समकालीन जनमत
कविता

प्रभात प्रणीत की कविताएँ अपने समय की विडंबनाओं की परख हैं

कुमार मुकुल


जिस तरह चंद्र किसान जीवन के नये कवि हैं उसी तरह प्रभात प्रणीत नागर जीवन की नूतन आवाज हैं। चंद्र की कविताएँ अगर किसानों के त्रासद जीवन की लय के बिना चीख की तरह हैं तो प्रभात के यहां ज्ञान की शान पर पगे विचारों की वह धार है जो अतीत को लेकर उछाले जा रहे हालिया फलसफों की नोक – पलक दुरूस्‍त करने की क्षमता रखती हैं। चंद्र की तरह प्रभात भी चूंकि भाषा की पारंपरिक सरणियों को पार कर नहीं आते इसलिए उसमें खामियां हैं पर उनकी नवजीवन देने वाली त्‍वरा हमें लाजवाब करती है –

देसी भूरा कुत्ता बीच सड़क पर ट्रक से टकरा कर मर गया

शोर खीझ गुस्सा

कुत्ता साला

देख कर सड़क पार नहीं कर सकता था…

एक घण्टे तक मंथन और

मंगल ग्रह पर बन रही बस्ती पर जाने वालों की लिस्ट से

कुत्ते को हटा दिया गया

क्‍या इतिहास से कविता लिखी जा सकती है या कि फिर खबरों से एक जीवंत काव्‍य दृश्‍य तैयार किया जा सकता है। इसका जवाब प्रभात की कविताएँ बखूबी देती हैं। इतिहास और वर्तमान को जिस तरह प्रभात के यहां एक साथ अपनी नयी जमीन मिलती है वह महत्‍वपूर्ण है। इससे पहले अनिल अनलहातू की कविताओं में इतिहास और वर्तमान का संयोजन दिखता है। अपने समय की विडंबनाओं को पहचानकर उसे उनकी जटिलताओं के साथ सामने रखने का हुनर भी है प्रभात के पास –

छोटा बच्चा छत पर से पेशाब कर रहा

और खूब हँस रहा है

यह उसकी जीत है

यह उसका राज धर्म है

1955 में गजानन माधव मुक्त्बिोध हिंदी के अधिकांश कवियों में उनकी भाव दृष्टि को अनुशासित करने वाली विश्‍वदृष्टि का अभाव इंगित करते हैं। आज भी स्थिति बदली नहीं है पर प्रभात की कविताएँ मुक्तिबोध की इस मांग को पूरी करती दिखती हैं। तमाम वैश्विक संदर्भों के प्रति वे सचेत दिखते हैं और उनका सकारात्‍मक प्रयोग करने में एक हद तक सफल होते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हताशा के इस युग में ये ज्ञान और आशा का दीप जलाती हैं।

आइए पढ़ते हैं प्रभात प्रणीत की कुछ कविताएँ –

 

 

1. ज़लज़ला
मेरे अल्फाज
मुझ तक ही रहे
कोई न सुने, न कहीं पहुंचे
क्योंकि मैं अब तक साइबेरिया की घाटी में भटका नहीं
अमेजन की पहाड़ियों से मिला नहीं,
लिबर्टी तो तीन सदी से चुप है.
अर्थ अपनी सीमाओं को समझे
ध्वनि अपने विस्तार को न लांघे
हांफते किनारे मर्यादा की बात न करे,
सही-गलत बस भरम है
सब खेल परिधियों का है
जिसमें मेरा कोई योगदान नहीं
चीन की दीवार सदियों से किसी से नहीं मिली.
सुबह दौड़ते लोगों को घर का पता हर बार मालूम हो जरूरी नहीं
कई बार दरवाजे खुद भी भटक जाते हैं
वे आते-जाते लोगों से पूछते हैं रास्ता
और पुरानी निशानियां,
मैं रोज इन भटके चेहरों को दूर से देखता हूँ
उनके पास नहीं जाता
मेरे और उनके बीच के रास्ते के दोनों तरफ गहरी खाइयां हैं
खाई की गहराई बहुत डराती है
बेबीलोन की बांहे सदियों से बंद हैं.
क्रांति, क्रांति का शोर 1857 की दिल्ली से मिलकर खुद को ही नहीं पहचान रहा
रूस का जार मार्क्स के स्कूलों की पहरेदारी कर रहा है
मार्क्स नक्सलबाड़ी में आईने से डर रहा
गोएबल्स अपनी यूनिवर्सिटी में बढ़ती भीड़ से परेशान है
अब उसने हर किलोमीटर पर एक शाखा खोलने का निर्णय किया है
महात्मा अपनी किताबों को छुपाने के लिए एक सुरक्षित कोना ढूंढ रहा
नोबल अपनी पुरानी उपलब्धियों से ऊब कर नए ईजाद में मशगूल है
हिरोशिमा का आसमान चमकीले गोले के इंतजार में थक कर सो गया
सूरज पृथ्वी के ग्लोबल वार्मिंग से चिढ़ कर अपने लिए एक नया ग्रह ढूंढ रहा है,
और मैं
सब में थोड़ी-थोड़ी
अपनी ओट
ढूंढ रहा हूँ.

