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उर्दू की क्लास : शब्बा ख़ैर या शब बख़ैर ?

( युवा पत्रकार और साहित्यप्रेमी महताब आलम की शृंखला ‘उर्दू की क्लास’ की नौवीं क़िस्त में शब बख़ैर के मायने के बहाने उर्दू भाषा के पेच-ओ-ख़म को जानने की कोशिश. यह शृंखला हर रविवार प्रकाशित हो रही है. सं.) 

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शुभ रात्रि या गुड नाईट के लिए “शब्बा ख़ैर” लफ्ज़ का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है। लोग “शब्बा ख़ैर” लिखते हैं और बोलते हैं। लेकिन असल शब्द “शब्बा ख़ैर” नहीं बल्कि “शब-ब-ख़ैर” या “शब-बख़ैर” है। दरअसल उर्दू में “शब्बा ख़ैर” जैसा कोई लफ्ज़ है नहीं है जिसका इस्तेमाल शुभ रात्रि के लिए होता हो।

उर्दू  में जो शब्द हैं वो है, شب بخیر न कि شبا بخیر या شب باخیر . लेकिन क्योंकि ज़्यादहतर लोग लिपि से वाक़िफ़ नहीं है इसीलिए जैसे सुनते हैं वैसे बोलते और लिखते भी हैं।

मेरी समझ में “शब-बख़ैर” को “शब्बा ख़ैर” लोग इसलिए बोलते हैं क्यूंकि सुनने में ऐसा लगता है कि “शब्बा ख़ैर” बोला जा रहा है। इसकी सबसे पॉपुलर मिसाल है “जंगली” है फ़िल्म का गाना,”मेरे यार शब्बा ख़ैर”।

अक्सर लोग “शब-बख़ैर” लफ्ज़ का मतलब समझाने के लिए इस गाने का मिसाल भी देते हैं। चूँकि गाने में “शब्बा ख़ैर” जैसा सुनाई देता है इसीलिए लोगों को लगता हैं कि असल शब्द यही है।

“तारिक़” और “तारीक” का फ़र्क़

“तारिक़ फ़तेह”, “तारिक़ अनवर”, “तारिक़ बिन ज़ियाद” और “तारिक़ जमील” जैसे नाम तो आपने सुने ही होंगे। और फ़ैज़ (अहमद फ़ैज़) साहब का ये कलाम भी सुना होगा :

“मुख़्तसर कर चले दर्द के फ़ासले

कर चले जिन की ख़ातिर जहाँगीर हम

जाँ गँवा कर तिरी दिलबरी का भरम

हम जो तारीक राहों में मारे गए”

अगर ध्यान न दिया जाये तो ऐसा लगेगा कि “तारिक़” और “तारीक” दोनों का मतलब एक ही है/ होगा और कई बार ऐसा लोग बोलते/समझते भी पाये गये हैं।जबकि ऐसा नहीं है।वो इसलिए क्योंकि :

“तारिक़” मतलब का मतलब होता है “सुबह का तारा” या “रात में आने वाला”। ये अरबी का शब्द है।

वहीं दूसरी तरफ़ “तारीक” का मतलब होता है : अंधेरा /dark. जिस सेंस में फ़ैज़ साहब के कलाम में इस्तेमाल हुआ है।

इसी तरह नासिर ज़ैदी का ये शेर भी देखें :

“फैलती जा रही है तारीकी

शाम महसूस कर रही है थकन”

इसलिए जब कोई “तारिक़” नाम के व्यक्ति को “तारीक” कहकर पुकारता/बुलाता है तो ये समझ लीजिये कि या तो उस इंसान के साथ भद्दा मज़ाक़ किया जा रहा है या बोलने वाले को पता नहीं कि वो क्या बोल रहा है !

 

 

(महताब आलम एक बहुभाषी पत्रकार और लेखक हैं। हाल तक वो ‘द वायर’ (उर्दू) के संपादक थे और इन दिनों ‘द वायर’ (अंग्रेज़ी, उर्दू और हिंदी) के अलावा ‘बीबीसी उर्दू’, ‘डाउन टू अर्थ’, ‘इंकलाब उर्दू’ दैनिक के लिए राजनीति, साहित्य, मानवाधिकार, पर्यावरण, मीडिया और क़ानून से जुड़े मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं। ट्विटर पर इनसे @MahtabNama पर जुड़ा जा सकता है ।)

( फ़ीचर्ड इमेज  क्रेडिट : यू ट्यूब   )

इस शृंखला की पिछली कड़ियों के लिंक यहाँ देखे जा सकते हैं :

उर्दू की क्लास : नुक़्ते के हेर फेर से ख़ुदा जुदा हो जाता है

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उर्दू की क्लास : जामिया यूनिवर्सिटी कहना कितना मुनासिब ?

उर्दू की क्लास : आज होगा बड़ा ख़ुलासा!

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