री-चरित्र शान्ता, सरला, मुक्ता, केतकी, मल्लिका, घसियारिन आदि द्रष्टव्य है। इसीलिए इस संग्रह के उपशीर्षक के रूप में ‘थेरी गाथा:2014’ कवयित्री ने विशेष तौर पर उल्लिखित किया है।
यह सचमुच पढ़ना-महसूसना दिलचस्प है कि कवयित्री ने स्त्रियों की संघर्ष-चेतना का अवगाहन करने के क्रम में स्मृति, भाषा, तृष्णा-वितृष्णा, जीजिविषा आदि स्त्रीवाची भावरूपों के बोध को भी अपनी उर्वर कल्पना से पकड़ा एवं सृजा है।
प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह ने इस संग्रह के फ्लैप पर इस संग्रह के अभिधेयार्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “अनामिका के संग्रह ‘टोकरी में दिगन्त-थेरी गाथाः2014’ को पूरा पढ़ जाने के बाद मेरे मन पर जो पहला प्रभाव पड़ा, वो यह कि यह पूरी काव्य-कृति एक लम्बी कविता है, जिसमें अनेक छोटे दृश्य, प्रसंग और थेरियों के रुपक में लिपटी हुई हमारे समय की सामान्य स्त्रियाँ आती हैं। संग्रह के नाम से 2014 का जो तिथि संकेत दिया गया है, मुझे लगता है कि पूरे संग्रह का बलाघात थेरी गाथा के बजाय इस समय-सन्दर्भ पर ही है।…आज के स्त्री-लेखन की सुपरिचित धारा से अलग यह एक नई कल्पनात्मक सृष्टि है, जो अपनी पंक्तियों को बलात् थोपने के बजाय उससे बोलती-बतियाती है और ऐसा करते हुए वह चुपके से अपना आशय भी उसकी स्मृति में दर्ज करा देती है। शायद यह एक नई काव्य-विधा है, जिसकी ओर काव्य-प्रेमियों का ध्यान जाएगा। समकालीन कविता के पाठक के रुप में मुझे लगा कि यह काव्य-कृति एक नयी काव्य-भाषा की प्रस्तावना है, जो व्यंजना के कई बन्द दरवाजों को खोलती है और यह सब घटित होता है एक स्थानीय केन्द्र के चारों ओर। कविता की जानी-पहचानी दुनिया में यह सबाल्टर्न भावबोध का हस्तक्षेप है, जो अलक्षित नहीं जाएगा।”
वस्तुतः कवयित्री अनामिका ने पुरस्कृत संग्रह या अन्य कविता-संग्रहों में अपने समय की स्त्री की दुख-पीड़ा, वेदना एवं विडम्बना को बोलचाल की भाषा एवं मुहावरे में प्रस्तुत किया है और कविता की परम्परित-प्रचलित भाषा से भिन्न एक नयी भाषा रचने-गढ़ने का कार्य किया है, जो लोक व शास्त्र और आधुनिकता का सुन्दर सहमेल है।
प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखिका मीनाक्षी मुखर्जी ने भी अनामिका के इस पुरस्कृत संग्रह के संदर्भ में सारगर्भित टिप्पणी की है। उन्हीं के शब्दों में, “अनामिका की कविताएँ जो शास्त्र और लोक से प्राप्त संसाधनों का सहसंयोजन मेटाफिजिकल विट के साथ घटित करती हैं-कुछ इस तरह कि स्त्री-जीवन की विडम्बनाएँ एक कौंध में उजागर हो जाएँः ‘मैं एक दरवाजा थी/ मुझे जितना पीटा गया/ मैं उतना खुलती गई…’ फर्नीचर-‘मैं इनको रोज झाड़ती हूँ/ पर ये ही हैं पूरे घर में जो मुझको कभी नहीं झाड़ते’।
अनामिका की भाषा सही मायने में परतदार भाषा हैः लोक से गहरी जुड़ी पढ़ी-लिखी स्त्री की परतदार भाषा! जड़ों से जचड़े आधुनिक स्त्री-मन की क्लिष्ट गहराइयों की बंकिम समझ का एक नमूना हम अनामिका के ताजा-तरीन, अछूते रूपकों में पाते हैं। एक साथ दो-तीन धरातलों पर जीनेवाली स्त्री-मन की यथेष्ट समझ इन रूपकों में व्यक्त होती है।
जातीय स्मृतियों की सफल ‘रीराइटिंग’ इनके यहाँ पूरी महीनी से दर्ज है।” निस्संदेह कवयित्री अनामिका को एक साथ इतिहास एवं वर्तमान और शास्त्र एवं लोक में बसी व अंकित स्त्री-चेतना एवं मन गहरी समझ है। उन्हें इस सम्मान के लिए चुने जाने के लिए हम सबकी ओर से हार्दिक बधाई एवं अशेष शुभकामनाएँ हैं कि वे इसी तरह हिन्दी कविता और उसके पाठकों का मिजाज सतत बदलती रहें। उन्हीं की एक प्रसिद्ध कविता ‘बेजगह’ की पंक्तियों को याद करते हुए-
“जिनका कोई घर नहीं होता-
उनकी होती है भला कौन-सी जगह?
कौन-सी जगह होती है ऐसी
जो छूट जाने पर
औरत हो जाती है…”
(लेखक रमेश ऋतंभर
सुपरिचित कवि-समीक्षक-प्राध्यापक
संप्रतिः बी.आर.अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर (बिहार) अन्तर्गत प्रतिष्ठित रामदयालु सिंह महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर में स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में अध्यापन. सम्पर्क: 09431670598.)