 

2. लौटते सवाल
प्रश्न प्रति प्रश्न की सीमाओं में फंसा कागज का टुकड़ा
खुद को
नील नदी के किनारे ढूंढ रहा है,
उसे दिखने वाला हर रंग झूठा
सच की हर तस्वीर रेत के जंगल में दबा पड़ा है,
सहारा वह पहुंचा नहीं
थार तो खुद किनारे सोख रहा है,
उसे थाम चुकी हर अंगुली पर विश्वविजेताओं का बेड़ा है.
सुबह होने की चेतावनी देती अल्बर्टा के आसमान में उड़ते गहरे स्लेटी धुएं
और उन्हें पी कर बड़े होते पेड़
काले घास
सब वही प्रश्न प्रति प्रश्न करते.
सिंधु तो मोहम्मद बिन कासिम के जख्मों से अब तक उबड़ी नहीं है,
गंगा अपनी नई ताजी सुर्ख पहचान से खुद ही डर गई है.
उत्तर किसके पास और कहां है?
लैस्को गुफा में परिंदे सिर वाला वह विचित्र आदमी
आत्मा के निकलने और लिंग की उत्तेजना के बीच जद्दोजहद में उलझा हुआ है,
हम्मूराबी का कटा सिर खामोश खड़ा है.
कुशीम, पहला नाम, पहला अधिकारी, उसका वारिस अगर है तो कहां दिख रहा है,
हिटलर ईवा ब्रॉउन के आखिरी चुंबन की बात हर कोई छुपा रहा
आंग सांग सु की का कल आया चेहरा खुद प्रश्न बन गया है.
हर जंगल खाली, हर इंच पर रखवाली
जॉर्ज ऑरवेल जोर-जोर से हँस रहा है,
बदहवास, सहमी कटे जीभ वाली काली नस्ल
आर्यों के जीत की कीमत चुका रही है,
सात सिर वाला यक्ष हर तरफ खड़ा
दूसरी दुनिया का बाट जोह रहा है,
क्योंकि
चन्द्रमा पर बनने वाले देश में एक नया शहर बन रहा है
जहां एक सुंदर पहाड़ है
और साफ हर वक्त बोलती एक नदी भी
मजबूत पेड़ जिसकी शिनाख्त आसान हो
सिर भले कटे हों लेकिन एक पूरी साबुत जुबान हो
वहां हर कोई बोलेगा
वहीं अब
हर प्रश्न प्रति प्रश्न का उत्तर होगा.

 

3. एक होता था ‘आदमी
देखना है वह घर
जिसकी दीवार ईंट की हो,
दरवाजे लकड़ी की हो
खिड़कियों में लोहे की छड़ और एलुमिनियम के पल्ले हो,
छत कंक्रीट की हो
जिसके छत पर गमले हों,
चाहरदीवारी के अंदर गुलमोहर के पेड़ हों
गुलाब के फूल हों,
जिसमें इंसान रहते हों
सुबह उठते हों
संवाद करते हों
और फिर रात को सोते हों.
हर तरफ
हाड़-मांस के पुतले हैं,
तरह-तरह के अल्फ़ाज़ हैं,
जो सुबह देखते नहीं
संवाद जानते नहीं,
रात को होते भी नहीं.
बन्दिशों की दीवार है
खामोशियों के छत हैं
हर तरफ
कस्बे-मोहल्ले हैं
गांव-शहर है
देश है
पर एक घर नहीं है.

 

4. पृथ्वी सिकुड़ कर एक मुट्ठी में कैद हो रही है
मेरी गहरी नींद
हर रात तीन बजे टूट जाती है
और मुझे चंद लम्हें मिलते हैं
खुली आँखों वाले ख्वाब देखने के लिए,
यह इजाजत ही
मुझे हर रोज कल के लिए कुछ सांसे चुराने के मौके दे देती है
और मैं फिर से सोने के पहले
हसरतों को हकीकत में बदलते देखता हूँ.
मैं देखता हूँ
उस आदमी को
जो अपनी जुबान खो चुका था
या हो कर भी सदियों से चुप था,
बोलते हुए सबसे
कहते हुए अपनी बात
सुनते हुए खुद के ही अल्फाज
ठिठकते हुए खुद को ही सुनकर,
रोकते हुए हर तरस खाती नजरों को
बताते हुए सबके पास उसका बकाया
उसका दिया उधार
दिया कर्ज
पूछते हुए जवाब
सवाल,
और पीछा करते हुए
उसे अब तक खदेड़ते बाहों को
लांघते हुए हर दीवार,
बनाते हुए
अपना घर
अपना आंगन
अपना छत
जिसमें सबकुछ उसके पसंद का हो
जहां सबकुछ उसकी मर्जी का हो.
मैं देखता हूँ
उस लड़की को
जो अबतक जंगलों में छुपी हुई थी
दौड़कर बाहर आते हुए
मिलते हुए सबसे बेधड़क
हँसते हुए खिलखिलाकर
पहनते हुए अपनी पसंद के कपड़े
टहलते हुए आधी रात को
थामते हुए अपनी पसंद के हाथ
थामते हुए घोड़ों की लगाम
शिकार करते हुए लोमड़ियों का,
उड़ाते हुए जेट
लड़ते हुए जंग
हां कहते हुए अपनी
ना कहते हुए अपनी
बिस्तर पर खुद बरसते हुए
बिस्तर बनने से इंकार करते हुए
घूमते हुए सात समंदर
गढ़ते हुए अपनी धरती अपना आसमान.
मैं देखता हूँ
एक साथ सोते जगते
एक दीवार से बटे
मन्दिर और मस्जिद को बतियाते हुए
एक दूसरे की बांहों में बाहें डालकर
जोर-जोर से हँस कर
और फिर सहमते हुए
जय श्री राम और अल्लाह हो अकबर के नारों से,
लेकिन फिर उठकर
इक्कट्ठे मिलकर
साफ करते
अंदर की खिड़कियों पर लगे जाले को
सीढ़ियों पर रखे पत्थरों को
फर्श पर पसरे कीचड़ को
भरते रास्ते के सारे गड्ढों को
मिलकर दफनाते
हर तलवार को
हर हुंकार को,
दोनों हाथों से सहेजते
उस इंसान को
जो अब तक मन्दिर-मस्जिद तक कभी पहुंचा ही नहीं.
असंख्य ऐसे ख्वाब
जिसे देखने की इजाजत
बस रात के उस पहर ही है,
मुझे जगने की इजाजत
सिर्फ तभी है
जब नींद बहुत गहरी होती है,
दुनिया गहरी नींद में होती है
अधूरी होती है,
पूरी दुनिया अब बन्दिशों में रियायत नहीं देती
यह तो बन्दिशों से ही बनी है.

 

5. देश की बात
शहर सोया है
सड़क वीरानगी में खोई है
कोई कह रहा है जश्न मनाने की तैयारी में सब व्यस्त हैं,
कोई कह रहा मातम मना रहे सब
अपना-अपना चश्मा
अपना-अपना रंग.
बारिश बहुत तेज है लेकिन पानी गुम हो जा रहा है
नीचे तो आता है
फिर एकाएक गायब हो जाता है
बंदूक के धुंए की तरह,
बालकनी का कपड़ा कब से धूप खोज रहा है
मेरे पास अब और कपड़े नहीं
ऑफिस के टेबल पर फ़ाइल बहुत है.
सन्नाटे को नई आवाज बार-बार चीरती है
दीपावली के बचे पटाखे भी ऐसे नहीं होते
कुछ नई बात है,
पेस्ट्री की बंद दुकान के सामने
तीन कुत्ते सो रहे हैं
काला, भूरा और चितकबरा
तीनों देशी
नहीं उसके मुल्क का फैसला होना बाकी है
इसलिए वह देशी विदेशी कुछ भी हो सकता है.
शहर दिल्ली से दूर है
दिल्ली में फोन बहुत घनघना रहे हैं
कनॉट प्लेस के सी ब्लॉक के किताब की दुकान अब बंद हो गई,
चांदनी चौक पर कुछ लोग नमाज पढ़ रहे हैं
और कुछ लोग उसकी नकल कर रहे हैं
छोटा बच्चा छत पर से पेशाब कर रहा
और खूब हँस रहा है
यह उसकी जीत है
यह उसका राज धर्म है.
शहर तो कलकत्ता से भी दूर है
जहां दुर्गा पूजा की तैयारी सवाब पर है
पार्क स्ट्रीट के बियर बार में लड़कियां डांस कर रही है
और लड़का अपना खोया कंडोम ढूंढ रहा है,
बाहर रिक्शावाला देशी शराब की कीमत पता कर रहा
और एक जुलूस एक सौ साल पुरानी मूर्ति तोड़ रहा है
आज मेट्रो में भीड़ बहुत है,
ईएम बाईपास पर ओला वाला उबेर वाले से लड़ रहा है
बात देश की जो है
देश की बात है.
समंदर वाला शहर भी तो दूर ही है
लेकिन वहां डोसा खूब बिक रहा है
कॉलेज का लड़का खारा पानी पीने की प्रैक्टिस कर रहा है,
एक आईएस ने इस्तीफा दे दिया
कुछ लोग कह रहे हैं वह मर क्यों नहीं गया,
जैसे बिहार का एक आईएस छत से कूद कर मर गया था
नहीं ट्रेन से कट कर मर गया था
कैसे भी, मर तो गया था,
मरने की आजादी तो है ही
और पता नहीं कितनी आजादी चाहिए
देश की चिंता तो किसी को है ही नहीं.
एक नेता गिरफ्तार हो गया है
उसे फांसी कब होगी
उसे सीधे फांसी क्यों नहीं होती,
एक नेता मर गया
सब क्यों नहीं मर जाते,
कुछेक को छोड़कर
जिसका चश्मा और कुर्ता मुझे पसंद है
पहलू खान हार्ट अटैक से मर गया था
अखलाक को किसी ने नहीं मारा
इंस्पेक्टर सुबोध सिंह पता नहीं कैसे मरा
लौंडे तो बस फिल्मी खबरों में व्यस्त हैं
शाहरुख की फ़िल्म क्यों पिट रही इससे परेशान हैं
लड़कियां तैमूर कब बड़ा होगा इस चिंता में दुबली हुई जा रही हैं.
ताला बनाने वाली फैक्ट्री में ताला लग गया
अच्छा हुआ राम राज्य में ताले की भला क्या जरूरत,
कामगार गांव की ट्रेन पकड़ रहे
अब खेती करेंगे
सोना उगलेंगे, देश बनाएंगे
पूरा जीवन तो अब तक व्यर्थ ही था
मकान मालिक टू लेट का बोर्ड टांग रहा है
नए किरायदार के इंटरव्यू की भी तैयारी करनी है उसे
वकील को पैसा दे कर नया एग्रीमेंट बनवाना होगा
सब बेईमान हो गए हैं पता नहीं कौन मकान हड़प ले,
तीन महीने से तो पेंशन भी नहीं आई
पान वाला सबको गाली दे रहा
अपनी फिक्र में मर रहे हैं सब साले
देश की कोई सोच ही नहीं रहा
सबको नौकरी की पड़ी है,
भ्रष्टाचार खत्म करने की किसी को चिंता नहीं
देश के लिए गोली खाने को कोई तैयार नहीं.
शहर तक ये अच्छी बातें नहीं पहुंच पा रही है
अखबार आ ही नहीं रही
सब हवा तारने में लगे हैं,
पता नहीं यह हवा कौन सी है आज की
बीस साल पहले की
सौ साल पहले की
पांच सौ साल पहले की
या दो हजार साल पहले की,
इंसान की उम्र शहर से लंबी होती है
उसे सब ठीक ठीक पता होना चाहिए.
दुबई से एक आदमी रोज शहर के मुंडेर पर दस्तक दे रहा
उसकी बीवी का दस दिन से कुछ पता नहीं,
पाव रोटी बेचने वाली बुढ़िया बेकार का रोए जा रही
बड़े शहर के लिए निकला उसका लड़का अब तक खबर नहीं भेजा,
सबकी आदत बिगड़ गई है
मोबाइल के जमाने में दो दिन बहुत दिखती है
पहले लोग आज जाते थे पन्द्रह दिन बाद उनके पहुंचने की खत आती थी,
कनाडा के टोरोंटो में नौकरी करने वाला लड़का ट्वीट कर रहा है
उसके माँ को बीपी की दवा नहीं मिली तीन दिन से
सारी दुकाने जो बंद है,
बताओ ये भी कोई बात है ट्वीट करने की
ऐसे ट्वीट से कितनी बदनामी होती है देश की
विदेश क्या जाते हैं देश को भूल ही जाते हैं,
देश के लिए कभी कोई ट्वीट नहीं करते
देश सबसे पहले होना चाहिए
देश रहेगा, देश बचेगा
तभी तो हम रहेंगे, हम बचेंगे.
सब ठीक है
सब जायज है
जो मेरे खिलाफ है वह सब नाजायज है
सब दफन कर दो
सांसे दफन कर दो
रंग दफन कर दो
मौज दफन कर दो
हवा दफन कर दो
सच दफन कर दो
जमीर दफन कर दो
सत्तर साल में वैसे भी इंसान बूढ़ा हो जाता है
उम्र बेहिसाब ठीक नहीं
उसका भी एक तकाजा है
कब्र तक जाते पैरों का थका होना जरूरी है.

 

6. गुस्ताख
बंद आँखे जो देखती हैं
वह खुली आंखें क्यों नहीं देखती
एक आँख और कितनी विसंगतियां
यह खेल जेहन का है
या दिखते दृश्यों का,
अवांछित, अपरिचित, असत्य के बीच पलता स्वप्न
अपनी रेखा क्यों लांघता है बार-बार
जिंदगी कितनी बार हारना मुमकिन है
बंधे हाथ खुले कब थे
पैर बेड़ियों से जकड़े हैं
और पसीना जंग हार रहा है.
साफ रौशनी, हवा, आसमान
हँसते बच्चे,
पुरसुकूं माँ
राग मल्हार और हरे भरे उगते खेत
वर्ल्ड कप की जीत
कॉर्डलेस पर लता मंगेशकर
और माइकल जैक्सन
टेबल पर प्रिय कवि की कविता
तुम्हारी तस्वीर
और आधा बचा सिगरेट जिसमें यह शाम गुजारनी है
क्या बंद आँखों का गुनाह बड़ा है.
सीधे फेफड़े में घुसकर
अपना घर बसा रही मटमैली काली हवा
चाय की दुकान पर दौड़ता और गाली सुनता बच्चा
थकी हुई, डरी हुई, सहमी माँ
भरोसा छोड़ कर हताश लेटा पिता
एक टोपी वाले को नोचती भीड़
कब से खराब पड़ा म्यूजिक सिस्टम
अस्वीकृत, असहमत, थका हाथ
खुली आँखे किस अपराध का बदला ले रही है.
आवाह्न,
एक तस्वीर बनाओ
और उसमें सारे रंग भर दो
एक कागज पर सारे सपने लिख कर पुड़िया बना कर उड़ा दो
इंद्रधनुष को गले से लटका कर सबसे बड़े समंदर का एक चक्कर लगा आओ
इस धरती पर रात और सुबह एक नहीं अनेक है
यह एक बार में है अलग-अलग है
यह हमेशा से ऐसा ही है
तुम सो जाओ
मैं भी सोता हूँ.

 

7. आधी दुनिया
(सूरज एक ही है और चाँद भी एक ही, एक घर में एक ही नेमत जाती है फिर इसे बांटने वाला तो ईश्वर से भी बड़ा हुआ?)
यह भटकती आवाज किसकी है?
कटती, छटती, पिघलती,
दूर होती फिर भी सुनाई पड़ती
साफ-साफ इतने बरस दूर हो के भी,
एवरेस्ट का पैर क्यों इतना बड़ा है जो थोड़ा झुक नहीं सकता
अपना कान थोड़ा नीचे करता और सुनता यह आवाज
जो न जाने कब से पहाड़ों में छुपाई गई है
महागाथाओं की बलि चढ़ाई गई है.
क्या यह मुमताज महल है?
जो घने जंगलों में वट वृक्ष के खोल से प्रसव पीड़ा सुनाना चाहती है,
अगाध प्रेम की मिसाल बने ताजमहल के नीचे दबे चौदह बच्चे
और उनमें से सात की मौत की कहानी भी,
कोई सुनेगा सफेद संगमरमर के इस मकबरे में बैठकर
नहीं कोई नहीं सुनेगा,
एवरेस्ट बस अपनी ऊंचाई पर इतरायेगा
ऐसी हर तड़प को वह अनसुना कर देगा.
क्या यह रूटी जिन्ना है?
जो माउंट पेटिट बिल्डिंग की रात बयां कर रही है,
जिसके उस रात छोड़े गए विद्रोही खत की अब बात नहीं होती
और हनीमून की रात बेमन का क़ायदे आजम से हमबिस्तर होने से इंकार करने की आवाज भी अब नहीं आती,
सुनो तो वह कह रही कि “सेक्स और तीज-त्यौहार रोज-रोज नहीं आते”
कैसे नहीं सुन पाते हम यह आवाह्न
और फिर भी उनकी ही बात हर तरफ होती है
सभाओं में, नारों में, टीवी में, अखबारों में
इनसॅममनिया की दलहिज पर लिखी गई इबादत की बात कोई क्यों करे,
“अपनी नफरत को देश की नफरत में मत बदलो”
– अपने पिता के उम्र के प्रेमी,
पति और सरहद-सरहद खेलते वकील से कही उसकी यह आवाज
दुनिया की हर दीवार पर क्यों नहीं है,
ताज होटल के सूइट में रुकती उसकी सांसों की देनदारी भी अब तक बाकी है
एवरेस्ट यह भी नहीं सुनेगा
वह सिर्फ तारीख की फरमाइश पूरी करना चाहेगा.
क्या यह आवाज कस्तूरबा की है?
जो अपनी तमाम आपत्तियां सुनाना चाहती है
भूख, ख्वाबों की बात बताना चाहती है
जिसका हर रोज दमन जरूरी है.
अदरक की वह गांठ,
चाय, कॉफी का वह स्वाद
और उसके सपनों की बात,
आभा, कंचन, वीणा पर टिकी आँखें
उनके साथ सुबकती आँखें
हर हकीकत बांचना चाहती है,
घर परिवार की चिंता,
कटनी स्टेशन पर
महामानव के कदमों में लोटते भीड़ को चीर कर चीथड़ों में लिपटे हरिलाल की चीख
“माता कस्तूरबा की जय”,
फीनिक्स की कुटिया से बीच-बीच में जोर जोर से आती आवाज,
सुनाई दिया,
महान प्रयोगों से अपने रसोई की घेराबंदी में उलझी हसरतें,
आगा खां पैलेस में
महामानव की चिंता में आत्मा को रोकने की हर कोशिश करती सांसे,
किसने सुना, कहीं, कभी,
अभी सुनने लगे सब
ऐसी सहर तो हुई नहीं,
अंधेरों की कब्र पर उजाला गढ़ने की कहानी कब पूरी हुई है.

 

8. आहुति
ईश्वर बनना आसान नहीं
वह इंसान के बस में भी नहीं
ईश्वर यह जोखिम नहीं उठा सकता था
आदमी फिर भी हार मानने को तैयार नहीं.
सभ्य बनना भी आसान नहीं
आदमी हजारों साल से
आहुति दे रहा.
लेकिन
सभ्य होने
बनाने के लिए
रोज बन रहे हर नए संविधान में
पहले पन्ने पर
प्रस्तावना के अंदर ही
यह तय हो जाना चाहिए कि
आदमी
एक जिंदगी में
कितनी बार मरेगा
कितनी बार उसे दफन किया जाएगा
कितनी बार लोग
उसकी लाश के चारो तरफ बैठकर रोएंगे
और अफसोस करेंगे.

 

9. देह
देह
कितना कुछ कह गई
जो दो जन्म पुरानी मेरी प्रेमिका से भी छुपा था
जिसे मैं हमराज समझता था
आज उसके उलाहनों के बीच खुश हूँ,
वह रूठ कर उसी जन्म में
मेरा अब इंतजार करेगी
लेकिन मैं पीछे नहीं
आगे जाने की तैयारी में हूँ
अब उससे तब मिलूंगा
जब यह राज उससे भी वाबस्ता होगा.
मन
थाह लेने की हवस
कितना कुछ उलझाता रहा
वंचित करता रहा,
सबकुछ मन का ही तो नहीं
कुछ देह का भी तो है.
वर्जना
अकेली नहीं
हर तरफ समूह में है
इसका मोह भी
एक गुनाह है,
यह बोध
जन्म के साथ बंधा अपराध है
लेकिन यह है
और यह भी एक सच है.
गंध
जिस संसार का मूल है
वह इससे ही भागता रहता है
स्याह सफेद घेरे
दरवाजे बंद रखने के तर्क हैं
प्रायोजित विमर्श है.
भाषा
प्रतिबिंबित हर रंग को
खुद में ढाल लेती है,
ओह! उसका मोहपाश
वह कृत्रिमता की हर हद को पार कर भी
प्रासंगिक है
एक मन उसके पास भी तो है.
देह
इस भाषा से भी
लड़ती है
उसके अंदर के मन से भी मिलती है
अनंत शिकायतों के बावजूद
संवाद करती है
और उसे वह सबकुछ कहती है
जो
सिर्फ वही जानती है
वही कह सकती है.

 

10. शापित लोग
फेंके जाते लोग
कमरे से, घर से
मुल्क से,
अपनी लिबास, हैंडबैग
और रिश्तों के साथ
इकट्ठे क्यों नहीं हो जाते.
रोज तो इतने फेंके जा रहे हैं
सीरिया में
अमेरिका में, पाकिस्तान में
भारत में
कोरिया में, अफ्रीका में
हॉन्गकॉन्ग में.
लोग समूह में फेंके जा रहे हैं
और अकेले भी
लेकिन समूह में फेंके गए रोहिंग्या मुसलमान
पाकिस्तानी हिंदू
और अकेले फेंकी गई
अरब की राजकुमारी
दोनों के पैर उतनी ही तेजी से भाग रहे थे
आँखे पीछे घूम-घूम उतनी ही बार देख रही थी,
मुल्क तो किसी के पास नहीं
दुनिया तो किसी की नहीं
सब मिल के एक मुल्क क्यों नहीं बनाते.
सभ्यताओं के पाप की सजा भोगने वाली नस्लें
इस धरती पर अपना दावा क्यों नहीं ठोकती,
वे क्यों नहीं समझते कि
डायनासोर
और उसका खेल
उन्हें कहीं जीने नहीं देगा
उन्हें दो गज जमीन मयस्सर नहीं होगा
हजारों साल से भाग रहे लोगों को रुकना होगा
कोई एक ठौर ढूंढना होगा.
एक दीवार गिरती है
चार दीवार उठ जाती है
जर्मनी एक क्या हुआ
सोवियत संघ ने उसका बदला ले लिया,
कहां तो कोरिया एक हो रहा था
और अब वह मोटा राजा मेक्सिको की दीवार में बिजली के करंट लगा रहा है.
जितनी बड़ी दीवारें हैं
उससे ज्यादा उसके अंदर छोटी-छोटी दीवारें हैं
कोई गली को घेर कर किसी को मन्दिर जाने से रोक रहा
तो कोई अपने रास्ते से लाश नहीं जाने दे रहा,
जितने घेरे उतने तरह के वाशरूम और उसके बाहर नो एंट्री का बोर्ड है
ये कभी गिरेंगी नहीं
ये कभी मिटेंगी नहीं
पांच अरब शुक्राणुओं के बीच का संघर्ष तो लाखों साल पुराना है.
वह जिसकी बेटी पीछे छूट गई
वह जिसकी माँ को कब्र नसीब नहीं हुआ
वह जो सालों से सलाखों में सड़ रहा
वह जिसके पास वापसी का टिकट नहीं
वह जिसके पास किसी मुल्क का पासपोर्ट नहीं
सबके आंखों के सूखे आँसू काफी हैं
सारे समंदर समाने को
एक प्रलय लाने को.
बुर्ज खलीफा, शंघाई टावर, वन वर्ल्ड सेंटर
के सबसे ऊपरी मंजिल में बीयर पी रहे गोरे को
गढ़चिरौली में भात मांगने पर लात खाता आदमी
हिन्द महासागर में फेंका जाने वाला आदमी
कभी नहीं दिखेगा
अंतरिक्ष में लगा दूरबीन
धरती के हर कोने से सुइयां चाहे जितनी खोज ले.
क्रांति, विद्रोह सब वाहियात है
ढकोसला है,
फेंके जाने वाले लोग
और कुछ नहीं करें
बस एक टुकड़ा खरीद लें
एक टापू जिसपर सिर्फ आने का रास्ता हो
वहां से लौटने का नहीं
जहां सिर्फ फेंके जाने वाले लोग पहुँचे
और जिंदा रहें
बिना घर के
बिना दरवाजे के
बिना कायदों के
बिना किसी पासपोर्ट के
बिना किसी मुल्क वाले नाम के
बस एक बोर्ड लगा हो
जिस पर लिखा हो
‘यहां धरती की एकमात्र जिंदा कौम रहती है’.

 

11. बँटवारा
वह माँ कब से नहीं सोई
जमीन के बंटवारे की लड़ाई में
जिसके तीनों बेटे जेल में हैं.
सीमा पर जंग छिड़ी है
मन्दिर मस्जिद के दीवार टकरा रहे,
बिहारी टैक्सी वाला
मुंबई के सड़कों पर पिट रहा,
चेन्नई में हिंदी की किताबें जलाई जा रही हैं.
पेशावर से चली ट्रेन दिल्ली नहीं पहुंची
गाजापट्टी में तीन दिन से बमबारी नहीं हुई,
प्रभाकरन फिर से जिंदा हो गया है
वीरप्पन की लाश पानी मांग रही है.
बंगलोर का नेता नए संविधान की बात कर रहा
अंबेडकर के अनुयायी सड़क पर टायर जला रहे
सद्दाम हुसैन ट्रेनिंग कैंप चला रहा
जिसकी फंडिंग ओसामा बिन लादेन कर रहा
आईएसआईएस प्रमुख दोनों को मारने की साजिश में ट्रंप के ड्रॉइंग रूम में मीटिंग कर रहा
ब्लादिमीर पुतिन नया विश्वविद्यालय खोल रहा
जिसमें हिटलर, मुसोलिनी डायरेक्टर होंगे
बोकोहरम का जत्था परमाणु बम चुराने की फिराक में पाकिस्तान में है.
सूरज तीन दिन मुंह फुलाकर बैठा रहा
मंगल, शुक्र क्या चांद भी मनाने नहीं गया
थक हारकर सूरज लाज बचाने के लिए खुद ही बाहर निकल आया
वृहस्पति, शुक्र नारद के साथ इंद्र से मंत्रणा कर रहा
बंटवारा रोकने का कोई फॉर्मूला ढूंढ रहा.
डार्विन शुक्राणु में तब्दीली की सलाह दे रहा
मत्स्य चक्र को जड़ से मिटाने की बात कर रहा
आइंस्टाइन निराश हो कर नए ग्रह पर नए सिरे से आबादी बसाने की योजना बना रहा.
विश्व धर्म सभा की आठ साल की मंत्रणा के बाद जो बुलेटन निकला उसकी घोषणा के वक्त
विभिन्न धर्म गुरु आपस में लड़ने लगे
कितनों के हाथ टूटे
कितनों के दांत टूटे
लेकिन पैर किसी का नहीं टूटा
सर भी नहीं फूटा
और जबान भी नहीं कटी.
जर्नलिस्ट के प्रश्नों से उकताकर प्रवक्ता बोल रहा-
कोई उस तरफ
कोई इस तरफ
एक आड़ी लाओ
और जो जितनी तरफ
धरती को चीर कर उतने टुकड़े कर दो
दे दो सबको
उसकी अपनी पृथ्वी
अपना ब्रह्मांड.

 

12. तारीख के पास अपनी नजर है
बंद खिड़कियां
हमेशा बंद नहीं रहेंगी
कभी तो खुलेंगी
तब पहुंचेगी हवाएं, धूप,
दहलीज से लौटती आवाजें
और इंद्रधनुष,
दुनिया तब तक
जरूर बची रहेगी.
प्रलय बहुत कुछ मिटा देता है
पर सबकुछ नहीं,
ज्वालामुखी के तलहटी में भी
पेड़ उग आते हैं,
जिंदगी इतनी अबूझ तो हमेशा रहेगी
धरती मिटने के लिए नहीं बनी
यह अविजित ही रहेगी.

तारीख अपनी आंखें कभी बन्द नहीं करती
उसके पास सबका हिसाब है,
खिड़की बंद करते हाथों का भी
प्रलय गाथा गाते चीलों का भी
नींद से जगाते रंगो का भी
फुहार बन कर बरसती बूंदों का भी
सबको अपना हिस्सा जरूर मिलेगा

 

13. गुलामों के वंशज
धरती का बोझ सिर्फ चार हाथ पर
जो इसे आरंभ से थामे है
सभी हाथ सोने के
और उंगलियां हीरे के
कोहनी लोहे के,
नोवा स्कोटिया के गुलामों के वंशज काले लोग अपनी छत पर खड़े हो कर
इन हाथों को रोज निहारते हैं
दूरबीन से खोजते हैं अपना सूखा खून
उसी छत पर कनाडियन झंडा खूब लहराता है,
अमेरिका का इंडिपेंडेंस डे इस साल भी भव्य होगा
आजादी बड़ी बात है.
सोनागाछी की सबसे महंगी वेश्या
जो तीन दिन पहले ही
इवीनिंग शो में सलमान की फ़िल्म देख कर आई थी
कल आधी रात को एकाएक मर गई,
हॉस्पिटल ले जाने का मौका भी नहीं मिला
उसे बाइज्जत दफना दिया गया
उसी रात.
उसके हीरे की अंगूठी
जो उसे मोटे सेठ ने पिछले साल ही दी थी
उसके साथ रहने वाली हिना को मिली.
आज हिना उसी के इम्पोर्टेड ड्रेस में धंधे पर निकली है
अब जब वह अपने कपड़े उतारेगी
आधी दुनिया उसके साथ नंगी हो कर नाचेगी.
देसी भूरा कुत्ता बीच सड़क पर ट्रक से टकरा कर मर गया
शोर, खीझ, गुस्सा
कुत्ता साला
देख कर सड़क पार नहीं कर सकता था
इतनी बड़ी गाड़ी नहीं दिखी
चमचमाती सड़क गंदी हो गई,
नियामकों की बड़ी बैठक हुई
एक घण्टे तक मंथन
और
मंगल ग्रह पर बन रही बस्ती पर जाने वालों की लिस्ट से
कुत्ते को हटा दिया गया.
इंतजार करने वाले लोग बीमार होते हैं,
लोहे की कोहनी
और हीरे की अंगुली वाले चारों हाथ
कभी नहीं थमेंगे
कभी नहीं थकेंगे,
अब उसकी नजर पूरे ब्रह्मांड के बोझ पर है.

 

14. अफीम
(पहले अफीम खेतों में उगाई जाती थी अब हथेली पर उगाई जाती है)
मेरी खिड़की के बाहर की हवा जब बदली तब भी मैं जगा ही था
पर यह कुछ इस कदर मटमैली है अब पता चला,
लंबी रात और रतजगा का आदी यह शहर तो पहले भी था
लेकिन सोचा न था कि पतझड़ इन अंधेरों से मिल जाएगी
अब जो दिख रहा हर तरफ वह मेरा दिखता ही नहीं.
नीचे झील तक जाती सड़क अब टुकड़ों में बिखरी सी है
न जाने कितने मोड़ों में खो गई है,
कभी सफेद बर्फ इसे नहलाती थी
अब बर्फ किसी और ठिकाने की तलाश में है.
झील में बहती नाव अब अपनी जगह ठहरे पड़े हैं
उसमें बैठे लोग नींद की आगोश में हैं,
कोई उन्हें जगा भी नहीं रहा
नाव चलाने वाला किनारे के पेड़ों से लड़ रहा है
हर पेड़ को जमींजद कर रहा है,
उसकी दुश्मनी समझ में नहीं आती
दुश्मनी तो किसी की समझ में नहीं आती.
वह दूध सी गोरी, लंबी चोटी वाली लड़की
जो रोज बारह बजे अपने बाप के दुकान पर टिफिन देने जाती थी
और लौटते वक्त लाल चौराहे पर इंतजार कर रहे अपने लंबे नाक वाले प्रेमी से बतियाती थी
वह भी बहुत दिन से नहीं दिखी,
लोग कहते हैं उसे एक जख्म था
जिसे नासूर बना दिया गया
और फिर सबने खूब जश्न मनाया.
शहर अब भी मेरा ही है पर इस नई वाली रंगत ने मुझे ही अजनबी बना दिया है
मैं किसे कितना देखूं इस खिड़की से
अब सबकी निगाहें मुझे ही घूरने लगती है,
सब मुझे ही विक्षिप्त समझते हैं
जबकि मेरी कहानी हमेशा सच्ची ही थी.
उस दिन जब ट्रेन बर्फ वाली पटरियों पर कोहरा बनाती चली आ रही थी
लाल सलवार वाली औरत
उसी पटरी पर अपनी दो साल की पीली फ्रॉक वाली बेटी के साथ दौड़ रही थी
पता नहीं शहर से बचने के लिए या इस दुनिया से,
लेकिन दोनों गिर गए
फिर एक और लाल साड़ी वाली औरत उन्हें बचाने को दौड़ी और अदृश्य हो गई,
मुझे इतना ही पता है
क्योंकि मैंने इतना ही देखा है,
पर अब सब मुझ पर हंसते हैं
इसे अधूरी समझते हैं.
कहानी पूरी करने का जुनून तो अब पूरे शहर पर है
अंत जो दिखाया गया उस तक पहुँचने की जल्दी
उसकी तासीर से किसी को वास्ता नहीं,
अफीम जब साँसों में घुली हो तो समझ अपना रंग बदल ही लेती है
सुर्ख गहरा अफिम अब हर नजर पर हावी है,
जिसे लोग जन्नत बनाने की बात कर रहे
मेरे लिये वह तो जहन्नुम की तैयारी है,
पर मेरी समझ की कीमत क्या है
जरूरत क्या है?
मैंने तो अब तक सफेद बारिश देखी थी
पानी को बहकर खेतों तक जाते देखा था
फसलों की तकदीर बनते देखा था,
लेकिन अब बारिश से सबको बहुत शिकायत है
लोग भींग जो जाते हैं
रेनकोट भी ठीक से काम नहीं करता
अब फसल की बात करने की भी मनाही है.
सबकुछ साफ सुंदर करने बनाने की बात हर तरफ है
हर कायदे की सफाई जारी है,
हवा की भी गन्ध रंग बदली जा रही है
जो मुझे कभी मटमैली तो कभी कारतूस के गन्ध वाली महसूस होती है,
हर डाल पर अब किसी न किसी की मौजूदगी है
परिंदों के पैरों में भी डोर बंधी है.
शहर का हर तरफ से घेराव
आसमान तक की पहरेदारी
इजाजत, इजाजत, इजाजत
हुक्म, हुक्म, हुक्म
के शोर
और करोड़ो सीसीटीवी कैमरों के बीच
सबकुछ तेजी से बदल रहा है,
सीसीडी, बरिस्ता के फोटो
लड़के-लड़कियों के लिबास
मेट्रो का सन्नाटा
बस की बहस
फिल्मों के गीत
कहानी का अंत
ऑफिस का किस
बाजार का सेक्स
और सब खुश हैं
या सब चुप हैं
या कुछ बोल रहे बाकी सब चुप हैं.
शहर भी खामोश है या सहम गया है
समझ नहीं आता,
मेरी खिड़की भी अब दीवार में बदल रही है
मुझसे मुंह फेरने की बहाने ढूंढ रही है.

 

15. फांस
इतिहास, भूगोल, विज्ञान के बीच
बने, बटे और बिखरे पद चिन्हों को ढूंढने के लिए
सागर मंथन की जरूरत नहीं,
आकाश अपना सिरा खुद संभालता है
अंतरिक्ष ब्लैक होल की भी दास्तां है.
जो हमने रचा वही हमारा है
परिवर्तित समाधियों की विरासत
उलझीं सभ्यताओं की फांस नहीं निकाल पाएगी,
सोना होगा पुराने कब्र में
पूरे दो दिन और दो रात
पूछना होगा हर सवाल
और नोट करना होगा हर जवाब
काले खून से बने स्लेट पर.
गांधी पर चली गोली
हिटलर को लगी गोली
के बीच की दूरी
और
आवाज के कंपन
बारूद के रंग
अंगुली के छाप
के बीच के फर्क
में ही होमोसेपियंस की पूरी कहानी है,
जितना भूत है
उससे ज्यादा वर्तमान है
और उससे भी ज्यादा भविष्य है,
गोली चलती रहेगी
होमोसेपियंस का वजूद गढ़ता जाएगा.

 

 

 

(कवि प्रभात प्रणीत

जन्म:- 7 अगस्त 1977 को वैशाली, बिहार
शिक्षा:- बी.टेक.
किताब:-प्रश्नकाल (काव्य संग्रह)
विद यू विदाउट यू (उपन्यास)

सम्पर्क: prabhatpraneet@gmail.com

टिप्पणीकार कुमार मुकुल जाने माने कवि और स्वतंत्र पत्रकार हैं सम्पर्क: kumarmukul07@gmail.com)

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